बुध शांति के उपाय | बुध शांति मंत्र – Budh shanti 6th

बुध शांति विधि, बुध शांति के उपाय

बुध शांति

आधार : बुध शांति के लिये भी कर्मठगुरु में वर्णित विधि का आधार ग्रहण किया गया है।

मुहूर्त : बुध शांति के लिये बुधवार के दिन यदि विशाखा नक्षत्र प्राप्त हो तो उस दिन से नक्त व्रत का आरम्भ करना चाहिये और 7 बुधवार तक नक्त व्रत करना चाहिये। सातवें बुधवार के दिन विधिवत बुध शांति करनी चाहिये। प्रथम बुधवार को विशाखा नक्षत्र का योग बुध शांति के मुहूर्त का विशेष निर्धारक है। सातवें बुधवार को अन्य शांति मुहूर्त या अग्निवास आदि देखने की आवश्यकता नहीं होती।

नियम : प्रथम बुधवार से ही नक्तव्रत करे।

मंत्र जप : मंत्र जप का तात्पर्य निर्बलता और अशुभता दोनों का निवारण करना है। बुध के लिये मंत्र जप की संख्या 8000 बताई गयी है। यदि 8000 जप करना हो तो स्वयं 7 बुधवार को किया जा सकता है किन्तु यदि चतुर्गुणित अर्थात 32000 जप करना हो तो 15 ब्राह्मणों की आवश्यकता होगी जो 32000 जप करेंगे। आचार्य अलग से होंगे।

शांति कब करे : जैसा की बताया जा चुका है विशाखा नक्षत्रयुक्त बुधवार से नक्तव्रत का आरम्भ और बुध की अर्चना करे। इस प्रकार से प्रत्येक बुधवार को करते हुये सातवें बुधवार को शांति करे। अथवा यदि तत्काल आवश्यक हो तो उस समय किसी भी बुधवार को अथवा बुध नक्षत्र में किया जा सकता है। उस समय अग्निवास का विचार करना अपेक्षित होगा।

बुध शांति विधि, बुध शांति के उपाय
बुध शांति विधि

बुध शांति विधि

पूर्वोक्त विधि से 6 बुधवार व्रत करके सातवें बुधवार को बुध शांति करे। शांति हेतु पूजा स्थान पर मध्य में हवन वेदी बनाये व पूर्व में बुध पूजा निमित्त वेदी (अष्टदल) बनाये। ईशानकोण में नवग्रह वेदी बनाये। नवग्रह वेदी के ईशान कोण में कलश स्थापन हेतु अष्टदल बना ले। सातवें बुधवार को प्रातः काल पूर्ववत नित्यकर्म संपन्न करके भगवान सूर्य को ताम्र पात्र में रक्तपुष्पाक्षतयुक्त जल से अर्घ्य देकर पूजा स्थान पर सपत्नीक आकर आसन पर बैठे :

तत्पश्चात त्रिकुशा, तिल, जल, पुष्प, चन्दन, द्रव्यादि लेकर संकल्प करे। यहां ऐसा माना जा रहा है कि जप पूर्व ही कर लिया गया होगा। यदि जप भी शांति के दिन ही करना हो तो संकल्प में जप को भी जोड़ ले। यदि जप नहीं करना हो तो जप न जोड़े।

