अब मुख्य रूप से आपस्तम्बकृत पारस्करगृह्यसूत्र के हवन सूत्रानुसार हवन विधान पर विमर्श करते हैं। इस विमर्श का तात्पर्य यह है कि हवन विधि को सरलतापूर्वक समझा जा सके। सरल हवन पद्धति का तात्पर्य यही होता है कि शास्त्रोक्त हवन विधि को सरलता पूर्वक जिस पद्धति में समझाया गया हो। सरल हवन पद्धति का तात्पर्य यह नहीं माना जा सकता हवन की शास्त्रोक्त विधियों का किसी प्रकार से लोप किया जाय।
हवन विधि पूर्वाङ्ग व उत्तराङ्ग – पारस्कर गृह्यसूत्र के अनुसार
हवन विधि को सही से समझने के लिये इसे तीन भागों में विभाजित करके समझने की आवश्यकता होगी पूर्वाङ्ग, मध्याङ्ग और उत्तराङ्ग। मध्याङ्ग में मुख्य देवता की आहूति आती है अतः इस पर विशेष विचार करने की आवश्यकता नहीं है। यहां हवन के पूर्वाङ्ग और उत्तराङ्ग को विस्तार के साथ समझने का प्रयास करेंगे। यहां कुछ उपलब्ध आवश्यक वीडियो को भी संकलित किया गया है जिससे समझने में और सहायता प्राप्त हो सकती है।
सरल हवन पद्धति
सरल हवन पद्धति या सरल हवन विधि का तात्पर्य हम पहले समझ चुके हैं कि किसी प्रकार के शास्त्रोक्त नियमों की अनदेखी या त्याग किये बिना सरलता से समझना ही सरल होने का तात्पर्य है न कि आहुति संख्या कम हो अथवा स्वयं हवन करना हो तो संक्षिप्त कैसे किया जा सके।
हवन कुंड निर्माण सम्बन्धी चर्चा पूर्व में की जा चुकी है उसे पढ़ने के लिये यहां क्लिक करें : हवन करने की विधि एवं मंत्र । यदि हवन वेदी निर्माण सम्बन्धी जानकारी चाहते हों तो यहां वीडियो दिया गया है, इस वीडियो को देखकर हवन वेदी निर्माण सम्बन्धी जानकारी प्राप्त की जा सकती है।
पवित्रीकरण स्वस्तिवाचनादि एवं अन्य प्रारंभिक कृत्य संपन्न करने के बाद हवन आरम्भ काल से मुख्य रूपेण पारस्कर गृह्यसूत्र के अनुसार पूरा विधान इस प्रकार समझा जा सकता है :
हवन विधि पूर्वाङ्ग
हवन का आरम्भ पूर्वाङ्ग पञ्चभू संस्कार से होता है। पञ्चभूसंस्कार में जहां हवन करना हो उस भूमि के पांच आवश्यक संस्कार किया जाता है। दिये गये वीडियो में भी पञ्चभूसंस्कार की जानकारी उपलब्ध है।
पञ्चभूसंस्कार में ये पांचो क्रियायें आती है : 1. परिसमूह्य, 2. उपलिप्य, 3. उल्लिख्य, 4. उद्धृत्य और 5. अभ्युक्ष्य।
आगे पञ्चभूसंस्कार की विस्तृत चर्चा की गयी है और वीडियो से भी समझने में लाभ मिल सकता है।
पञ्चभूसंस्कार
- परिसमूह्य : कृमकीटपतंगाद्या भ्रमन्ति वसुधातले। तेषां संरक्षणार्थाय कुर्यात् परिसमूहनं।। – अग्नि।। जहां होम करना हो अग्निस्थापन से पहले पञ्चभूसंस्कार किया जाता है जिसका पहला अङ्ग परिसमूहन है। पृथ्वी कृमि-कीट-पतङ्गे आदि से युक्त होता है जिसका निस्तारण करने के लिए सफाई आवश्यक होता है। सम्पूर्ण स्थण्डिल का परिसमूहन करना चाहिए, यदि स्थण्डिल बहुत बड़ी हो तो यथासंभव। तीन कुशाओं के परिसमूहन (सफाई) करके उसे अरत्निप्रमाण ईशानकोण में त्यागा जाना परिसमूहन कहा जाता है। त्रिभिर्दभैः पांसुनपसार्य। भरद्वाज – कुशैः संमार्जयेद्भूमिं शुद्धामादौ शुचिस्ततः । हस्तमात्राभ्चतुरस्राङ्गोमयेनोपलेपयेत् । अरत्निप्रमाण; कात्यायन – अङ्गुलस्य प्रमाणान्तु षड्यवाः पार्श्वसम्मिताः । चतुर्विंशाङ्गुलोऽरत्निर्वितस्तिद्वाद शाङ्गुलः ॥
- उपलिप्य : गोमयोदकेन त्रिः उपलिप्य। गोबर से तीन बार लीपना चाहिए। प्रश्न : विष्णुपादपरिक्रान्ता वराहेनोद्धृता मही। अतः पृथ्वी सदा पूता किमर्थमुपलिप्यते ? उत्तर : इन्द्रेण वज्राभिहतः पुरा वृत्रो महासुरः। मेदसा तस्य संकीर्णा तदर्थमुपलिप्यते ।। – अङ्गिरा।। पूर्वसमय में इन्द्र ने वज्र से वृत्रासुर का वध किया था जिसके रक्त से पृथ्वी व्याप्त हो गई इसलिए गोमय से तीन बार उपलेपन करना चाहिए। शौनक : गोमयेन सवारिणा। उपलिप्य स्थण्डिलंतु चतुरस्रंतु सर्वतः।
