पार्वण श्राद्ध की एक विशेष विधि होती है साथ ही करने के विशेष अवसर भी होते हैं। इस आलेख में पार्वण श्राद्ध की सम्पूर्ण जानकारी देते हुये वाजसनेयी पार्वण श्राद्ध करने की विधि और मंत्र भी बताई गयी है। पार्वण श्राद्ध सरलता पूर्वक किया-कराया जा सके इसके लिये पद्धति का अभाव होने के कारण यह आलेख विशेष उपयोगी सिद्ध होगा । आलेख में प्रयुक्त विधि और मंत्र को शुद्धतम रखने का प्रयास किया गया है तथापि यदि किसी प्रकार त्रुटि मिले तो हमें अवगत अवश्य करें।
पार्वण श्राद्ध करने की विधि और मंत्र – वाजसनेयी
पार्वण श्राद्ध की विधि और मंत्रों को जानने से पहले पार्वण श्राद्ध को जानना-समझना भी आवश्यक है। पार्वण श्राद्ध को बिंदुवार रूप में इस प्रकार समझा जा सकता है :
- चतुर्दशी, अष्टमी, अमावास्या, पूर्णिमा और संक्रांतियों को पर्व कहा जाता है।
- इन पर्वों पर किया जाने वाला श्राद्ध पार्वण श्राद्ध कहलाता है।
- पितृपक्ष में भी पार्वण श्राद्ध ही किया जाता है। पिता-माता आदि के मृत्यु तिथि पर एकोद्दिष्ट करके पार्वण श्राद्ध किया जाता है।
- श्राद्ध करने की मुख्य 2 विधि होती है जिसमें से एक पार्वण विधि है और दूसरी एकोद्दिष्ट विधि।
- पार्वण श्राद्ध में 3 से 12 तक पिण्डदान किया जाता है, मुख्य रूप से 6 पिण्डदान की विधि अपनायी जाती है।
- पार्वण श्राद्ध में पुरुरवा और आर्द्रव नामक विश्वेदेवा होते हैं।
पार्वण श्राद्ध में 3, 6, 9 और 12 पिण्ड तक होते हैं, सबकी विधि एक ही होती है यहां षड्दैवत्य अर्थात 6 पिण्ड देने की विधि बताई जा रही है। षड्दैवत्य का अर्थ होता है पिता, पितामह और प्रपितामह, एवं मातामह, प्रमातामह और वृद्धप्रमातामह का श्राद्ध करना। इसमें ये सभी पितर सपत्नीक माने जाते हैं। इसी में यदि पत्नियों का श्राद्ध अलग किया जाय तो 12 पिण्ड हो जायेंगे और वह द्वादशदैवत्य कहा जायेगा।
पार्वण श्राद्ध करने के लिये जो व्यवस्था की गयी हो उसके अनुसार सामग्रियां आसादित करे। पूर्व की ओर पित्रादि व मातामहादि संबधी विश्वेदेवाों के अलग-अलग आसन व श्राद्धसामग्री आदि लगाये। इसी प्रकार पिता-पितामह-प्रपितामह व मातामह-प्रमातामह-वृद्धप्रमातामहों के लिये भी सभी आसन, आसादन सामग्रियां सभी अलग-अलग बनाये लगाये किन्तु पिण्डवेदी एक ही बनाये।
श्राद्धकर्त्ता एक ही आसन पर बैठते हुये आवश्यकतानुसार पूर्वाभिमुख और दक्षिणाभिमुख होकर सभी क्रियायें करे। इस कारण भी विश्वेदेवासन पूर्व में ही देना उचित है। पाक यदि अलग-अलग न कर सके तो भी पित्रादि पक्ष व मातामहादि पक्ष हेतु 2 पाक अवश्य करे। विश्वेदेव का पाक अलग नहीं होता क्योंकि विश्वेदेव श्राद्ध शेषान्न से ही पितृश्राद्ध किया जाता है।
पार्वण श्राद्ध विधि
सर्वप्रथम शुद्धिकरण करे, तीन बार आचमन कर कुशादि धारण करते हुए आत्मशुद्धि करे :
- पवित्रीकरण मंत्र : ॐ अपवित्रः पवित्रोऽ वा सर्वावस्थांगतोऽपि वा यः स्मरेत् पुण्डरीकाक्षं स बाह्याऽभ्यन्तरः शुचिः पुण्डरीकाक्षः पुनातु । ॐ पुण्डरीकाक्षः पुनातु ॥
- नित्यकर्म करके पञ्चगव्य निर्माण, प्राशन, प्रोक्षण आदि भी करे। अंगारभ्रमण, गौरमृत्तिका आच्छादनादि भी विधि के अनुसार करे।
- दिग्रक्षण मंत्र : ॐ नमो नमस्ते गोविन्द पुराण पुरूषोत्तम । इदं श्राद्धं हृषीकेश रक्ष त्वं सर्वतो दिशः ॥
- रक्षादीप जलाकर पाककर्म करे, जितने भी पाक करे सब अलग-अलग करे।
निर्देश :
- जिस क्रिया में स.पू.त्रि. अंकित किया गया है उसका तात्पर्य है – सव्य, पूर्वाभिमुख, त्रिकुशहस्त।
- जिस क्रिया में स.द.त्रि. अंकित किया गया है उसका तात्पर्य है – सव्य, दक्षिणाभिमुख, त्रिकुशहस्त।
- जिस क्रिया में अ.द.मो. अंकित किया गया है उसका तात्पर्य है – अपसव्य, दक्षिणाभिमुख, मोटकहस्त।
- य.ज. का तात्पर्य जौ और जल है।
- ति.ज. का तात्पर्य तिल और जल है।
पार्वण श्राद्ध में सभी क्रियायें क्रमशः विश्वेदेवा व पितरों की साथ-साथ ही होती है। इसलिये संकेतों का विशेष ध्यान रखें। पितृकर्म पातितवामजानु होकर करे।
पवित्रीकरण मंत्र : ॐ अपवित्रः पवित्रोऽ वा सर्वावस्थांगतोऽपि वा यः स्मरेत् पुण्डरीकाक्षं स बाह्याऽभ्यन्तरः शुचिः पुण्डरीकाक्षः पुनातु । ॐ पुण्डरीकाक्षः पुनातु ॥ पाक, सभी कल्पित आसन व श्राद्ध की सभी सामग्रियों को जल से सिक्त करके शरीर को भी सिक्त करे। तीन बार आचमन करके संकल्प से श्राद्ध कर्म का आरम्भ करे।
पार्वण श्राद्ध संकल्प : सव्य-पूर्वाभिमुख त्रिकुशा धारण कर तिल-जलादि संकल्प द्रव्य लेकर इस प्रकार संकल्प करे – ॐ अद्य ………. मासे ……….. पक्षे ……….. तिथौ ……..… गोत्रस्य ……….. शर्मणः पार्वण श्राद्धमहं करिष्ये ॥ स.पू.त्रि.
