प्राण प्रतिष्ठा विधि में एक क्रिया नेत्रोन्मीलन है। नेत्रोन्मीलन में एक परंपरा चल पड़ी है देवता के सामने शीशा/कांच रखने की और टूटने की। प्राण-प्रतिष्ठा काल में सीसे का वर्त्तमान प्रयोग एक प्रपंच के अतिरिक्त अन्य कुछ प्रतीत नहीं होता है। वास्तव में इसका करना कर्मकांड सम्बन्धी ज्ञान का अभाव होना है। सीसे का प्रयोग कहां, क्यों और कब किया जाता है इसको समझने पर वास्तविकता स्पष्ट हो जाती है। वैदिक विधि से प्राण प्रतिष्ठा में इसका क्या महत्व है हम इसे समझने का प्रयास करेंगे।
प्राण प्रतिष्ठा में शीशा टूटना – क्या चमत्कार है ? शास्त्र क्या कहता है ?
- कर्मकांड के किसी भी कर्म या विधि का प्रमाण शास्त्रों में ही ढूंढना चाहिये।
- यदि प्रमाण न मिले तो विद्वानों के विचार क्या थे यह जानना चाहिये।
- यदि विद्वानों के विचार भी ज्ञात न हो तो परंपरा ही पालनीय।
अभी तक मुझे गूगल और यूट्यूब पर ही प्राण प्रतिष्ठा में शीशा टूटने की चर्चा देखने-सुनने को मिली थी। लेकिन अब अयोध्या राम मंदिर में जब राम लला के प्राण प्रतिष्ठा की बात हो रही है तो शीशा टूटने वाली परम्परा की चर्चा भी बार-बार सुनने को मिल रही है।
- शास्त्र कथन : इस संबंध में शास्त्र प्रमाण अनुपलब्ध हैं।
- विद्वान कथन : लगभग सभी पद्धतिकारों ने इस परम्परा को अप्रमाणिक माना है और निंदा की है। हो सकता है कुछ नवोदित पद्धति में वर्णन मिल भी जाये।
- परम्परा : यह परंपरा सर्वत्र नहीं है। यदि कहीं इस प्रकार की परंपरा है भी तो उन्हें इससे पहले के दो महत्वपूर्ण पक्ष का के प्रति अज्ञानता का द्योतक है।
राम मंदिर प्राण प्रतिष्ठा में शीशा टूटने का प्रयोजन
आगे हम शास्त्रीय विधि को भी और गहराई से समझेंगे। लेकिन यह विषय विशेष रूप से विचारणीय इस कारण से हो गया है कि यदि राष्ट्रीय स्तर पर राम लला की प्राण प्रतिष्ठा का उत्सव मनाया जा रहा है ।
वहां भी अप्रमाणिक परंपरा का ही निर्वहन किया जायेगा तो मात्र उपस्थित विद्वानों पर ऐतिहासिक त्रुटि का आरोप ही नहीं लगेगा अपितु भविष्य में पूरे देश के लिये यह अविहित परंपरा लगभग अनिवार्य हो जायेगा।
इस संबंध में शास्त्र विधि और तात्पर्य क्या है ?
अब हम इस विषय में उपलब्ध शास्त्रीय प्रमाण और तात्पर्य को समझेंगे।
- भगवती (काली/दुर्गा आदि) के नेत्रोन्मीलन काल में बलि प्रदर्शन की विधि कही गई है।
- यदि छाग बलि न दी जा रही हो तो कूष्माण्ड बलि प्रदर्शित करे ।
- तात्पर्य यह है कि जब नेत्रोन्मीलन हो तो देवता की प्रथम दृष्टि बलि पर पड़े ।
- अन्य देवताओं के लिये यदि कूष्माण्ड बलि भी न दे सके तो, दधिमाष, पायस आदि की बलि दे, परंतु शीशा की बलि कैसे दे सकते हैं?
- नेत्रोन्मीलनोपरांत शीशा तोड़ने की परंपरा विद्वानों की असहमति के बाद भी कैसे और कहां से आरंभ हुई यह भी शोध का विषय है।
- नेत्रोन्मीलनोपरांत बलिप्रदर्शन की विधि दुर्गा पूजन (मिथिला देशीय वर्षकृत्य) में वर्णित है। तथापि किसी प्रकार का प्रमाण प्रस्तुत नहीं किया गया है, केवल आचारात विधि के रूप में उल्लिखित है। किन्तु विद्वद्वचन होने से मान्य है।
यहां पर एक पक्ष यह भी हो सकता है कि बलि प्रदर्शन केवल त्रिनेत्र प्रतिमायों के लिये ही करे, द्विनेत्र प्रतिमा में अपेक्षित नहीं। यह मेरा विचार है जिस पर विद्वद्जन विचार कर सकते हैं। लेकिन द्विनेत्र प्रतिमा हेतु भी सुवर्ण, पायस, अन्य भक्ष्य-भोज्य पदार्थों का निर्देश तो प्राप्त होता है।
शीशा का वास्तविक प्रयोजन क्या है –
प्राण प्रतिष्ठा में शीशा का वास्तविक प्रयोजन उस स्थिर या विशालादि प्रतिमा के संदर्भ में है जिसका अधिवासन न किया जा सके।
- उस अवस्था में शीशे आदि में छाया को समस्त अधिवास कराये किन्तु न्यास, स्नपन, नेत्रोन्मीलन छाया में न करें।
- जब इस प्रकार की प्रतिमा हो तो भी यह अनिवार्य नहीं है कि शीशा में ही छाया का अधिवासन कर्म करे, लेकिन किया जा सकता है।
