प्रेतत्व निवारण में श्रीमद्भागवत महापुराण का सर्वोच्च स्थान है। जिस प्रेत को नाना प्रकार के श्राद्धों से भी शांति नहीं मिलती है उसे भी सप्ताह भागवत से शांति/सद्गति मिलती है। श्रीमद्भागवत महापुराण के सप्ताह पारायण की एक विशेष विधि है। श्राद्ध में भी सम्पूर्ण भागवत पाठ कराया जाता है। इस आलेख में या बताया गया है की श्राद्ध में श्रीमद्भागवत महापुराण के पाठ का क्या महत्व है अर्थात क्यों कराना चाहिये और किस विधि से करनी चाहिये, कब करनी चाहिये ?
भागवत सप्ताह विधि श्राद्ध में कैसे करें सम्पूर्ण जानकारी – bhagwat saptah
पुराणों की कुल संख्या अठारह है जो इस प्रकार है –
मद्वयं भद्वयं चैव ब्रत्रयं वचतुष्टयम् । अनापलिङ्ग कूस्कानि पुराणानि प्रचक्षते ॥
- मद्वयं – मत्स्यपुराण और मार्कण्डेय पुराण – 2
- भद्वयं – भविष्य पुराण और भागवत पुराण – 2
- ब्रत्रयं – ब्रह्म पुराण, ब्रह्मवैवर्त पुराण और ब्रह्माण्ड पुराण – 3
- वचतुष्टयम् – विष्णु पुराण, वायु पुराण, वामन पुराण और वाराह पुराण – 4
- अ – अग्नि पुराण – 1
- ना – नारद पुराण – 1
- प – पद्म पुराण – 1
- लिङ् – लिङ्ग पुराण – 1
- ग – गरुड पुराण – 1
- कू – कूर्म पुराण – 1
- स्कानि – स्कन्द पुराण – 1
इन अठारह पुराण के नामों में मुख्य रूप से 4 पुराणों के नाम पर मतान्तर भी मिलता है – अग्निपुराण, कूर्म पुराण, वायु पुराण और नारद पुराण। ग्रन्थान्तर से कहीं शिवपुराण, तो कही नृसिंह पुराण से परिवर्तित क्रम में बताये जाते हैं।
इन अठारह पुराणों में श्रीमद्भागवत पुराण को विशेष महत्व प्राप्त है। सभी पुराणों और महाभारत आदि ग्रन्थ लिखने के बाद महर्षि व्यास ने श्रीमद्भागवत महापुराण लिखा। कई महत्वों में से एक है प्रेतत्व से मुक्ति प्रदायक होना। प्रेतत्व से मुक्ति प्रदायक होने की कथा श्रीमद्भागवत महापुराण के माहात्म्य में वर्णित है जो गोकर्णोपाख्यान नाम से जानी जाती है।
इसी विशेषता के कारण श्राद्ध में भी श्रीमद्भागवत पुराण का पाठ कराया जाता है। श्राद्ध से पूर्व मृतक प्रेत योनि में ही रहता है और सप्ताह भागवत प्रेतत्व निवारक है अतः प्रेत की मुक्ति कर शांति कामना से श्राद्ध में भागवत का काम्य कर्म किया जाता है।

सप्ताह भागवत
यद्यपि सप्ताह भागवत की अलग विधि है और श्राद्ध में भागवत कराना सप्ताह भागवत संज्ञक नहीं सिद्ध होता किन्तु मौखिक रूप से सप्ताह भागवत बोलते हुए पाया जाता है। श्राद्ध में किया जाने वाला भागवत पारायण सप्ताह भागवत संज्ञक कैसे नहीं सिद्ध हो सकता इसको बिंदुवार इस प्रकार समझा जा सकता है :
- सप्ताह भागवत का तात्पर्य है सात दिनों तक विधि के अनुसार पारायण पाठ और कथा श्रवण।
- सात दिन का तात्पर्य सप्ताह के सातों दिन होते हैं।
- एक दिन में सात ब्राह्मण के द्वारा पाठ कराने पर भी सातों दिन नहीं हो सकते।
- सात पारायण में विभक्त करके भी पाठ करने पर पारायण पाठ तो होगा लेकिन सप्त पारायण पाठ होगा सप्ताह पारायण नहीं।
- यदि सात ब्राह्मण संख्या से सबके एक-एक दिन मिलकर 7 माने भी जायें तो एक दिन में नहीं होता 2 दिन किया जाता है इस नियम से तो 14 दिन की सिद्धि होगी और दिन की संख्या तो 7 ही होती है।
- इसके साथ ही सप्ताह भागवत के लिये एक विशेष अनुष्ठान विधि भी होती है, जो श्राद्ध में पारायण पाठ करने में ग्रहण नहीं किया जाता।
श्रीमद् भागवत मूल पाठ
अब प्रश्न उठता है कि श्राद्ध में फिर होता क्या है ?
