यद्यपि वर्त्तमान युग में तीर्थयात्रा व तीर्थवास संबंधी सभी नियमों की अवहेलना होती दिख रही है तथापि अवहेलना से बचने व नियमों का पालन करने के लिये इसके विषय में आवश्यक जानकारी अनिवार्य हो जाती है। तीर्थ यात्रा करना जीवन का एक महत्वपूर्ण धार्मिक कृत्य होता है। इस आलेख में तीर्थ यात्रा के बारे में कई महत्वपूर्ण जानकारी दी गयी है जो तीर्थ यात्रा करने से पहले जान लेना आवश्यक होता है। यहां दी गयी जानकारी प्रामाणिक है अर्थात सप्रमाण दिये गये हैं।
क्या आप तीर्थ यात्रा के महत्वपूर्ण तथ्यों को जानते हैं – tirth yatra
तीर्थ यात्रा और पर्यटन में अंतर होता है। वर्तमान में भी ग्रामीण लोग तीर्थ यात्रा ही करते हैं पर्यटन नहीं इसके विपरीत तीर्थ यात्रा से अनभिज्ञ नगरवासी अधिकतर पर्यटन ही करते हैं तीर्थ यात्रा नहीं। जैसे हरिद्वार दिल्ली के निकट है इस कारण हरिद्वार को पुण्यस्थल तो मानते हैं किन्तु तीर्थ स्थल है ये नहीं समझ पाते। एवं इसी तरह और अन्य भी तीर्थ स्थल जो नगरों के निकट होते हैं उन सभी नगरवासियों की स्थिति भी लगभग यही होती है।
इसमें भ्रमित तो वो हैं किन्तु त्रुटि मात्र उनकी नहीं है। नगर के ब्राह्मण भी शास्त्राध्ययन से विरत होते हैं और नगरीय चकाचौंध में ही डूबे रहते हैं, अपने यजमानों को तीर्थ सम्बन्धी ज्ञान नहीं दे पाते।
त्रुटि बड़े-बड़े कथावाचकों की भी है जो बड़े-बड़े पंडाल बनाकर बहुत ही बड़ी कथा तो करते हैं व विभिन्न टीवी चैनलों पर भी प्रसारित करते हैं किन्तु क्या करे, कब करे, कैसे करे इत्यादि कर्तव्याकर्तव्य का ज्ञान नहीं देते।
जब किसी स्थान को देखने-जानने-समझने के उद्देश्य से वहां घूमने के लिये जाते हैं तो वह पर्यटन संज्ञक होता है। पर्यटन हेतु किसी विशेष धार्मिक नियम की आवश्यकता नहीं होती। पर्यटन का उद्देश्य पाप निवृत्ति व पुण्य प्राप्ति नहीं आनंद प्राप्ति, मनोरंजन, छुट्टी बिताना आदि होता है।
किन्तु जब शास्त्रों में वर्णित तीर्थों की बात आती है तो वहां भ्रमण करने मात्र के उद्देश्य से नहीं जाते। तीर्थ की विशेष महत्ता होती है, तीर्थ का दर्शन करना, तीर्थ में स्नान करना आदि पुण्यकारक व पापनाशक होता है।
तीर्थान्यनुसरन्वीरः श्रद्दधानः समाहितः । कृतपापश्च शुद्धचेत किं पुनः शुद्धकर्मकृत् ॥
तिर्यग्योनिं न गच्छेच्च कुदेशे च न जायते । स्वर्गे भवति वै विप्रो मोक्षोपायं च विन्दति ॥ – वायु पुराण
वायु पुराण में कहा गया है पापात्मा भी श्रद्धा पूर्वक तीर्थाटन करने से शुद्ध हो जाता है फिर जो पहले से शुद्ध हो उसका तो कहना ही क्या ? जो तीर्थाटन में रत रहते हैं उनकी दुर्गति नहीं होती उन्हें स्वर्ग की प्राप्ति होती है और मोक्ष प्राप्ति का उपाय भी है अर्थात मोक्ष की भी प्राप्ति होती है।
सरकार का योगदान
