श्राद्ध का भोजन करना चाहिए या नहीं शास्त्र क्या कहता है

श्राद्ध का भोजन करना चाहिए या नहीं शास्त्र क्या कहता है

श्राद्ध में भोजन को लेकर प्रश्न भी उठते हैं और उसके सही-गलत उत्तर भी लोग देते रहते है, कुछ कुतर्क भी गढ़ते हैं। हम प्रामाणिक चर्चा करते हैं अर्थात शास्त्रों में लिखा क्या है या बताया क्या गया है ? प्रामाणिक वही है जिसका प्रमाण शास्त्र-पुराणों में हो। इस आलेख में हम श्राद्ध भोज सम्बन्धी एक प्रामाणिक चर्चा करेंगे अर्थात प्रमाण के साथ समझेंगे की श्राद्ध के भोजन में क्या दोष होता है, क्यों नहीं करना चाहिए, कब नहीं करना चाहिये, किसके लिये विशेष रूप से वर्जित है ?

श्राद्ध का भोजन करना चाहिए या नहीं शास्त्र क्या कहता है

सबसे पहले तो हमें पृच्छक (प्रश्नकर्ता) को समझना होगा कि पृच्छक कौन है ? श्राद्ध का करना चाहिए या नहीं यह प्रश्न करने वाले 3 प्रकार के व्यक्ति होते हैं ? इसके बाद हमें श्राद्ध भोजन को समझना होगा श्राद्ध भोजन के भी 3 प्रकार होते हैं ? उसके बाद हम इन तीनों के विषय में करना चाहिये या नहीं इस बात को शास्त्र के प्रमाणों सहित समझेंगे।

ध्यातव्य : इस आलेख में श्राद्ध भोज का तात्पर्य मृताह श्राद्ध अर्थात प्रेत श्राद्ध अर्थात द्वादशाह भोज है।

पृच्छक के 3 प्रकार :

  1. पृच्छक में प्रथम वो आते हैं जो महापात्र हैं – महापात्र का प्रश्न श्राद्धोपरांत श्राद्धकर्म में प्रेत के लिये समंत्र उत्सर्ग किये गये अन्न को भक्षण करने के सम्बन्ध में होता है।
  2. पृच्छक में द्वितीय वो आते हैं जिनका उपनयन-विवाह आदि संस्कार हुआ हो – मुख्य रूप से जिसका उपनयन और विवाह होता है उसका प्रश्न उठता है कि करना चाहिये या नहीं, और यह प्रश्न कठिन तब होता है जा श्राद्ध अपने ही घर में हो, उसके बाद उत्तर और मुश्किल तो तब होता है जब मृतक माता-पिता की ही मृत्यु हुई हो।
  3. पृच्छक में तृतीय क्रम पर सामान्य लोग आते हैं जो भोजन करते हैं और कुछ नहीं भी करते हैं – उनका प्रश्न भी भोजन करने और न करने को लेकर होता है लेकिन जो मुख्य प्रश्न होना चाहिये वो नहीं होता है, मुख्य प्रश्न ये होना चाहिये था कि श्राद्ध का भोजन कब नहीं करना चाहिये ?
श्राद्ध का भोजन करना चाहिए या नहीं
श्राद्ध का भोजन करना चाहिए या नहीं

श्राद्ध भोजन के 3 प्रकार :

  • श्राद्ध भोजन का प्रथम या मुख्य प्रकार जो है वह श्राद्ध कर्म में प्रेत या पितर के निमित्त जो भोजन समंत्र उत्सर्ग किया जाता है वह है।
  • श्राद्ध भोजन का द्वितीय प्रकार वह है जो भोज के लिये बनाया जाता है और बहुत सारे लोग श्राद्ध के अंत में भोजन करते हैं।
  • श्राद्ध भोजन का तृतीय प्रकार वह है जो भोज के निमित्त बना भोजन श्राद्ध के अंत में न करके मध्य में ही किया जाता है अर्थात एक ओर श्राद्ध भी हो रहा होता है और दूसरी और भोज में निमंत्रित अतिथिगण भोजन करने लगते हैं।

