कलयुग में मासिक श्राद्धों का अपकर्षण करके द्वादशाह के दिन करने का शास्त्रवचन प्राप्त होता है एवं सपिंडीकरण भी द्वादशाह की दिन किया जा सकता है। अतः द्वादशाह के दिन सम्पूर्ण प्रेत श्राद्ध किया जाता है। इस आलेख में द्वादशाह के दिन होने वाले श्राद्ध की विधि और मंत्र बताई गयी है। द्वादशाह श्राद्ध के दिन 14 (अधिकमास होने पर 15) मासिक श्राद्ध और सपिंडीकरण श्राद्ध किया जाता है। सपिंडी श्राद्ध विधि pdf के लिये सुगम श्राद्ध विधि के डाउनलोड करने का लिंक भी दिया गया है।
द्वादशाह विधि | सपिंडी श्राद्ध विधि | वाजसनेयी
14 मासिक श्राद्ध और सपिंडीकरण (प्रेत का पितृ पंक्ति मिलन) श्राद्ध द्वादशाह को अर्थात बारहवें दिन किया जाता है। इसे मुख्य रूप से द्वादशाह या द्वादशाह श्राद्ध ही कहा जाता है। अर्थात द्वादशाह विधि में मासिक श्राद्ध और सपिंडीकरण श्राद्ध दोनों किया जाता है। तत्पश्चात गृहप्रवेश करके प्राङ्गण में कलश स्थापन, गणेश पूजन आदि किया जाता है। यदि 11 माह के भीतर अधिकमास पर रहा हो तो 15 मासिक श्राद्ध किया जाता है अन्यथा 14 मासिक श्राद्ध होता है।
गृहप्रवेश का तात्पर्य है कि इससे पूर्व श्राद्धकर्त्ता श्राद्ध कर्म के निमित्त जिन नियमों का पालन करता रहा उन नियमों से मुक्त होकर गृहप्रवेश करता है और कलश-गणेश पूजन का तात्पर्य है की पितृकर्म से निवृत्त हो गया। लेकिन इसके बाद भी श्राद्धकर्त्ता अशौच नियमानुसार 1 वर्ष पर्यन्त मङ्गलाशौच से निवृत्त नहीं होता अर्थात किसी प्रकार का माङ्गलिक कर्म करने का अधिकारी नहीं होता। मङ्गलाशौच संबंधी अधिक जानकारी के लिये यह आलेख पढ़ें। वर्त्तमान समय में माङ्गलिक कार्यों को करने के लिये दो प्रकार से शास्त्राज्ञा का उल्लंघन होते देखा जाता है –
- प्रथम – श्राद्धकर्त्ता को एक वर्ष पर्यन्त मङ्गलाशौच रहता है एवं अकाल में (निर्धारित समय से पूर्व) किसी भी अशौच से निवृति की कोई विधि नहीं होती लेकिन प्रायश्चित गोदान करके निवृत्ति मानने की भूल किया जाता है। यह ध्यान रखना आवश्यक है कि किसी भी कर्म में प्रवृत्त होने से पूर्व अधिकार सिद्धि हेतु प्रायश्चित्तांग गोदान की आवश्यकता होती है अर्थात प्रायश्चित्तांग गोदान करने से किसी प्रकार के अशौच की निवृत्ति नहीं होती।
- द्वितीय – वार्षिक (सांवत्सरिक) श्राद्ध का भी अपकर्षण करके त्रयोदशाह के दिन किया जाने लगा है। वार्षिक श्राद्धों का अपकर्षण नहीं किया जा सकता मात्र प्रेतत्व मोचक षोडश श्राद्ध का ही अपकर्षण किया जा सकता है। वार्षिक श्राद्ध का अशास्त्रीय अपकर्षण वास्तव में वो लोग करते हैं जो पितरों के प्रति कृतज्ञ नहीं होते और मात्र एक वर्ष ही वार्षिक श्राद्ध को आवश्यक समझते हैं। वार्षिक श्राद्ध मात्र एक वर्ष नहीं होता आजीवन होता है, जीवन के वर्ष सुनिश्चित नहीं होते फिर कितने वार्षिक श्राद्ध का अपकर्षण किया जा सकता है।
जो इसका अनुमोदन करते हैं उनसे एक साथ दो प्रश्न बनता है – क्या तेरहवीं को वार्षिक श्राद्ध करने से या गोदान करने से मङ्गलाशौच समाप्त हो सकता है ?