- श्राद्ध में श्रीमद् भागवत मूल पाठ किया जाता है।
- श्रीमद् भागवत मूल पाठ को 7 दिनों के लिये 7 भागों में विभाजित किया गया है।
- प्रत्येक भाग 1 – 1 सप्ताह पारायण संज्ञक होता है।
- श्राद्ध के दोनों दिनों में 7 ब्राह्मणों द्वारा 1 – 1 पारायण का संस्कृत पाठ कराया जाता है।
- सम्पूर्ण भागवत संस्कृत में पाठ करना श्रीमद् भागवत मूल पाठ कहलाता है।
भागवत पाठ
अब आगे यह प्रश्न होना स्वाभाविक है कि क्या श्राद्ध में भागवत पाठ करने की कोई विशेष विधि भी है ? अभी वर्त्तमान में ऐसी कोई पद्धति नहीं देखी जा रही है संभव है कदाचित हो भी। व्यवहार में ऐसा देखा जाता है कि श्राद्ध संकल्प के पश्चात् ब्राह्मणों के वरण समय ही कुछ लोग पाठ का संकल्प करके भागवत पाठ करने वाले ब्राह्मणों का वरण करते हैं तो कुछ लोग बिना संकल्प किये भी वरण करते हैं।
वरण के बाद कहीं-कहीं पुस्तक पूजा करके पाठ किया जाता है तो कहीं-कहीं भगवान विष्णु/कृष्ण का ध्यान मात्र करके पाठ किया जाता है, और भी विधि से किया जाता हो ये भी संभव है, परन्तु हमें ज्ञात नहीं।
आगे का विषय यह है कि यह एक काम्य कर्म की श्रेणी में आता है और श्राद्ध से स्वतंत्र कर्म भी है। क्या इसकी विधि नहीं होनी चाहिये ? जिस प्रकार पञ्चक शान्ति विधि श्राद्ध से स्वतंत्र एक शान्तिक कर्म है और उसकी विधि है उसी प्रकार भले ही विस्तृत विधि न हो, संक्षिप्त ही हो किन्तु श्राद्ध से स्वतंत्र काम्य कर्म होने के कारण श्राद्ध में भी भागवत पारायण पाठ की विधि होनी चाहिये।
लेकिन पुनः यदि श्राद्ध से स्वतंत्र कर्म रूप में किया जाय तो दो प्रश्न उत्पन्न होते हैं :
प्रथम यह कि यदि स्वतंत्र कर्म पूर्वक प्रेतत्व विमुक्ति हेतु किया जाय तब फिर श्राद्ध का औचित्य क्या होगा? अर्थात् षोडश श्राद्ध अनौचित्य हो जाएगा क्योंकि प्रेतत्व की निवृत्ति तो भागवत पारायण से ही हो जाएगी ।
द्वितीय यह कि यदि स्वतंत्र कर्म मानकर किया जाएगा तो पहले कौन और पीछे कौन सा कर्म किया जाय क्योंकि एक की सम्पूर्णता होने पर ही दूसरा कर्म किया जाएगा। यदि भागवत प्रथम कर्म करें तो श्राद्ध ही अनौचित्य हो जाय और यदि श्राद्ध प्रथम करें तो भागवत 13 – 14 दिन हो क्योंकि 12 दिन तो श्राद्ध पूर्ण ही होगा।
अस्तु निष्कर्ष यह निकलता है कि कि यद्यपि भागवत पारायण एक स्वतंत्र कर्म है तथापि जब श्राद्ध में किया जा रहा हो तो श्राद्धांग स्वरूप ही दिया जा सकता है।
संकल्प : संकल्प का विचार आवश्यक है, संकल्प कब और क्या करे ?
