समावर्तन संस्कार – samavartan sanskar

समावर्तन संस्कार – samavartan sanskar

गुरुकुल में विद्यार्जन करने वाले कुछ वर्षों तक वेदाध्ययन करने के उपरांत ब्रह्मचर्याश्रम से गृहस्थाश्रम की और आवर्तन करते हैं। लेकिन ये प्राचीन काल की व्यवस्था थी, वर्त्तमान युग में गुरुकुलों में पढ़ने वाले ब्रह्मचारी तक यह सीमित है। सामान्य जन एक ही दिन में उपनयन के उपरान्त प्रतीकात्मक रूप से वेदारम्भ और पारायणरहित ही समावर्तन करते हैं। इस आलेख में समावर्तन संस्कार की विधि मंत्र सहित बताई गयी है।

आवर्तन का अर्थ होता है एक निर्धारित चक्र का पूर्ण होना। उपनयन के समय गुरु द्वारा बटुक को वेदाध्ययन और ब्रह्मचर्य के लिये दीक्षित किया जाता है। तत्पश्चात उपरोक्त दोनों वेदाध्ययन और ब्रह्मचर्य (व्रत) को संपन्न करना भी आवर्तन ही कहलाता है। और आवर्तन संपन्न होने के बाद पुनः सम अर्थात जहां से आया था, (घर से आया था) वहां वापस लौटना अर्थात घर जाना समावर्तन कहलाता है। अर्थात गृह से गुरुकुल जाकर ब्रह्मचर्य धारण करते हुये वेदाध्ययन करके (स्नातक होकर) पुनः गृह आना समावर्तन है।

यदि आपने चूडाकरण, उपनयन, वेदारम्भ विधि नहीं पढ़ा है तो आगे सबके लिंक दिये गये हैं :

त्रयः स्नातका भवन्ति विद्यास्नातको व्रतस्नातको विद्याव्रतस्नातक इति – स्नातक तीन प्रकार के कहे गये हैं : १. विद्यास्नातक, २. व्रतस्नातक और ३. विद्याव्रत स्नातक।

समावर्तन संस्कार
समावर्तन संस्कार
  1. विद्यास्नातक : जो वेदाध्ययन पूर्ण तो करता है किन्तु व्रत पूर्ण नहीं करता, अर्थात व्रत पूर्ण किये बिना घर वापस आता है वह विद्यास्नातक कहलाता है – समाप्य वेदमसमाप्य व्रतं यः समावर्तते स विद्यास्नातकः।
  2. व्रतस्नातक : जो व्रत पूर्ण कर लेता हैं किन्तु वेदाध्ययन पूर्ण नहीं करता और घर लौट जाता है वह व्रतस्नातक कहलाता है – समाप्य व्रतमसमाप्य वेदं यः समावर्तते स व्रतस्नातकः।
  3. विद्याव्रत स्नातक : जो वेदाध्ययन कर व्रत दोनों पूर्ण करता है वह विद्याव्रतस्नातक कहलाता है – उभयं समाप्य यः समावर्तते स विद्याव्रतस्नातक इति।

वर्त्तमान युग में सामान्य जन वेदाध्ययन और व्रत दोनों में से किसी क्रिया को संपन्न किये बिना ही उपनयन के दिन प्रतीकात्मक मात्र वेदाध्ययन करते हुये समावर्तन करते हैं। एवं इनके लिये तदनुसार ही समावर्तन पद्धति है जिससे संस्कार लोप न हो। यदि प्रतीकात्मक रूप से भी संस्कार न किये जायें तो कर्मलोप हो जाता है और कर्मलोप होने से कर्मलोपी पतित कहलाता है।

किन्तु ससमय हो ये आवश्यकता तो रहती ही है। ससमय संस्कार संपन्न न होने से भी पतित माना जाता है। जैसे ब्राह्मण के लिये 5 – 16 वर्ष उपनयन के लिये निर्धारित किया गया है तो ब्राह्मण बटु का उपनयन यदि 16 वर्ष तक न हो तो वह पतित हो जाता है।

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