आशा है तीर्थाटन और पर्यटन का अंतर स्पष्ट हो गया है। वर्त्तमान समय में सरकार विभिन्न तीर्थक्षेत्रों में सुविधा का विस्तार तो कर रही है किन्तु सरकार पर्यटन के उद्देश्य से कर रही है तीर्थाटन के उद्देश्य से नहीं। और एक बड़ी विचित्र स्थिति उत्पन्न होने लगी है सरकार के इस कार्य को उचित माना जाय या अनुचित ? इस विषय में हम तीन दृष्टिकोण से विचार करेंगे।
- प्रथम दृष्टया ऊपर-ऊपर से तो सरकार का विकास और सुख-सुविधा विस्तार बहुत ही सही लगता है और सरकार धन्यवाद का पात्र है।
- द्वितीयतः उन सरकारों की अपेक्षा तो अत्यंत सराहनीय है जिसने उपेक्षित कर रखा था, भारत की संस्कृति भारत में दिखती ही नहीं थी। अब भारत में भारत दिखता तो है।
- तृतीयतः तीर्थाटन और पर्यटन के अंतर को हम समझ चुके हैं। तीर्थों में पर्यटन के उद्देश्य से जाना, तीर्थाटन के उद्देश्य से न जाना दोष प्रदायक है। जब पर्यटन में कई ऐसे कार्य होते हैं जो तीर्थाटन में निषिद्ध हैं जैसे मनोरंजन पर्यटन का मुख्य उद्देश्य है जबकि तीर्थाटन में निषिद्ध। तीर्थाटन तीर्थ यात्रा के रूप में ही करना चाहिये किन्तु पर्यटन करने पर तीर्थयात्रा सम्बन्धी कृत्यों का संपादन नहीं हो पाता। न ही एक साथ दोनों कार्य किये जा सकते हैं। जीवन के उस कालखण्ड में जब तीर्थाटन की योग्यता नहीं आती पर्यटन ही करना चाहिये और पर्यटन पर्यटन स्थलों पर ही करना चाहिए तीर्थ स्थलों में नहीं। सरकार का योगदान सराहनीय तो है किन्तु तीर्थ का पर्यटन स्थल बनाना निंदनीय। तथापि ये चेतना तो जनसामान्य को अपेक्षित है कि तीर्थों में पर्यटन करने के लिये न जाये और इससे सरकार निर्दोष भी सिद्ध होती है।
अन्यक्षेत्रे कृतं पापं पुण्यक्षेत्रे विनश्यति । पुण्यक्षेत्रे कृतं पापं वज्ज्रलेपो भविष्यति ॥ – स्कंद पुराण में कहा गया है “अन्य (सामान्य) क्षेत्रों में किया गये पापों का पुण्यक्षेत्रों में नष्ट हो जाता है, किन्तु पुण्यक्षेत्रों में किया गया पाप वज्रलेप हो जाता है अर्थात उसका नाश नहीं होता।”
सामान्य राजविधि से भी प्रेरक को भागीदार माना जाता है, अपराधी मात्र दोषी नहीं होता अपराध करने के लिये प्रेरित करने वाला भी दोषी होता है। पुण्य-पाप के विषय में भी प्रेरक भागीदार माना जाता है अर्थात तीर्थक्षेत्र को पर्यटन स्थल बनाकर वहां पापाचार के लिये लोगों को प्रेरित करने से प्रेरक भी पाप का भागीदार होता है।
इसलिये सरकारों को ये भी चाहिये की तीर्थस्थल का विकास तो करे किन्तु लोगों को पापाचार (तीर्थ क्षेत्र में पर्यटन) के लिये प्रेरित न करे। पर्यटन के उद्देश्य से तीर्थक्षेत्र जाना भी अपराध की श्रेणी का ही होता है। एवं तीर्थक्षेत्रों की देख-रेख करने वाली संस्थाओं को चाहिये की तीर्थक्षेत्र की सुनिश्चित सीमा के सभी प्रवेशद्वारों पर स्पष्टरूप से अंकित करे “पर्यटन निषिद्ध स्थल” और तीर्थ यात्रा के शास्त्रोक्त नियमों को भी अंकित करे।