उपरोक्त तीनों प्रश्न परस्पर संबद्ध हैं और अब इनपर शास्त्र प्रमाणों को देखते हुए विचार करेंगे। उपरोक्त तीनों प्रश्न परस्पर संबद्ध हैं और अब इनपर शास्त्र प्रमाणों को देखते हुए विचार करेंगे जिसके बाद श्राद्ध भोजन से सम्बंधित सभी प्रकार के प्रश्नों का सही उत्तर सरलता से प्राप्त हो जायेगा और भ्रम का निवारण हो जायेगा। वर्त्तमान समय में यह आलेख बहुत उपयोगी सिद्ध होगा क्योंकि इस प्रकार विस्तृत चर्चा प्रमाणों सहित कहीं भी उपलब्ध नहीं है और न ही मौखिक रूप से भी किया जाता है।

विप्रा मन्त्राः कुशा वह्निस्तुलसी च खगेश्वर। नैते निर्माल्यताम क्रियमाणाः पुनः पुनः॥ गरुडपुराण – में कहा गया है कि ब्राह्मण, मंत्र, कुशा, अग्नि और तुलसी ये निर्माल्य नहीं होते और बार-बार उपयोग में लाये जा सकते हैं। लेकिन फिर सबका अपवाद भी बताया गया है।

दर्भाः पिण्डेषु निर्माल्या ब्राह्मणाः प्रेत भोजने। मंत्रागौस्तुलसी नीचैः चितायां च हुताशने ॥ अर्थात पिण्ड में प्रयुक्त कुशा, प्रेत-भोजन करने से ब्राह्मण, नीच गृह में मंत्र, गाय और तुलसी एवं चिता में अग्नि निर्माल्य हो जाती है अर्थात दूषित हो जाते हैं।

प्रेत भोजन करने पर निर्माल्य न होने वाले ब्राह्मण भी दूषित हो जाते हैं अर्थात प्रेत-भोजन करने में विशेष दोष है। कुछ लोग इसका भी अनर्थ लगा लेते हैं और श्राद्ध संपन्न होने के बाद भी भोज के अन्न को प्रेत-भोजन ही समझते हैं। जबकि श्राद्ध संपन्न होने के बाद मृतक प्रेत नहीं रहता, श्राद्ध संपन्न होने के बाद प्रेतत्व की निवृत्ति हो जाती है। जब प्रेतत्व ही समाप्त हो जाये उसके बाद प्रेत-भोजन कैसे हो सकता है ?

इस प्रकार कुछ तथ्य स्पष्ट होते हैं जो बिन्दुबार समझा जा सकता है :

  • श्राद्ध संपन्न हो जाने के बाद जो भोज होता है वह प्रेत-भोज नहीं होता है।
  • अर्थात श्राद्ध संपन्न होने से पूर्व होने वाला भोज प्रेत-भोज ही होता है।
  • प्रेत के लिये ब्राह्मण और स्वजातीय भोज का विशेष महत्व भी शास्त्रों में बताया गया है।
  • स्वजातीय (भइयारी) भोज तो अशौच में करने के लिये कहा गया है।
  • प्रेत के लिये जो भोज करना हो वह श्राद्ध संपन्न होने से पूर्व ही करे।

उपरोक्त बिंदुओं के अतिरिक्त जो प्रथम प्रश्न का विषय है वह महापात्र से सम्बंधित है और श्राद्ध में समंत्र उत्सर्ग किये गए भोजन के संबंध में है। प्रेत-भोजन का मुख्य दोष उसी अन्न में है जो श्राद्ध करते समय समंत्र उत्सर्ग किया जाता है और इसी कारण महापात्र उस अन्न का भक्षण करना नहीं चाहते किन्तु यजमान भक्षण करने के लिये आग्रह करते हैं।

श्राद्ध भोजन
श्राद्ध भोजन

महापात्र का पक्ष होता है कि अपात्रक श्राद्ध होने से इसकी अपेक्षा नहीं रहती। यजमान का पक्ष रहता है कि यह पुराने समय से चलती आ रही परंपरा है जिसका पालन करना आवश्यक है अन्यथा प्रेत की तृप्ति कैसे होगी ?