यह सिद्ध हो गया है कि यदि स्वतंत्र कर्म माना जाया तो भागवत पारायण संपन्न करके षोडश श्राद्ध आरम्भ करे या षोडश श्राद्ध संपन्न होने के बाद भागवत पारायण करे। अर्थात तदनुसार संकल्प करे। और इस प्रकार श्राद्ध में भागवत पाठ करना ही असिद्ध हो जायेगा। अस्तु श्राद्धांग ही स्वीकार करे और श्राद्धांग स्वीकार होने से षोडश श्राद्ध का संकल्प करने के बाद भागवत का संकल्प करे।
संकल्प तो करे किन्तु प्रेतत्व विमुक्ति कामना श्राद्ध संकल्प में प्रयुक्त होने से भागवत में भी प्रेतत्व विमुक्ति प्रयुक्त न हो, सद्गति प्राप्ति, उत्तमलोक प्राप्ति आदि प्रयुक्त हो । भागवत संकल्प में प्रेतत्व विमुक्ति प्राप्ति पद तभी प्रयुक्त हो जब श्राद्ध के उपरांत भी किसी कारणवश प्रेतत्व से मुक्ति न हुई हो और यह ज्ञात भी हो।
ब्राह्मण वरण : प्रायः सामूहिक वरण होते देखा जाता है किन्तु पारायण विभाग से पृथक-पृथक वरण हो अथवा समूह में वरण हो तो भी न्यूनतम इतना अवश्य स्पष्ट रहे कि एक ब्राह्मण एक पारायण पाठ करेंगे, अन्य पारायण में उनका अधिकार नहीं होगा।
पूजा : अधिक विस्तार भले न किया जाय वेदी पर अष्टदल बनाकर सिंहासन देकर विष्णु/कृष्ण की षोडशोपचार पूजा अपेक्षित है। पुनः श्रीमद्भागवत महापुराण की पूजा भी होनी चाहिये और पाठकर्ता ब्राह्मणों की भी पूजा होनी चाहिये।
हवन : भागवत पारायण पाठ होने से हवन की सिद्धि तो होती है, किन्तु जब स्वतंत्र कर्म रहे तब। श्राद्धांग स्वरूप में जब ग्रहण किया गया हो तो हवन की सिद्धि नहीं होती है।

आरती – पूजा का अंग होने से आरती की भी सिद्धि होती है, अतः आरती भी करे ।
श्राद्ध में भागवत सप्ताह विधि
ऊपर भागवत पारायण को किस स्वरूप में ग्रहण करे, संकल्प कब करे – क्या करे आदि स्पष्ट हो चुका है और ऐसा प्रयास किया गया है कि सभी शंकाओं का भी समाधान हो जाये। तदपि यदि अन्य प्रश्न भी उत्पन्न हों तो सादर आमंत्रित हैं। व्यवहार में होता यह है कि श्राद्ध आरम्भ के समय महापात्र वरण होने के बाद ही भागवत पाठ सम्बन्धी संकल्प-वरण भी किया जाता है।
आवश्यकता को देखते हुये यहां श्राद्ध में श्रीमद् भागवत मूल पाठ की विधि (श्राद्धांग काम्य प्रयोग – हवन रहित) दी जा रही है और आशा की जाती है कि जनोपयोगी सिद्ध हो।
शालिग्राम पूजन
यदि शालिग्राम पूजन करना हो तो प्रारम्भ में ही नित्यकर्म के बाद किसी सिंहासन पर शालिग्राम को रखें और पञ्चोपचार/षोडशोपचार विधि से पूजा कर लें।