तीर्थक्षेत्र में पैदल जाने का ही शास्त्रीय विधान है अर्थात परिवहन व्यवस्था तीर्थ सीमा के बाहर ही रखे, सुविधा कहकर तीर्थ सीमा के भीतर नहीं। जो पैदल चलने में सक्षम नहीं होते उनको तीर्थयात्रा करने की आवश्यकता नहीं होती उनके लिये तीर्थयात्रा करने हेतु प्रतिनिधि बनाने की व्यवस्था शास्त्रों में कही गयी है।
तीर्थ यात्रा के नियम
प्रतिग्रहादुपावृत्तः संतुष्टो येन केनचित् ।अहंकारविमुक्तश्च स तीर्थफलमश्नुते ॥
अकल्पको निरारम्भो लघ्वाहारो जितेन्द्रियः । विमुक्तः सर्वसङ्गैर्यः स तीर्थफलमश्नुते ॥
तीर्थ यात्रा के जो उद्देश्य हैं उसकी सिद्धि के लिये व्यक्ति को प्रतिग्रह से मुक्त होना चाहिये, यथा प्राप्त से संतुष्ट रहने वाला होना चाहिये, अहंकार और दम्भ से रहित होना चाहिये, निरारम्भ अर्थात अर्थोपार्जन के उपायों से विरत (सेवा निवृत्त) हो, अल्पहारी हो, इन्द्रियों को वश में रखता हो, विमुक्त हो अर्थात सांसारिक सुख-भोग-वस्तु आदि के मोह से बंधा न हो, शास्त्रोक्त कर्मों से विरत न हो वही तीर्थ यात्रा का अधिकारी होता है अर्थात फल प्राप्त कर सकता है।
- न जलाप्लुतदेहस्य स्नानमित्यभिधीयते । स स्नातो यो दमस्नातः शुचिः शुद्धमनोमलः ॥
- यो लुब्धः पिशुनः क्रूरो दाम्भिको विषयात्मकः । सर्वतीर्थेष्वपि स्नातः पापो मलिन एव सः ॥
- न शरीरमलत्यागान्नरो भवति निर्मलः । मानसे तु मले त्यक्ते भवत्यन्तः सुनिर्मलः ॥
- जायन्ते च म्रियन्ते च जलेष्वेव जलौकसः । न च गच्छन्ति ते स्वर्गमविशुद्धमनोमलाः ॥
- विषयेष्वतिसंरागो मानसो मल उच्यते । तेष्वेव हि विरागोऽस्य नैर्मल्यं समुदाहृतम् ॥
- चित्तमन्तर्गतं दुष्टं तीर्थस्नानैर्न शुद्धयति । शतशोऽथ जले धौतं सुराभाण्डमिवाऽशुचि ॥
- दानमिष्टं तपः शौचं ‘तीर्थसेवा श्रुतं तथा । सर्वाण्येतान्यतीर्थानि यदि भावो न निर्मलः ॥
- निगृहीतेन्द्रियग्रामो यत्रैव वसते नरः । तत्र तत्र कुरुक्षेत्रं नैमिशं पुष्कराणि च ॥
- ज्ञानपूते ध्यानजले रागद्वेषमलापहे । यः स्नाति मानसे तीर्थे स याति परमां गतिम् ॥ – महाभारत
महाभारत में भीष्म पितामह द्वारा बताया गया है कि शरीर का जलमय होना स्नानसंज्ञक नहीं है, दम द्वारा स्नान अर्थात बल पूर्वक इन्द्रियों का दमन करना स्नान कहलाता है और जिसने इन्द्रियों को वश में कर लिया हो वही शुद्ध, निर्मल होता है। जो आसक्त हो, नीच कर्मरत हो, क्रूर हो, दम्भ रखता हो, विषयासक्त रहने वाला हो वह सभी तीर्थों में स्नान करके भी पापी ही रहता है। मात्र शरीर के मलापकर्षण से मनुष्य निर्मल नहीं होता निर्मल तब होता है जब मन के मलों का भी त्याग करे।
जिसका मन निर्मल न हुआ हो वह अनेकों तीर्थों में स्नान करने से भी स्वर्ग का अधिकारी नहीं होता, स्वर्ग का अधिकारी होने के लिये मन के मल का त्याग करना आवश्यक होता है। जलचर तो जल में ही जन्म लेते हैं, जीवन व्यतीत करके मृत्यु भी प्राप्त करते हैं किन्तु स्वर्ग प्राप्त नहीं करते। विषयों में राग होना मन का मल कहलाता है, इसका विराग होने पर ही निर्मल कहा जा सकता है।