तीन बार गायत्री जप करके पढ़ें – ॐ देवताभ्यः पितृभ्यश्च महायोगिभ्य एव च । नमः स्वाहायै स्वधायै नित्यमेव नमो नमः ॥३॥
विश्वेदेव आसन : सव्य-पूर्वाभिमुख-त्रिकुशा-जौ-जल – पूर्वदिशा में उत्तरभाग में पित्रादि सम्बन्धी विश्वेदेवा का आसन दे और उनसे दक्षिण भाग में मातामहादि सम्बन्धी विश्वेदेवा का आसन दे।
- पित्रादि विश्वेदेवा : ॐ पित्रादि सम्बन्धी विश्वेदेवा इदं आसनं वो नमः ॥
- मातामहादि विश्वेदेवा : ॐ मातामहादि सम्बन्धी विश्वेदेवा इदं आसनं वो नमः ॥
पित्रादि आसन : असव्य-दक्षिणाभिमुख-मोटक-तिल-जल – पश्चिम से आरम्भ कर क्रमशः पूर्व में में आसन दे :
- पिता : ॐ अद्य ……….. गोत्र पितः ……….. शर्मन् इदं आसनं ते स्वधा ॥
- पितामह : ॐ अद्य ……….. गोत्र पितामह ……….. शर्मन् इदं आसनं ते स्वधा ॥
- प्रपितामह : ॐ अद्य ……….. गोत्र प्रपितामह ……….. शर्मन् इदं आसनं ते स्वधा ॥
- मातामह : ॐ अद्य ……….. गोत्र मातामह ……….. शर्मन् इदं आसनं ते स्वधा ॥
- प्रमातामह : ॐ अद्य ……….. गोत्र प्रमातामह ……….. शर्मन् इदं आसनं ते स्वधा ॥
- वृद्धमातामह : ॐ अद्य ……….. गोत्र वृद्धप्रमातामह ……….. शर्मन् इदं आसनं ते स्वधा ॥
विश्वेदेव आवाहन :- सव्य-पूर्वाभिमुख – ॐ विश्वान् देवानहं आवाहयिष्ये, विश्वेदेवा स आगत शृणुताम् इम ᳪ हवं एनं बर्हिनिषीदत ॥
यवविकिरण : दोनों विश्वदेवा के भोजनपात्र पर जौ छिड़के – ॐ यवोऽसि यवयास्मद्वेषो यवयारातीः ॥ फिर अगला दोनों मंत्र पढ़े :
- ॐ विश्वेदेवाः शृणुतेम ᳪ हवं मे येऽअन्तरिक्षे य उपपद्यविष्ट येऽअग्निजिह्वा उतवा यजत्रा आसद्याऽस्मिन् बर्हिषि मादयध्वम् ॥
- ॐ आगच्छन्तु महाभागा विश्वेदेवा महाबलाः । ये यत्र योजिताः श्राद्धे सावधाना भवन्तु ते ॥
पितृ आवाहन : अपसव्य-दक्षिणाभिमुख – ॐ पितृन् अहं आवाहयिष्ये, ॐ उशन्तस्त्वा निधीमह्युशन्तः समिधीमहि । उशन्नुशत आवह पितृन् हविषे अत्तवे ॥
तिल विकिरण : पित्रादि छहों के भोजनपात्र पर तिल छिड़के – ॐ अपहता ऽअसुरा रक्षा ᳪ सि वेदिषदः ॥ पुनः करबद्ध होकर अगला मंत्र पढ़े –
ॐ आयन्तु नः पितरः सोम्यासो ऽअग्निष्वाता: पथिभिर्देवयानै: अस्मिन् यज्ञे स्वधया मदन्तोऽधि ब्रुवन्तु तेऽवन्त्वस्मान् ॥
अर्घ्यस्थापन :-
- सव्य-पूर्वाभिमुख-त्रिकुशहस्त होकर विश्वेदेव के अर्घपात्रों में पूर्वाग्र पवित्री दे।
- अपसव्य-दक्षिणाभिमुख पित्रादि अर्घपात्रों में दक्षिणाग्र पवित्री दे।
जल निक्षेप :
- सव्य-पूर्वाभिमुख-त्रिकुशहस्त होकर विश्वेदेव के अर्घपात्रों में जल दे – ॐ शन्नो देवीरभिष्टय ऽआपो भवन्तु पीतये । शंय्योरभिस्रवन्तु नः ॥
- अपसव्य-दक्षिणाभिमुख-त्रिकुशहस्त पित्रादि अर्घपात्रों में जल दे – ॐ शन्नो देवीरभिष्टय ऽआपो भवन्तु पीतये । शंय्योरभिस्रवन्तु नः ॥
यव-तिल प्रक्षेप :
- सव्य-पूर्वाभिमुख-त्रिकुशहस्त होकर विश्वेदेव के अर्घपात्रों में यव दे – ॐ यवोऽसि यवयास्मद्वेषो यवयारातीः ॥
- अपसव्य-दक्षिणाभिमुख-त्रिकुशहस्त पित्रादि अर्घपात्रों में तिल दे – ॐ तिलोऽसि सोम देवत्यो गोसवो देवनिर्मितः। प्रत्नद्भिः पृक्त: स्वधया पितृन् लोकान् प्रीणाहि नः स्वाहा ॥
गन्ध-पुष्प प्रक्षेप :
सव्य-पूर्वाभिमुख-त्रिकुशहस्त होकर विश्वेदेव के अर्घपात्रों में मौन रहते हुये गन्ध-पुष्प दे।
अपसव्य-दक्षिणाभिमुख-त्रिकुशहस्त पित्रादि अर्घपात्रों में मौन रहते हुये गन्ध-पुष्प दे।
विश्वेदेवा अर्घोत्सर्ग :
- सव्य-पूर्वाभिमुख-त्रिकुशहस्त होकर पहले पित्रादि सम्बन्धी विश्वेदेव का अर्घपात्र बांये हाथ में ले, पवित्री निकाल कर भोजनपात्र पर रखकर अन्य जल से सिक्त करे।
- फिर अर्घपात्र को उत्तान दाहिने हाथ से ढंककर यदिव्या मंत्र से अभिमन्त्रित करे : ॐ या दिव्या आपः पयसा सम्बभूबुर्या आंतरिक्षा उत पार्थीवीर्या:। हिरण्यवर्णा याज्ञियास्ता न आपः शिवा: स ᳪ स्योना: सुहवा भवन्तु ॥
- फिर जौ-जल लेकर अर्घ का उत्सर्ग करे : ॐ अद्य विश्वेदेवा एष वोऽर्घो नमः ॥
- फिर दाहिने हाथ में अर्घपात्र लेकर भोजन पात्र पर रखे पवित्री के ऊपर देवतीर्थ से अर्घ्य (थोड़ा जल) दे।
