धर्मस्य तत्वं निहितं गुहायां – धर्म एक जटिल विषय है जिसको सही से समझना-समझाना बहुत ही कठिन कार्य है। यूँ तो सभी धर्म के ठेकेदार बन जाते हैं, नेता लोग भी जो धर्म का ध नहीं जानते टीवी चैनलों पर धर्म के बारे में समझाते रहते हैं। धर्म को समझने में अर्जुन जैसा व्यक्ति भी थक जाता है और भगवान श्रीकृष्ण गीता का दिव्य ज्ञान प्रदान करके धर्म के बारे में समझाते हैं। भगवान श्रीकृष्ण ने सम्पूर्ण गीता में अर्जुन को धर्म का ही ज्ञान प्रदान किया है। धर्म वास्तव में इतना गूढ़ विषय है कि हम शास्त्रों का सन्दर्भ लेकर समझने का प्रयास मात्र कर सकते हैं, परन्तु समझ लेंगे ऐसा दावा नहीं कर सकते। – Dharm
Dharm : धर्म क्या है ? दुनिया का सबसे पुराना धर्म कौन सा है ?
अकृत्यं नैव कर्तव्यं प्राणत्यागेऽप्युपस्थिते। न च कृत्यं परित्याज्यं एषः धर्म: सनातनः।।
धर्म की परिभाषा
वह धारणा जो वेदविहित कर्त्तव्यों का पालन अनिवार्य बताते हुये वेद निषिद्ध कर्म जिसे अकर्तव्य भी कहा जाता है का त्याग करने की प्रेरणा देती है; धर्म कहलाती है।
- धारणा – वह सोच/विचार/दृष्टिकोण जो मन में बसी रहती है।
- वेद विहित – वह कार्य, विधि, नियम आदि जो वेद में करने करने का निर्देश हो ।
- वेद निषिद्ध – वह कार्य, विधि, नियम आदि जिसका वेद मनाही करता है।
- कर्त्तव्य – वह कर्म जो करना अनिवार्य हो ।
- अकर्तव्य – वह कार्य जो नहीं करना चाहिये।

धर्म को परिभाषित करते हुये शास्त्रों ने कहा है – धारयते इति धर्मः। जो धारण करने योग्य हो वह धर्म है। यह प्रश्न यह उत्पन्न होता है कि धारण करने योग्य क्या है ? मानवशास्त्री, समाजशास्त्री, इतिहासकारों द्वारा धर्म की भी अलग-अलग व्याख्या की जाती है कोई तो इसे उन्माद तक भी कह देता है। ये उनके दृष्टिकोण का और दुराग्रह का परिणाम है जिससे उनकी धारणा भी परिलक्षित होती है।
शास्त्रों में धर्म की व्याख्या स्पष्ट रूप से की गयी है फिर भी अपने दुराग्रह के कारण जिनकी धारणा ही शस्त्रविरोध, सनातन विरोध की बन गई है वह परोक्ष रूप से आतंकवाद का तो समर्थन करते हैं किन्तु धर्म को क्षति पहुंचाना के लिये येन-केन-प्रकारेण कुतर्क करते हैं। वास्तव में धर्म की व्याख्या करने का उनको अधिकार ही नहीं है। धर्म की व्यख्या या चर्चा वेद-शास्त्रों के द्वारा स्थापित सिद्धांतों के आधार पर ही की जा सकती है जो उनके उद्देश्यों के लिये हानिकारक भी हो सकती है। मन या चित्त को किसी विशेष दृष्टिकोण के लिये जो उत्प्रेरित करता है वह धारणा है।
लेकिन सभी प्रकार की धारणाओं को धर्म नहीं कहा जा सकता है। “वह शुभ धारणा जो आत्मकल्याण के मार्ग प्रशस्त करे और भौतिक जगत को भी स्वास्थ्य, निवास आदि के लिये सुयोग्य बनाने में सहयोग करे वह धर्म कहलाती ही।” धारणा अशुभ भी हो सकती है जैसे विभिन्न पंथों में देखी जा सकती है।
समस्त मानवजाति को छल-बल द्वारा अपने में समाहित करने का प्रयास करना भी बलात्कार का ही प्रतिरूप है। बलात्कार भी अधर्म है लेकिन कुछ लेकिन विभिन्न पंथों के अनुयायी ऐसा करते हैं और प्रछन्न रूप से समर्थन करने वाले उसे चरमपंथी की संज्ञा देते हैं लेकिन वास्तव में उनका लक्ष्य भी चरमपंथियों के समतुल्य ही होता है। ऐसी धारणा भी धर्म न होकर अधर्म ही है। धर्म का सिद्धांत है यदि आत्मकल्याण न भी कर सको तो भी जियो और जीने दो।