एकादशाह के दिन जब षोडश श्राद्ध सङ्कल्प कर ले तब उत्तराभिमुख बैठे वैदिक-भागवत पाठकर्ता सभी ब्राह्मण स्वस्तिवाचन करे। फिर श्राद्ध कर्ता आद्यश्राद्ध संकल्प से पूर्व भागवत पारायण पाठ का संकल्प करे। पूर्वाभिमुख-सव्य रहते हुये संकल्प हेतु त्रिकुशा, तिल, जल आदि संकल्प द्रव्य ग्रहण करके संकल्प करे :
संकल्प
ॐ अद्य ………. गोत्रस्य ……….. प्रेतस्य सद्गतिपूर्वक वैकुण्ठपदप्राप्तये, पूर्वसंकल्पित षोडश (सप्तदश) श्राद्ध कर्मणि, अद्यादि यथाकालं श्रीमद्भागवत महापुराण पाठमहं करिष्ये ॥
भागवत पाठकर्ता ब्राह्मण वरण
महापात्र-पुरोहित-वैदिक आदि वरण संकल्प पूर्व ही हो जाता है। भागवत पाठ संकल्प करने के बाद एक-एक पारायण हेतु भी अलग-अलग सात विद्वान ब्राह्मण का वरण करे अथवा एक साथ करे। यहाँ दोनों प्रकार दिया जा रहा है :
एक-एक ब्राह्मण वरण : एक ब्राह्मण वरण सामग्री (धोती-जोड़ा-श्वेत, गमछा, चादर, आसनी, यज्ञोपवीत, डाँरकडोर, श्रीमद्भागवत महापुराण-वस्त्रावेष्टित व रेहल (आसन) सहित, तुलसी माला-गोमुखी, पञ्चपात्र-अर्घा, पवित्री, द्रव्य आदि) बांये हाथ में रखे। दांये हाथ में त्रिकुशा-तिल-जल लेकर पढ़े : ॐ अद्य श्रीमद्भागवतमहापुराणस्य प्रथम (द्वितीय, तृतीयादि) पारायण पाठ कर्तुं एभिः वरणद्रव्यैः ……. गोत्रं …….. ब्राह्मणं पाठकत्वेन त्वामहं वृणे ॥
पढ़कर तिल-जल वरण सामग्री पर छिड़के और ब्राह्मण को दे। वरण देने के लिये यजमान उठकर ब्राह्मण के पास जाये न कि ब्राह्मण उठकर ग्रहण करने हेतु यजमान के पास आये। वृत्तोस्मि कहते हुये ब्राह्मण वरणसामग्री ग्रहण करे।
एक साथ सभी ब्राह्मणों का वरण : एक साथ सभी ब्राह्मणों का वरण करने के लिये कोई वस्त्र या पत्ता बिछाकर सभी ब्राह्मण वरण सामग्री उस पर रखे। दांये हाथ में त्रिकुशा-तिल-जल लेकर पढ़े : ॐ अद्य श्रीमद्भागवतमहापुराणस्य एकैक पारायण पाठ कर्तुं, एभिः वरणद्रव्यैः नानानामगोत्राणां ब्राह्मणानां पाठकत्वेन युष्मानहं वृणे ॥
पढ़कर तिल-जल वरण सामग्री पर छिड़के और एक-एक वरण सामग्री एक-एक ब्राह्मण को पश्चिम-पूर्व क्रम से दे। वरण देने के लिये यजमान उठकर ब्राह्मण के पास जाये न कि ब्राह्मण उठकर ग्रहण करने हेतु यजमान के पास आये। वृत्ताःस्म कहते हुये ब्राह्मण वरणसामग्री ग्रहण करे।