- फिर अर्घपात्र को यथास्थान रख दे। पवित्री को पुनः अर्घपात्र में रख दे।
- इसी प्रकार मातामहादि सम्बन्धी विश्वेदेवा को भी अर्घ प्रदान करे।
पित्रादि अर्घोत्सर्ग :
- अपसव्य-दक्षिणाभिमुख-त्रिकुशहस्त होकर पहले पिता का अर्घपात्र बांये हाथ में ले, पवित्री निकाल कर भोजनपात्र पर उत्तराग्र रखकर अन्य जल से सिक्त करे।
- फिर अर्घपात्र को अधोमुख दाहिने हाथ से ढंककर यादिव्या मंत्र पढ़कर अभिमन्त्रित करे : ॐ या दिव्या आपः पयसा सम्बभूबुर्या आंतरिक्षा उत पार्थीवीर्या:। हिरण्यवर्णा याज्ञियास्ता न आपः शिवा: स ᳪ स्योना: सुहवा भवन्तु ॥
- फिर मोड़ा-तिल-जल लेकर अर्घ का उत्सर्ग करे : ॐ अद्य ……….. गोत्र पितः ……….. शर्मन् एषोऽर्घः ते स्वधा ॥
- फिर दाहिने हाथ में अर्घपात्र लेकर भोजन पात्र पर रखे पवित्री के ऊपर पितृतीर्थ से अर्घ्य (थोड़ा जल) दे।
- फिर अर्घपात्र को यथास्थान रख दे। पवित्री को पुनः अर्घपात्र में रख दे।
- इसी प्रकार पितामहादि अन्य पांचों पितर को भी अर्घ प्रदान करे।
सव्य-पूर्वाभिमुख-त्रिकुशहस्त होकर पित्रादि सम्बन्धी विश्वेदेवा अर्घपात्र (शेष जल सहित) दाहिने हाथ में लेकर, विश्वेदेवासन के दक्षिण भाग अर्थात उत्तर दिशा में उत्तान ही रखे – ॐ विश्वेभ्यः देवेभ्यः स्थानमसि ॥ इसी प्रकार मातामहादि सम्बन्धी विश्वेदेवा का अर्घपात्र भी विश्वेदेवासन के दक्षिणभाग अर्थात उत्तर दिशा में रखे।
- अपसव्य-दक्षिणाभिमुख-मोटकहस्त होकर प्रपितामहार्घपात्र का दाहिने हाथ में लेकर उसका पवित्री और जल पितामहार्घपात्र में देकर प्रपितामहार्घपात्र को यथास्थान रख दे।
- पुनः पितामहार्घपात्र का दाहिने हाथ में लेकर उसका पवित्री और जल पित्र्यर्घपात्र में देकर पितामहार्घपात्र को यथास्थान रख दे।
- फिर पित्र्यर्घपात्र जलादि सहित पितामहार्घपात्र में रखे, फिर दोनों को उठाकर प्रपितामहार्घपात्र में रख दे।
- फिर तीनों को उठाकर पित्रादिकों के आसन से वाम भाग अर्थात पश्चिम में अधोमुख रख दे – ॐ पितृभ्यः स्थानमसि ॥ और दक्षिणा देने तक उन पूड़ों को न हिलावे ।
- पुनः इसी प्रकार से मातामहादि का अर्घपात्र भी मातामहादि आसन के वामपार्श्व में रखे – ॐ पितृभ्यः स्थानमसि ॥
गन्धादि : सव्य-पूर्वाभिमुख-त्रिकुशहस्त जौ, जल लेकर पित्रादि संबंधी विश्वेदेवा के गन्धादि का उत्सर्ग करे – ॐ अद्य विश्वेदेवा एतानि गंध पुष्पधूपदीपताम्बूल यज्ञोपवीत-वस्त्रादिऽआच्छादनानि वो नमः ॥ इसी प्रकार मातामहादि संबंधी विश्वेदेवा का भी गंधार्चन करे।
तदुत्तर अपसव्य-दक्षिणाभिमुख-मोटकहस्त होकर पित्रादिकों का गंधार्चन करे :
- पिता : ॐ अद्य …….. गोत्र पितः ……….. शर्मन् एतानि गन्ध पुष्प धूप दीप ताम्बूल यज्ञोपवीत ऽऽच्छादनानि/विद्यमानोपकरणानि ते स्वधा ॥
- पितामह : ॐ अद्य …….. गोत्र पितामह ……….. शर्मन् एतानि गन्ध पुष्प धूप दीप ताम्बूल यज्ञोपवीत ऽऽच्छादनानि/विद्यमानोपकरणानि ते स्वधा ॥
- प्रपितामह : ॐ अद्य …….. गोत्र प्रपितामह ……….. शर्मन् एतानि गन्ध पुष्प धूप दीप ताम्बूल यज्ञोपवीत ऽऽच्छादनानि/विद्यमानोपकरणानि ते स्वधा ॥
- मातामह : ॐ अद्य …….. गोत्र मातामह ……….. शर्मन् एतानि गन्ध पुष्प धूप दीप ताम्बूल यज्ञोपवीत ऽऽच्छादनानि/विद्यमानोपकरणानि ते स्वधा ॥
- प्रमातामह : ॐ अद्य …….. गोत्र प्रमातामह ……….. शर्मन् एतानि गन्ध पुष्प धूप दीप ताम्बूल यज्ञोपवीत ऽऽच्छादनानि/विद्यमानोपकरणानि ते स्वधा ॥
- वृद्धप्रमातामह : ॐ अद्य …….. गोत्र वृद्धप्रमातामह ……….. शर्मन् एतानि गन्ध पुष्प धूप दीप ताम्बूल यज्ञोपवीत ऽऽच्छादनानि/विद्यमानोपकरणानि ते स्वधा ॥
तदुत्तर सव्य-पूर्वाभिमुख होकर पहले पित्रादि सम्बन्धी विश्वेदेवा के भोजन पात्र को फिर मातामहादि सम्बन्धी विश्वेदेवा के भोजनपात्र और आसन को प्रदक्षिणक्रम से जल द्वारा चतुष्कोण मंडलित करे।
तदुत्तर अपसव्य-दक्षिणाभिमुख होकर पहले पित्रादि के भोजनपात्र और आसन को अप्रदक्षिणक्रम से जल द्वारा चतुष्कोण मंडलित करे।
