उपनयन संस्कार और व्रात्य

व्रात्य - Vraty

व्रात्य के ऊपर विस्तृत चर्चा करने की आवश्यकता है। वर्त्तमान युग में यदि किसी को यह कहा जाय कि बच्चे का उपनयन ससमय करें तो वह मुंह बना लेता है। यदि थोड़ा समय शेष रहने पर सजग किया जाय तो यह उत्तर देता है कि “सब ठीक है”, दोष को जानता भी नहीं और समस्या ये है कि जानना चाहता भी नहीं। तथापि चर्चा की आवश्यकता तो है, सभी ऐसी सोच ही नहीं रखते हैं, बहुत लोग अच्छी सोच भी रखते हैं और जानकारी चाहते हैं। ऐसे ही सजग लोगों के लिये यह आलेख विशेष उपयोगी है क्योंकि इसमें एक गंभीर विषय व्रात्य की विस्तृत चर्चा की गयी है। आशा है यह आलेख श्रद्धावानों के लिये ज्ञानवर्द्धक सिद्ध होगी और लाभान्वित करने वाली होगी।

ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य तीनों वर्णों के लिये यज्ञोपवीत की एक सुनिश्चित अवधि है, व्रात्य का अर्थ होता है उस अवधि का अतिक्रमण हो जाना। निर्धारित अवधी व्यतीत हो जाने पर जिस व्यक्ति का उपनयन नहीं होता अथवा 10 संस्कारों का लोप हो जाता है उसे व्रात्य कहा जाता है । उसका प्रायश्चित बहुत कठिन व व्यय कराने वाला है “व्रात्यस्तोम” । “आ षोडशाद्ब्राह्मणस्य नातीतः कालः॥ आ द्वाविंशात्क्षत्रियस्य॥ आ चतुर्विंशाद्वैश्यस्य॥ अत ऊर्ध्वं पतित सावित्रीका भवन्ति॥” – वशिष्ठस्मृति

ब्राह्मण का यज्ञोपवीत का काल 8 से 16 वर्ष है, 16 वर्ष की आयु तक यदि ब्राह्मणकुमार का यज्ञोपवित नहीं हुआ तो व्रात्य हो गया । इसी प्रकार क्षत्रिय के यज्ञोपवीत की अवधि 11 से 22 वर्ष की आयु तक है, वैश्यों के यज्ञोपवीत की अवधी 12 से 24 तक है। इस सीमा का अतिक्रमण हो जाने पर व्रात्य संज्ञा हो जाती है । ससमय उपनयन की परंपरा यदि टूट गई तो नाममात्र के ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य रह जाते हैं।

व्रात्य का अर्थ

आगे की चर्चा से पूर्व कुछ शास्त्रोक्त प्रमाणों का अवलोकन आवश्यक है; व्रात्य के विषय में उपलब्ध शास्त्रोक्त प्रमाण इस प्रकार हैं

व्रात्य – आतात् समूहात् च्यवति यत्। अव्यवहार्य्ये, संस्कारहीने, जातिमात्रोपजीविनि, “अत ऊर्द्ध्वं त्रयोऽप्येते यथाकालमसंस्कृताः। सावित्रीपतिता व्रात्या भवन्त्यार्य्यविगर्हिताः” मनुः। तत्र प्रायश्चित्तं मिताक्षरा उक्तं यथातत्र व्रात्यतायां मनुनेदमुक्तम् “येषां द्विजानां सावित्रीनानूच्येत यथाविधि। तांश्चारयित्वा त्रीन् कृच्छ्रान् यथाविध्युपनाययेदिति”। यच्च यमेनोक्तम् “सावित्रीपतितायस्य दश वर्षाणि पञ्च च। सशिखं वपनं कृत्वा व्रतं कुर्य्यात् समाहितः। एकविंशतिरात्रञ्च पिबेत् प्रसृतियावकम्। हविषा भोजयेच्चैव ब्राह्मणान् सप्त पञ्च वा। ततो यावकशुद्धस्य तस्योपनयनं स्मृतम्” इति।

व्रात्य
व्रात्य

तत्रैव पञ्चदशवर्षादूर्द्धमपि कियत्कालातिक्रमे तूद्दालकव्रतम् व्रात्यस्तोमो वेति। येषान्तु पित्रादयोऽप्यनुपनीतास्तेषामापस्तम्बोक्तम् “यस्य पिता पितामहावनुपनीतौ स्यातान्तस्यसंवत्सरं त्रैविद्यकं ब्रह्मचर्य्यम्। यस्य प्रपितामहादेर्नानुस्मर्यते उपनयनन्तस्य द्वादश वर्षाणि त्रैविद्यकं ब्रह्मचर्य्यमिति”।