- उल्लिख्य : त्रिः खदिरेण हस्तमात्रेण खङ्गाकृतिना स्फयेन उल्लिख्य प्राग्रग्राउदक्संस्थाः स्थण्डिल परिमाणस्तिस्रोरेखाः कुर्यात्। यद्यपि टीकाकार ने स्थण्डिल प्रमाण प्रागाग्र उत्तरोत्तर तीन रेखा कहा है तथापि अन्यत्र वितस्ति (वित्ता) या प्रादेश प्रमाण दोनों वर्णन प्राप्त होता है जिसमें से प्रादेशप्रमाण प्रचलित है, रेखाओं के मध्य ६ अङ्गुल का अन्तर रखना चाहिए । संस्कार दीपक – तिस्रः पश्चाथवा रेखा न भिद्यन्ते कदाचन । रेखा येन विभिद्यन्ते तमाद्दुर्ब्रह्मघातकम् ॥ अब यहां यह स्पष्ट होता है कि छन्दोग और वाजसनेयी भेद से रेखा (उल्लेखन) में भेद है। वाजसनेयी के लिए प्रागाग्र उत्तरोत्तर प्रादेशप्रमाण हो और छन्दोग का अनेक प्रमाणयुक्त। होमविधि में छन्दोग उल्लेखन (रेखा प्रमाणदिशा) की विशेष चर्चा की जाएगी। गृह्यसंग्रह : न नखेन न काष्ठेन नाश्मना मृन्मयेन वा । प्रोल्लिखेल्लक्षणं विप्रस्सिद्धिकामस्तु यो भवेत् ॥तस्मात् फलेन पुष्पेण पर्णेनाथ कुशेन वा । प्रोल्लिखेल्लक्षणं विप्रस्सिद्धिकामस्तु कर्मसु ॥ नख, काष्ठ, पत्थर या मृण्मय आदि से उल्लेखन वर्जित किया गया है, फल, पुष्प, पर्ण, कुश आदि से उल्लेखन प्रशस्त है। ये वस्तुयें छन्दोग विशेष में प्रयोग किये जाते हैं, वाजसनेयी खदिर के स्फय या स्रुवमूल से उल्लेखन करते हैं। वर्द्धमान : स्थण्डिलोल्लेखनं कुर्यात्स्रुवेणचकुशेनच ॥
- उद्धृत्य : कारिका – ये भ्रमन्ति पिशाचाद्या आकाशपथगामिनः। तेषां संरक्षणार्थाय उद्धृत्य कथितं बुधैः।। आकाशगामी पिशाचादि से रक्षा हेतु उद्धृत्य किया जाता है। अनामिका और अंगुष्ठ के द्वारा सभी रेखाओं से किञ्चित मृदा उठाकर अरत्निप्रमाण ईशानकोण में ही त्याग करे। आकाशगामी पिशाचादि से रक्षा हेतु उद्धृत्य किया जाता है। अरत्निप्रमाण; कात्यायन – अङ्गुलस्य प्रमाणान्तु षड्यवाः पार्श्वसम्मिताः । चतुर्विंशाङ्गुलोऽरत्निर्वितस्तिद्वाद शाङ्गुलः ॥
- अभ्युक्ष्य : कारिका – आपो देवगणाः सर्वे आपः पितृगणाः स्मृताः । तेनैवाभ्युक्षणं प्रोक्तमृषिभिः वेदवादिभिः ॥ द्राह्यायनगृह्यसूत्र – पश्चादर्भूमौ न्यञ्च पाणी कृत्वेदं भूमेरिति ॥ तपश्चात् हस्ततल नीचे किये हुये होमस्थान पर तीन बार जल छिरके। उत्तान हस्त से जल छिडकना प्रोक्षण कहलाता है और न्युब्ज हस्त से अभ्युक्षण। वर्द्धमान : उत्तानेनैव हस्तेन प्रोक्षणं समुदाहृतं । तिरश्चावोक्षणं प्रोक्तं नीचेनाभ्युक्षणं स्मृतं ॥ संस्कार दीपक – गङ्गादिसर्वतीर्थेषु समुद्रेषु सरित्सु च । सर्वतश्चाप आदाय अभ्युक्षेच्च पुनः पुनः ॥
(यदि कुण्ड बनाया गया हो तो कुण्ड पूजन अग्निस्थापन से पूर्व किया जाना चाहिए, कुण्ड प्रकरण होमविधि के पश्चात् अलग से संगृहीत।)
6. अग्निमुपसमाधाय (अग्निस्थापन) : तत्पश्चात् कांस्यादि उपलब्ध पात्र में अग्नि मंगाकर अग्निकोण में रखे। अग्नि के क्रव्याद अंश को नैरृत्य कोण में त्याग कर होमस्थान (भूमि, वेदी या कुंड में) आत्माभिमुख अग्नि स्थापन करे।
- गृह्यसंग्रह : शुभं पात्रं तु कांस्यं स्यात्तेनाऽग्निं प्रणयेद्बुधः । तस्याभावे शरावेण नवेनाभिमुखं च तम् ॥
- कात्यायन : आज्यस्थाली तु कर्तव्या तैजसद्रव्यसम्भवा। माहेयी वापि कर्तव्या नित्यं सर्वाऽग्निकर्मसु ॥
- पारस्कर : कर्मसाधनभूतं लोकिकस्मात प्रणयनं कुर्याच्छरावे वाथनूतने ॥ मेरुतंत्र – पात्रान्तरेणपिहिते ताम्रपात्रादिकेशुभे । अग्निप्रयणंकुर्याच्छरावे वाऽथनूतने ॥
- ग्राह्याग्नि प्रयोगरत्न – उत्तमोऽरणिजन्योऽग्निर्मध्यमः सूर्यकान्तजः । उत्तमः श्रोत्रियागारान्मध्यमः स्वगृहादिजः ॥
- त्याज्याग्नि देवल – चाण्डालाग्निरमेध्याग्निः सूतकाग्निश्च कर्हिचित्। पतिताग्निश्चिताग्निश्च न शिष्टग्रहणोचितः ॥
- आपस्तम्ब – न कुर्यादग्निधमनं कदाचिद्व्यजनादिना । मुखेनैव धमेदग्निं धमन्या वेणुजातया ॥ नाग्निं मुखेनेति तु यल्लौकिके योजयन्ति तत् ॥
(अग्निस्थापन के बाद अग्नि को प्रज्वलित करके वायव्यकोण में अग्नि पूजन भी किया जाता है। छन्दोग में मौन ही १ प्रादेशमात्र की समिधा भी प्रदान की जाती है। अग्निपूजा विशेष : कल्पद्रुम – अग्नये गन्धादिकं बहिरेव देयं । अन्ये तु मध्ये पूजनमिच्छन्ति । विष्णुधर्मोत्तर – मध्येऽपि गन्धपुष्पादीन्दयादग्नेर्न संशयः । बहिनैवेद्यमात्रन्तु दातव्यमिति निश्चितम् ॥ )
अग्निप्रज्वलन
- कात्यायनस्मृति – होतव्ये च हुते चैव पाणिशूर्पस्फ्यदारुभिः। न कुर्यादग्निधमनं कुर्याद्वा व्यजनादिना ॥ मुखेनैके धमन्त्यग्निं मुखाद्ध्येषोऽध्यजायत । नाग्निं मुखेनेति च यल्लौकिके योजयन्ति तम् ॥ होम की अग्नि मुख से ही प्रज्वलित करना चाहिए, लौकिक अग्नि हेतु मुख का निषेध किया गया है।
- पद्मपुराण-कूर्मपुराण – न पक्षकेणोपधमेन्न शूर्पेण न पाणिना । मुखेनाग्निं समिन्धीत मुखादग्निरजायत ॥
- देवल – जुहूतश्चाथ पर्णेन पाणिशूर्पपटादिना । न कुर्यादग्निधमनं तथा च व्यजनादिना ॥ पर्णेनैव भवेद् व्याधिः शूर्पेण धननाशनम् । पाणिना मृत्युमाप्नोति पटेन विफलं भवेत् ॥ व्यजनेनातिदुःखाय आयुः पुराणं मुखाद्धमात् । मुखेन धमयेदग्नि मुखादग्निरजायत | अग्निं मुखेनेति तु यल्लौकिके योजयेच्च तत् । वेणोरग्नि प्रसूतित्वाद्वेणुरग्नेश्च तस्माद्वेणुधमन्यैव धमेदग्निं विचक्षणः ॥