ब्राह्मण का रक्त-पीत वस्त्र धारण करना : शास्त्रों में ब्राह्मण का श्वेत वर्ण बताया गया है और श्वेत वस्त्र धारण करने के लिये कहा गया है। यज्ञादि में पीत वस्त्र धारण करना निषिद्ध नहीं है। किन्तु श्राद्ध में श्वेत वस्त्र धारण करने वाले ब्राह्मण ही ग्राह्य होते हैं। रक्तादि वस्त्र धारण करने वाले ब्राह्मण श्राद्ध भूमि में न जायें और यजमान ऐसे ब्राह्मणों का श्राद्ध में वेद-पुराण आदि पाठ करने के लिये भी वरण न करे।
ब्राह्मण पूजा : वरणोपरांत यजमान यथोपचार (चंदन, पुष्पाक्षत, फल, माला, द्रव्य आदि से) ब्राह्मण की पूजा करके प्रार्थना करे । तत्पश्चात ब्राह्मण स्वयं पवित्रीकरणादि करके श्रीमद्भागवत महापुराण को आसन (वस्त्राच्छादित रेहल) पर रखकर उपलब्ध उपचारों द्वारा पूजा करें।
द्वादशाक्षर जप
प्रत्येक पाठकर्ता ब्राह्मण अष्टोत्तरशत द्वादशाक्षर मंत्र का जप करें। द्वादशाक्षर मंत्र – “ॐ नमो भगवते वासुदेवाय” । जप निवेदन करके न्यास करें।
विनियोग : ॐ अस्य श्रीमद्भागवताख्यस्तोत्रमन्त्रस्य नारद ऋषिः, बृहती छन्दः, श्रीकृष्णः परमात्मा देवता, ब्रह्म बीजम्, भक्तिः शक्तिः, ज्ञानवैराग्ये कीलकम्, मम श्रीमद्भगवत्प्रसादसिद्ध्यर्थं पाठे विनियोगः ॥
ऋष्यादिन्यास : ‘नारदर्षये नमः’ शिरसि ॥ ‘बृहतीच्छन्दसे नमः’ मुखे ॥ ‘श्रीकृष्णपरमात्मदेवतायै नमः’ हृदि ॥ ‘ब्रह्मबीजाय नमः’ गुह्ये ॥ ‘भक्तिशक्तये नमः’ पादयोः ॥ ‘ज्ञानवैराग्यकीलकाय नमः’ नाभौ ॥ ‘श्रीमद्भगवत्प्रसादसिद्ध्यर्थकपाठविनियोगाय नमः’ सर्वाङ्गे ॥
अङ्गन्यास : ॐ क्लां हृदयाय नमः ॥ ॐ क्लीं शिरसे स्वाहा ॥ ॐ क्लूं शिखायै वषट् ॥ ॐ क्लैं कवचाय हुम् ॥ ॐ क्लौं नेत्रत्रयाय वौषट् ॥ ॐ क्लः अस्त्राय फट् ॥
करन्यास : ॐ क्लां अङ्गुष्ठाभ्यां नमः ॥ ॐ क्लीं तर्जनीभ्यां नमः ॥ ॐ क्लूं मध्यमाभ्यां नमः ॥ ॐ क्लैं अनामिकाभ्यां नमः ॥ ॐ क्लौं कनिष्ठिकाभ्यां नमः ॥ ॐ क्लः करतलकरपृष्ठाभ्यां नमः ॥
ध्यान :
कस्तूरीतिलकं ललाटपटले वक्षःस्थले कौस्तुभं
नासाग्रे वरमौक्तिकं करतले वेणुः करे कङ्कणम् ।
सर्वाङ्गे हरिचन्दनं सुललितं कण्ठे च मुक्तावली
गोपस्त्रीपरिवेष्टितो विजयते गोपालचूडामणिः ॥
अस्ति स्वस्तरुणीकराग्रविगलत्कल्पप्रसूनाप्लुतं
वस्तु प्रस्तुतवेणुनादलहरीनिर्वाणनिर्व्याकुलम्
स्रस्तस्रस्तनिबद्धनीविविलसद्गोपीसहस्त्रावृतं
हस्तन्यस्तनतापवर्गमखिलोदारं किशोराकृति ॥

सप्त-पारायण
मनुकर्दमसंवादपर्यन्तं प्रथमेऽहनि । भरताख्यानपर्यन्तं द्वितीयेऽहनि वाचयेत् ॥