जैसे सौ बार भी जल द्वारा धोने पर सुराभाण्ड शुद्ध नहीं होता उसी प्रकार जिसके चित्त में दोष हो वह तीर्थस्नान करने से शुद्ध नहीं हो सकता। दान, इष्टकर्म, तप, शौच, तीर्थसेवन, वेदपरायण सभी तीर्थ ही होते हैं किन्तु निर्मल मन के बिना फलदायी नहीं होते।
सर्वेण गाङ्गेन जलेन सम्यङ् नित्याप्लुतो योऽप्यथ भावदुष्टः ।
आजन्मनः स्नानपरोऽपि नित्यं न शुद्धयतीत्येव वयं वदामः ॥
जो मनुष्य भावदुष्ट है वह सभी प्रकार सम्यकरूपेण आजन्म गङ्गास्नान करते रहने पर भी शुद्ध नहीं हो सकता। इसी लिए कहा जाता है मन चंगा कठौती में गङ्गा। – ब्रह्म पुराण
गङ्गादितीर्थेषु वसन्ति मत्स्या देवालये पक्षिसङ्घाश्च नित्यम् ।
भावोज्झितास्ते न फलं लभन्ते तीर्थाच्च देवायतनाच्च मुख्यात् ॥
गङ्गादि तीर्थों में मछलियां भी निवास करती है, मंदिरों में पक्षियां भी रहते हैं, किन्तु भावाभाव के कारण उन्हें फल की प्राप्ति नहीं होती अतः तीर्थ, देवता की प्रतिमा, मंदिर आदि में मुख्य करण भाव होता है। – ब्रह्म पुराण
भावं ततो हृत्कमले निधाय तीर्थानि सेवेत समाहितात्मा ।
या तीर्थयात्रा कथिता मुनीन्द्रैः कृता प्रयुक्ताऽप्यनुमोदिता वा ॥
अतः मुनीन्द्रों ने भाव की महत्ता को स्वीकार करते हुये ह्रदयकमल में शुभभाव रखते हुये तीर्थसेवन करने का अनुमोदन किया है। – ब्रह्म पुराण
तीर्थ यात्रा क्या है
तीर्थ क्या है : वो विशेष पवित्र स्थल शास्त्रों में जिसको पाप के लिये नाशक और पुण्यकारक कहा गया है अर्थात शास्त्रों में वर्णित है तीर्थ कहलाते हैं।
तीर्थ यात्रा : वह यात्रा जो पापनिवृत्ति और पुण्य प्राप्ति के उद्देश्य से विधि पूर्वक की जाती है जिसमें तीर्थदर्शन, मुण्डन, स्नान, पूजन, पितरों का पिण्डदान, दान, ब्राह्मण भोजन आदि किया जाता है, तीर्थ यात्रा कहलाती है।
तीर्थ यात्रा के कारण : शास्त्र विहित कर्तव्य होना स्वयंसिद्ध कारण होता है, शास्त्र में बताये गये कर्तव्यों के लिये कारण ढूंढना अज्ञानता के अतिरिक्त और कुछ नहीं कहा जा सकता।

तीर्थ यात्रा का उद्देश्य
कोई भी शास्त्रोक्त कर्तव्य भी निरुद्देश्य नहीं होता। तीर्थ यात्रा के मुख्य दो उद्देश्य होते हैं – 1. पाप से मुक्ति पाना और 2. पुण्य का लाभ प्राप्त करना।
सत्यं तीर्थ क्षमा तीर्थ तीर्थमिन्द्रियनिग्रहः । सर्वभूतदया तीर्थ तीर्थमार्जवमेव च ॥
दानं तीर्थ दमस्तीर्थ सन्तोषस्तीर्थमुच्यते । ब्रह्मचर्य परं तीर्थ तीर्थ च प्रियवादिता ॥
ज्ञानं तीर्थ धृतिस्तीर्थ तपस्तीर्थमुदाहृतम् । तीर्थानामपि तत् तीर्थं विशुद्धिर्मनसः परा ॥ – महाभारत
महाभारत में तीर्थ सम्बंधित कुछ और भी महत्वपूर्ण बातें बताई गयी है। सत्य तीर्थ है, क्षमा तीर्थ है, इन्द्रियनिग्रह तीर्थ है, दया तीर्थ है, दान तीर्थ है, दम तीर्थ है, संतोष तीर्थ है, ब्रह्मचर्य तीर्थ है, प्रियवादिता तीर्थ है, ज्ञान तीर्थ है, धृति तीर्थ है, तप तीर्थ है, तीर्थों में भी वह परमपवित्र है जिसका मन निर्मल हो।