इन दोनों भूलों का कारण एक भ्रम है और वह भ्रम है सपरिवार मङ्गलाशौच होने का। यदि इस भ्रम का निवारण कर लिया जा तो यह गलती नहीं करेंगे। मङ्गलाशौच मात्र पुत्रों को होता है, पौत्रों-पौत्रियों को नहीं। पौत्र-पौत्री का विवाह-उपनयन आदि सुनिश्चित हो रखा हो तो उसमें कोई बाधा नहीं होती मात्र एक बाधा छोड़कर कि मृतक के पुत्र उस कर्म के आचार्य-दानकर्ता आदि नहीं बन सकते अर्थात स्वयं न तो कन्यादान कर सकते और न ही पुत्रादि के उपनयन में आचार्य बन सकते हैं।
मृतक के पुत्रों के लिये वर्णित यह बाधा न तो त्रयोदशाह श्राद्ध (अशास्त्रीय) करने से समाप्त होती है और न ही प्रायश्चित्तांग गोदान करने से क्योंकि यह मङ्गलाशौच के कारण से होता है जो वर्षपर्यंत रहता है। अर्थात अन्य व्यक्ति को आचार्य या दानकर्ता बनाकर पुर्वसुनिश्चित मांगलिक कार्य निर्वाध रूप से किये जा सकते हैं और अनावश्यक रूप से किसी शास्त्रीय नियम का उल्लंघन करने की कोई आवश्यकता नहीं होती।
अधिक विषयांतर होना उचित नहीं होगा इसलिये द्वादशाह श्राद्ध आरम्भ करने के समय विचार छन्दोग द्वादशाह श्राद्ध नामक आलेख में करेंगे। अभी मासिक श्राद्ध विधि पर आगे बढ़ेंगे –
द्वादशाह विधि
द्वादशाह के दिन भी प्रातः काल उठे। स्नानादि करके श्राद्ध सामग्री लेकर श्राद्ध देश में जाकर श्राद्धभूमि को शुद्ध कर ले। नित्यकर्म करके पाककर्म करे। प्रातःकाल मात्र नान्दी श्राद्ध कर्तव्य होता है अन्य श्राद्ध का काल मध्याह्न या अपराह्न होता है पूर्वाह्न नहीं। द्वादशाह के दिन मासिक श्राद्ध एकोद्दिष्ट श्राद्ध के अंतर्गत आते हैं अर्थात आरम्भकाल मध्याह्न सिद्ध होता है। अन्य सभी क्रियायें व आसादन आदि पहले किये जा सकते हैं, किन्तु अधिक मासिक श्राद्ध करना होता है फिर भी 7 या 8 बजे पूर्वाह्न देवकर्म का काल होता है पितृकर्म का काल नहीं इसलिये आरम्भ नहीं करे।
श्राद्ध भोज का अंग नहीं होता भोज श्राद्ध का अंग होता है अर्थ भोज के अनुसार श्राद्ध विधि या श्राद्ध काल निर्धारित नहीं किया जा सकता श्राद्ध के अनुसार भोज का समय-आकार-प्रकार निर्धारित करना चाहिये। द्वादशाह का भोज करने वाले और भोजन कराने वाले सभी को यह जानना आवश्यक है कि सपिण्डन श्राद्ध से पूर्व प्रेतत्व की निवृत्ति नहीं होती और उस समय जो अन्न परोसा जाता है वह प्रेतान्न संज्ञक भले न हो परन्तु उसका निमित्त भी प्रेत ही होगा, साथ ही जब तक प्राङ्गण में कलशपूजन व ब्राह्मण भोजन (न्यूनतम 10) न हो जाये तब तक वह घर-भूमि-अन्न दोषमुक्त सिद्ध नहीं हो सकता।