- होमाग्नि प्रज्वलनार्थ मुख का प्रयोग ही प्रशस्त है, अन्य सभी प्रकार निषिद्ध है। अतः वेणु (बांस आदि की नाल समान फूंकनी) द्वारा मुख से फूंककर ही अग्नि प्रज्जवलित करे ।
(यदि शांतिकर्म हो तो अग्निस्थापन के उपरांत पूजन किया जाता है एवं पूजन विधि संपन्न होने के बाद ब्रह्मा स्थापन करके आगे की हवन क्रियायें की जाती हैं। व्यवहार में बहुधा ऐसा पाया जाता है कि संपूर्ण पूजा करने के बाद अंत में हवन किया जाता है।)
7. दक्षिणतो ब्रह्मासनमास्तीर्य : होमभूमि, स्थण्डिल या कुण्ड के दक्षिणभाग (अग्निकोण) में कुश के आसन पर ब्रह्मा का स्थापन करे। ब्रह्मा प्रत्यक्ष भी हो सकते हैं और कुश के भी बनाये जाते हैं।
कारिका : दक्षिणे दानवाः प्रोक्ताः पिशाचोरगराक्षसाः। तेषां संरक्षणार्थाय ब्रह्मा तिष्ठति दक्षिणे ॥ असुर-राक्षस-पिशाचादि का दक्षिण दिशा में निवास होता है; उनसे रक्षा के लिए ब्रह्मा की स्थापना दक्षिण दिशा में ही की जाती है। यदि प्रत्यक्ष ब्रह्मा बनांना हो तो ज्ञानवान व सुलक्षण ब्राह्मण को ही बनाया जाना चाहिए, क्योंकि सविधि-छिद्ररहित होम हो ये दायित्व ब्रह्मा का होता है।
- गोभिल गृह्यसूत्र – अग्निमभिमुखोवाग्यतः प्राञ्जलिरास्त आकर्म्मणः पर्यवसानात् ॥ आरम्भ से समापन तक अग्निमुख (उत्तराभिमुख) ब्रह्मा अञ्जलिबद्ध होकर बैठे और उचित मार्गदर्शन पूर्वक (अविहित का निषेध, विहित की आवश्यकता, विधिक्रम, संशय निवारण आदि हेतु शास्त्रोचित वचन बोले ।
- पुनः गोभिल गृह्यसूत्र – भाषेत यज्ञसंसिद्धिं ॥ नायज्ञियां वाचं वदेत् ॥ यदि की सिद्धि हेतु यज्ञिय (सुसंस्कृत एवं यज्ञविषयक) वचन बोले, अयज्ञिय अर्थात् असंस्कृत और यज्ञविषय के अतिरिक्त अन्य वचन न बोले ।
- गोभिल गृह्यसूत्र – यद्यवज्ञियां वाचं वदेत् वैष्णवी मृचय्यँजुर्वा जपेत् ॥ अपि वा नमोविष्णवे इति ब्रूयात् ।। यदि किसी कारणवश अयज्ञिय वचन बोले तो वैष्णवी ऋचा (इदं विष्णुर्विचक्रमेति) जपे या “नमो विष्णवे” जपे।
- गोभिल गृह्यसूत्र – यद्यु वा उभयञ्चिकीर्षेद्धौत्रं चैव ब्रह्मत्वञ्चैवैतेनैव कल्पेन छत्रं वोत्तरासंगं वोदकमण्डलुं दर्भवटुं वा ब्रह्मासने निधाय तेनैव प्रत्याव्रज्यान्यच्चेष्टेत ॥ यदि ब्राह्मणाभाव होने पर होतृ भी ब्रह्मा ही हो तो अपने आसन पर ब्रह्मा कर्म हेतु छत्र या उत्तरीय या जलपूर्ण कमंडल या ब्रह्मग्रंथि युक्त त्रिकुशा रखकर पूर्वगमन के विपरीत अर्थात् अप्रदक्षिणक्रम (अग्नि-ईशान-वायव्य) से अग्नि के पश्चिम भाग में बैठकर करे ।
- कृता-अकृता-अवेक्षण कर्म करना ही ब्रह्मा का मुख्य कर्म होता है, अतः ब्रह्मा जो उपस्थित ब्राह्मणों में सर्वाधिक ज्ञानी हो उन्हें बनाया जाना चाहिए, न कि उपस्थित कुटुम्ब को (बहुधा ब्राह्मणों के उपनयन, विवाहादि में ऐसा पाया जाता है) । ब्रह्मा की पूजा अमन्त्रक (बिना मन्त्र के) ही करनी चाहिए।
- अङ्गिरा : पञ्चाषद्भिर्भवेद्ब्रह्मा तदर्धेन तु विष्टरः। उर्ध्वकेशो भवेद्ब्रह्मा अधःकेशस्तु विष्टरः।। ब्रह्मा की स्थापना दक्षिण दिशा में की जाती है लेकिन उससे पूर्व अर्थात् स्थापन से पहले उत्तर दिशा में ही रखना चाहिए एवं वरण करने के बाद प्रदक्षिण मार्ग से दक्षिण दिशा में स्थापन करना चाहिए।
- ब्रह्मा का स्थापन करने के बाद पुनः विपरीत (अप्रदक्षिण) क्रम से वापस अपने आसन पर आना चाहिए।
- प्रत्यक्ष ब्रह्मा बनाना हो तो वाजसनेयी वाले वाजसनेयी को एवं छन्दोग वाले छन्दोगी को ही बनाएं, इसी तरह यदि स्वयं होम न करके यदि ब्राह्मण से कराना हो तो उस समय भी आचार्य/होतृवरण स्वयं के लिए विहित का वर्णन करना चाहिए।
8. प्रणीय : ब्रह्मा की ओर देखते हुए प्रणीतापात्र में जल भरकर तीन कुशाओं से ढंककर अग्नि के उत्तरभाग में वितस्ति प्रमाण का अंतर रखते हुए प्रागाग्र दो कुश का आसन देकर रखे।
हरिहरभाष्य : प्रणीयन्ते इति प्रणिता। आपः, तासां पात्रं प्रणीतापात्रं ॥ छन्दोगी के लिये प्रणीता विहित और निषिद्ध दोनों है ।
(आकाशवल्लक्षण) अग्निगृह्य – मध्यमा तर्जनीयुक्ता अङ्गुष्ठेन समन्विता । आकाशसहिताऽऽख्याता प्रणीता पूरणं भवेत् ॥
9. परिस्तीर्य : कारिका – वेदिका दर्भहीना तु विनग्ना प्रोच्यते बुधैः। परिधानं ततः कुर्याद्दर्भेणव विशेषतः॥ बर्हि १६ कुश लेकर वेदी के चारों ओर चतुर्थ भाग ४-४ कुशाओं से परिस्तरण करें। ४ कुशा अग्निकोण से ईशानकोण तक उत्तराग्र, पुनः ४ कुशा दक्षिणदिशा में ब्रह्मा से अग्निपर्यन्त पूर्वाग्र, पुनः ४ कुशा नैरृत्यकोण से वायव्यकोण तक उत्तराग्र, पुनः ४ कुशा उत्तरदिशा में अग्नि से प्रणीतापात्र तक पूर्वाग्र करें।