संकल्प : ॐ विष्णुर्विष्णुर्विष्णुः श्रीमद् भगवतो महापुरूषस्य, विष्णोराज्ञया प्रवर्तमानस्य अद्य ब्रह्मणोऽह्नि द्वितीये परार्धे श्रीश्वेत वाराहकल्पे वैवस्वत मन्वन्तरे अष्टाविंशतितमे कलियुगे कलि प्रथमचरणे भारतवर्षे भरतखण्डे जम्बूद्वीपे आर्यावर्तैक देशान्तर्गते ………… १ संवतसरे महांमागल्यप्रद मासोतमे मासे ………. २ मासे ………… ३ पक्षे ………… ४ तिथौ …………५ वासरे ………… ६ गोत्रोत्पन्नः ………… ७ शर्माऽहं (वर्माऽहं/गुप्तोऽहं) ममात्मनः श्रुति स्मृति पुराणतन्त्रोक्त फलप्राप्तयर्थं मम कलत्रादिभिः सह जन्मराशेः सकाशात् नामराशेः सकाशाद्वा जन्मलग्नात् वर्षलग्नात् गोचराद्वा चतुर्थाष्टमद्वादशाद्यनिष्ट स्थान स्थित बुधेन सूचितं सूचीष्यमाणं च यत् सर्वारिष्टं तद्विनाशार्थं सर्वदा तृतीयैकादश शुभस्थानस्थितवदुत्तमफल प्राप्त्यर्थं तथा दशांतरदशोपदशा जनित पीडाल्पायुरधिदैवाधिभौतिक आध्यात्मिक जनित क्लेश निवृत्ति पूर्वक दीर्घायु शरीरारोग्य लाभार्थं परमैश्वर्यादि प्राप्त्यर्थं श्रीबुध प्रसन्नतार्थं च बुधशांति करिष्ये ॥

(१ संवत्सर का नाम, २ महीने का नाम, ३ पक्ष का नाम, ४ तिथि का नाम, ५ दिन का नाम, ६ अपने गोत्र का नाम, ७ ब्राह्मण शर्माऽहं, क्षत्रिय वर्माऽहं, वैश्य गुप्तोऽहं कहें)

  • तत्पश्चात पुण्याहवाचन करे।
  • फिर आचार्यादि वरण करके दिग्रक्षण करे।
  • फिर हवन विधि के अनुसार पञ्चभूसंस्कार पूर्वक अग्निस्थापन करे।

अग्नि स्थापन विधि

  1. परिसमूह्य : ३ कुशाओं से स्थण्डिल या हस्तमात्र भूमि की सफाई करें। कुशाओं को ईशानकोण में (अरत्निप्रमाण) त्याग करे । 
  2. उल्लेपन : गोबर से ३ बार लीपे।
  3. उल्लिख्य – स्फय या स्रुवमूल से प्रादेशमात्र पूर्वाग्र दक्षिण से उत्तर क्रम में ३ रेखा उल्लिखित करे।
  4. उद्धृत्य – दक्षिणहस्त अनामिका व अंगुष्ठ से सभी रेखाओं से थोड़ा-थोड़ा मिट्टी लेकर ईशान में (अरत्निप्रमाण) त्याग करे।
  5. अग्नानयन व क्रव्यदांश त्याग – कांस्यपात्र या हस्तनिर्मित मृण्मयपात्र में अन्य पात्र से ढंकी हुई अग्नि मंगाकर अग्निकोण में रखवाए । ऊपर का पात्र हटाकर थोड़ी सी क्रव्यदांश अग्नि (ज्वलतृण) लेकर नैर्ऋत्यकोण में त्याग कर जल से बुझा दे ।
  6. अग्निस्थापन – दोनों हाथों से आत्माभिमुख अग्नि को स्थापित करे :- ॐ अग्निं दूतं पुरोदधे हव्यवाहमुपब्रुवे । देवां२ आसादयादिह ॥ अग्नानयन पात्र में अक्षत-जल छिरके।
  7. अग्निपूजन-उपस्थान – अग्नि को प्रज्वलित कर पूजा करे, नैवेद्य वायव्यकोण में देकर स्तुति करे : ॐ अग्निं प्रज्वलितं वन्दे जातवेदं हुताशनं। हिरण्यवर्णममलं समृद्धं विश्वतोमुखं ॥

अग्नि स्थापन करने के बाद अग्नि रक्षणार्थ पर्याप्त ईंधन देकर आगे का पूजन कर्म करे।