तीर्थ यात्रा करने वाला व्यक्ति
अश्रद्दधानः पापात्मा नास्तिकोऽच्छिन्नसंशयः । हेतुनिष्ठश्च पञ्चैते न तीर्थफलभागिनः ॥
कलिका खण्ड में कहा गया है अश्रद्धायुक्त, पापी, नास्तिक, संशयापन्न और अन्य हेतु रखने वाला ये पांचो तीर्थ यात्रा करने के बाद भी तीर्थफल के भागी नहीं होते।
तीर्थं प्राप्याऽनुषङ्गेण स्नानं तीर्थे समाचरेत् । स्नानजं फलमाप्नोति तीर्थयात्राफलं न तु ॥ – शङ्ख
यदि अन्य कारणों से (उद्देश्य रहित तीर्थयात्रा) भी तीर्थ स्थान पर जाये तो स्नान अवश्य करे, उस व्यक्ति को स्नानजन्य फल प्राप्त होता है किन्तु तीर्थफल प्राप्त नहीं होता।

यस्य हस्तौ च पादौ च मनश्चैव सुसंयतम् । विद्या तपश्च कीर्तिश्च स तीर्थफलमश्नुते ॥ अगम्यस्थान की यात्रा नहीं करता हो, मन में विकार न रखता हो, जो विद्या-तप-कीर्तियुक्त हो वही तीर्थफल प्राप्त करता है।
शृणु तीर्थानि गदतो मानसानि ममाऽनघ । येषु सम्यङ्नरः स्नात्वा प्रयाति परमां गतिम् ॥ – मानस तीर्थ सबसे महत् है जो मानस तीर्थ में स्नान करता है वह परम गति प्राप्त करता है। – महाभारत
षोडशांशं स लभते यः परार्थेन गच्छति । अर्ध तीर्थफलं तस्य यः प्रसङ्गेन गच्छति ॥
प्रकृतिं कुशमयीं तीर्थवारिणि मज्जयेत् । मजयेत्तु यमुद्दिश्य अष्टभागं लभेत सः ॥ – पैठीनसी
अन्य के लिये जो तीर्थयात्रा करता है उसे भी षोडशांश फल प्राप्त होता है, अन्य प्रसङ्ग (उद्देश्य) से तीर्थयात्रा करने वालों आधा फल ही प्राप्त होता है। कुशात्मक प्रकृति (आकृति) बनाकर तीर्थजल से उसका मज्जन करने पर जिसके निमित्त किया जाय उसे भी आठवां भाग प्राप्त होता है।
तीर्थ लाभ का प्रथम कर्म
काले वाप्यथवाऽकाले तीर्थश्राद्धं सदा नरैः । प्राप्तैरेव सदा कार्यं पितृतर्पणपूर्वकम् ॥
तीर्थमेव समासाद्य सद्यो रात्रावपि क्षणम् । स्नानञ्च तर्पणं श्राद्धं कुर्याच्चैव विधानतः ॥
पिण्डदानं ततः शस्तं पितॄणाञ्चैव दुर्लभम् । विलम्बं नैव कुर्वीत न च विघ्नं समाचरेत्॥ – श्राद्ध कल्पलता
- तीर्थ में काल विचार करने की आवश्यकता नहीं होती। जब तीर्थ प्राप्त हो तो उसी दिन अन्य विधान करके श्राद्ध करे।
- आगे और स्पष्ट किया गया है कि यदि रात्रि में भी तीर्थ प्राप्त हो तो भी विलम्ब न करे, स्नान-तर्पणादि करके रात में भी श्राद्ध करे।
- पिण्ड दान के लिये प्रशस्त समय तीर्थ प्राप्ति ही होती है जो पितरों के लिये दुर्लभ होता है। तीर्थ प्राप्ति होने पर किसी प्रकार से विलम्ब न करे, विघ्न न करे अर्थात श्राद्ध में विलम्ब हो ऐसा कोई अन्य कार्य न करे।
तीर्थ यात्रा का सर्वप्रथम और मुख्य कर्म जो होता है स्नान और श्राद्ध होता है। किन्तु लोगों के मन में तीर्थ यात्रा का अर्थ वहां के मंदिरों को देखना, पूजा करना मुख्य कार्य बताने का प्रयास किया जा रहा। लोगों को विभिन्न प्रकार के विघ्नों में उलझाने का प्रयास किया जा रहा है। लेकिन विभिन्न उलझनों में उलझने से दोष की ही प्राप्ति होती है।
