कैसे करते हैं चतुर्थी का विवाह – chaturthi vidhi

कैसे करते हैं चतुर्थी का विवाह – chaturthi vidhi

विवाह मात्र विवाह विधि के साथ ही पूर्ण नहीं होता अपितु विवाह के उपरांत भी एक कर्म आवश्यक होता है जिसका नाम है चतुर्थी। विवाह के उपरांत चतुर्थी कर्म से पूर्व पत्नी संज्ञा नहीं होती अपितु भार्या होती है। चतुर्थी के उपरांत ही शास्त्रानुसार पत्नी संज्ञा होती है। विवाह के उपरान्त भी तीन दिनों तक वर-वधू को विशेष नियमों का पालन करना पड़ता है और चौथे दिन (विवाह दिन की गणना सहित) सूर्योदय पूर्व चतुर्थी कर्म किया जाता है। इस आलेख में विवाह के बाद चतुर्थी की विधि और मंत्र दिया गया है।

कैसे करते हैं चतुर्थी का विवाह – chaturthi vidhi

चतुर्थी का महत्व जो नहीं जानते उन लोगों ने अज्ञानतावश चतुर्थी कर्म का ही परित्याग कर दिया है। और वर्तमान में विशेषरूप से ब्राह्मणों में ही चतुर्थी कर्म किया जाता है तथापि यदि इसका महत्व न स्पष्ट न किया जाय तो शहरीकरण के कारण जो करते हैं वो भी छोड़ने लगें । अतः सर्वप्रथम हमें चतुर्थी का महत्व समझना आवश्यक है :-

चतुर्थी का महत्व

सम्प्रदाने भवेत्कन्या घृतहोमे सुमङ्गली । वामभागे भवेद्भार्या पत्नी चतुर्थीकर्मणि ॥ दान करने मात्र से कन्या, घृतहोम करने के पश्चात् सुमङ्गली, वाम भाग में स्थित होने से भार्या और चतुर्थी कर्म के पश्चात् पत्नी संज्ञा होती है। इससे चतुर्थी का महत्व इस प्रकार स्पष्ट होता है कि जब तक चतुर्थी कर्म न किया गया हो भार्या संज्ञक ही रहती है, पत्नी संज्ञक होने की सिद्धि नहीं होती।

यद्यपि गोत्र परिवर्तन और पतिकुल में पिण्डोडक का अधिकार सप्तपदी के उपरांत ही सिद्ध होता है। बृहस्पति का कथन है : स्वगोत्रात् भ्रश्यते नारी विवाहात्सप्तमे पदे । पतिगोत्रेण कर्तव्यं तस्याः पिण्डोदकक्रिया ॥ तथापि पति-पत्नी के एकत्व की सिद्धि चतुर्थी कर्म से ही होती है ।

इस संबंध में पुनः बृहस्पति का ही वचन है : चतुर्थी होममन्त्रेण त्वङ्मांसहृदयेन्द्रियैः । भर्त्रा संयुज्यते पत्नी तद्‌गोत्रा तेन भवेत् ॥ अब इसपर विशेष विचार की आवश्यकता है। सप्तपदी के पश्तात् पितृगोत्र से विमुक्ति होती और पतिकुल में पिण्डोदक की सिद्धि होती किन्तु पतिगोत्र की प्राप्ति और पतिकुल में सापिण्ड्यता की सिद्धि शेष रहती है। चतुर्थी कर्म के उपरांत पति से देह और हृदय का एकत्व होता है तत्पश्चात् पतिगोत्र की प्राप्ति और पतिकुल में सापिण्ड्यता की सिद्धि होती है।

चतुर्थी का महत्व
चतुर्थी का महत्व

इस संबंध में अल्प संशय शेष रहता है अथवा सरलता से समझाना शेष है। सप्तपदी के उपरांत पिता के गोत्र से भ्रष्ट अर्थात् मुक्ति हो गई, और उसकी क्रिया पति गोत्र से हो, किन्तु क्रिया को भी स्पष्ट किया गया है मात्र पिण्डोदक क्रिया अर्थात् यदि चतुर्थी कर्म से पूर्व भार्या की मृत्यु हो जाये तो वह सपिण्डन की अधिकारिणी नहीं होगी क्योंकि गोत्र और पिण्ड (देह) का एकत्व (संयोग) शेष ही होगा। गोत्र और पिण्ड (देह) का संयोग चतुर्थी कर्म के पश्चात् होता है और पतिकुल में सपिण्डीकरण का अधिकार चतुर्थी कर्म के उपरांत सिद्ध होता है।

इस प्रकार चतुर्थी का महत्व और आवश्यकता सरलता से समझ में आ जाती है।

कैसे जानें चतुर्थी कब है ?

