मिथिला पद्धति में गणपति के बाद दुर्गा का पूजन होता है, एवं षोडशमातृका पूजनोपरांत श्री की पूजा करके वसोर्धारा की जाती है। यहाँ ध्यातव्य ये है कि मातृका पूजन नान्दीमुख या वृद्धिश्राद्ध का अंग है और वृद्धिश्राद्ध प्रातःकाल ही कर्तव्य है। व्यवहारतः प्रायः रात में मातृकापूजन करने का प्रचलन चल गया है जो शास्त्रानुमोदित नहीं है। वृद्धिश्राद्ध जातकर्म संस्कार में ही रात में किया जा सकता है विवाहादि में नहीं।
मातृका पूजन वामावर्त क्रम अर्थात अप्रदक्षिण या अपसव्य क्रम से किया जाता है। षोडश मातृका वेदी के लिये पीढ़े में वस्त्र बांधकर उसपर 16 गेहूं पुञ्ज या रंगे चावलों का पुञ्ज बनाकर गणपति के लिये अतिरिक्त पुंज भी बनाये और चित्रानुसार क्रम से पूजन किया जाता है। इस आलेख में षोडश मातृकाओं के वैदिक मंत्र और पूजा विधि दी गयी है।
षोडश मातृका पूजा विधि और मंत्र
यह ज्ञात करना कि मातृका पूजा वृद्धिश्राद्ध के अतिरिक्त और किन पूजा-अनुष्ठानों में किया जा सकता है अधिक कठिन नहीं है। षोडश मातृका के साथ अन्य जिन देवताओं की पूजा की जाती है : गणेश, दुर्गा; इनकी पृथक पूजा भी जब विस्तृत हो तो इनके साथ ही षोडश मातृका के पूजन (वृद्धि श्राद्ध के अतिरिक्त) की सिद्धि होती है। गणेश और दुर्गा की पूजा के अतिरिक्त अन्य देवताओं की पूजा में षोडश मातृका पूजा की सिद्धि नहीं होती है।
पुनः एक अन्य तथ्य यह भी है कि जब गणपति और दुर्गा की विशेष पूजा में आवरण पूजा के रूप में षोडश मातृका की पूजा होगी तो वह देवता के निकट की जायेगी और देवता के पूजन करने के उपरांत की जायेगी न की प्रारंभ में। साथ ही उसमें मंडल बनाने की भी आवश्यकता नहीं होगी क्योंकि वह पूजा उस प्रधान देवता के निकट ही की जायेगी। वो भी तब की जायेगी जब पद्धति में दी गयी हो स्वछंदता पूर्वक नहीं। यदि पद्धति में सप्तघृत मातृका की पूजा भी आवरण पूजा में दी गयी हो तो वह की जायेगी। जैसे महाष्टमी पूजा (दुर्गा पूजा) में अष्टमातृका पूजा का विधान प्राप्त होता है।
ध्यातव्य : यहां जो एक बात कही गयी है कि गणपति और दुर्गा की विशेष पूजाओं में मातृका की पूजा की जा सकती है इसका तात्पर्य यह नहीं है कि करना आरंभ कर दिया जाय। इसका तात्पर्य मात्र इतना है कि यदि किसी पद्धति में उपलब्ध हो तो करे। मूल तात्पर्य यह है कि अन्य सभी प्रकार के पूजा-अनुष्ठानों में जो वृद्धिश्राद्ध किये बिना ही अनेकानेक मंडलों के साथ मातृका मंडल भी बनाकर पूजा की जाती है वो स्वेच्छाचार ही सिद्ध होता है शस्त्रसिद्ध नहीं। स्वेच्छाचारी तो मातृकाओं का हवन भी कर देते हैं, जबकि मातृकाओं का होम नहीं होता है।
षोडश मातृका नाम
गौरी, पद्मा, शची, मेधा, सावित्री, विजया, जया, देवसेना, स्वधा, स्वाहा, मातृ, लोकमातृ, धृति, पुष्टि, तुष्टि, आत्मनकुलदेवता। साथ में अन्य देवताओं की भी पूजा की जाती है जिनके नाम हैं : गणपति, दुर्गा और श्री। षोडश मातृका के साथ गणपति आदि की पूजा षोडश मातृका पूजन का ही अंग होता है, कर्म के आदि में पूजन रूप में मान्य नहीं होता है।
निर्विघ्नता हेतु जो गणपति पूजा कर्म के आदि में करने का विधान है वह मातृका पूजन से पूर्व ही कर्तव्य होता है और पृथक है। मातृका पूजन के साथ जो किया जाता है वह मातृका पुजनांग होता है न कि कर्मनिर्विघ्नता हेतु किया जाने वाला प्रथम पूजन।

षोडश मातृका मंत्र
१. गणपति – ॐ गणानान्त्वा गणपति ᳪ हवामहे प्रियाणान्त्वा प्रियपति ᳪ हवामहे निधीनान्त्वा निधिपति ᳪ हवामहे व्वसो मम आहमजानि गर्भधमात्त्वमजासि गर्भधम् ॥ ॐ लम्बोदरं महाकायं गजवक्त्रं चतुर्भुजं । आवाहयाम्यहमं देवं गणेशं सिद्धिदायकम् ॥ ॐ भूर्भुवः स्वः गणपते इहागच्छ इह तिष्ठ ॥ ॐ भूर्भुवः स्वः गणपतये नमः ॥
२. गौरी – ॐ आयङ्गौः पृश्निरक्रमीदसदन्मातरं पुरः । पितरं च प्रयत्न्स्वः ॥ ॐ भूर्भुवः स्वः गौरि इहागच्छ इह तिष्ठ॥ ॐ भूर्भुवः स्वः गौर्यै नमः॥
३. पद्मा – ॐ हिरण्यरूपा ऽउषसो व्विरोक ऽउभाविन्दा ऽउदिथः सूर्यश्च । आरोहतं व्वरुण मित्र गर्तं ततश्श्चक्षाथामदितिं दितिञ्च मित्रोऽसि व्वरुणोऽसि ॥ ॐ भूर्भुवः स्वः पद्मे इहागच्छ इह तिष्ठ॥ ॐ भूर्भुवः स्वः पद्मायै नमः॥
४. शची – ॐ निवेशनः सङ्गमनो व्वसूनां विश्वा रूपाभिचष्टे शचीभिः ।देवऽइव सविता सत्यधर्मेन्द्रो न तस्त्थौ समरे पथीनाम् ॥ ॐ भूर्भुवः स्वः शचि इहागच्छ इह तिष्ठ॥ ॐ भूर्भुवः स्वः शच्यै नमः॥
५. मेधा – ॐ मेधां मे व्वरुणो ददातु मेधामग्निः प्रजापतिः। मेधामिन्द्रश्च व्वायुश्श्च मेधां धाता ददातु मे स्वाहा ॥ ॐ भूर्भुवः स्वः मेधे इहागच्छ इह तिष्ठ॥ ॐ भूर्भुवः स्वः मेधायै नमः॥
६. सावित्री – ॐ सविता त्त्वा सवाना ᳪ सुवतामग्निर्गृहपतीना ᳪ सोमो वनस्पतीनाम् । बृहस्पतिर्वाचऽइन्द्रो ज्ज्यैष्ठ्यायरूद्रः पशुब्भ्यो मित्रः सत्त्यो व्वरुणो धर्मपतीनाम् ॥ ॐ भूर्भुवः स्वः सावित्रि इहागच्छ इह तिष्ठ॥ ॐ भूर्भुवः स्वः सावित्र्यै नमः॥