ऐसा बताया जाता है कि भक्ति मार्ग नई परंपरा है विशेष करके हिन्दी साहित्य में। पाठ्य-पुस्तकों में भक्ति मार्ग के विषय में जो समझाया जाता है वो यही है कि भक्तिमार्ग का उदय दक्षिण भारत में ईशा पूर्व हुआ था, और फिर मुगलकाल में प्रचार हुआ। उससे पहले भक्ति था ही नहीं ऐसा सिद्ध करने का प्रयास किया जाता है। बहुत सारे ऐसे भी तथ्य हैं जो इन इतिहासकारों को ही संदिग्ध सिद्ध करते हैं। इस आलेख में हम दोनों तथ्यों को समझेंगे वो इस कारण कि जब तक इन इतिहासकारों को सही समझेंगे तब तक वास्तविकता को समझना-समझाना दुष्कर कार्य होता है।
भक्ति मार्ग की प्राचीनता
हिन्दी साहित्य में यदि कुछ शताब्दी को भक्तिकाल कहा जाता है तो उसका तात्पर्य हिन्दी से जुड़ा होने के कारण अयथार्थ नहीं लिया जा सकता, यथार्थता की प्रतीति होती है, किन्तु जब भक्तिमार्ग को ही इतिहास में ईसा-पूर्व से जोड़ने का प्रयास किया जाता है तो वह एक षड्यंत्र प्रतीत होता है। भक्तिमार्ग का इतिहास न तो ईसा से जुड़ा हुआ है और न ही सनातन के इतिहास को दो सहस्रों वाले ईसा इतिहास से संदर्भित किया जा सकता है।
भारत की संस्कृति और सनातन का इतिहास पुस्तकों में ही नहीं नदियों और पहाड़ों में भी लिखी हुयी है किन्तु यदि उसे झुठलाने का ही दुराग्रह लेकर इतिहास लिखा जाये तो ये षड्यंत्र के अतिरिक्त और कुछ नहीं माना जा सकता। आधुनिक भारतीय इतिहास को संवत से क्यों नहीं व्यक्त किया जा सकता ? भारतीय इतिहास तो “ब्रह्मणोऽह्नि द्वितीये परार्धे श्रीश्वेत वाराहकल्पे वैवस्वत मन्वन्तरे अष्टाविंशतितमे कलियुगे कलि प्रथमचरणे भारतवर्षे भरतखण्डे जम्बूद्वीपे आर्यावर्तैक देशान्तर्गते … संवतसरे महांमागल्यप्रद मासोतमे मासे … मासे … पक्षे … तिथौ … वासरे …” द्वारा जन-जन बोलता है, प्रतिदिन भारत में करोड़ों लोग यह पढ़ते हैं।
ये वर्त्तमान सृष्टि की काल गणना है जहां तक इन इतिहासकारों पहुंच ही नहीं है और पहुंच के अभाव के कारण झुठलाने का कुचक्र करते हैं षड्यंत्र रचते हैं। किसी तथ्य को आप इस कारण असत्य नहीं कह सकते क्योंकि आपको उसका ज्ञान नहीं है, तथापि इतिहासकारों ने ऐसा किया है। मात्र विदेशी इतिहासकारों ने ही ऐसा नहीं किया देशजों ने भी किया। क्यों किया, क्या मिला ये अलग विषय है किन्तु अकारण किया ऐसा स्वीकारना संभव नहीं है। उसके पश्चात् शासन ने भी उसी इतिहास को पाठ्य-पुस्तकों में समाहित किया, शासन की क्या बाध्यता थी यह समझना कठिन है।
कलयुग के 5125 वर्ष व्यतीत हुये हैं यह पूरा भारत जानता है और मानता है, भगवान कृष्ण कलयुग आने के साथ ही धराधाम पर अपनी लीलाओं का विस्तार करके चले गये। अर्थात भगवान श्रीकृष्ण 5125 वर्ष (गत कलयुग) पूर्व धराधाम पर थे और भगवान राम की लीलायें तो उनसे भी लाखों वर्ष पूर्व ही हुई थी, लेकिन ये लोग कुछ सहस्र वर्षों के इतिहास में सिमटने की निर्लज्जता भी करते हैं।