अग्नौकरण :- सव्य-पूर्वाभिमुख होकर एक पूड़ा दो भागों में सिद्धान्न दे, एक भाग में जौ-घी-मधु दे, दूसरे भाग में तिल-घी-मधु दे। रखे। एक अन्य पूड़े में जल दे। दोनों पूड़ा पूर्वाभिमुख रखे। पातित-दक्षिणजानु-त्रिकुशहस्त होकर अनामिका और अंगूठा से पूड़ा का अन्नादि लेकर जल वाले पूड़े में दो बार आहुति प्रदान करे –
- ॐ अग्नये कव्यवाहनाय स्वाहा ॥ पहली आहुति जौ वाले भाग से ।
- ॐ सोमाय पितृमते स्वाहा ॥ दूसरी आहुति दे तिल वाले भाग से ।
भूस्वामि अन्नोत्सर्ग :- दक्षि० अपसव्य होकर अपने वाम भाग में (पिण्डवेदी से पूर्व), मोड़ा-तिल-जल भूस्वामि के अन्न का उत्सर्ग करे – ॐ इदमन्नम् एतद् भूस्वामि पितृभ्यो नमः ॥
तदुत्तर सव्य-पूर्वाभिमुख होकर दोनों विश्वेदेव भोजनपात्रों किञ्चित हुतशेषान्न (जौ वाले भाग से) देकर अपसव्य-दक्षिणाभिमुख होकर पित्रादि छहों भोजन पात्रों पर तिल वाले भाग से थोड़ा-थोड़ा हुतशेषान्न दे।
पुनः सव्य-पूर्वाभिमुख होकर दोनों विश्वेदेव भोजनपात्रों पुरुषहारपरिमित अन्न-व्यञ्जनादि परोसकर, अपसव्य-दक्षिणाभिमुख होकर पित्रादि छहों भोजन पात्रों पर पुरुषहारपरिमित अन्न-व्यञ्जनादि परोसे और 6 पुटकों में जल-घी दे।
पुनः सव्य-पूर्वाभिमुख होकर दोनों विश्वेदेव भोजनपात्रों जौ-घी-मधु दे, अपसव्य-दक्षिणाभिमुख होकर पित्रादि छहों भोजन पात्रों पर तिल-घी-मधु दे।
पूर्वा० सव्य हो त्रिकुशहस्त विश्वेदेवा के भोजनपात्र में अन्नादि, घी, मधु, जौ देकर जलपात्र वा पूड़ा में जल व घी दे ।
मधुप्रक्षेप (भोजनपात्र स्पर्श) :- सव्य-पूर्वाभिमुख-त्रिकुशहस्त होकर पित्रादि संबंधी विश्वेदेवा के भोजनपात्र के अन्न में उत्तान दाहिना हाथ लगावे – ॐ मधुव्वाता ऋतायते मधुक्षरन्ति सिन्धवः माध्वीर्न: सन्त्वोषधिः मधुनक्तमुतोषसो मधुमत्पार्थिव ᳪ रजः मधुद्यौरस्तु नः पिता मधुमान्नो वनस्पतिर्मधुमां२ अस्तु सूर्यः माध्वीर्गावो भवन्तुनः ॥ ॐ मधु मधु मधु ॥ पुनः इसी प्रकार मातामहादि संबंधी विश्वेदेवा के भोजनपात्र का स्पर्श करके “मधुमती ऋचा” का पाठ करे।
तदुत्तर अपसव्य-दक्षिणाभिमुख-त्रिकुशहस्त होकर क्रमशः पित्रादि के भोजनपात्रों का अधोमुख दाहिने हाथ से स्पर्श करके “मधुमती ऋचा” का पाठ करे।
विश्वेदेवान्न पात्रालम्भन : सव्य-पूर्वाभिमुख-त्रिकुशहस्त होकर दोनों हाथ उत्तान करके पित्रादि संबंधी विश्वेदेवा के भोजनपात्र का स्पर्श करे –
- ॐ पृथिवी ते पात्रं द्यौरपिधानं ब्राह्मणस्य मुखे अमृते ऽअमृतं जुहोमि स्वाहा ॥
- ॐ इदं विष्णुर्विचक्रमे त्रेधा निदधे पदम् समूढ़मस्य पा ᳪ सुरे ॥
- ॐ कृष्ण हव्यमिदं रक्षमदियं ॥
अवगाहन : बांये हाथ को पूर्ववत रखे हुए दाहिने हाथ के अँगूठा से विश्वेदेवान्न, पूड़ा का जल घी और फिर अन्न में अंगुष्ठ निवेषण करे – ॐ इदमन्नम् ॥ (अन्न) । ॐ इमा आपः ॥ (जल) । ॐ इदमाज्यम् ॥ (घी)। ॐ इदं हविः ॥ (अन्न) बाएं हाथ को भोजन में लगाकर रखते हुए दाहिने हाथ में जौ लेकर इस मंत्र से विश्वेदेवान्न पर छिड़के –
यवविकिरण :- दाहिने हाथ में जौ लेकर इस मंत्र से विश्वेदेवान्न पर छिड़के – ॐ यवोऽसि यवयास्मद्वेषो यवयारातीः ॥
अन्नोत्सर्ग :- त्रिकुशा–जौ–जल से अगला मंत्र पढते हुए विश्वेदेवान्न का उत्सर्ग करे – ॐ अद्य विश्वेदेवा इदमन्नं सोपकरणं वो नमः ॥
पुनः इसी प्रकार मातामहादि संबंधी विश्वेदेवा के अन्न का भी आलंभन-अवगाहन-यवविकिरण करके उत्सर्ग करे।
पितरान्न पात्रालम्भन : तदुत्तर अपसव्य-दक्षिणाभिमुख-त्रिकुशहस्त-पातितवामजानु होकर दोनों हाथों से पिता के भोजनपात्र का स्पर्श करके अगले मंत्रों को पढ़े :
- ॐ पृथिवी ते पात्रं द्यौरपिधानं ब्राह्मणस्य मुखे अमृते ऽअमृतं जुहोमि स्वाहा ॥
- ॐ इदं विष्णुर्विचक्रमे त्रेधा निदधे पदम् समूढ़मस्य पा ᳪ सुरे ॥
- ॐ कृष्ण कव्यमिदं रक्षमदियं ॥
अवगाहन :- बांये हाथ को भोजनपात्र में लगाए रखते हुए ही भोजनपात्र का अन्न पूड़ा का जल, घी और फिर अन्न में अङ्गुष्ठ निवेश करे –
ॐ इदमन्नं ॥ इमा आपः ॥ इदं आज्यं ॥ इदं हविः ॥ अ.द.त्रि.
