धन्वंतरि पूजन विधि – Dhanvantari Puja Vidhi (13)

धन्वंतरि पूजन विधि - Dhanvantari Puja Vidhi

कार्तिक माह के कृष्ण पक्ष की त्रयोदशी तिथि को धन्वंतरि जयंती मनाई जाती है क्योंकि समुद्रमंथन के क्रम में अमृत कलश लेकर भगवान धन्वन्तरि इसी दिन प्रकट हुये थे। सागरमंथन का मुख्य उद्देश्य भी अमृतप्राप्ति ही कहा गया है। तब से कार्तिक कृष्ण त्रयोदशी के दिन भगवान धन्वंतरि की जयंती मनाई जाती है। सबसे बड़ा धन आरोग्य है जिसके देवता धन्वन्तरि हैं। अर्थात धन्वन्तरि की पूजा आरोग्य प्रदायक कही जाती है। आरोग्यवान व्यक्ति ही उद्यमी हो सकता है। इस आलेख में धन्वन्तरि जयंती के दिन पूजा करने की विधि और मंत्र बताई गयी है अर्थात धन्वंतरि पूजा विधि दी गयी है।

यदि मन में यह प्रश्न उत्पन्न न हो कि धन्वन्तरि कौन हैं तो उनके बारे में इतना ही ज्ञात होता है कि समुद्रमंथन से कार्तिक कृष्ण त्रयोदशी को जो अमृतकलश निकला था उसे लेकर निकलने वाले देवता धन्वंतरि हैं। किन्तु जब प्रश्न उत्पन्न होगा तब यह भी ज्ञात होगा कि धन्वंतरि कोई और नहीं साक्षात् भगवान विष्णु ही हैं। भगवान विष्णु के 24 अवतारों में ही धन्वन्तरि और मोहिनी अवतार भी है।

आरोग्यहीन व्यक्ति न ही सुखी हो सकता है और न ही दीर्घायु, कहा भी गया है पहला सुख निरोगी काया। इस प्रकार जैसे कभी “रोटी-कपड़ा-मकान” का नारा लगाया गया था वर्त्तमान में जिस नारे की आवश्यकता है वो है “स्वास्थ्य-संस्कार-सद्ज्ञान” का लगना चाहिये।

  • जब यह कहा जाता है कि स्वास्थ्य के विषय में बहुत ही विकास किये हैं तो उलटी गंगा बहाई जाती है, क्योंकि 50 वर्ष पूर्व लोगों को वर्षों में कभी-कभार चिकित्सा की आवश्यकता होती थी, ओषधिभक्षण करना पड़ता था, वर्त्तमान में नित्य भोजन अनिवार्य हो न हो दवा अनिवार्य होती जा रही है। दवा यदि अनिवार्य हो जाये तो इसका तात्पर्य है कि आरोग्य का अभाव है।
  • संस्कार की बात करें तो इसे एक उदाहरण से समझा जा सकता है कि पांव स्पर्श कर प्रणाम करना भुलाया जा रहा है, बड़ों से गलती हो जाये तो बच्चे भी कहते हैं “सॉरी बोलो” इसका नाम कुसंस्कार है संस्कार नहीं, अन्य षोडश संस्कारों की बात तो करना ही व्यर्थ है।
  • इसी प्रकार सद्ज्ञान का भी अभाव होता जा रहा है एवं वो अनेकानेक प्रसिद्ध कथाकारों के माध्यम से समझा जा सकता है।

धन्वन्तरि पूजा हेतु बड़े-बड़े संस्थानादि में प्रतिमा स्थापित करके विस्तृत विधान भी किया जाता है किन्तु सामान्य विधान से कलश स्थापित करके अथवा चित्रादि पर भी किया जा सकता है। यहां चित्रादि पर करने के लिये ही विधान बताया जा रहा है किन्तु उसमें एक विशेषता भी है कि धन्वंतरि चित्र के पास ही त्रयोदशतंतु वाला डोर भी रखे और उसकी भी पूजा करे एवं सपरिवार आरोग्य लाभ हेतु दाहिने बांह पर धारण करे।

कार्तिक कृष्ण त्रयोदशी की रात्रि के पहले पहर में विघ्न विनाशक धन्वन्तरि की पूजा आरोग्य, आयुष्य और सुख प्राप्ति आदि कामना से करनी चाहिये, अर्थात संकल्प में उपरोक्त कामनाओं का उल्लेख करे।

सर्वप्रथम नित्यकर्म संपन्न करके पूजा की व्यवस्था कर ले अर्थात आसन पर भगवान धन्वन्तरि का चित्र स्थापित करे और तेरह धागों वाली डोर भी रखे, अथवा किसी पात्र में अष्टदल निर्माण करके उसी में तेरह धागों वाली डोर भी रखे। जल, पंचामृत, पुष्प, चंदन, धूप, दीप, नैवेद्य, ताम्बूल, घंटा, शंख आदि सभी व्यवस्थित करके सर्वप्रथम पवित्रीकरण करे :