कुछ लोग पूजा पद्धति मात्र को भी धर्म कहते हैं लेकिन यह तथ्य एवं सिद्धांत की कसौटी पर खड़ा नहीं उतरता। पूजा पद्धति भी धर्म का एक मुख्य भाग है जो आत्मकल्याण का मार्ग प्रशस्त करता है किन्तु दुनियां को विकृत करके भी आत्मकल्याण का मार्ग प्रशस्त नहीं हो सकता। दुनियां एवं समाज को और सुन्दर बनाना, सजाना भी धर्म की एक विशेषता है जो अनिवार्य है।
ब्रह्म एवं प्रकृति दोनों के अनुकूल आचरण-व्यवहार-गतिविधियां हो तो ही धर्म मानी जा सकती है अन्यथा छल-हिंसा-प्रलोभन आदि के द्वारा पंथ विस्तार लक्ष्य होने पर वह अधर्म की श्रेणी में ही गिनी जा सकती है। शरीर का पंचभूतों द्वारा निर्मित हैं और दुनियां भी पंचभूतों से ही निर्मित है। आत्मा इससे परे है किन्तु बंधन के कारण भौतिक शरीरी है। धर्म का लक्ष्य आत्मकल्याण है अर्थात बंधनमुक्त करना जिसके किये भौतिक जगत में किसी प्रकार की क्षति पहुँचाना भी निषिद्ध है।
भौतिक जगत ही प्रकृति है और प्रकृति को क्षति पहुँचाना भी अधर्म ही कहलाता है। प्रकृति का संरक्षण धर्म कहलाता है किन्तु केवल प्रकृति का संरक्षण धर्म नहीं कहला सकता, भौतिक जगत में ही निवास करते हैं इसलिये प्रकृति का संरक्षण अनिवार्य है, किन्तु इसके अतिरिक्त एक आध्यात्मिक जगत भी है जहां ब्रह्म या परमात्मा के साथ आत्मा का संयोग करने सम्बन्धी गतिविधियां संभव है। दोनों बिल्कुल पृथक हैं और दोनों में तारतम्यता स्थापित करते हुये धर्म आत्मकल्याण का मार्ग प्रशस्त करता है।
धर्म क्या है ?
वह धारणा जो वेदों द्वारा अनुमोदित हो, प्रकृति में विकृति किये बिना आत्मा का परमात्मा से मिलन कराये धर्म है।
- धर्म अंतरात्मा के दोष परिमार्जन का साधन है।
- धर्म आत्मकल्याण का मार्ग है।
दुनिया का सबसे पुराना धर्म कौन सा है ?
यह प्रश्न ही अनुचित है। धर्म अनेक हो ही नहीं सकते क्योंकि उद्देश्य एक ही रहेगा आत्मकल्याण, अपेक्षा एक ही रहेगी प्रकृति में विकृति उत्पन्न न हो। उद्देश्य एवं अपेक्षा एक हो फिर भी मार्ग अनेक हो सकते हैं जिसके लिये तीसरी और मुख्य शर्त को समझना होगा और वह है गतिविधयां वेद-सम्मत हो।
क्योंकि वेद ईश्वरीय कृति है और वेद ही यह बताता है कि किस प्रकार प्रकृति में विकृति उत्पन्न किये बिना आत्मकल्याण किया जा सकता है और इसके प्रत्यक्ष उदाहरण दिख भी रहे हैं वेद-विरुद्ध गतिविधयों से युक्त स्वघोषित धर्म जो कि वास्तव में अधर्म है, अलग पूजा-पद्धति के कारण पंथ भी कहलाता है उसमें से अधिकतर तो आत्मतत्व को ही अंगीकार नहीं करता है और यदि करता भी है तो प्रकृति में ढेरों विकृति उत्पन्न कर रहा है। यह प्रश्न अधर्म को भी धर्म समझने की भूल का परिणाम है।
सत्य बोलना धर्म है, क्षमा करना धर्म है, दया करना धर्म है, चोरी न करना धर्म है आदि-इत्यादि। अब जो असत्य पर आधारित है, निर्दोष लोगों की भी हत्या विश्वभर में करवाता है, दया नाम की चिड़िया का नाम भी नहीं जानता बस हिंसा और हिंसा, वस्तुओं की चोरी कौन कहे भूमि चोरी, सत्ता चोरी, देश चोरी सब कुछ चोरी और लूट पर ही टिका हो वह धर्म कैसे हो सकता है। सनातनियों का भूभाग अन्यों ने हड़पा है किन्तु सनातन ने किसी का भूभाग नहीं हड़प रखा है।
सनातन धर्म क्या है ?