तृतीये दिवसे कुर्यात् सप्तमस्कन्धपूरणम् । कृष्णाविर्भावपर्यन्तं चतुर्थे दिवसे वदेत् ॥
रुक्मिण्युद्वाहपर्यन्तं पञ्चमेऽहनि शस्यते । श्रीहंसाख्यानपर्यन्तं षष्ठेऽहनि वदेत्सुधीः ॥
सप्तमे तु दिने कुर्यात् पूर्ति भागवतस्य वै । एवं निर्विघ्नतासिद्धिर्विपर्य इतोऽन्यथा ॥
भोजन
यद्यपि श्राद्ध भोजन करना चाहिये या नहीं, किसे नहीं करना चाहिये, कब नहीं करना चाहिये, प्रेतान्न क्या होता है इन प्रश्नों का विचार पूर्व आलेख में किया जा चुका है, श्राद्ध भोजन सम्बन्धी आलेख : “श्राद्ध का भोजन करना चाहिए या नहीं“ । यहां भोजन सम्बन्धी प्रश्न में भागवत-वेद पाठकर्ता ब्राह्मणों के भोजन का विचार किया जायेगा।
बहुत बार ऐसा देखा जाता है कि कुछ ब्राह्मण प्रेत कर्म में सम्मिलित तो होते हैं, वरण-दक्षिणा आदि तो लेते हैं किन्तु भोजन नहीं करते, हाँ यदि भोजन भी घर के लिये दिया जाय तो ले जाते हैं। ये मात्र एक भ्रम है कि दोष भोजन मात्र में है प्रेत-कर्म में नहीं। श्राद्ध में भोजन न करने का जिनका नियम हो उन्हें किसी भी प्रकार से प्रेत-कर्म (श्राद्ध) में सम्मिलित ही नहीं होना चाहिये।
इसका तात्पर्य यह होता है कि कर्मकाण्डी, वैदिक, पुराण पाठ आदि किसी भी कार्य के लिये श्राद्ध में नियुक्त होते हैं तो भोजन का त्याग करके एक अतिरिक्त दोष के भागी बनते हैं न कि किसी दोष से बचाव होता है। किसी भी कर्म के लिये जब मौखिक आमंत्रण स्वीकार करते हैं तो उस आमंत्रण में ही कर्म के निमित्त भोजन का निमंत्रण भी निहित होता है। अर्थात कर्म के साथ-साथ भोजन का निमंत्रण भी स्वीकार करते हैं और इसे असिद्ध नहीं किया जा सकता। कर्म के आमंत्रण में ही कर्म निमित्त भोजन का निमंत्रण भी निहित होता है इसकी सिद्धि के कुछ उदहारण :
- सत्यनारायण पूजा-कथा करने हेतु कर्म के साथ अलग से निमंत्रण नहीं दिया जाता। फिर जो ब्राह्मण भोजन करते हैं क्या वह अनिमंत्रित भोजन करते हैं ?
- रुद्राभिषेक हेतु आमंत्रित किया जाता है किन्तु पृथक निमंत्रण नहीं दिया जाता। तो रुद्राभिषेक के बाद भोजन करने वाले ब्राह्मण क्या अनिमंत्रित होने पर ही भोजन करते हैं।
- विवाह-उपनयन आदि में विस्तृत भोज होता है किन्तु ग्राम पुरोहित वर्ग के अतिरिक्त जो ब्राह्मण विवाह कार्य में सम्मिलित होते हैं क्या उन्हें भोजन का निमंत्रण अलग से प्राप्त होता है ?
- हस्तग्रहण कराने हेतु आमंत्रित ब्राह्मण को क्या भोजन का निमंत्रण अलग से मिलता है ?