अब पुनः यह विचार अपेक्षित है कि कब करना चाहिये अर्थात् किस दिन और किस समय करना चाहिये ? चतुर्थी का सीधा तात्पर्य है चौथे दिन क्योंकि यह चार अंक का ही बोधक है। दिन की गणना में विवाह दिन को भी सम्मिलित करे । चतुर्थी के लिये  किसी भी प्रकार से शुभाशुभ मुहूर्त का विचार नहीं किया जाता है। यह स्पष्ट करना इसलिये आवश्यक है क्योंकि यदि किसी का विवाह बुधवार को हो तो उसकी चतुर्थी शनिवार के दिन करें या नहीं यह संशय दिखता है।

जिस किसी भी कर्म का काल वार गणना से निर्धारित हो उसमें गणना के अतिरिक्त अन्य कोई विचार नहीं किया जाता, जैसे अशौच के लिये दिन गणना से निवृत्ति होती है अतः उसमें तिथि, नक्षत्र, वार आदि का विचार नहीं किया जाता। यदि एकाधिक विकल्प हो तो उत्तम का चयन किया जा सकता है; जैसे विवाह पूर्व क्रियाओं के लिये तीसरे, छठे और नौवें दिन को छोड़कर अन्य शुभ दिनों में विकल्प है तो जो उत्तम हो उसमें किया जा सकता है।

प्रथमतया दिन संख्या के आधार पर निर्धारित हो गया की किस दिन हो लेकिन ये समाप्त नहीं हुआ है, काल के आधार पर स्पष्ट किये बिना यह अधूरा ही है। अतः अब चतुर्थी कर्म के काल को भी सही से समझना अपेक्षित है। चतुर्थ दिन से पहले जो रात समाप्त हो रही हो उसी रात के अंत में सूर्योदय से पूर्व चतुर्थी कर्म करे।

इसका प्रमाण पारस्कर के वचन में है : “चतुर्थ्यामपररात्रेऽभ्यन्तरोऽग्निमुपसमाधाय” – चतुर्थ्याम् अपर रात्रे अर्थात चौथे दिन जो पर न हो (दिन के बाद आने वाली न हो) अर्थात दिन से पहले की रात्रि, “गृह में” अर्थात मण्डप में, मण्डप के उत्तर या ईशानकोण में वेदी बनाकर नहीं

चतुर्थी करने का स्थान : गृहाभ्यन्तरतस्तत्स्यादप्यङ्गत्वान्न मण्डपे। स्नात्वैतदाचरेत्कर्मेत्येवंकात्यायनोऽब्रवीत्॥ – रेणु के इस वचन में यह कहा गया है कि कात्यायन के अनुसार स्नान करके तदनन्तर गृह के भीतर करे, विवाहाङ्ग होने के कारण भी मण्डप में न करे। इस प्रकार उपरोक्त विश्लेषण से निम्न तीन तथ्य निष्कर्ष रूप में प्राप्त होते हैं :

  1. प्रथम यह कि चतुर्थी चौथे दिन करे।
  2. द्वितीय यह दिन में नहीं और अगली रात्रि में भी नहीं पूर्वरात्रि में ही करे।
  3. तृतीय यह कि वेदी, मण्डप आदि में नहीं घर में करे।

अगला विचार ये अपेक्षित है कि यदि सूर्योदय पूर्व न कर सके तो क्या सूर्योदय के बाद न करे ? इसका उत्तर भी इस प्रकार है कि यद्यपि मुख्यकाल जो हो ये उसमें कर्म न हो सके तो भी तत्पश्चात गौण काल में भी अवश्य करे, कर्मलोप कदापि न करे – मुख्यकाले यदावश्यं कर्म कर्तुं न शक्यते । गौणकालेऽपि कर्तव्यं गौणोःप्यत्र दृशो भवेत् ॥ काललोपो यदि भवेत्कर्मलोपं न कारयेत् ॥ यदि काललोप हो भी गया हो तो भी कर्मलोप न करे।

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