पूजा क्रमावली
पूजा क्रमावली

पवित्रीकरण : ॐ अपवित्रः पवित्रो वा सर्वावस्थां गतोऽपि वा । यः स्मरेत् पुण्डरीकाक्षं स बाह्याभ्यन्तरः शुचिः ॥ ॐ पुण्डरीकाक्षः पुनातु ॥

आचमन

अगले तीनों मंत्रों से आचमन करे :

  1. ॐ आत्म तत्त्वं शोधयामि स्वाहा ॥
  2. ॐ विद्या तत्वं शोधयामि स्वाहा ॥
  3. ॐ शिव तत्त्वं शोधयामि स्वाहा ॥

तत्पश्चात दो बार मुखशोधन करे और फिर हाथ धोये : ॐ सर्व तत्त्वं शोधयामि स्वाहा ॥

दिग्बंधन

तत्पश्चात् पीली सरसों, दूर्वा, तिल आदि लेकर दिग्बंधन करे –

ॐ अपक्रामन्तु भूतानि पिशाचाः सर्वतो दिशम् । सर्वेषामविरोधेन ब्रह्मकर्म समारभे ॥
ॐ देवाः आयन्तु ॥ यातुधाना अपयान्तु॥ ॐ विष्णोर्देवयजनं रक्षस्व ॥

सङ्कल्प

किसी भी पूजा आदि कर्म के लिये संकल्प अनिवार्य होता है। संकल्प हेतु त्रिकुशा-तिल-जल-पुष्प-चंदन-द्रव्यादि लेकर संकल्प मन्त्र पढ़े :

संकल्प द्रव्य भूमि पर त्याग करके भगवान धन्वंतरि का ध्यान करे :

अर्थात् – मैं चार भुजाओंवाले, पीले वस्त्र धारण किये हुये, सभी प्रकार के आभूषणों से सुशोभित, सुरों और असुरों द्वारा वन्दित भगवान् धन्वन्तरि का ध्यान करता हूँ। तरुण, कमलनयन, सभी अलंकारों से विभूषित, अमृतपूर्ण कमण्डलु लिये हुये, यज्ञभाग को ग्रहण करने वाले, देवों और दानवों से वन्दित, श्री से युक्त, भगवान् धन्वन्तरि का मैं ध्यान करता हूँ ।

आवाहन – आगच्छ देवदेवेश ! तेजोराशे जगत्पते । क्रियमाणां मया पूजां गृहाण सुरसत्तम ॥ श्री धन्वन्तरिदेवं आवाहयामि ॥

आसन : नाना रत्नसमायुक्तं कार्त स्वर विभूषितम् । आसनं देवदेवेश ! प्रीत्यर्थं प्रति गृह्यताम् ॥ आसनार्थे पुष्पाणि श्रीधन्वन्तरये नमः ॥

पाद्य – पाद्यं गृहाण देवेश, सर्वक्षेमसमर्थ भोः । भक्त्या समर्पितं देवं, लोकनाथ नमोऽस्तु ते ॥ इदं पाद्यं श्रीधन्वन्तरये नमः ॥

अर्घ्य : नमस्ते देवदेवेश ! नमस्ते धरणीधर ! नमस्ते जगदाधार ! अर्घ्योऽयं प्रतिगृह्यताम् ॥ इदं अर्घ्यं श्रीधन्वन्तरये नमः ॥

आचमन : देवानामपि देवाय देवानान्देवतात्मने । आचामं कल्पयामीशशुद्धानां शुद्धिहेतवे ॥ इदं आचमनीयं श्रीधन्वन्तरये नमः॥

पञ्चामृत : पयो दधि घृतं गव्यं माक्षिकं शर्करा तथा । पञ्चामृतेन स्नपनं गृहाण जगतः पते ॥ इदं पञ्चामृतस्नानीयम् श्रीधन्वन्तरये नमः॥

शुद्धोदक : परमानन्दबोधाब्धि निमग्ननिजमूर्तये । साङ्गोपाङ्गमिदं स्नानं कल्पयाम्यहमीश ते ॥ इदं शुद्धोदक स्नानीयम् श्रीधन्वन्तरये नमः॥

गंध : स्वभावसुन्दराङ्गाय नानाशक्त्याश्रयाय ते। चन्दनञ्च विचित्रञ्च कल्पयाम्यमरार्चित ॥ इदमनुलेपनम् श्रीधन्वन्तरये नमः॥

माला : ॐ माल्यादीनि सुगन्धीनि मालत्यादीनि च प्रभो । मयाहृतानि पूजार्थम्माल्यानि प्रतिगृह्यताम् ॥ इदं पुष्पमाल्यम् श्रीधन्वन्तरये नमः॥

धूप : वनस्पति रसोद्भूतो गन्धाढ्यः सुमनोहरः । आघ्रेयः सर्व देवानां धूपोऽयं प्रतिगृह्यताम् ॥ एष धूपः श्रीधन्वन्तरये नमः॥

दीप : साज्यं च वर्तिसंयुक्तं वह्निना योजितं मया। दीपं गृहाण देवेश ! त्रैलोक्य तिमिरापहम् ॥ एष दीपः श्रीधन्वन्तरये नमः॥