10. अर्थ वदासाद्य : आसादन अग्नि के उत्तर दिशा में पश्चिम से आरम्भ करके पूर्वक्रम से क्रमशः आसादन करें :
- पवित्रच्छेदन हेतु ३ कुशा, पवित्री बनाने हेतु २ कुशा, प्रोक्षणीपात्र, आज्यस्थाली, घृत, चरुस्थाली (यदि चरुहोम भी करना हो तो अन्य पात्र जो की चरुस्थाली कहलाता है), सम्मार्जन हेतु ३ कुशा, वेणीरूपात्मक उपयमन कुश, ३ समिधा, हस्तमात्र स्रुवा (स्रुचि हो तो स्रुचि भी), २५६ मुट्ठी चावल से भरा हुआ पूर्णपात्र (ब्रह्मा दक्षिणा हेतु), दक्षिणा, पूर्णाहुति हेतु नारियल-सुपारी आदि।
- छन्दोगपरिशिष्ट – प्राञ्चंप्राञ्चमुदगग्रेरुदगग्रं समीपतः । तत्तथाऽऽसादयेत्पात्रं यद्यथा विनियुज्यते ॥
- कारिका – दर्भास्त्रयः पवित्रे द्वे प्रोक्षणीपात्रमुत्तमम् । आज्यस्थाली चरुस्थाली सम्मार्गोपयमौ कुशौ। पालाश्यः समिधस्तिस्रः स्रुव आज्यं गवेधुकाः । तण्डुलाः पूर्णपात्रं च दक्षिणा च वरोऽथवा ॥

11. पवित्रेकृत्वा : फिर पवित्री निर्माण हेतु २ कुशाओं को हाथ में उत्तराग्र लेकर प्रादेशप्रमाण भाग पर ३ कुशाओं से दक्षिणावर्त ग्रंथि देकर २ कुशाओं का मूल से प्रादेशप्रमाण भाग तोड़ लें, प्रादेशप्रमाण मूलभाग वाले २ कुशाओं को ग्रहण करते हुए शेष कुशाओं का उत्तरभाग में त्याग करे। पवित्रिनिर्माण वाले प्रादेशप्रमाण समूल २ कुशाओं में दक्षिणावर्त ग्रंथि देकर पवित्री (पैंता) बनाकर दाहिने हाथ में ग्रहण करे।
12. प्रोक्षणीः संस्कृत्य : प्रोक्षणी को प्रणिता के निकट कुशाओं पर रखे, पवित्रिहस्त प्रणीतापात्र का जल तीन बार प्रोक्षणी में देकर अनामिका व अंगूठा से उत्तराग्र पवित्री रखते हुए प्रणीता के जल को ३ बार ऊपर की ओर उछाले या सिर की ओर उछालकर प्रणीता जल से प्रोक्षणी का ३ बार प्रोक्षण करे। परशुरामकारिका : प्रोक्षणीषु त्यजेच्छेषं संस्रवं तु स्रुवाहुतेः। हस्ताहुतेर्हविर्यस्य सं तत्तस्य प्रकल्पयेत्।।
13. अर्थवत्प्रोक्ष्य : पवित्री को प्रोक्षणी में रखकर प्रोक्षणी दाहिने हाथ से उठाकर बांये हाथ में ले, पवित्री से पूर्व की भांति प्रोक्षणी के जल को भी ३ बार ऊपर की ओर या सिर पर उछाले, फिर अग्नि के उत्तर भाग में आसादित किये हुए सभी वस्तुओं (आज्यस्थाली, चरुस्थाली आदि) का प्रोक्षणीजल से प्रोक्षण करे। प्रोक्षणी को दाहिने हाथ में लेकर अग्नि और प्रणीता के मध्य रखें।
14. निरूप्याज्यं : आज्यस्थाली में आज्य लें, (चरुहोम हो तो चरुस्थाली में चरु), शाकल्यहोम हो तो शाकल्यपात्र में शाकल्य भी रखकर प्रणीताजल से सिक्त कर लें। आज्य और घृत में अंतर; कात्यायन – अग्निनाचैव मन्त्रेण पवित्रेण च चक्षुषा । चतुर्भिरेव यत्सूतं तदाज्यमितरद् घृतम् ॥ जो अग्नि, मंत्र, पवित्रि और भलीभांति देखकर शुद्ध किया हो वह आज्य होता है, अन्यथा घृत या इन चारों में से किसी १ विधि से भी हीन होने पर घृत कहलाता है।
15. अधिश्रित्य : आज्यस्थाली को प्रदक्षिणक्रम से ब्रह्मा के समक्ष अग्नि पर दक्षिणभाग में रखे। (चरुहोम हो तो चरुस्थाली भी, अर्थात यदि चरु होम करना हो तो चरु निर्माण करना होगा अतः चरु निर्माण (पाक) भी करे। यदि चरु होम न करना हो तो अंत में स्विष्टकृद्धोम के लिये पाक किया जायेगा।)
16. पर्यग्नि कुर्यात् : २ दर्भ, (कुशा या तृण) जलाकर प्रदक्षिणक्रम से आज्य के ऊपर (चरु हो तो चरु ऊपर भी) घुमाकर अग्नि में त्याग करे।
17. स्रुवंप्रतप्य : स्रुवा को दक्षिणहस्त में ग्रहण करके अधोमुख रखते हुए अग्नि पर तीन बार तपाये। कारिका – प्रतापयेत्ततोवह्नौ रक्षसां वारणाय च । स्रुवखाते च ये सन्ति पापिष्ठाः पापयोनयः ॥ वह्निप्रतापिताः सर्वे भस्मीभवन्ति तत्क्षणात् ॥
18. संमृज्य : स्रुवा को वामहस्त में लेकर सम्मार्जन कुशा दक्षिणहस्त में लेकर स्रुवा के ऊपरी भाग को मूल से अग्र तक सम्मार्जन कुश के अग्रभाग से सम्मार्जन करे, पुनः स्रुवा के पृष्ठभाग को अग्र से मूलपर्यंत सम्मार्जन कुशा के मूल भाग से सम्मार्जन करे। (सम्मार्जन कुशाओं का अग्नि में प्रक्षेप कर दे।
19. अभ्युक्ष्य : प्रणीता के जल से स्रुवा को सिक्त कर ले। कर्मप्रदीप – प्राक् शस्तेषां कुशैः कार्यः सम्प्रमार्गो जुहूषता । प्रतापनञ्च लिप्तानां प्रक्षाल्योष्णेन वारिणा ॥ अभ्युक्ष्य कहा गया है अतः हाथ को अधोमुख रखकर सिक्त करे।
