दुर्गा सप्तशती पाठ अध्याय 13

दुर्गा सप्तशती पाठ अध्याय 13

त्रयोदश अध्याय में उवाचादि सहित कुल ४१ श्लोक हैं जिसमें से २ उवाच, २ अर्द्धश्लोक और ३७ श्लोक हैं। प्रथम अध्याय से त्रयोदश अध्याय तक श्लोकों की कुल संख्या 700 है। मेधा मुनि से भगवती की महिमा जानने के उपरांत राजा सुरथ और वैश्य दोनों ने तीन वर्षों तक भगवती की प्रतिमा बनाकर निराहार रहते हुये आराधना किया जिससे प्रसन्न होने पर प्रकट होकर देवी ने दोनों को वरदान मांगने के लिये कहा।

देवी द्वारा वरदान मांगने के लिये कहे जाने पर राजा ने पुनः निष्कंटक राज्य मांगा किन्तु वैश्य ने ज्ञान। देवी ने दोनों को इच्छित वरदान दिया और अंतर्धान हो गयी। इस आलेख में दुर्गा सप्तशती का सुरथ व वैश्य को वर देने का त्रयोदश अध्याय दिया गया है।

दुर्गा सप्तशती पाठ अध्याय 13

सुरथ और वैश्य को देवी का वरदान

॥ ध्यानम् ॥

दुर्गा सप्तशती पाठ : तेरहवाँ अध्याय हिन्दी में

राजा सुरथ और वैश्य को देवी का वरदान

  • महर्षि मेधा ने कहा – हे राजन्! इस प्रकार देवी के उत्तम माहात्म्य का वर्णन मैने तुमको सुनाया। जगत को धारण करने वाली इस देवी का ऎसा ही प्रभाव है, वही देवी ज्ञान को देने वाली है और भगवान विष्णु की इस माया के प्रभाव से तुम और यह वैश्य तथा अन्य विवेकीजन मोहित होते हैं और भविष्य में मोहित होगें। हे राजन्! तुम इसी परमेश्वरी की शरण में जाओ। यही भगवती आराधना करने पर मनुष्य को भोग, स्वर्ग तथा मोक्ष प्रदान करती है।
  • मार्कण्डेयजी ने कहा – महर्षि मेधा की यह बात सुनकर राजा सुरथ ने उन उग्र व्रत वाले ऋषि को प्रणाम किया और राज्य के छिन जाने के कारण उसके मन में अत्यन्त ग्लानि हुई और वह राजा तथा वैश्य तपस्या के लिये वन को चले गये और नदी के तट पर आसन लगाकर भगवती के दर्शनों के लिये तपस्या करने लगे।
मां काली
राजा सुरथ और वैश्य को देवी का वरदान

दोनों ने नदी के तट पर देवी की मूर्ति बनाई और पुष्प, धूप, दीप तथा हवन द्वारा उसका पूजन करने लगे। पहले उन्होंने आहार को कम कर दिया। फिर बिलकुल निराहार रहकर भगवती में मन लगाकर एकाग्रतापूर्वक उसकी आराधना करने लगे। वह दोनों अपने शरीर के रक्त से देवी को बलि देते हुए तीन वर्ष तक लगातार भगवती की आराधना करते रहे। तीन वर्ष के पश्चात जगत का पालन करने वाली चण्डिका ने उनको प्रत्यक्ष दर्शन देकर कहा :

देवी बोली – हे राजन्! तथा अपने कुल को प्रसन्न करने वाले वैश्य! तुम जिस वर की इच्छा रखते हो वह मुझसे माँगो, वह वर मैं तुमको दूँगी क्योंकि मैं तुम पर अत्यन्त प्रसन्न हूँ।

मार्कण्डेय जी कहते हैं – यह सुन राजा ने अगले जन्म में नष्ट न होने वाला अखण्ड राज्य और इस जन्म में बलपूर्वक अपने शत्रुओं को नष्ट करने के पश्चात अपना पुन: राज्य प्राप्त करने के लिये भगवती से वरदान माँगा और वैश्य ने भी जिसका चित्त संसार की ओर से विरक्त हो चुका था, भगवती से अपनी ममता तथा अहंकार रूप आसक्ति को नष्ट कर देने वाले ज्ञान को देने के लिए कहा।

देवी ने कहा – हे राजन्! तुम शीघ्र ही अपने शत्रुओं को मारकर पुन: अपना राज्य प्राप्त कर लोगे, तुम्हारा राज्य स्थिर रहने वाला होगा फिर मृत्यु के पश्चात आप सूर्यदेव के अंश से जन्म लेकर सावर्णिक मनु के नाम से इस पृथ्वी पर ख्याति को प्राप्त होगें।हे वैश्य! कुल में श्रेष्ठ आपने जो मुझसे वर माँगा है वह आपको देती हूँ, आपको मोक्ष को देने वाले ज्ञान की प्राप्ति होगी।

श्री दुर्गा सप्तशती पाठ
श्री दुर्गा सप्तशती पाठ

मार्कण्डेय जी कहते हैं – इस प्रकार उन दोनों को मनोवांछित वर प्रदान कर तथा उनसे अपनी स्तुति सुनकर भगवती अन्तर्धान हो गई और इस प्रकार क्षत्रियों में श्रेष्ठ वह राजा सुरथ भगवान सूर्यदेव से जन्म लेकर इस पृथ्वी पर सावर्णिक मनु के नाम से विख्यात हुए।

॥ ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः सुशांतिर्भवतु सर्वारिष्ट शान्तिर्भवतु

आगे सम्पूर्ण दुर्गा सप्तशती के अनुगमन कड़ी दिये गये हैं जहां से अनुसरण पूर्वक कोई भी अध्याय पढ़ सकते है :

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