तिलविकिरण :- अन्न पर तिल छिड़के – ॐ अपहता ऽअसुरा रक्षा ᳪ सि वेदिषदः ॥
अन्नोत्सर्ग :- दाहिने हाथ मे मोड़ा, तिल, जल लेकर भोजन का उत्सर्ग करे – ॐ अद्य …….. गोत्र पितः ……….. शर्मन् इदमन्नं सोपकरणं ते स्वधा ॥
तदुत्तर इसी प्रकार क्रमशः अन्य पांचों पितरों के लिये भी आलंभन-अवगाहन-तिलविकिरण और अन्नोत्सर्ग करे।
तदुत्तर तीन बार गायत्री जप करे, फिर “मधुमती ऋचा” और यह मंत्र पढे – ॐ अन्नहीनं क्रियाहीनं विधिहीनं च यद्भवेत्। तत्सर्वमच्छिद्रमस्तु ॥
- पुनः गायत्री जप कर आसन के नीचे कुशा रखे ।
- पुनः “मधुमती ऋचा” पाठ करे ।
- फिर अगले सुक्तादि का पाठ करे :-
ॐ कृणुष्वपाजः प्रसितिन्न पृथिवीं याहि राजे वामवां इभेन । तृष्वीमनु प्रसितिं द्रूनाणोऽस्तासि विध्य रक्षसस्तपिष्ठैः । तवभ्रमास आसुया पतन्त्यनुस्पृस धृषता शोसुचानः । तपू ᳪ ष्यग्ने जुह्वा पतङ्गानसन्दितो विसृज विश्वगुल्काः । प्रतिष्पशो विसृज तूर्णितमो भवा पायुर्विशो अस्याऽअदब्धः । यो नो दूरे अघश ᳪ सो यो अन्त्यग्ने माकिष्टे व्यथिरा दधर्षीत । उदग्ने तिष्ठ प्रत्या तनुष्वन्य मित्रां ओषता तिग्महेते । यो नो ऽअराति ᳪ समिधानचक्रे नीचा तं धक्ष्यत सन्न शुष्कम् । उर्ध्वो भव प्रतिविध्या ध्यस्मदा विष्कृणुष्व दैव्यान्यग्ने अवस्थिरा तनुहि यातु यूनाम् जामिमजामिं प्रमृणीहि शत्रून् ॥ पाठ कर भूमि पर तिल बिखेरे।
ॐ उदीरतामवर उत्परास उन्मध्यमाः पितरः सौम्यासः । असूंऽयईयुरवृका ऋतज्ञास्ते नोऽवन्तु पितरो हवेषु अङ्गिरसो नः पितरः सौम्यासः । तेषा ᳪ वय ᳪ सुमतौ यज्ञियानामपि भद्रे सौमनसे स्याम ये नः पूर्वे पितरः सोम्यासोऽअनुहिरे सोमपीथं वशिष्ठाः तेभिर्यमः स ᳪ रराणो हवी ᳪ स्युसन्नुसद्भिः प्रतिकाममत्तु ॥
- ॐ सहस्रशीर्षा पुरुषः सहस्राक्षः सहस्रपात् । भूमि ᳪ सर्वतस्पृत्त्वात्त्यतिष्ठद्दशाङ्गुलम् ॥ इत्यादि पुरुषसूक्त पाठ
- ॐ आशुः शिषाणो वृषभो न भीमो घनाघनः क्षोभनश्चर्षनिनां । संक्रदनो निमिष एकवीरः शत ᳪ सेना अजयत्साकमिन्द्रः ॥
- ॐ नमः शम्भवाय च मयोभवाय च नमः शङ्कराय च मयस्कराय च नमः शिवाय च शिवतराय च ॥
- ॐ नमस्तुभ्यं विरूपाक्ष नमस्तेनेक चक्षुषे । नमः पिनाकहस्ताय वज्रहस्ताय वै नमः ॥
- ॐ सप्तव्याधा दशार्णेषु मृगाः कालञ्जरे गिरौ । चक्रवाकाः शरद्वीपे हन्साः सरसि मानसे ॥
- तेऽपि जाताः कुरुक्षेत्रे ब्राह्मणा वेदपारगाः । प्रस्थिता दूरमध्यानौ यूयं तेभ्योवसीदथ ॥
- ॐ रुची रुची रुचिः ॥ पाठ करे।
विकिरदान :- वेदी के पश्चिम में त्रिकुश रखकर जल से सिक्त कर दे । एक पूड़ा में अन्नादि लेकर “मधुमती ऋचा” पढ़कर और जल से आप्लावित करे, फिर मोड़ा के मूल से सहारा देकर त्रिकुश पर बांए हाथ के पितृतीर्थ से बिखेरे – ॐ अनग्निदग्धाश्च ये जीवा ये प्रदग्धाः कुले मम । भूमौ दत्तेन तृप्यन्तु तृप्ता यान्तु पराङ्गतिम् ॥
त्रिकुश धारण कर पूर्वा० सव्य हो आचमन कर “ॐ विष्णुर्विष्णुर्हरिर्हरिः” पढ़कर त्रिगायत्री जपे । फिर दक्षि० अप० होकर मधुमती ऋचा पाठ करे ।
उल्लेखन :- अपसव्य-दक्षिणाभिमुख होकर बालुकामयी एक हाथ लंबा-चौड़ा और 4 अंगुल ऊँचा दक्षिणप्लव वेदी निर्माण करे, बालुकामयी पिंडवेदी को जल से सिक्त कर दर्भपिञ्जलि से पिण्डस्थान में प्रादेशमात्र – दक्षिणाग्र रेखा करे – ॐ अपहता ऽअसुरा रक्षा ᳪ सि वेदिषदः ॥ इसी प्रकार उससे पूर्व एक और रेखा करके दर्भपिञ्जलि ईशान में त्याग दे।
अंगारभ्रमण :- प्रादेशप्रमाण दोनों रेखाों पर थोड़ा अंगार रख कर कुश के मूल से भ्रमणपूर्वक चलाते हुए दक्षिण में गिरा दे – ॐ ये रूपाणि प्रतिमुञ्चमाना असुराः सन्तः स्वधया चरन्ति। परापुरो निपुरो ये भरंत्यग्निष्टांलोकात् प्रणुदात्यस्मात् ॥ अ.द.मो. ॥
दोनों प्रादेशप्रमाण रेखाओं पर 9-9 छिन्नमूल कुश रखकर जल से सिक्त कर दे। पूर्वा० सव्य होकर तीन बार ॐ देवताभ्यः मंत्र पढ़े – ॐ देवताभ्यः पितृभ्यश्च महायोगिभ्य एव च । नमः स्वाहायै स्वधायै नित्यमेव नमो नमः ॥