यहां हम इतिहासकारों व व्यवस्था की निंदा नहीं कर रहे हैं अपितु धर्म व संस्कृति के प्रति उनकी सोच, उनके षड्यंत्र को उजागर करने के प्रयास कर रहे हैं। उद्देश्य यह है कि ऐसे लोग धर्म व संस्कृति के विषय में जो कुछ भी कहते हैं, विभिन्न माध्यमों से पढ़ाने-समझाने का प्रयास करते हैं उनको मस्तिष्क में रखकर यदि समझने का प्रयास किया जाय तो कुछ भी समझना कठिन होगा। इसलिये शास्त्रों, कथा-प्रवचनों के अतिरिक्त ऐसे अन्य माध्यमों के माध्यम से धर्म व संस्कृति के बारे में जो कुछ भी बताया-समझाया गया है उसे भुलाकर आगे समझने का प्रयास करना होगा।
भक्ति मार्ग का इतिहास
ये लोग जो 2 – 3 सहस्र वर्षों में भक्ति के इतिहास को सिमट कर रख देते हैं वो उस समय खंडित हो जाता है जब कलयुग आरंभ होता है, अर्थात आज से लगभग 5100 वर्ष पूर्व जब अर्जुन के पौत्र परीक्षित को श्राप मिला था। शुकदेव ने सप्ताह भागवत का पारायण किया था। श्रीमद्भागवत महापुराण उससे पूर्व ही व्यास जी लिख चुके थे। पुनः महाभारत उससे भी लिखा गया था और श्रीमद्भगवद्गीता महाभारत का ही अंश है जिसमें भक्ति की चर्चा मिलती है। अर्थात कलयुग आरंभ होने से पूर्व जब भगवान श्रीकृष्ण महाभारत के समय अर्जुन को गीता का उपदेश दे रहे थे तब भक्ति की विस्तृत चर्चा हुयी थी।
द्वापरांत में भगवान श्रीकृष्ण की लीला से पूर्व यदि रामावतार काल त्रेता की चर्चा करें तो वहां भी भक्तिमार्ग का ज्ञान मिलता है। रामभक्त हनुमान को कौन नहीं जानता। ये अलग बात है कि उस काल में ज्ञान भी निर्बल नहीं था, क्योंकि ज्ञान के विषय में राजा जनक की चर्चा होती है और राजा जनक विदेह कहे जाते थे। विदेह का तात्पर्य देहाभिमान का अभाव अर्थात आत्मज्ञानी ही है। कर्मकांड भी उत्कृष्ट श्रेणी का था क्योंकि महाराज दशरथ ने पुत्र प्राप्ति के लिये पुत्रकामेष्टि यज्ञ किया था। श्राद्ध की भी पर्याप्त चर्चा मिलती है और नवधा भक्ति से युक्त भक्ता शबरी की कथा भी रामायण काल की ही है।
उससे पूर्व यदि जायें तो नृसिंहावतार जिसके कारण हुआ था वो है भक्त प्रह्लाद। हिरण्यकशिपु के पुत्र प्रह्लाद ऐसे भक्त थे कि उनके नाम के साथ ही भक्त जुड़ गया। जब हम भक्त प्रह्लाद की बात करते हैं तो सहस्रों या लक्षों वर्ष की बात नहीं होती करोड़ों वर्ष पूर्व की बात होती है। इतिहासकारों की पहुंच मात्र कुछ सहस्र वर्षों तक ही है, उससे आगे की पहुंच ही नहीं है अथवा इसे स्वीकार ही नहीं करना चाहते हैं कि सनातन का इतिहास सृष्टि से ही आरंभ हो जाता है, क्योंकि यह स्वीकारना सरल नहीं है।
निष्कर्ष : भक्ति की प्राचीनता संबंधी चर्चा करने के लिये सर्वप्रथम यह आवश्यक है कि दुराग्रही इतिहासकारों द्वारा रचित और वर्त्तमान व्यवस्था द्वारा प्रचारित तथ्यों की अनदेखी करनी होगी। भक्ति वो विषय नहीं है जो किसी विशेष कालखंड में उत्पन्न हुई और उससे पूर्व नहीं थी। कृष्ण के गीता में भी भक्ति है, और रामायण में भी भक्तराज हनुमान हैं, नवधा भक्ति की उपदेश प्राप्त करने वाली शबरी है। उससे पूर्व यदि जायें तो एक ऐसा भक्त मिलता है जिसके नाम में भक्त शब्द जुड़ा हुआ है “भक्त प्रह्लाद”.
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