मासिक श्राद्ध भी एकोद्दिष्ट विधि से ही होता है अतः आद्य श्राद्ध और मासिक श्राद्ध में अधिक अंतर नहीं होता किंचित अंतर ही होता है। चूंकि सभी निर्देश व विधिवर्णन पूर्व में भी कई बार किया गया है विशेष रूप से आद्य श्राद्ध विधि में इसलिये यहां संकेतमात्र करते हुये मासिक श्राद्ध के मंत्र दिये जा रहे हैं ताकि आलेख का अतिविस्तार न हो क्योंकि सपिण्डन श्राद्ध विधि भी इसी में समाहित करना है।
मासिक श्राद्ध विधि
निर्देश :
- जिस क्रिया में स.द.त्रि. अंकित किया गया है उसका तात्पर्य है – सव्य, दक्षिणाभिमुख, त्रिकुशहस्त।
- जिस क्रिया में अ.द.मो. अंकित किया गया है उसका तात्पर्य है – अपसव्य, दक्षिणाभिमुख, मोटकहस्त।
- जिस क्रिया में स.पू.त्रि. अंकित किया गया है उसका तात्पर्य है – सव्य, पूर्वाभिमुख, त्रिकुशहस्त।
सव्य-अपसव्य क्रम और त्रिकुशा-मोड़ा आदि के सम्बन्ध में अन्य पद्धतियों में किञ्चित अंतर संभव है।
सर्वप्रथम शुद्धिकरण करे, तीन बार आचमन कर कुशादि धारण करते हुए आत्मशुद्धि करे :
- पवित्रीकरण मंत्र : ॐ अपवित्रः पवित्रोऽ वा सर्वावस्थांगतोऽपि वा यः स्मरेत् पुण्डरीकाक्षं स बाह्याऽभ्यन्तरः शुचिः पुण्डरीकाक्षः पुनातु । ॐ पुण्डरीकाक्षः पुनातु ॥
- दिग्रक्षण मंत्र : ॐ नमो नमस्ते गोविन्द पुराण पुरूषोत्तम । इदं श्राद्धं हृषीकेश रक्ष त्वं सर्वतो दिशः ॥
- पञ्चगव्य निर्माण, प्राशन, प्रोक्षण आदि भी करे। अंगारभ्रमण, गौरमृत्तिका आच्छादनादि भी विधि के अनुसार करे।
दीप जलाकर यदि पाककर्त्ता द्वारा पाककर्म हुआ हो तो श्राद्धकर्त्ता पाककर्त्ता से पूछे “सिद्धम्” और पाककर्त्ता कहे “ॐ सिद्धम्” ॥ यदि पाककर्ता न हो तो पूछने की आवश्यकता नहीं है।
पूर्वाभिमुख सव्य त्रिकुशा, तिल, जल आदि द्रव्य लेकर संकल्प कर। द्वादशाह के दिन 14 मासिक श्राद्धों का यदि अलग-अलग करना हो तो संकल्प भी अलग-अलग ही किया जाता है प्रथम मासिक श्राद्ध की तरह ही अन्य सभी मासिक होते हैं केवल संकल्प व अन्यत्र जहां कहीं मासिक पद आता है उसीमें परिवर्तन होता है, और यदि कई मासिक एक साथ किये जायें तो उसके अनुसार भी उत्सर्ग वाक्य में परिवर्तन होता है । त्रिकुशा-तिल-जल आदि लेकर आद्यश्राद्ध का संकल्प करे :
प्रथम मासिक श्राद्ध संकल्प : ॐ अद्य …….… गोत्रस्य …….. पितुः ……. प्रेतस्य (माता के श्राद्ध में …….. गोत्रायाः ……… मातुः ………. प्रेतायाः कहे) प्रेतत्वविमुक्ति हेतु षोडश (सप्तदश) श्राद्धान्तर्गत प्रथम (द्वितीय/तृतीयादि मासिक अनुसार) मासिक श्राद्धं अहं करिष्ये ॥ स.पू.त्रि. संकल्प कर तिल जलादि भूमि पर गिराये त्रिकुशा सहित।
- गायत्री जप : त्रिकुशा लेकर तीन बार गायत्री मंत्र जप करे। तीन बार देवताभ्यः मंत्र पढ़े : ॐ देवताभ्यः पितृभ्यश्च महायोगिभ्य एव च । नमः स्वाहायै स्वधायै नित्यमेव नमो नमः ॥३॥ स.पू.त्रि.