20. पुनःप्रतप्य निदध्यात् : स्रुवा दक्षिणहस्त में ग्रहण करके पुनः पूर्ववत अग्नि पर ३ बार अधोमुख तपाये। (यदि स्रुचि हो तो इसी क्रम से स्रुचि का भी तपन, सम्मार्जन, अभ्युक्षण, तपन संपन्न करे) कारिका – पुनः प्रतप्य तौ मन्त्री दर्भानग्नौ विनिक्षिपेत् । आत्मनो दक्षिणे भागे स्थापयेतौ कुशान्तरे॥
21. आज्यमुद्वास्य : आज्यस्थाली अग्नि से उतारकर अग्नि के उत्तर भाग में रखे। (चरुहोम हो तो चरुस्थाली को भी उतारकर आज्यस्थाली के उत्तर रखे) पुनः आज्यस्थाली को अग्नि के पश्चिम भाग में रखे। (चरुहोम हो तो चरुस्थाली को भी आज्यस्थाली के उत्तर रखे, शाकल्यादि हविर्द्रव्य हो तो इसी तरह रखे)
22. उत्पूय : अनामिका और अंगूठा से पवित्री द्वारा हुए आज्यस्थाली के आज्य को ३ बार ऊपर की ओऱ या सिर के ऊपर उछाले। हरिहर – आज्यं पवित्राभ्याम् उत्क्षिप्य ।
23. अवेक्ष्य : आज्य को भलीभांति देखे, यदि कुछ अवांछित वस्तु हो तो उसे बाहर कर दे।
24. प्रोक्षणीश्च पूर्ववद् : पुनः प्रोक्षणी के जल को ३ बार ऊपर की ओर या सिर के ऊपर उछाले।
25. उपयमनाकुशानादाय : दाहिने हाथ से उपयमन कुशा को ग्रहण करके बांये हाथ में ले।
26. समिधोऽभ्याधाय : तीनों समिधाओं को घृताक्त करके खड़ा होकर मन में प्रजापति का ध्यान करते हुए मौन रहकर अग्नि में प्रक्षेप करे।
- गृह्यसंग्रह – प्रागग्राः समिधो देयास्ताश्च काम्येष्वपाटिताः । शान्त्यर्थेषु सवल्कार्द्राः विपरीता जिघांसनाः ॥
- ग्राह्यसमिधा – मरीचि : पलाश: खदिरोऽश्वत्थः शमी वट उदुंबरः ।
- अन्य : शमी-पलाश-न्यग्रोध-प्लक्षवैकंकतोद्भवाः ।
- ब्रह्मपुराण : अश्वत्थोदुम्बरो विल्वश्चन्दनस्सरलस्तथा। सालश्च देवदारुश्च खदिरश्चैव यज्ञियाः ।।
- स्मृत्यर्थसार : पलाशखदिराश्वत्थ शम्युदुम्बरजा समित् । अपामार्गार्क दूर्वाश्च कुशाश्चेत्यपरे विदुः ॥ सत्वचः समिधः कार्या ऋज्व्यः श्लक्ष्णाः समास्तथा । शस्ता दशाङ्गुलास्तास्तु द्वादशाङ्गुलिकास्तथा ॥ आर्दपक्वाः समच्छेदास्तर्जन्यङ्गुलिवर्तुलाः । अपाटिताँ अद्विशाखा: कृमिदोषविवर्जिताः ॥ दग्धाः कृशास्तथा स्थूला ह्रस्वा दीर्घास्तु वर्जयेत् ।

27. पर्युक्ष्य जुहुयात् : बैठकर पवित्री लेकर प्रोक्षणी का जल दक्षिणहस्त में ग्रहण करे और समस्त आसादित वस्तुओं सहित प्रदक्षिण क्रम से अग्नि का तीन बार पर्युक्षण करे (घेरे), पवित्री को प्रणीतापात्र में रख कर हवन आरम्भ करे।
परशुरामकारिका – पर्युक्ष्याग्निं प्रणीतासु निक्षिपेत्तत् पवित्रकम् । हवन का संकल्प यदि पूर्व में नहीं किया गया हो तो हवन आरम्भ करने से पहले संकल्प करे। संकल्प में प्रधानदेवता की आहुतिसंख्या एवं आहुति द्रव्य का उल्लेख भी करना चाहिए। संकल्पित संख्या द्रव्यानुसार ही हवन करे।
- प्रश्न – अधोमुख उर्ध्द्वपादः प्राङ्मुखो हव्यवाहनः । तिष्ठत्येव स्वभावेन आहुति: कुत्र दीयते ।
- उत्तर – सपवित्राम्बुहस्तेन वह्नेः कुर्यात्प्रदक्षिणम्। हव्यवाट् सलिलं दृष्वा बिभेति सम्मुखो भवेत् ॥ कारिका।।
॥ एष एव विधिर्यत्र क्वचिद्धोमः ॥ ये हवन आरम्भ करने से पहले का पूर्वभाग है अर्थात पूर्वाङ्ग है। पूर्वाङ्ग के बाद मध्याङ्ग में मुख्य देवता के मंत्र व हवनीय द्रव्य से निर्दिष्ट संख्या की आहूति प्रदान की जाती है। पूर्वाङ्ग सभी होम में अवश्य करना चाहिए। आहुति की संख्या अधिक हो या न्यून हो (न्यूनतम १०८ आहुति होनी चाहिए, २८ या ८ अत्यल्प आहुति करना हो तो भी) इतनी विधि करनी चाहिए।
बौधायन – ओषध्यस्तक्तवः पुष्पं काष्ठं मूलं फलं तृणम् । एतद्धस्तेन होतव्यं नान्यत्किञ्चिदचोदनात् ॥ अग्निहीनमनावृष्टिः मन्त्रहीनं तु ऋत्विजः । आज्यहीनं कुलं हन्ति स्वाहा हीनं तु पत्त्नयः ॥ यजमान दक्षिणा हीनमन्नहीनं तु राष्ट्रकम् । सर्वहीनं सदस्यानि नास्ति यज्ञसमो रिपुः ॥ तस्मात्सर्वप्रयत्नेन किञ्चिद्द्रव्यत्समाचरेत् । श्रियः कामो चरेत्सर्वं समृद्धं सहदक्षिणम् ॥
कात्यायन – अन्वारब्ध आधारावाज्यभागौ महाव्याहृतयः सर्वप्रायश्चित्तं प्राजापत्य ग्गूं स्विष्टकृच्च एतान्नित्य ग्गूं सर्वत्र ॥
परभाग या उत्तराङ्ग
पारस्कर गृह्य सूत्र में उत्तराङ्ग इस प्रकार बताया गया है –
अग्न्याधेयदेवताभ्यः स्थालीपाकं श्रपयित्वाज्यभागाविष्ट्वाज्याहुतीर्जुहोति ॥१॥ त्वन्नोऽअग्ने – सत्वन्नोऽअग्न – इम्मेवरुण – तत्वायामि – ये ते शतमयाश्वान – उदुत्तमं भवतन्नइत्यष्टौपुरस्तात् ॥२॥ एवमुपरिष्टात्स्थालीपाक स्याग्न्याधेयदेवताभ्यो हुत्वा- जुहोति ॥३॥ स्विष्टकृतेच ॥४॥ आयास्यग्नेर्वषट्कृतं यत्कर्मणात्यरीरिचं देवागातुविद इति ॥५॥ बर्हिर्हुत्वा प्राश्नाति ॥६॥ ततोब्राह्मणभोजनं ॥७॥ :- पारस्कर ।