- नेत्रोन्मीलन अधिवासन के पश्चात् प्राण-प्रतिष्ठा काल में नहीं, अधिवासन से पूर्व अग्न्युत्तारण से पहले ही करे। अग्न्युत्तारण के पश्चात्; भले ही प्रतीकात्मक नेत्रोन्मीलन क्यों न किया जा रहा हो अनुचित है। यदि अग्न्युत्तारण काल में ही स्नपन करना हो तो वो भी कर सकते हैं।
- लेकिन यहां शीशा तोड़ने का प्रदर्शन सर्वथा अनुचित ही प्रतीत होता है। प्रदर्शन ही करना हो तो बलि प्रदर्शन करना चाहिये।
- और शीशे तोड़ने की परंपरा कदाचित इसी संदर्भ में प्रक्षिप्त हुई हो सकती है कि अब छाया रूपी आधार की आवश्यकता नहीं है अतः इसे नष्ट कर दिया जाय ताकि मूल प्रतिमा में देवभाव उत्पन्न हो सके ।
- जब प्रतिमा स्थिर किया जा रहा हो, उस समय दृष्टिसाधन में हेतु शीशे का प्रयोग सहयोगी हो सकता है।
- प्रतिमा में मंत्र द्वारा सविधि देवता का अधिष्ठान किया जाता है न की शीशा तोड़कर।
ये मात्र भावनात्मक पक्ष है कि नेत्रोन्मीलन के समय शीशा प्रदर्शन करके तोड़ा जाय जो क्रमशः अन्य भाव में ही परिवर्तित हो गई कि यदि शीशा टूट गया तो प्रतिमा चैतन्य हो गई। यह पूर्णतः निराधार, अप्रमाणिक, अनपेक्षित परंपरा है।
- यदि छाया हेतु अन्य व्यवस्था की गई हो तब क्या होगा ?
- यदि प्रतिमा छोटी हो और स्थिर न की गई हो तो क्या होगा?
वास्तविक प्रयोजन :
इतना विचार करने के बाद भी संशय उपस्थित होता है कि शीशे का प्रयोग पूर्णतः प्रयोजनहीन है क्या? इस विषय पर विचार करने से ऐसा प्रतीत होता है कि संभवतः दृष्टिसाधन हेतु दर्पण प्रयोग की आवश्यकता होती है।
दृष्टिसाधन क्या है?
देवता की दृष्टि द्वार के उचित भाग में ही पड़ रहा है; यह सुनिश्चित करना दृष्टि साधन है। दृष्टिसाधन के कई प्रकार हैं जिनमें से मुख्य और सरलतम प्रकार यह है कि द्वार की ऊंचाई जितनी हो उसका चार भाग करे । दो भाग सिंहासन, तीसरे भाग में प्रतिमा और चौथा भाग रिक्त रखे ।
देवता की सम दृष्टि भी तीसरे भाग में ही पड़ रहा है यह सुनिश्चित करे । अधिकतम ३.५ भाग (८ भाग करने पर सातवें तक) किया जा सकता है। भैरव, महिषमर्दिनी आदि उग्र देवताओं की दृष्टि ऊपरी भाग में भी रखी जा सकती है।
कदाचित् दृष्टिसाधन में ही दर्पण का उपयोग करना संगत प्रतीत होता है। किंतु ऐसी स्थिति में कुछ और विशेषता होगी :
कुल मिलाकर दो जगह दर्पण का उपयोग किया जा सकता है – पहला प्रतिमा यदि बड़ी हो अथवा स्थिर कर दिया गया हो और अधिवासन करना संभव न हो तो दर्पण में छाया का अधिवासन करने हेतु और दूसरा दृष्टिसाधन हेतु।
- स्थिर दर्पण करके ही साधन संभव हो सकता है।
- यदि कोई व्यक्ति दर्पण को हाथों में रखे तो वह स्थिर नहीं हो सकता।
- एवं उचित प्रकार से दृष्टि साधन होने पर दर्पण भंग होगा ये आश्वस्त होकर कहना संभव नहीं।
- दृष्टि साधन के पश्चात् दर्पणभंग किया जाय ये भी किसी प्रकार उचित प्रतीत नहीं होता तथापि उग्र देवताओं के संबंध में भावनात्मक पक्ष पर आधारित हो सकता है।
आशा है यह जानकारी आपको अच्छी लगी हो। आप हमें अपना अमूल्य मार्गदर्शन भी प्रदान कर सकते हैं और त्रुटियों के लिये भी टिप्पणी करके ध्यानाकर्षण कर सकते हैं।
जहां तक राम लला की प्राण प्रतिष्ठा में शीशा तोड़ने की इस अप्रमाणिक परंपरा की बात है तो वहां उपस्थित विद्वानों को शास्त्रीय मर्यादा स्थापित करते हुये देश को यह सन्देश देना चाहिये कि शीशा तोड़ना अप्रमाणिक है और इसका समापन किया जाना चाहिये न कि जहां यह परंपरा नहीं है वहां भी आरम्भ हो जाये।
कर्मकांड विधि में शास्त्रोक्त प्रमाणों के साथ प्रामाणिक चर्चा की जाती है एवं कई महत्वपूर्ण विषयों की चर्चा पूर्व भी की जा चुकी है। तथापि सनातनद्रोही उचित तथ्य को जनसामान्य तक पहुंचने में अवरोध उत्पन्न करते हैं। एक बड़ा वैश्विक समूह है जो सनातन विरोध की बातों को प्रचारित करता है। गूगल भी उसी समूह का सहयोग करते पाया जा रहा है अतः जनसामान्य तक उचित बातों को जनसामान्य ही पहुंचा सकता है इसके लिये आपको भी अधिकतम लोगों से साझा करने की आवश्यकता है।