नैवेद्य : शर्करा खण्ड खाद्यानि दधि-क्षीर घृतानि च । आहारं भक्ष्यभोज्यं च नैवेद्यं प्रतिगृह्यताम् ॥ श्रीधन्वन्तरये नमः॥

आचमन : ॐ मुखशुद्धिविधानेन यतः शुद्धिरवाप्यते । एतदाचमनीयं मे गृहाण पुरुषोत्तम ॥ इदमाचमनीयम् श्रीधन्वन्तरये नमः॥

ताम्बूल : ॐ नागलोक समुद्भूतं रससौरभ्यसंयुतम् । ताम्बूलं ते प्रयच्छामि गृहाण परमेश्वर ॥ एतानि ताम्बूलानि श्रीधन्वन्तरये नमः॥

दक्षिणा : हिरण्यगर्भ गर्भस्थं हेमबीजं विभावसो । अनन्त पुण्य-फलदमतः शान्तिं प्रयच्छ मे ॥ पूजा साफल्यार्थे दक्षिणाद्रव्यं श्रीधन्वन्तरये नमः॥

प्रदक्षिणा

यानि कानि च पापानि जन्मान्तर कृतानि च । तानि तानि विनश्यन्ति प्रदक्षिणं पदे पदे ॥
अन्यथा शरणं नास्ति त्वमेव शरणं प्रभो ! तस्मात् कारुण्य-भावेन क्षमस्व परमेश्वर ॥

पुष्पाञ्जलि

सेवन्तिका बकुल चम्पक पाटलाब्जैः, पुन्नाग जाति करवीर रसाल पुष्पैः।
बिल्व प्रवाल तुलसीदल मंजरीभिः, त्वां पूजयामि जगदीश्वर मे प्रसीद॥
एष मंत्र पुष्पाञ्जलिं श्रीधन्वन्तरये नमः॥

साष्टाङ्ग प्रणाम : नमः सर्व हितार्थाय जगदाधारहेतवे । साष्टाङ्गोऽयं प्रयत्नेन मया कृतः ॥

क्षमा प्रार्थना

नीचे आरती भी दी गयी है, आरती आदि करके आधा नैवेद्य ब्राह्मण को प्रदान करे और आधा सपरिवार ग्रहण करे। तरह धागों वाली डोर दक्षिण बांह में धारण करे। डोरक धारण मंत्र नीचे दिया गया है।

भगवान धन्वंतरि की आरती

जय धन्वंतरि देवा, जय धन्वंतरि जी देवा।
जरा-रोग से पीड़ित, जन-जन सुख देवा॥
जय धन्वंतरि देवा

तुम समुद्र से निकले, अमृत कलश लिए।
देवासुर के संकट आकर दूर किए॥
जय धन्वंतरि देवा

आयुर्वेद बनाया, जग में फैलाया।
सदा स्वस्थ रहने का, साधन बतलाया ॥
जय धन्वंतरि देवा

भुजा चार अति सुंदर, शंख सुधा धारी।
आयुर्वेद वनस्पति से शोभा भारी ॥
जय धन्वंतरि देवा

तुम को जो नित ध्यावे, रोग नहीं आवे।
असाध्य रोग भी उसका, निश्चय मिट जावे ॥
जय धन्वंतरि देवा

हाथ जोड़कर प्रभुजी, दास खड़ा तेरा।
वैद्य-समाज तुम्हारे चरणों का घेरा॥
जय धन्वंतरि देवा

धन्वंतरिजी की आरती जो कोई नर गावे।
रोग-शोक न आए, सुख-समृद्धि पावे॥
जय धन्वंतरि देवा

धन्वंतरि पूजा मंत्र – प्रार्थना

सारांश : कुल मिलाकर यह स्पष्ट होता है कि धन्वंतरि जो अमृतकलश लेकर कार्तिक कृष्ण त्रयोदशी को प्रकट हुये थे और इसी कारण इस दिन उनकी जयंती मनाई जाती है। सबसे बड़ा धन कहें अथवा पहला सुख कहें आरोग्य को ही कहा गया है। यदि उत्तम स्वास्थ्य हो तभी कोई कर्म किया जा सकता है चाहे वह उद्यम हो अथवा धर्म। इसलिये आरोग्य के देवता धन्वन्तरि की पूजा विशेष श्रद्धा-भक्ति से करनी चाहिये। धन्वंतरि भगवान विष्णु के 24 अवतारों में से ही एक अवतार हैं।

कर्मकांड विधि में शास्त्रोक्त प्रमाणों के साथ प्रामाणिक चर्चा की जाती है एवं कई महत्वपूर्ण विषयों की चर्चा पूर्व भी की जा चुकी है। तथापि सनातनद्रोही उचित तथ्य को जनसामान्य तक पहुंचने में अवरोध उत्पन्न करते हैं। एक बड़ा वैश्विक समूह है जो सनातन विरोध की बातों को प्रचारित करता है। गूगल भी उसी समूह का सहयोग करते पाया जा रहा है अतः जनसामान्य तक उचित बातों को जनसामान्य ही पहुंचा सकता है इसके लिये आपको भी अधिकतम लोगों से साझा करने की आवश्यकता है।

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