सामान्यतः रात में श्राद्ध करना निषिद्ध होता है किन्तु तीर्थ में प्राप्ति के साथ ही श्राद्ध करने की शास्त्राज्ञा है भले ही रात में भी तीर्थ प्राप्ति क्यों न हो, तीर्थ के लिये रात में भी श्राद्ध प्रशस्त कह दिया गया। तीर्थ यात्रा अकेले न करे और मुख्य कार्य में विलम्ब न हो इस कारण से भी पुरोहित और नापित को साथ लेकर ही तीर्थ यात्रा करे और पत्नी तो अर्द्धांगिनी होती ही है।
वर्त्तमान में तो चलभाष की उपलब्धता से पंडा से पूर्वसंपर्क भी स्थापित होना सुलभ हो गया है। अतः पूर्व संपर्क स्थापित करके तीर्थ प्राप्ति काल का निश्चय कर ले और तदनुसार प्राप्ति के साथ ही मुख्य कर्म करे।
- सर्वप्रथम तो इस प्रकार से नियम बताया गया है कि तीर्थ की जितनी पैदल यात्रा करने में सक्षम हो उतनी यात्रा पैदल ही करे और पादुका (जूता-चप्पल) रहित करे।
- तत्पश्चात जब तीर्थ का दर्शन हो जाये तो निकट गये बिना वहीं से प्रणाम करे और दूर ही मुण्डन करे।
- मुण्डन करके मलापकर्षण स्नान भी वहीं अर्थात तीर्थ से दूर ही करे।
- यह विशेष नियम गया, कुरुक्षेत्र, विशाला और विरजा के अतिरिक्त अन्य तीर्थों के विषय में है।
- तत्पश्चात तीर्थ तट पर जाकर विधि पूर्वक स्नान (तीर्थ स्नान) और तीर्थ पूजा करे। नारियल आदि से अर्घ प्रदान करे।
- फिर तत्क्षण ही श्राद्ध करे।
- तीर्थ यात्रा का मुख्य कर्म यही होता है। तत्पश्चात अगले दिन और जो दर्शन आदि कर्म हो वो सब करे।
कर्मकांड विधि में शास्त्रोक्त प्रमाणों के साथ प्रामाणिक चर्चा की जाती है एवं कई महत्वपूर्ण विषयों की चर्चा पूर्व भी की जा चुकी है। तथापि सनातनद्रोही उचित तथ्य को जनसामान्य तक पहुंचने में अवरोध उत्पन्न करते हैं। एक बड़ा वैश्विक समूह है जो सनातन विरोध की बातों को प्रचारित करता है। गूगल भी उसी समूह का सहयोग करते पाया जा रहा है अतः जनसामान्य तक उचित बातों को जनसामान्य ही पहुंचा सकता है इसके लिये आपको भी अधिकतम लोगों से साझा करने की आवश्यकता है।
Tirth yatra : The journey which is undertaken ritually with the aim of getting rid of sin and attaining virtue, in which looking at the epilgrimage site, shaving, bathing, worshipping, Shraddha, benefaction, feeding a Brahmin etc. is done, is called pilgrimage.
- Reason : Having a duty mentioned in the scriptures is a self-evident reason, looking for a reason for the duties mentioned in the scriptures cannot be called anything other than foolishness.
- Purpose : No duty mentioned in the scriptures is without purpose. There are two main purposes of pilgrimage – to get rid of sin and to gain the benefits of virtue.