अत्रावन :- अपसव्य-दक्षिणाभिमुख हो 6 पुटकों में तिल-जल-पुष्प-चंदन देकर एक पूड़ा बायें हाथ में ले, दाहिने हाथ में मोड़ा, तिल जल लेकर इस मंत्र से उत्सर्ग करे – ॐ अद्य ……….. गोत्र पितः ……….. शर्मन् पिण्डस्थाने अत्रावने निक्ष्व ते स्वधा ॥ उत्सर्ग कर पूड़ा का आधा जल दाहिने हाथ के पितृतीर्थ से पिण्डवेदी के प्रथम रेखा के कुशाओं पर (उत्तर भाग में) दे । शेष जल सहित पुटक को भी प्रत्यवन हेतु यथाक्रम से रखे। पुनः इसी प्रकार पितामहादि के लिये भी अवनेजन दे :
- द्वितीय पुटक : ॐ अद्य ……….. गोत्र पितामह ……….. शर्मन् पिण्डस्थाने अत्रावने निक्ष्व ते स्वधा ॥ प्रथम रेखा के कुशाओं पर मध्य भाग में दे ।
- तृतीय पुटक : ॐ अद्य ……….. गोत्र प्रपितामह ……….. शर्मन् पिण्डस्थाने अत्रावने निक्ष्व ते स्वधा ॥ प्रथम रेखा के कुशाओं पर दक्षिण भाग में दे।
- चतुर्थ पुटक : ॐ अद्य ……….. गोत्र मातामह ……….. शर्मन् पिण्डस्थाने अत्रावने निक्ष्व ते स्वधा ॥ द्वितीय रेखा के कुशाओं पर उत्तर भाग में दे ।
- पञ्चम पुटक : ॐ अद्य ……….. गोत्र प्रमातामह ……….. शर्मन् पिण्डस्थाने अत्रावने निक्ष्व ते स्वधा ॥ द्वितीय रेखा के कुशाओं पर मध्य भाग में दे।
- षष्ठ पुटक : ॐ अद्य ……….. गोत्र वृद्धप्रमातामह ……….. शर्मन् पिण्डस्थाने अत्रावने निक्ष्व ते स्वधा ॥ द्वितीय रेखा के कुशाओं पर दक्षिण भाग में दे ।
तदुत्तर तिल-घी-मधु आदि सहित दोनों पाक पात्रों के अन्न से अलग-अलग 6 पात्रों में पिण्डभाग अन्नादि ग्रहण करके 6 पिण्ड निर्माण करे। पिण्डनिर्माण करके तत्तत् पिण्ड पात्रों में रखे, किञ्चित अन्न अवशेष भी रहने दे व पिण्ड शेषान्न हेतु विभक्त करके क्रम से रखे ताकि जिस पिण्ड का जो शेषान्न हो वही दिया जा सके। पिण्ड पात्रों में रखकर सबके ऊपर घी-मधु-तिल दे। क्रमशः एक-एक पिण्ड बायें हाथ में रखे, दाहिने हाथ में मोड़ा, तिल, जल लेकर पिण्डोत्सर्ग करे –
- पिता : ॐ अद्य ……….. गोत्र पितः ……….. शर्मन् एष पिण्डः ते स्वधा ॥ प्रथम रेखा के कुशाओं पर उत्तर भाग में दे ।
- पितामह : ॐ अद्य ……….. गोत्र पितामह ……….. शर्मन् एष पिण्डः ते स्वधा ॥ प्रथम रेखा के कुशाओं पर मध्य भाग में दे ।
- प्रपितामह : ॐ अद्य …….. गोत्र प्रपितामह …….. शर्मन् एष पिण्डः ते स्वधा ॥ प्रथम रेखा के कुशाओं पर दक्षिण भाग में दे।
- मातामह : ॐ अद्य …….. गोत्र मातामह …….. शर्मन् एष पिण्डः ते स्वधा ॥ द्वितीय रेखा के कुशाओं पर उत्तर भाग में दे ।
- प्रमातामह : ॐ अद्य ……….. गोत्र प्रमातामह ……….. शर्मन् एष पिण्डः ते स्वधा ॥ द्वितीय रेखा के कुशाओं पर मध्य भाग में दे।
- वृद्धमातामह : ॐ अद्य ……….. गोत्र वृद्धप्रमातामह ……….. शर्मन् एष पिण्डः ते स्वधा ॥ द्वितीय रेखा के कुशाओं पर दक्षिण भाग में दे ।
- उत्सर्गोपरांत पित्रादिकों के पिण्डतलस्थ कुशों में हाथ पोंछे – ॐ लेपभागभुजस्तृप्यन्तु ॥
- मातामहादिकों के पिण्डतलस्थ कुशों में चुपचाप ही हाथ पोंछे।
- पूर्वा० सव्य हो आचमन कर “ॐ विष्णुर्विष्णुर्हरिर्हरिः” पढ़कर हरिस्मरण करे ।
पुनः अपसव्य-दक्षिणाभिमुख करबद्ध उत्तर मुंह कर इस मंत्र से श्वास ले, सांस को रोक कर भास्वरमूर्ति पितरों का ध्यान करे –
- ॐ अत्र पितरोमादयध्वं यथाभाग मा वृषादयध्वम् ॥ उत्तर से श्वास ले।
- ॐ अमीमदन्त पितरो यथाभाग मा वृषायिषत ॥ पश्चिमाभिमुख श्वास छोड़े ।
फिर क्रमशः छहों अवनेजन पात्रों को एक-एक कर बायें हाथ में लेकर दाहिने हाथ में मोड़ा-तिल-जल से उत्सर्ग करके तत्तत् पिण्डों पर दे :
- पिता : ॐ अद्य ……….. गोत्र पितः ……….. शर्मन् अत्र प्रत्यवने निक्ष्व ते स्वधा ॥
- पितामह : ॐ अद्य ……….. गोत्र पितामह ……….. शर्मन् अत्र प्रत्यवने निक्ष्व ते स्वधा ॥
- प्रपितामह : ॐ अद्य …….. गोत्र प्रपितामह …….. शर्मन् अत्र प्रत्यवने निक्ष्व ते स्वधा ॥
- मातामह : ॐ अद्य …….. गोत्र मातामह …….. शर्मन् अत्र प्रत्यवने निक्ष्व ते स्वधा ॥
- प्रमातामह : ॐ अद्य ……….. गोत्र प्रमातामह ……….. शर्मन् अत्र प्रत्यवने निक्ष्व ते स्वधा ॥
- वृद्धमातामह : ॐ अद्य ……….. गोत्र वृद्धप्रमातामह ……….. शर्मन् अत्र प्रत्यवने निक्ष्व ते स्वधा ॥