व्रात्यः, (व्रातो व्यालादिः स इव । “शाखादिभ्यो यत् ।” ५ । ३ । १०३ । इति यत् ।) दशसंस्काररहितः । षोडशवर्षादूर्द्ध्वं अकृतव्रतबन्धो भ्रष्टगायत्त्रीको वा । इति भरतः ॥ तत् पर्य्यायः । संस्कारहीनः । इत्यमरः ॥ सावित्रीपतितः ॥ वाग्दुष्टः ॥ पुरुषोक्तिकः ॥ इति जटाधरः ॥

  • तस्य प्रायश्चित्तादि यथा, “अथ व्रात्यविधिं देवि ! प्रायश्चित्तन्तु यद्भवेत् । तत् शृणुष्व महेशानि सर्ववर्णे विशेषतः॥ दश वर्षाणि पञ्चैव ब्राह्मणश्चोपनीयते । एकविंशतिवर्षाणि यावद्वर्षमुपावशेत् । अत ऊर्द्ध्वं पतन्नेव सर्वधर्म्मबहिष्कृतः ॥ गायत्त्रीपतिता व्रात्या व्रात्यस्तोमेन संस्कृतः । अशक्ते चैव यज्ञस्य चरेदौद्दालिकं व्रतम् ॥ द्वौ मासौ यावकाहारो मासमेकं पयः पिबेत् । दध्ना च पक्षमेकन्तु सप्तरात्रं घृतेन तु ॥ अयाचितेन षड्रात्रं त्रिरात्रं वर्त्तयेज्जलैः । अहोरात्रं न भुञ्जीत ततः संस्कारमर्हति ॥ पतिता यस्य गायत्त्री दश वर्षाणि पञ्च च । प्रायश्चित्तं भवेत्तस्य प्रोवाच भगवान् शिवः ॥ सशिखं वपनं कृत्वा व्रतं कुर्य्यात् समाहितः । हविष्यं भोजयेदन्नं ब्राह्मणान् सप्त पञ्च वा ॥ एकविंशतिरात्रन्तु पिबेत् प्रसृतियावकम् । ततो यावकशुद्धस्य तस्योपनयनं स्मृतम् ॥ व्रतस्याचरणाशक्तौ कुर्य्याच्चान्द्रायणत्रयम् । सावित्रीपतिता येषां देशकालादिविप्लवात् ॥ चान्द्रायणं चरेद्यस्तु व्रतान्ते धेनुमुत्सृजेत् । क्षीरंवापि पिबेन्मासं दद्याद्गां वत्सशालिनीम् ॥” इति मत्स्यसूक्ते प्रायश्चित्तप्रकरणे ३८ पटलः ॥

व्रात्य के लिये आज्ञा : उपनयन काल का अतिक्रमण हो जाने पर निम्नलिखित निषेध भी प्राप्त होता है व्रात्य का उपनयन न करे, अध्यापन न करे, यजन न करे, विवाह न करे – “नैतानुपनयेन्नाध्यापयेन्नयाजयेन्नैभिर्विवाहयेयुः” – वशिष्ठस्मृति, वशिष्ठ कथन से ऐसा प्रतीत होता है कि व्रात्य हेतु उपनयन का निषेध हो जाता है किन्तु यह मूलभाव नहीं है। मूल भाव यह है कि कालातिक्रम होने से व्रात्य हो जाता है, सावित्री से पतित हो जाता है, और जब तक प्रायश्चित्त न करे तब तक उसका उपनयन नहीं हो सकता।

0 thoughts on “उपनयन संस्कार और व्रात्य

  1. महाराज जी की जय हो, बहुत ही गूढ जानकारी🙏🙏चरण स्पर्श

    1. जय श्री राधे कृष्ण 🚩
      यदि किसी प्रकार का कोई सुझाव-जानकारी प्रदान करना हो तो अवश्य प्रदान करें । कुछ षड्यंत्रकारी इस प्रकार हंगामा खड़ा कर रहे हैं जैसे सबके सब व्रात्य हो गये हों । हंगामा के पीछे विद्वत्तापूर्ण समाधान प्रस्तुत करें तो सराहनीय कार्य होता किन्तु प्रयोजन धनलोभ की पूर्ति ही प्रकट होता है।

  2. गुरु जी यज्ञ समाप्ति या पूजन समाप्ति के पश्चात उत्तर पूजा विधि के लिए भी मार्गदर्शन करने की कृपा करें।

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