सनातन धर्म अलग से कुछ नहीं है। धर्म का गुण है कि वह अविनाशी है। सनातन का तात्पर्य अविनाशी ही है – जो अनादि काल से हो, अनंत काल तक रहे वह सनातन है और धर्म अनादि काल से है अनंतकाल तक रहेगा इसलिये इसकी विशेषता है की या सनातन है और इसी विशेषण से विभूषित करते हुये धर्म को सनातन धर्म कहा जाता है।
क्या धर्म बाध्यकारी है ?
यदि उद्देश्य आत्मकल्याण हो तो बाध्यकारी है अन्यथा नहीं। युक्त तो नहीं होगा फिर भी समझने के लिये प्रातिभासिक जगत के व्हाटसप ग्रुप का उदहारण देखते हैं। एक लाभकारी व्हाटसप ग्रुप को दुनियां मानते हैं और उसके जो नियम या निति निर्धारित हैं उसे धर्म। उस व्हाटसप ग्रुप में रहकर वांछित लाभ प्राप्त करने के लिये उसकी नीतियों-नियमों का पालन करना बाध्यकारी होता है और यदि नहीं मानते तो कभी एकाधबार चेतावनी देकर अगली बार ग्रुप से बाहर कर दिया जाता है और जिसका परिणाम होता है उस ग्रुप द्वारा मिलने वाले लाभ से वंचित होना।
तदनुसार आत्मकल्याण के उद्देश्य से धर्मपालन बाध्यकारी है, क्योंकि धर्म ही आत्मकल्याण का लाभ देता है । यदि आत्मकल्याण का उद्देश्य न हो तो धर्मपालन बाध्यकारी नहीं होगा।
तो क्या विभिन्न पंथों के अनुयायी जो धर्मपालन नहीं करते उनका आत्मकल्याण नहीं होगा ?
धर्मपालन के बिना आत्मकल्याण असंभव है और इसीलिये कहा गया है – छोड़ो न धर्म अपना चाहे प्राण तन से निकले। भगवान श्रीकृष्ण ने गीता में उपदेश दिया – स्वधर्मे निधनं श्रेयः।
“छोड़ो न धर्म अपना चाहे प्राण तन से निकले।” “स्वधर्मे निधनं श्रेयः परधर्मो भयावहः” आदि से तो यह स्पष्ट होता है कि धर्म भी कई होते हैं फिर एक धर्म की बात असत्य हो जाती है क्या ?
इन वचनों से अनेक धर्म का तर्क तो आता है परन्तु वह वर्णाश्रम धर्म, व्यवहार धर्म आदि का सूचक है न की धर्म की अनेकता का।
॥ ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ॥ सुशांतिर्भवतु ॥ सर्वारिष्ट शान्तिर्भवतु ॥
कर्मकांड विधि में शास्त्रोक्त प्रमाणों के साथ प्रामाणिक चर्चा की जाती है एवं कई महत्वपूर्ण विषयों की चर्चा पूर्व भी की जा चुकी है। तथापि सनातनद्रोही उचित तथ्य को जनसामान्य तक पहुंचने में अवरोध उत्पन्न करते हैं। एक बड़ा वैश्विक समूह है जो सनातन विरोध की बातों को प्रचारित करता है। गूगल भी उसी समूह का सहयोग करते पाया जा रहा है अतः जनसामान्य तक उचित बातों को जनसामान्य ही पहुंचा सकता है इसके लिये आपको भी अधिकतम लोगों से साझा करने की आवश्यकता है।