परभाग या हवन के उत्तराङ्ग का समुचित वर्णन ब्रह्मनित्यकर्मसमुच्चय की टिप्पणि में देखने को मिलता है – उत्तराङ्गानि – पूजा स्विष्टं नवाहुत्यो बलिः पूर्णाहुतिस्तथा । श्रेयः सम्पाद्य दानं च अभिषेको विसर्जनम् ॥ पूजा, स्विष्टकृत, नवाहुति, बलि, पूर्णाहुति, (वसोर्धारा, त्र्यायुष्करण, संसवप्राशन, पूर्णपात्र दक्षिणा, प्रणीतान्युब्जीकरण, बर्हिहोम) श्रेयोद्दान, दान, अभिषेक, विसर्जन, (दक्षिणा)।
ब्रह्मनित्यकर्मसमुच्चय में ही एक और विशेष प्रावधान उत्तराङ्ग से पूर्व कहा गया है “महाव्याहृति होम”। हवनकाल में अति सावधान रहकर न चाहते हुए भी अनेक त्रुटियां होती ही है। त्रुटियों का दोष निवारण करने हेतु १००८/१०८ या २८ बार महाव्याहृति से आज्याहुति करनी चाहिए।
व्याहृतिहोम संकल्प – अस्मिन् …………… हवन कर्मणि देशतः कालतस्तन्त्रतो मन्त्रतोवाज्ञानतोऽज्ञानतोवा अयथाकरणन्यूनकरणचतुर्विधकर्मातिरिक्तकरण भ्रेषजातप्रत्यवाय परिहारद्वारा कर्मसाद्गुण्यसिद्धये तथा प्रधानदेवताऽग्न्योश्च मध्ये गमने तथा समिदाज्यचरुतिलादिहविषां मध्ये अन्यतमस्याभावे होमस्वाहाकारयोः पूर्वापराभावे अग्निमध्ये हविर्गतकीटापघाते प्रणीताऽग्न्योर्मध्ये गमने प्रणीतास्कन्दे इध्मपरिस्तरणादिदाहे कुण्डाद्वहिर्निपतने समिच्चरुतिलाज्यमध्ये कृमिकीटकादिसंयोगे होममन्त्रपठनसमये स्वरवर्णादि विस्मृतौ देवतावदानमन्त्र तन्त्र कर्मविपर्यासमक्षिका कीटकेशादिभिर्हविर्दुष्टदग्धपाकहितस्थाने होमाकरणादिज्ञाताज्ञातदोष परिहारार्थम् घृताक्तकृष्णतिलद्रव्येण व्यस्त समस्त व्याहृत्या (अष्टोत्तरसहस्रैः/अष्टोत्तरशतैः/)अष्टाविंशति: होमं करिष्ये ॥
विनियोग – भूर्भुवःस्वरिति तिसृणां महाव्याहृतीनां प्रजापतिर्ऋषिः गायत्र्युष्णिगनुष्टुप्छन्दांसि क्रमेण अग्निवायुसूर्या देवताः सर्वासां वा प्रजापतिर्देवता प्रायश्चित्तहोमे विनियोगः ॥
- ॐभूः स्वाहा ॥
- ॐ भुवः स्वाहा ॥
- ॐ स्वः स्वाहा ॥
- ॐ भुर्भुवः स्वः स्वाहा ॥
एवं सप्तवारं होमे (७ × ४ = २८) अष्टाविंशत्याहुतयो भवन्ति । सप्तविंशतिवारं होमे (२७ × ४ = १०८) अष्टोत्तरशताहुतयो भवन्ति । द्विपञ्चाशदधिकशतद्वयाहुतिहोमे (२५२ × ४ = १००८) अष्टोत्तरसहस्राहुतयो भवन्ति ॥
1. पूजा : स्थापित देवताओं की पूजा करके अग्नि की पूजा करनी चाहिए।
2. स्विष्टकृद्धोम : अनेकदिनस्राध्यहोमवेत्तदा पर्युषितदोषपरिहारार्थं हविःशेषं स्विष्टकृदर्थे घृतमध्ये स्थापयेत् ॥ नष्टे दुष्टे वा हविषि आज्येनैव स्विष्टकृद्धोमः॥
- यदि शाकल्य, चरु आदि अन्य हविर्द्रव्य से होम किया गया हो तो वाराहुति (नवाहुति) से पूर्व स्विष्टकृत् करना चाहिए और यदि मात्र आज्य से होम किया गया हो तो वाराहुति (नवाहुति) के बाद। स्विष्टकृत् करने के बाद २ आचमन भी करना चाहिए।
- कर्मकाण्ड- रत्नाकर : स्विष्टकृच्छ्रब्देन स्विष्टकृद्धोमउच्यते। अयंचहोमःउत्तराद्वैभवति, यथाअग्नये स्विष्टकृते चकारात्समुच्चयः। एतदाधारादि स्विष्टकृदवसानं, सर्वत्र यज्ञेषु होमात्मकेषु कर्मसुनित्यं॥ यत्रहोमाभावस्तत्रनास्ति, अन्ते विहितस्य स्विष्टकृद्धोमस्य कर्मविशेषे स्थानान्तरमाह । प्राङ्महाव्याहृतिभ्यः स्विष्टकृद् अन्यच्चेदाज्याद्धविः ॥ यत्राज्यातिरिक्तं हविरस्तितत्र महाव्याहृति होमात्पूर्वमनुष्ठेय ॥
- हवन का न्यूनातिरिक्त दोष परिहार हेतु स्विष्टकृत होम करना चाहिए। यदि केवल आज्याहुति की गयी हो तो महव्याहृति के बाद करना चाहिए और यदि “शाकल्य चरु” आदि से भी हवन किया गया हो तो महाव्याहृति के पहले करनी चाहिए। हवन में आहुतिसंख्या का न्यूनाधिक भी निषिद्ध है और इसी दोष का परिहार स्विष्टकृत से किया जाता है।
- स्विष्टकृद्धोम करने हेतु यदि पूर्व में चरु निर्माण न किया गया हो तो पहले हवन की हुयी अग्नि पर ही चरु निर्माण करे तत्पश्चात उसी पाक से स्विष्टकृद्धोम करे।
3. नवाहुति : हवन प्रारम्भ में और समाप्ति में नवाहुति दी जाती है। स्विष्टकृत् और नवाहुति अन्वारब्ध (कुशाओं द्वारा) दिया जाता है। कात्यायन – अन्वारब्ध आधारावाज्यभागौ महाव्याहृतयः सर्वप्रायश्चित्तं प्राजापत्य ᳪ स्विष्टकृच्च एतान्नित्य ᳪ सर्वत्र ॥
4. बलि : दशदिक्पाल, नवग्रह आदि सभी स्थापित देवताओं को दधिमाष बलि दिया जाना चाहिए।