- चतुर्थी कर्म कराने के लिये जो ब्राह्मण आते हैं क्या उन्हें भोजन का अलग से निमंत्रण मिलता है ?
- जब किसी यज्ञ में सम्मिलित होते हैं तो क्या भोजन का निमंत्रण अलग से मिलता है ?
- महामृत्युञ्जय जपादि अनुष्ठान में सम्मिलित ब्राह्मणों को भोजन का निमन्त्र क्या अलग से मिलता है ?
इस प्रकार से और भी ढेरों उदहारण दिए जा सकते हैं जिससे यह सिद्ध होता है कि ब्राह्मण जब कर्म करने के लिये आमंत्रण स्वीकार करते हैं तो उसके साथ उस कर्म के निमित्त भोजन का निमंत्रण भी स्वीकार करते हैं। और यदि इसे असिद्ध करें तो यह सिद्ध होगा कि अनिमंत्रित होकर भी भोजन करते हैं।
ये तो सिद्ध हो जाता है कि कर्म करने के लिये आमंत्रण में कर्म निमित्तक भोजन का निमंत्रण भी सन्निहित होता है और श्राद्ध में भी किसी भी कर्म के लिये जो आमंत्रण स्वीकार करते हैं भले ही वेद पाठ हो या पुराण पाठ सभी निमंत्रण भी स्वीकार करते हैं। जब निमंत्रण स्वीकार करते हैं तो भोजन का त्याग नहीं कर सकते। और यदि त्याग करते हैं तो दोषी होते हैं, इस सम्बन्ध यम का वचन है :
आमंत्रितस्तु यो विप्रो भोक्तुमन्यत्र। नरकाणाशतं गत्वा चाण्डालेष्वभिजायते ॥ – यम; यदि आमंत्रित विप्र भोजन का त्याग कर अन्यत्र भोजन करे या करने हेतु जाते हैं तो सैकड़ों नरकों को भोगकर चाण्डाल योनि प्राप्त करता है। इस प्रकार क्रमशः जो तथ्य स्पष्ट हुए वो संक्षेप में बिंदुवार भी समझे जा सकते हैं :
- किसी भी कर्म के आमंत्रण में कर्म निमित्त ब्राह्मण भोजन का निमंत्रण निहित रहता है।
- श्राद्ध में भी वेद पाठ, भागवत पाठ, गीता पाठ आदि किसी भी कर्म हेतु आमंत्रित होने का तात्पर्य होता है निहित कर्मनिमित्तक भोजन का निमंत्रण भी प्राप्त हुआ।
- निमंत्रण स्वीकार करने के बाद भोजन का त्याग नहीं किया जा सकता और अन्यत्र भोजन नहीं किया जा सकता।
- अर्थात एकादशाह और द्वादशाह में सम्मिलित ब्राह्मण को भोजन भी अवश्य करना चाहिये।
- किसी नियमवश यदि भोजन नहीं कर सकते तो कर्म में सम्मिलित होने का आमंत्रण भी स्वीकार न करे अर्थात श्राद्ध में सम्मिलित न हो।
श्राद्ध कर्म और विधि से सम्बंधित महत्वपूर्ण आलेख जो श्राद्ध सीखने हेतु उपयोगी सिद्ध हो सकते हैं :
कर्मकांड विधि में शास्त्रोक्त प्रमाणों के साथ प्रामाणिक चर्चा की जाती है एवं कई महत्वपूर्ण विषयों की चर्चा पूर्व भी की जा चुकी है। तथापि सनातनद्रोही उचित तथ्य को जनसामान्य तक पहुंचने में अवरोध उत्पन्न करते हैं। एक बड़ा वैश्विक समूह है जो सनातन विरोध की बातों को प्रचारित करता है। गूगल भी उसी समूह का सहयोग करते पाया जा रहा है अतः जनसामान्य तक उचित बातों को जनसामान्य ही पहुंचा सकता है इसके लिये आपको भी अधिकतम लोगों से साझा करने की आवश्यकता है।