- आसन : ॐ अद्य ……….. गोत्र पितः ……….. प्रेत प्रथम मासिक श्राद्धे इदं आसनं ते मया दीयते तवोपतिष्ठताम् ॥ अ.द.मो. ॥ (स्त्रीलिंगे : ……… गोत्रे मातः ……… प्रेते) पितृतीर्थ से पूर्वकल्पित आसन पर छिड़के।
तिल विकिरण : ॐ अपहता ऽअसुरा रक्षा ᳪ सि वेदिषदः ॥ स.द.त्रि. ॥ भोजन पात्र पर तिल बिखेरे।
आवाहन : ॐ आयन्तु नः पितरः सोम्यासोऽ अग्निष्वाता: पथिभिर्देवयानै: अस्मिन् यज्ञे स्वधया मदन्तोऽधि ब्रुवन्तु तेऽवन्त्वस्मान् ॥ करबद्ध पित्र्यावाहन करे। स.द.त्रि. ॥
अर्घ्य स्थापन – अर्घ्यपात्र में दक्षिणाग्र पवित्री देकर, शन्नो देवी मंत्र से जल दे, तिलोऽसि मंत्र से तिल दे : फिर बिना मंत्र के पुष्प-चंदन भी दे :
- जल : ॐ शन्नो देवीरभिष्टय ऽआपो भवन्तु पीतये शंय्योरभि स्रवन्तुनः॥ अर्घ्य पात्र में जल दे। स.द.त्रि.
- तिल : ॐ तिलोऽसि सोम देवत्यो गोसवो देवनिर्मितः। प्रत्नद्भिः पृक्त: स्वधया पितृन् लोकान् प्रीणाहि नः स्वाहा ॥ स.द.त्रि.
अर्घ्य पात्र में जल-तिल देकर बिना मंत्र के पुष्प-चंदन भी दे। अर्घ्य पात्र को बांये हाथ में लेकर पवित्री निकाल कर भोजन पात्र पर उत्तराग्र रखे, अन्य जल से सिक्त करे। दांये हाथ से अर्घ्य पात्र को ढंककर अगले मंत्रों से अभिमन्त्रण, उत्सर्जन और न्युब्जीकरण करे : –
- अर्घ्याभिमंत्रन : ॐ या दिव्या आपः पयसा सम्बभूबुर्या आंतरिक्षा उत पार्थीवीर्या:। हिरण्यवर्णा याज्ञियास्ता न आपः शिवा: स ᳪ स्योना: सुहवा भवन्तु ॥ स.द.त्रि.; फिर दाहिने हाथ में मोटक, तिल, जल लेकर अर्घ्योत्सर्ग करे :
- अर्घ्योत्सर्ग : ॐ अद्य ……… गोत्र पितः …… प्रेत प्रथम मासिक श्राद्धे इदमर्घ्यं ते मया दीयते तवोपतिष्ठताम् ॥ अ.द.मो.; फिर अर्घपात्र दाहिने हाथ में लेकर पूर्वसिक्त कुशा पर पितृतीर्थ से दे ।
- न्युब्जीकरन : ॐ पित्रे स्थानमसि ॥ (ॐ मात्रे स्थानमसि) अ.द.मो.; भोजन पात्रस्थित कुशा को पुनः अर्घ्य पात्र में रखकर आसन के पश्चिम भाग में अधोमुख कर दे। यह अधोमुखी पूड़ा दक्षिणा देने तक न हिले ऐसी व्यवस्था रखे।
गन्धादि : ॐ अद्य ………….. गोत्र पितः ……….. प्रेत प्रथम मासिक श्राद्धे एतानिगन्धपुष्पधूपदीपताम्बूल वस्त्रादिऽआच्छादनानि ते मया दीयन्ते तवोपतिष्ठताम् ॥ अ.द.मो.; पितृतीर्थ से गन्धादि सभी वस्तुओं पर छिड़के।
भूस्वामी अन्नोत्सर्ग : ॐ इदमन्नं एतद् भूस्वामि पितृभ्यो नमः ॥ अ.द.मो.; अपने बांये भाग में अर्थात पिंड वेदी के पूर्वभाग में भूस्वामि के अन्न का उत्सर्ग करे।
अन्नादि परोसकर अधोमुखी दाहिने हाथ से प्रेतान्न का स्पर्श कर (अथवा मधु दे) मधुव्वाता मंत्र पढ़े , दाहिने हाथ के नीचे अधोमुखी बांया हाथ लगाते हुए पृथिवी ते …… आदि मन्त्र पढ़े। (भोजनपात्र में तिल न रहे इसका ध्यान रखे अर्थात भोजनपात्र की सफाई कर ले) अवगाहन करने के लिये अन्य पूड़े में सतिल-जल-घृत रखे :
मधु दे अथवा यदि पहले दिया गया हो तो दाहिने हाथ से भोजन पात्र का स्पर्श करे : ॐ मधुव्वाता ऋतायते मधुक्षरन्ति सिन्धवः माध्वीर्न: सन्त्वोषधिः मधुनक्तमुतोषसो मधुमत्पार्थिव ᳪ रजः मधुद्यौरस्तु नः पिता मधुमान्नो वनस्पतिर्मधुमां२ अस्तु सूर्यः माध्वीर्गावो भवन्तुनः ॥ ॐ मधु मधु मधु ॥ अ.द.त्रि.