अलग-अलग प्रत्यवन का उत्सर्ग कर क्रमशः सभी पिण्ड पर दे।
- नीवीं विसर्जन या डाँरकडोर ससारे।
- फिर स.पू. आचमन करे। भगवान विष्णु का स्मरण करे।
- फिर अपसव्य-दक्षिणाभिमुख-मोटकहस्त होकर वस्त्रार्थ 6 सूत्र बांये हाथ में लेकर (बायां हाथ आगे और दाहिने पीछे रखकर पकड़े) अगला मंत्र पढ़ते हुये सभी पिण्डों पर चढ़ाये
ॐ नमो वः पितरो रसाय नमो वः पितरो शोषाय नमो वः पितरो जीवाय नमो वः पितरः स्वधायै नमो वः पितरो घोराय नमो वः पितरो मन्यवे नमो वः पितरः पितरो नमो वो गृहान्नः पितरो दत्त सतो वः पितरो द्वेष्म ॥ ॐ एतद् वः पितरो वासः ॥ इस मंत्र को पढ़ते हुये पिता के पिण्ड से आरम्भ करके वृद्धप्रमातामह पिण्डों पर क्रमशः एक-एक सूत्र प्रदान करे।
तदुत्तर मोड़ा-तिल-जल लेकर उसी क्रम से सभी वस्त्रों का उत्सर्ग करे :
- पिता : ॐ अद्य ……….. गोत्र पितः ……….. शर्मन् एतद्वास्ते स्वधा ॥
- पितामह : ॐ अद्य ……….. गोत्र पितामह ……….. शर्मन् एतद्वास्ते स्वधा ॥
- प्रपितामह : ॐ अद्य …….. गोत्र प्रपितामह …….. शर्मन् एतद्वास्ते स्वधा ॥
- मातामह : ॐ अद्य …….. गोत्र मातामह …….. शर्मन् एतद्वास्ते स्वधा ॥
- प्रमातामह : ॐ अद्य ……….. गोत्र प्रमातामह ……….. शर्मन् एतद्वास्ते स्वधा ॥
- वृद्धमातामह : ॐ अद्य ……….. गोत्र वृद्धप्रमातामह ……….. शर्मन् एतद्वास्ते स्वधा ॥
तदुत्तर मौन रहते हुये पितरों के उद्देश्य से सभी पिण्डों पर गंध-पुष्प-धूप-दीप-ताम्बूल आदि चढ़ाये। फिर पहले से विभक्त 6 पात्रों में रखे हुये पिण्ड शेषान्न क्रमशः पिता से आरम्भ करके वृद्धप्रमातामह पिण्डों के चारों ओर अप्रदक्षिण क्रम से बिखेरे। जिस पिण्ड का जो शेषान्न हो वह उसी पिण्ड के निकट दे।
- तदुत्तर सव्य-पूर्वाभिमुख-त्रिकुशहस्त होकर दोनों विश्वेदेवा भोजनपात्रों पर जल दे : ॐ शिवा आपः सन्तु ॥ – जल
- फिर अपसव्य-दक्षिणाभिमुख-मोटकहस्त होकर पित्रादि छहों पितर के भोजन पात्रों पर भी क्रमशः दे : ॐ शिवा आपः सन्तु ॥ – जल
- तदुत्तर सव्य-पूर्वाभिमुख-त्रिकुशहस्त होकर दोनों विश्वेदेवा भोजनपात्रों पर पुष्प दे : ॐ सौमनस्यमस्तु ॥ – पुष्प
- फिर अपसव्य-दक्षिणाभिमुख-मोटकहस्त होकर पित्रादि छहों पितर के भोजन पात्रों पर भी क्रमशः दे : ॐ सौमनस्यमस्तु ॥ – पुष्प
- तदुत्तर सव्य-पूर्वाभिमुख-त्रिकुशहस्त होकर दोनों विश्वेदेवा भोजनपात्रों पर अक्षत दे : ॐ अक्षतंचारिष्टमस्तु ॥ – अक्षत ।
- फिर अपसव्य-दक्षिणाभिमुख-मोटकहस्त होकर पित्रादि छहों पितर के भोजन पात्रों पर भी क्रमशः दे : ॐ अक्षतंचारिष्टमस्तु ॥ – अक्षत ।
- तदुत्तर सव्य-पूर्वाभिमुख-त्रिकुशहस्त होकर दोनों विश्वेदेवा भोजन पर जल दे : ॐ विश्वेदेवाः प्रीयन्ताम् ॥ – जल ।
अक्षय्योदक :
फिर अपसव्य-दक्षिणाभिमुख-मोटकहस्त होकर पित्रादि 6 पूड़े में तिल-जलादि लेकर छहों पितरों के भोजन पर क्रमशः उत्सर्ग करके पितृतीर्थ से दे :
- पिता : ॐ अद्य ……….. गोत्रस्य पितु: ……… शर्मणो दत्तैतदन्न पानादिकमक्षय्यमस्तु ॥
- पितामह : ॐ अद्य ……….. गोत्रस्य पितामहस्य ……… शर्मणो दत्तैतदन्न पानादिकमक्षय्यमस्तु॥
- प्रपितामह : ॐ अद्य …….. गोत्रस्य प्रपितामहस्य ……… शर्मणो दत्तैतदन्न पानादिकमक्षय्यमस्तु॥
- मातामह : ॐ अद्य …….. गोत्रस्य मातामहस्य ……… शर्मणो दत्तैतदन्न पानादिकमक्षय्यमस्तु ॥
- प्रमातामह : ॐ अद्य ……….. गोत्रस्य प्रमातामहस्य ……… शर्मणो दत्तैतदन्न पानादिकमक्षय्यमस्तु ॥
- वृद्धमातामह : ॐ अद्य ……….. गोत्रस्य वृद्धमातामहस्य ……… शर्मणो दत्तैतदन्न पानादिकमक्षय्यमस्तु ॥
जलधारा :- सव्य-पूर्वाभिमुख हो दक्षिण की ओर देखते हुए एक पूड़े में जल लेकर पिण्ड पर पूर्वाग्र जलधारा दे – ॐ अघोराः पितरः सन्तु ॥ इसी प्रकार अन्य सभी पिण्डों पर भी दे।
आशीषप्रार्थना :- सव्य-पूर्वाभिमुख प्रणाम कर दक्षिणदिशा में देखते हुए पढ़े – ॐ गोत्रन्नो वर्द्धतां दातरो नोऽभिवर्द्धन्तां वेदा: सन्ततिरेव च। श्रद्धा च नो मा व्यगमद् बहु देयञ्च नो ऽअस्तु। अन्नं च नो बहु भवेत् अतिथींश्च लभेमहि। याचितारश्च नः सन्तु मा च याचिष्म कञ्चन। एताः सत्याशिषः सन्तु ॥