  • फिर नवग्रह मंडल स्थापन-पूजन करे।
  • फिर नवग्रह मंडल के ईशान में अष्टदल बनाकर कलश स्थापन पूजन करे।
  • हवन वेदी के पूर्व में अन्य वेदी पर अष्टदल बनाकर, चावल के पुञ्ज पर मृण्मय कलश स्थापन करे पूर्णपात्र हेतु कांस्य का प्रयोग करे।
  • फिर बुध की सुवर्ण प्रतिमा का अग्न्युत्तारण करके कलश पर रखे ।
  • उन्हें युगल शुक्लवस्त्र, शुक्ल गंधपुष्पाक्षत आदि से युक्त करके फिर षोडशोपचार पूजन करे।
  • तत्पश्चात ब्रह्मावरण करके आगे का हवन कर्म करे। यदि जप किया गया हो तो जप का दशांश होम करे, अन्यथा अष्टोत्तरशत अथवा अष्टोत्तरसहस्र करे। हवन द्रव्य : दधि-मधु, घृताक्त अपामार्ग समिधा, शाकल्य सहित।
  • आरती आदि करके मृण्मयकलश में नदीसंगम का जल दे।
  • फिर मृण्मयकलश के जल से आचार्य यजमान का अभिषेक करें।
  • फिर ग्रहस्नान करके बुध प्रतिमा, नीलवस्त्र, सुवर्ण, कांस्य, मुद्ग (मूंग), गरुत्मत (पन्ना),हस्तिदंत,पुष्पादि आचार्य को प्रदान करे।
  • दान मंत्र : ॐ बुध त्वं बुद्धिजननो बोधवान् सर्वदा नृणाम्। तत्त्वावबोधं कुरु मे सोमपुत्र नमो नमः ॥

बुध मंत्र जप विधि

विनियोग : ॐ उद्बुध्यस्वेति मंत्रस्य परमेष्ठि प्रजापति ऋषिः, त्रिष्टुप् छन्दः बुधो देवता बुध प्रीत्यर्थे जपे विनियोगः॥

न्यास विधि :

देहन्यास : ॐ उद्बुध्यस्वेति शिरसि ॥ अग्ने प्रति ललाटे ॥ जागृहि त्वं मुखे ॥ इष्टापूर्त्ते हृदये ॥ पतिः उदरे ॥ स ᳪ सृजेथामयं च नाभौ ॥ अस्मिन्त्सधस्थे कट्यां ॥ अध्युत्तरस्मिन् ऊर्वोः ॥ विश्वेदेवा जान्वोः ॥ यजमानश्च गुल्फयोः ॥ सीदत पादयोः ॥

करन्यास : उद्‍बुध्यस्वाग्ने प्रतिजागृहि त्वं अंगुष्ठाभ्यां नमः ॥ इष्टापूर्त्ते तर्जनीभ्यां नमः ॥ स ᳪ सृजेथामयं च मध्यमाभ्यां नमः ॥ अस्मिन्त्सधस्थे अध्युत्तरस्मिन् अनामिकाभ्यां नमः ॥ विश्वेदेवा यजमानश्च कनिष्ठिकाभ्यां नमः ॥ सीदत करतल-करपृष्ठाभ्यां नमः ॥

हृदयादिन्यास : उद्‍बुध्यस्वाग्ने प्रतिजागृहि त्वं हृदयाय नमः ॥ इष्टापूर्त्ते शिरसे स्वाहा ॥ स ᳪ सृजेथामयं च शिखायै वषट् ॥ अस्मिन्त्सधस्थे अध्युत्तरस्मिन् कवचाय हुँ ॥ विश्वेदेवा यजमानश्च नेत्रत्रयाय वौषट् ॥ सीदत अस्त्राय फट् ॥

ध्यान :

पीताम्बरः पीतवपुः किरीटी चतुर्भुजो दण्डधरश्च हारी ।
चर्मासिधृक् सोमसुतो धनुष्मान् सिंहाधिरुढो वरदो बुधश्च॥

मंत्र : ॐ उद्‍बुध्यस्वाग्ने प्रतिजागृहि त्वमिष्टापूर्त्ते स ᳪ सृजेथामयं च । अस्मिन्त्सधस्थे अध्युत्तरस्मिन् विश्वेदेवा यजमानश्च सीदत ॥

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