वास्तव में जब तक सपात्रक श्राद्ध होता रहा तब तक प्रत्यक्ष वह भोजन महापात्र करते रहे और श्राद्ध के समय में ही, श्राद्ध के पश्चात् नहीं। लेकिन जब अपात्रक श्राद्ध का आरम्भ हुआ तो व्यावहारिक रूप से (मौखिक) निर्णय हुआ कि श्राद्ध संपन्न होने के बाद प्रेत के निमित्त उत्सर्ग किये गये अन्न का किञ्चित भाग महापात्र भक्षण करेंगे जो वर्त्तमान में भी पाया जाता है।

अब आगे यह स्पष्ट होता है कि जो महापात्र उस किञ्चित प्रेतान्न का भक्षण नहीं करना चाहते उन्हें श्राद्ध का दान-आदि भी ग्रहण नहीं करना चाहिये। यदि श्राद्ध का दानादि ग्रहण करते हैं तो उस प्रेतान्न का किञ्चित भक्षण भी करें। भक्षण करने से जो दोष है उसके निवृति का भी उपाय शास्त्रों में वर्णित है और दोष निवृत्ति का उपाय करें न कि भक्षण से निवृत्त हों।

इसके बाद अगले प्रश्न में वो लोग आते हैं जिनका उपनयन-विवाह आदि हुआ हो और गर्भिणीपति अर्थात जिसकी पत्नी गर्भवती हो। ऐसे लोगों के लिये 1 वर्ष पर्यन्त श्राद्ध भोजन मात्र ही नहीं प्रेत-कर्म भी निषिद्ध है।

  • विवाहव्रतबंधोर्ध्वं वर्षमब्दार्थमेव वा । पिण्डान्सपिण्डान् नो दद्यु र्न कुर्युस्तिलतर्पणम् ॥ पूर्वकालामृत – में कहा गया है कि विवाह और उपनयन के वर्ष अथवा अर्द्धवर्ष पर्यन्त सपिण्डों को पिंड न दे, तिल से तर्पण न करे।
  • मुंडनंपिंडदानंचप्रेतकर्मच सर्वशः । नजीवत्पितृकः कुर्याद्भुर्विणीपतिरेवच ॥ हेमाद्रि में कहा गया है कि जीवित्पितृक और गर्भिणीपति – मुंडन, पिण्डदान और प्रेत कर्म न करे।
  • पुनः आश्वालयन का कथन है – वपनं मैथुनं तीर्थं वर्ज्जयेद्गर्भिणीपतिः । श्राद्धं च सप्तमान्मासादूर्ध्वं चान्यत्र वेदवित् ॥ अर्थात क्षौर कर्म, मैथुन और तीर्थयात्रा गर्भिणीपति न करे। सप्तम मास के बाद श्राद्ध न करे।
  • पुनः गालव की उक्ति है :- दहनं वपनं चैव चौलं वै गिरिरोहणं । नावारोहणं चैव वर्जयेद्गर्भिणीपतिः ॥ – गालव ने दाह, क्षौर, चौल (मुंडन), पर्वतारोहण, नाव पर चढ़ना वर्जित कहा है। उपरोक्त प्रमाणों में पिण्ड-श्राद्ध-दाहादि निषेध का तात्पर्य श्राद्ध भोजन भी लेना चाहिये।
  • निर्णय सिंधु में यह वचन ज्योतिष का बताया गया है – स्नानंसचैलं तिलमिश्रकर्म प्रेतानुयानं कलशप्रदानम् ॥ अपूर्वतीर्थामरदर्शनंच विवर्जयेन्मंगलतोब्दमेकम् ॥ – विवाहादि मङ्गल कार्य के वर्षमध्य में सचैल स्नान, तिलमिश्रित कार्य (तिलाञ्जलि आदि), श्मशान यात्रा, घटदान, अपूर्वतीर्थ व देवदर्शन आदि न करे।