वारिधारा :- अपसव्य-दक्षिणाभिमुख पवित्रीमूल से पिण्डस्थ पान-पुष्पादि हटाकर पित्रादि पिण्डों पर दक्षिणाग्र सपवित्रीत्रिकुशा रखे, इसी प्रकार मातामहादि के पिण्डों पर भी रखे।
दो पुटकों में सघृत-जल लेकर प्रथम पित्रादि पिण्डस्थ कुशा पर, पुनः मातामहादि पिण्डस्थ कुशा पर दोनों हाथों से दक्षिणाग्र धारा दे : ॐ ऊर्जं वहन्तीरमृतं घृतं पयः कीलालं परिश्रुतम् । स्वधास्थ तर्पयत् मे पितॄन् ॥
- विनम्रभाव से क्रमशः सभी पिण्डों को सूंघकर दोनों हाथों से थोड़ा उठाकर फिर रख दे ।
- पिण्डतलस्थ कुशाओं और अंगारभ्रमण वाली अंगार को आग में दे दे ।
- सव्य-पूर्वाभिमुख होकर विश्वेदेवार्घपात्रों का पूर्वाग्र चालन करे।
- पुनः अपसव्य-दक्षिणाभिमुख होकर प्रेत एवं पितामहादिकों के अधोमुखी अर्घ्यपात्रों को उत्तान कर दे ।
विश्वेदेव श्राद्ध दक्षिणा : सव्य-पूर्वाभिमुख-त्रिकुशहस्त-पातितदक्षिण जानु होकर जौ-जल-दक्षिणा लेकर पढ़े : ॐ अद्य विश्वेषां देवानां कृतैतत् श्राद्धप्रतिष्ठार्थम् एतावत् द्रव्यमूल्यक हिरण्यं अग्निदैवतं यथानाम गोत्राय ब्राह्मणाय दक्षिणां अहं ददे ॥ इसी प्रकार दूसरे विश्वेदेव श्राद्ध की भी दक्षिणा करे।
पितृ श्राद्ध दक्षिणा : फिर अपसव्य-दक्षिणाभिमुख-पातितवामजानु-मोटकहस्त होकर, तिल-जल-दक्षिणा लेकर पढ़े : ॐ अद्य …… गोत्रस्य पितुः ……… शर्मणः कृतैतत् पार्वण श्राद्ध प्रतिष्ठार्थं एतावत् द्रव्यमूल्यकरजतं चन्द्रदैवतं यथानामगोत्राय ब्राह्मणाय दक्षिणां अहं ददे ॥ इसी प्रकार पितामहादि के श्राद्ध की भी दक्षिणा अलग-अलग करे :-
- पितामह : ॐ अद्य ……….. गोत्रस्य पितामहस्य ……… शर्मणः कृतैतत् पार्वण श्राद्ध प्रतिष्ठार्थं एतावत् द्रव्यमूल्यकरजतं चन्द्रदैवतं यथानामगोत्राय ब्राह्मणाय दक्षिणां अहं ददे ॥
- प्रपितामह : ॐ अद्य …….. गोत्रस्य प्रपितामहस्य ……… शर्मणः कृतैतत् पार्वण श्राद्ध प्रतिष्ठार्थं एतावत् द्रव्यमूल्यकरजतं चन्द्रदैवतं यथानामगोत्राय ब्राह्मणाय दक्षिणां अहं ददे ॥
- मातामह : ॐ अद्य …….. गोत्रस्य मातामहस्य ……… शर्मणः कृतैतत् पार्वण श्राद्ध प्रतिष्ठार्थं एतावत् द्रव्यमूल्यकरजतं चन्द्रदैवतं यथानामगोत्राय ब्राह्मणाय दक्षिणां अहं ददे ॥
- प्रमातामह : ॐ अद्य ……….. गोत्रस्य प्रमातामहस्य ……… शर्मणः कृतैतत् पार्वण श्राद्ध प्रतिष्ठार्थं एतावत् द्रव्यमूल्यकरजतं चन्द्रदैवतं यथानामगोत्राय ब्राह्मणाय दक्षिणां अहं ददे ॥
- वृद्धमातामह : ॐ अद्य ……….. गोत्रस्य वृद्धमातामहस्य ……… शर्मणः कृतैतत् पार्वण श्राद्ध प्रतिष्ठार्थं एतावत् द्रव्यमूल्यकरजतं चन्द्रदैवतं यथानामगोत्राय ब्राह्मणाय दक्षिणां अहं ददे ॥
सव्य-पूर्वाभिमुख होकर आचमन कर तीन बार देवताभ्यः मन्त्र पढ़े :- ॐ देवताभ्यः पितृभ्यश्च महायोगिभ्य एव च। नमः स्वाहायै स्वधायै नित्यमेव नमो नमः ॥३॥
अपसव्य-दक्षिणाभिमुख रक्षादीप का दोनों हाथों से अथवा किसी पत्रादि से आच्छादन कर दे।
सव्य-पूर्वाभिमुख आचमन कर अगला मन्त्र पढे :-
ॐ प्रमादात् कुर्वतां कर्म प्रच्यवेत्ताध्वरेषुयत् । स्मरणादेव तद्विष्णोः सम्पूर्णं स्यादिति श्रुतिः ॥
॥ ॐ विष्णुर्विष्णुर्हरिर्हरिः ॥
इस प्रकार भगवान विष्णु का स्मरण करके पिण्डवेदि को कनिष्ठिका अङ्गुलि से थोडा तोड़ दे। सूर्य भगवान को प्रणाम कर ले। श्राद्ध की सभी उपयोगी वस्तुयें ब्राह्मण को दे, पत्र-पुष्पादि जल में प्रवाहित करे।
आशा है उपरोक्त वाजसनेयी पार्वण श्राद्ध विधि श्रद्धावानों के लिये उपयोगी सिद्ध होगा।
कर्मकांड विधि में शास्त्रोक्त प्रमाणों के साथ प्रामाणिक चर्चा की जाती है एवं कई महत्वपूर्ण विषयों की चर्चा पूर्व भी की जा चुकी है। तथापि सनातनद्रोही उचित तथ्य को जनसामान्य तक पहुंचने में अवरोध उत्पन्न करते हैं। एक बड़ा वैश्विक समूह है जो सनातन विरोध की बातों को प्रचारित करता है। गूगल भी उसी समूह का सहयोग करते पाया जा रहा है अतः जनसामान्य तक उचित बातों को जनसामान्य ही पहुंचा सकता है इसके लिये आपको भी अधिकतम लोगों से साझा करने की आवश्यकता है।