पात्रालम्भन :
- ॐ पृथिवी ते पात्रं द्यौरपिधानं ब्राह्मणस्य मुखे अमृते ऽअमृतं जुहोमि स्वाहा ॥
- ॐ इदं विष्णुर्विचक्रमे त्रेधा निदधे पदम् समूढ़मस्य पा ᳪ सुरे ॥
- ॐ कृष्ण कव्यमिदं रक्षमदियं ॥ अ.द.त्रि.
बांये हाथ को अन्न में लगाकर रखते हुए दाहिने हाथ के अंगूठे से क्रमशः अन्न, जल, घी और अन्न का स्पर्श अगले मन्त्र से करे; बहुत जगह व्यवहार में यह नहीं देखा जाता अपितु दीप वाले घी का ही स्पर्श किया जाता है जो अनुचित है :-
अवगाहन : ॐ इदमन्नं ॥ इमा आपः ॥ इदं आज्यं ॥ इदं हविः ॥ अ.द.त्रि.
तिल विकिरण : ॐ अपहता ऽअसुरा रक्षा ᳪ सि वेदिषदः ॥ प्रेतान्न पात्र के चारों ओर तिल बिखेरे। अ.द.त्रि.
अन्नोत्सर्ग : ॐ अद्य …………. गोत्र पितः ………… प्रेत प्रथम मासिक श्राद्धे इदं अन्नं सोपकरणम् ते मया दीयते तवोपतिष्ठताम् ॥ अ.द.मो.
सव्य-त्रिगायत्री जप , अपसव्य-मधुव्वाता पाठ।
ॐ अन्नहीनं क्रियाहीनं विधिहीनं च यद्भवेत्। तत्सर्वमच्छिद्रमस्तु ॥ अ.द.त्रि. ॥
सव्य-पूर्वाभिमुख गायत्री मंत्र से संकल्प वाले कुश को थोड़ा तोड़ कर आसन के नीचे रखे। पुनः अपसव्य दक्षिणाभिमुख “मधुव्वाता” पाठ करे ।
ॐ कृणुष्वपाजः प्रसितिन्न पृथिवीं याहि राजे वामवां इभेन । तृष्वीमनु प्रसितिं द्रूनाणोऽस्तासि विध्य रक्षसस्तपिष्ठैः । तवभ्रमास आसुया पतन्त्यनुस्पृस धृषता शोसुचानः । तपू ᳪ ष्यग्ने जुह्वा पतङ्गानसन्दितो विसृज विश्वगुल्काः । प्रतिष्पशो विसृज तूर्णितमो भवा पायुर्विशो अस्याऽअदब्धः । यो नो दूरे अघश ᳪ सो यो अन्त्यग्ने माकिष्टे व्यथिरा दधर्षीत । उदग्ने तिष्ठ प्रत्या तनुष्वन्य मित्रां ओषता तिग्महेते । यो नो ऽअराति ᳪ समिधानचक्रे नीचा तं धक्ष्यत सन्न शुष्कम् । उर्ध्वो भव प्रतिविध्या ध्यस्मदा विष्कृणुष्व दैव्यान्यग्ने अवस्थिरा तनुहि यातु यूनाम् जामिमजामिं प्रमृणीहि शत्रून् ॥ पाठ कर तिल बिखेरे।
ॐ उदीरतामवर उत्परास उन्मध्यमाः पितरः सौम्यासः । असूंऽयईयुरवृका ऋतज्ञास्ते नोऽवन्तु पितरो हवेषु अङ्गिरसो नः पितरः सौम्यासः । तेषा ᳪ वय ᳪ सुमतौ यज्ञियानामपि भद्रे सौमनसे स्याम ये नः पूर्वे पितरः सोम्यासोऽअनुहिरे सोमपीथं वशिष्ठाः तेभिर्यमः स ᳪ रराणो हवी ᳪ स्युसन्नुसद्भिः प्रतिकाममत्तु ॥
- ॐ सहस्रशीर्षा पुरुषः सहस्राक्षः सहस्रपात् । भूमि ᳪ सर्वतस्पृत्त्वात्त्यतिष्ठद्दशाङ्गुलम् ॥ इत्यादि पुरुषसूक्त पाठ