इस प्रकार स्पष्ट होता है कि मङ्गलकार्यों के बाद और गर्भिणी पति के लिये क्षौर, श्राद्ध भोजन, पिण्डदान आदि कई क्रियायें निषिद्ध हैं, किन्तु हम यहां श्राद्ध भोजन मात्र की चर्चा कर रहे हैं। इसके साथ ही व्रत-यज्ञ-अनुष्ठान आदि में स्थित व्यक्ति श्राद्ध भोजन न करे। व्रत में निषेध का तात्पर्य व्रत के पूर्व दिन और पर दिन समझे। अर्थात यदि एकादशी व्रत करे तो दशमी और द्वादशी के दिन श्राद्ध भोजन न करे।

अब इस निषेध के संबंध में एक अन्य प्रश्न भी उत्पन्न होता है वह ये कि यदि माता-पिता की ही मृत्यु हो जाये तब क्या करे ? उपरोक्त निषेध का पालन करे या श्राद्ध करे, भोजन करे या न करे ? इसका उत्तर हमें इस प्रकार उत्तर कालामृत में प्राप्त होता है – महालये गयाश्राद्ध मातापित्रोः क्षयेऽहनि । कृतोद्वाहोऽपि कुर्वीत पिंडदानं यथाविधि ॥ अर्थात जिसके पिता मृत हों भले ही उसका विवाहादि मङ्गलकार्य क्यों न हुआ हो महालय, गया जाने पर गया श्राद्ध, क्षयाह (वार्षिक श्राद्ध) विधिपूर्वक अवश्य करे।

इसके सम्बन्ध में और भी बहुत सारे प्रमाण हैं, जो निर्णय सिंधु आदि ग्रंथों में सरलता से मिलते हैं। यहां स्पष्ट यह होता है कि जब महालय, क्षयाह आदि की अनिवार्यता होती है तो मृताह में पुत्र के लिये किसी प्रकार का प्रश्न ही उत्पन्न नहीं हो सकता।

अब तीसरे प्रकार अर्थात निमंत्रित मित्रादि अतिथियों के श्राद्ध भोजन संबंधी चर्चा करेंगे। यह तो पूर्व ही स्पष्ट हो गया है कि किस-किस के लिये श्राद्ध भोज का निषेध है।

उसके अतिरिक्त अन्य व्यक्तियों के लिये श्राद्ध भोज का निषेध नहीं है, यद्यपि दोष की निवृत्ति भी नहीं है।

लेकिन बात जब दोष की हो रही है तो पहले श्राद्धभोज और प्रेतभोज का अंतर भी समझना आवश्यक है, चर्चा ऊपर भी की जा चुकी है किन्तु पुनः स्पष्ट कर दें कि श्राद्ध संपन्न हो जाने के बाद जो भोज होता है वह श्राद्ध भोज होता है, किन्तु श्राद्ध संपन्न होने से पहले जो भोज होता रहता है वह प्रेत भोज होता है।

प्रश्न श्राद्ध भोज का है और व्यवहार में तो यह देखा जा रहा है कि लोग प्रेत भोज करने के लिये भी व्यग्र रहते हैं, 2 बजे दिन ही पहुंच कर भोजन कर लेते हैं और रात में पुनर्भोजन का दूसरा दोष दोष भी निश्चित प्राप्त करते होंगे।