5. पूर्णाहुति : खड़ा होकर रक्तवस्त्रावेष्टित सूखा नारियल या गरिगोला या सुपारी, ताम्बूल, पुष्प, द्रव्यादि स्रुचि में लेकर, स्रुचि को दोनों हाथों से पकड़ते हुए पूर्णाहुति करनी चाहिए।
परशुराममहारुद्रप्रयोग – होमो द्विविधः प्रोक्तः श्रौतः स्मार्तश्च होतृभि । श्रौतो यजतिसंज्ञोऽसौ स्मार्तो जुहोतिसंज्ञकः ॥ तिष्ठता हूयते यत्र याज्यया चानुवाक्यया । वषट्कार प्रदानेन स श्रौतः परिकीर्तितः ॥ यत्र होत्रोपविष्टेन स्वाहाकारेण हूयते । स स्मार्त इति विज्ञेयः पूर्णाहुत्यादिकर्मसु ॥
पूर्णाहुति का निषेध; प्रयोगरत्न : विवाहादिक्रियायां च शालायां वास्तुपूजने। नित्यहोमे वृषोत्सर्गे न पूर्णाहुतिमाचरेत् ॥
6. वसोर्धारा : पुनः स्रुचि से अविछिन्न घृतदारा देते हुए वसोर्धारा होम करना चाहिए।
7. त्र्यायुष्करण : स्रुव या स्रुचि के पृष्ठभाग द्वारा ईशानकोण से भष्म ग्रहण करके धारण करना चाहिए।
8. संसवप्राशन : प्रोक्षणीपात्र के आहुति अवशेष भाग का अनामिका से प्राशन करके २ बार आचमन करना चाहिए।
9. पूर्णपात्र दक्षिणा : ब्रह्मा को पूर्णपात्र (दक्षिणा) देकर ब्रह्मग्रंथिविमोक कर देना चाहिए।
10. प्रणीतान्युब्जीकरण : प्रणीताजल से मार्जन करके प्रणीता को पश्चिम या ईशानकोण में न्युब्ज करके जल गिरा देना चाहिए। प्रणीता को पृथ्वी पर न्युब्ज नहीं करना चाहिए केवल जल गिराकर पुनः सीधा ही रखना चाहिए।
11. श्रेयोद्दान, दान, अभिषेक, विसर्जन, दक्षिणा।
छन्दोग विशेष
उपरोक्त विधि वाजसनेयी हवन की है। छन्दोग हवन में कुछ अन्य विशेषता या अंतर होता है जो आगे वर्णित है :
पंचभूसंस्कार – गोभिलगृह्य सूत्र से (यद्यपि इसमें उद्धृत का विधान नहीं है) – अनुगुप्ता अप आहृत्य प्रागुदक्प्रवणन्देशं समं वा परिसमुह्योपलिप्य मध्यतः प्राचील्लेखामुल्लिख्योदीचीश्च संहतां पश्चात् मध्ये प्राचीस्तिस्र उल्लिख्याऽभ्युक्षेत् ॥ जलपात्र में कुशाच्छादित जल लेकर होम करने के लिए बैठना चाहिए।
- परिसमूह्यः-उपलिप्यः – मध्यत में पूर्वाग्र, पश्चिम में उत्तराग्र, फिर मध्य में पूर्वाग्र ३ उल्लिख्य-अभ्युक्ष्य ४ भूसंस्कार ही वर्णित है तथापि अन्यत्र से उद्धृत्य भी ग्रहण करते हुये पंचभूसंस्कार होता है। उल्लिख्य में विशेषता कही गयी है जिसके सम्बन्ध में अन्यत्र से और विवरण प्राप्त होता है;
- अङ्गिरा – प्राग्गता पार्थिवी ज्ञेया चाग्नेयो चाप्युदग्गता । प्राजापत्या तथा चैन्द्री सौमी च प्राकृता स्मृता ॥ पूर्वगामी प्रथम रेखा पृथ्वी के लिए, नैरृत्यकोण से उत्तरगामी अग्नि के लिए, अन्य ३ पूर्वाग्र प्रजापति-इन्द्र व सोम के लिए किया जाता है।
- अङ्गिरा – पृथिवी पीतवर्णा स्यादाग्नेयी लोहिता भवेत् । प्राजापत्या भवेत्कृष्णा नीलामैन्द्रीं विनिर्दिशेत् ॥ श्वेतवर्णा च सौमी स्याद्रेखाणां वर्णलक्षणम् ॥ पृथ्वी का पीतवर्ण, अग्नि का लोहित (रक्त) वर्ण, प्रजापति का कृष्णवर्ण, इन्द्र का नीलवर्ण और सोम का श्वेतवर्ण समझना चाहिए।
- अङ्गिरा – पार्थिवीं चैव सौमीञ्च लिखेद्द्वे द्वादशाङ्गुले। एकविंशतिराग्नेयी प्रादेशिन्यावुभे स्मृते ॥ षडङ्गुलान्तराः कार्या अग्नेयी संहतास्तु याः । पार्थिव्या चैव रेखायास्तिस्रास्ता उत्तरोत्तराः॥ पृथ्वी और सोम का द्वादशाङ्गुल (पूर्वाग्र), अग्नि का २१ अङ्गुल (उत्तराग्र), अन्य २ पूर्वाग्र रेखाएं प्रादेशमात्र समझना चाहिए और सभी पूर्वाग्र रेखाओं में ६-६ अङ्गुल का अन्तर रखना चाहिए।
- कात्यायन : लक्षणे प्राग्गतायास्तु प्रमाणं द्वादशांगुलं। तन्मूललग्ना योदीची तस्या एतन्रवोत्तरं। उदग्गतायाः संलग्ना शेषाः प्रादेशमातृकाः॥
- अङ्गिरा – सव्यं भूमौ प्रतिष्ठाप्य प्रोल्लिखेद्दक्षिणेन तु । तावन्नोस्थापयेत्पाणिं यावदग्निं निधापयेत् ॥ वामहस्त को भूमि पर रखकर पञ्चभूसंस्कार आरम्भ करना चाहिए और जब तक अग्निस्थापन न किया जाय भूमि पर ही रखे। यहाँ एक बात यह ही स्पष्ट होता है कि यदि बायां हाथ भूमि पर रहेगा तो अग्नि स्थापन दोनों हाथ से नहीं होगा मात्र एक हाथ दाहिने से ही अग्निस्थापन होगा।
चन्द्रिका – स्मार्तान्यन्यानि कुर्वीत श्रद्दधानो जितेन्द्रियः । न स्वल्पलक्षणैर्यज्ञैर्यजेतेह कथंचन ॥ अन्नहीनो दहेद्राष्ट्रं मन्त्रहीनस्तु ऋत्विजः । दक्षिणाहीनो यजमानं नास्ति यज्ञसमो रिपुः ॥ यद्यपि इस वचन में यज्ञ शब्द का प्रयोग किया गया है और यज्ञ का मतलब होम मात्र नहीं होता, तथापि होम ही यज्ञ का प्रधान अंग है इस तथ्य को अवश्य समझना चाहिए और इस वचन को होमपरक भी समझा जाना चाहिए।