श्राद्ध भोज क्या है
श्राद्ध भोज क्या है

यह स्पष्ट करना आवश्यक है मित्रादि जनों श्राद्ध भोजन कब ग्राह्य होगा ? जब श्राद्ध संपन्न हो जाये अर्थात प्रेतत्व विमुक्ति सुनिश्चित हो जाये और कलश पूजन आदि करके ब्राह्मण भोजन हो जाये तत्पश्चात ही वह घर-भूमि-अन्न आदि निर्मलता की प्राप्ति कर सकता है और निर्मलता प्राप्ति के बाद ही ग्राह्य हो सकता है उससे पूर्व नहीं।

श्राद्ध का भोजन करना चाहिये या नहीं में एक और विषय जो व्यवहार से दिखता है वो यह है कि द्वादशाह के दिन श्राद्ध के उपरांत भोज सामग्री में तुलसी-दल देकर भगवान विष्णु को अर्पित कर दिया जाता है जिस कारण वह प्रसाद सिद्ध हो जाता है और श्राद्धान्न संबंधी दोष का अभाव हो जाता है। हां एकादशाह के दिन ऐसा नहीं होता इसलिये वह श्राद्धान्न सिद्ध नहीं होता। वैसे एक तथ्य यह भी है कि श्राद्ध में तुलसी का निषेध होता है और श्राद्ध संपन्न होने के उपरांत तुलसी दल का प्रयोग किया जाता है। विद्वानों को इस विषय में गंभीरता से विचार करने की आवश्यकता है।

यावद्विप्रा न पूज्यन्ते अन्नदानहिरण्ययोः । तावच्चीर्णव्रतस्यापि तत्पापं न प्रणस्यति ॥ – अङ्गिरा स्मृति : जब तक अन्नदान-हिरण्य आदि से ब्राह्मण पूजा न हो जाये तब तक न तो किया गया व्रतादि पूर्ण होता है और न ही पाप नष्ट होता है।

अर्थात जिन लोगों के लिये श्राद्ध भोज निषेध किया गया है उनके अतिरिक्त अन्य सभी श्राद्ध का भोजन कर सकते हैं। श्राद्ध भोज का तात्पर्य बताया जा चुका है, प्रेत भोज निषिद्ध होता है।

इसके अतिरिक्त एक अन्य विषय विचारणीय होता है कि अन्न का गुण-संसर्ग आदि। लेकिन इसका विचार तो कोई करना ही नहीं चाहता और अप्रत्याशित बढते अपराध-अनाचार-अनीति-अधर्म का एक महत्वपूर्ण कारण दूषित अन्न भक्षण भी है। दीपो भक्षयते ध्वान्तं कज्जलं च प्रसूयते । यदन्नं भक्ष्यते नित्यं जायते तादृशी प्रजा ॥ – चाणक्य नीति, किन्तु इस विषय में विस्तृत चर्चा करना इस आलेख के अनुकूल नहीं है। यह विषय स्वतंत्र आलेख की मांग करता है।

श्राद्ध कर्म और विधि से सम्बंधित महत्वपूर्ण आलेख जो श्राद्ध सीखने हेतु उपयोगी सिद्ध हो सकते हैं :

कर्मकांड विधि में शास्त्रोक्त प्रमाणों के साथ प्रामाणिक चर्चा की जाती है एवं कई महत्वपूर्ण विषयों की चर्चा पूर्व भी की जा चुकी है। तथापि सनातनद्रोही उचित तथ्य को जनसामान्य तक पहुंचने में अवरोध उत्पन्न करते हैं। एक बड़ा वैश्विक समूह है जो सनातन विरोध की बातों को प्रचारित करता है। गूगल भी उसी समूह का सहयोग करते पाया जा रहा है अतः जनसामान्य तक उचित बातों को जनसामान्य ही पहुंचा सकता है इसके लिये आपको भी अधिकतम लोगों से साझा करने की आवश्यकता है।

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