अस्तु होम करने में यदि सक्षम न हो तो न करे परंतु यदि करे तो किसी प्रकार की कृपणता कदापि न करे; न वस्तु संबंधी न्यूनता, न विधि संबंधी न्यूनता और न ही ब्राह्मण मंत्र सबंधी न्यूनता करें।
वस्तु की गुणवत्ता संबंधी दोष को भी न्यूनता ही समझना चाहिए; यथा घी का अन्य पदार्थ मिश्रित होना, तिलादि द्रव्यों का समुचित मार्जन नहीं करना, ईंधन स्वरुप लकड़ी-गोयठा आदि को सही से नहीं जांचना, कुशा की अनुपलब्धता, स्रुक्-स्रुव-प्रणीता-प्रोक्षणी आदि यज्ञीय पात्रों का नहीं होना।
स्थण्डिल या होमभूमि लक्षण; गृह्यसङ्ग्रह – प्राङ्नीचं ब्रह्मवर्चस्यमुदङ्नीचं यशोन्नतं । पित्र्यन्दक्षिणतोनीचं प्रतिष्ठालम्भकं समं ॥ यदि पूर्व में निम्न हो तो ब्रह्मवर्चस वृद्धि, उत्तर निम्न हो तो यश वृद्धि, पितृ संबधी कर्म का हो तो दक्षिण में निम्न होने से प्रतिष्ठाप्रदायक होता है।
विभिन्न होमों के लिए आवाहनीय अग्नि का नाम :-
गृह्यसङ्ग्रह – लौकिके पावकोह्यग्निः प्रथमः परिकीर्त्तितः । अग्निस्तु मारुतोनाम गर्भाधानेऽभिधीयते ॥ पुंसवने चन्द्रनामा शुङ्गाकर्मणि शोभनः। सीमन्ते मङ्गलोनाम प्रगल्भोजातकर्म्मणि॥ नाम्नि स्यात्पार्थिवोह्यग्निः प्राशने च शुचिस्तथा। सत्यनामा च चूडायां व्रतादेशे समुद्भवः॥ गोदाने सूर्यनामा स्यात्केशान्ते ह्यग्निरुच्यते । वैश्वानरोविसर्गं च विवाहे योजकः स्मृतः ॥ चतुर्थ्यान्तु शिखी नाम धृतिरग्निस्तथा परे । प्रायश्चित्ते विधुश्चैव पाकयज्ञे च साहसः ॥ लक्षहोमे च वह्निः स्यात्कोटिहोमे हुताशनः । पूर्णाहुलत्यां मृडोनाम शान्तिके वरदस्तथा ॥ पौष्टिके बलदश्चैव क्रोधोऽग्निश्चाभिचारिके । कोष्ठे तु जाठरोनाम क्रव्यादोमृतभक्षणे ॥
हवन काल में ध्यान रखने योग्य महत्वपूर्ण तथ्य
- भविष्य पुराण – आहुतिस्तु घृतादीनां स्रुवेणाधोमुखेन च । हुनेत् तिलायाहुतीश्च दैवेनोत्तानपाणिना ॥
- वनदृर्गाकल्प – सर्वकार्यप्रसिद्ध्यर्थं जिह्वायां तत्र होमयेत् । चक्षुः कर्णादिकं ज्ञात्वा होमयेद्देशिकोत्तमः ॥ अग्निकर्णे हुतं यस्तु कुर्याच्चेद् व्याधितो भयम् । नासिकायां महद्दःखं चक्षुषोर्नाशनं भवेत् ॥ केशे दारिद्र्यदं प्रोक्तं तस्मा ज्जिह्वासु होमयेत् । यत्र काष्ठं तत्र श्रोत्रे यत्र धूमस्तु नासिके ॥ यत्राल्पज्वलनं नेत्रं यत्र भस्म तु तच्छिरः । यत्र च ज्वलितो वह्निस्तत्र जिहवा प्रकीर्तिता ॥
- कर्मकौमुदी-परशुरामकारिका – स्वाहावसाने जुहुयात् स्वाहया सह वा हविः । त्यागान्ते ब्रुवते केचिद् द्रव्यप्रक्षेपणं बुधाः ॥
- दुर्गार्चनसृति – सकारे सूतकं विद्याद्धकारे मृत्युमादिशेत् । आहुतिस्तत्र दातव्यः यत्र आकार दृश्यते ॥ स्वाहा – स्+व्+आ+ह+आ इसमें से जब अंतिम स्वर आ का उच्चारण हो उस काल में होम करना चाहिए।
- वृद्धमनु – स्नातश्च वरुणस्तेजो जुह्वतोऽग्निः श्रियं हरेत् । भुञ्जानस्य यमस्त्वायुस्तस्मान्न व्याहरेत् त्रिषु ॥ तीन समय नहीं बोलना चाहिए, यदि बोले तो – स्नानकाल में तेज का वरुण, होमकाल में श्री का अग्नि और भोजनकाल में आयु का यम हरण करते हैं।
- कात्यायन : लक्षणे प्राग्गतायास्तु यत्र अङ्गं न चोच्यते। दक्षिणस्तत्र विज्ञेयः कर्मणां पारगः करः॥ जहां हस्त आदि अंगों हेतु वाम अंग का उल्लेख न हो वहां दक्षिण अंग ही समझना चाहिए।
- कात्यायन : आसीन उर्ध्वः प्रह्वो वा नियमो यत्र नेदृशः। तदासीनेन कर्तव्यं न प्रह्वेण न तिष्ठिता॥ जहां बैठकर-खड़ा होकर-नम्र होकर आदि कुछ उल्लेख न हो वहां बैठकर करणीय समझना चाहिए।
- कात्यायन : यत्र दिङ्गनियमो नास्ति जपहोमादि कर्मसु। तिस्रस्तत्र दिशोज्ञेयो ऐन्द्रीसौम्याऽपराजिता॥ जहां दिशा संबंधी कोई उल्लेख न प्राप्त हो वहां पूर्व, उत्तर और ईशानकोण तीनों में से कोई भी ग्रहण किया जा सकता है।
उपरोक्त विधियों को समझने के बाद अब हम सरलता से हवन कर सकते हैं। लेकिन अभी भी आगे की विधि दो भागों या प्रकारों में विभाजित किया गया है – १. वाजसनेयी हवन विधि और २. छन्दोग हवन विधि
कर्मकांड विधि में शास्त्रोक्त प्रमाणों के साथ प्रामाणिक चर्चा की जाती है एवं कई महत्वपूर्ण विषयों की चर्चा पूर्व भी की जा चुकी है। तथापि सनातनद्रोही उचित तथ्य को जनसामान्य तक पहुंचने में अवरोध उत्पन्न करते हैं। एक बड़ा वैश्विक समूह है जो सनातन विरोध की बातों को प्रचारित करता है। गूगल भी उसी समूह का सहयोग करते पाया जा रहा है अतः जनसामान्य तक उचित बातों को जनसामान्य ही पहुंचा सकता है इसके लिये आपको भी अधिकतम लोगों से साझा करने की आवश्यकता है।