- ॐ आशुः शिषाणो वृषभो न भीमो घनाघनः क्षोभनश्चर्षनिनां । संक्रदनो निमिष एकवीरः शत ᳪ सेना अजयत्साकमिन्द्रः ॥
- ॐ नमः शम्भवाय च मयोभवाय च नमः शङ्कराय च मयस्कराय च नमः शिवाय च शिवतराय च ॥
- ॐ नमस्तुभ्यं विरूपाक्ष नमस्तेनेक चक्षुषे । नमः पिनाकहस्ताय वज्रहस्ताय वै नमः ॥
- ॐ सप्तव्याधा दशार्णेषु मृगाः कालञ्जरे गिरौ । चक्रवाकाः शरद्वीपे हन्साः सरसि मानसे ॥
- तेऽपि जाताः कुरुक्षेत्रे ब्राह्मणा वेदपारगाः । प्रस्थिता दूरमध्यानौ यूयं तेभ्योवसीदथ ॥
- ॐ रुची रुची रुचिः ॥ पाठ करे।
विकिरदान : पिंडवेदी के पश्चिम भाग में एक त्रिकुशा रख कर जल से सिक्त कर दे, एक पुरे में अन्नादि लेकर मधुमती ऋचा से मधु देकर बांये हाथ के पितृतीर्थ से मोड़ा द्वारा त्रिकुशा पर अगले मन्त्र से दे :-
विकिरदान मंत्र : ॐ अनग्निदग्धाश्च ये जीवा ये प्रदग्धा: कुले मम। भूमौ दत्तेन तृप्यन्तु तृप्ता यान्तु पराङ्गतिम् ॥ अ.द.मो.
स.पू.त्रि. आचमन करके हरिस्मरण कर तीन बार गायत्री मन्त्र जपे। फिर अपसव्य दक्षिणाभिमुख-पातितवामजानु होकर मधुमती ऋचा पाठ करके, पिण्डवेदी निर्माण करके दोनों हाथों से दर्भ पिञ्जलि द्वारा प्रादेशमात्र उल्लेखन करे :
उल्लेखन : बालुकामयी पिंडवेदी को जल से सिक्त कर प्रादेश प्रमाण रेखा दर्भ पिञ्जलि से खींचे :- ॐ अपहता ऽअसुरा रक्षा ᳪ सि वेदिषदः ॥ अ.द.मो. ॥
अंगारभ्रमण : पिंडवेदी के रेखा पर थोड़ा आग देकर मोड़ा से घुमाते हुए दक्षिण में गिरा दे :- ॐ ये रूपाणि प्रतिमुञ्चमाना असुराः सन्तः स्वधया चरन्ति। परापुरो निपुरो ये भरंत्यग्निष्टांलोकात् प्रणुदात्यस्मात् ॥ अ.द.मो. ॥
रेखा पर नौ छिन्नमूल कुश देकर जल से सिक्त कर दे। स.पू.त्रि. तीन बार देवताभ्यः मन्त्र पढ़े :-
ॐ देवताभ्यः पितृभ्यश्च महायोगिभ्य एव च। नमः स्वाहायै स्वधायै नित्यमेव नमो नमः ॥३॥ स.पू.त्रि.
अत्रावन : ॐ अद्य …………. गोत्र पितः ……… प्रेत प्रथम मासिक श्राद्धपिण्डस्थाने अत्रावने निक्ष्व ते मया दीयते तवोपतिष्ठताम् ॥ अ.द.मो.
अत्रावन का उत्सर्ग करते हुए पुरे का आधा जल पिंडवेदी के कुशाओं पर गिरावे और आधा प्रत्यवन वास्ते रखे। फिर पिण्ड निर्माण करके बांये हाथ में पिण्ड लेकर उत्सर्ग करे :-
पिण्ड : ॐ अद्य …………. गोत्र पितः ……… प्रेत प्रथम मासिक श्राद्धे एष पिण्डः ते मया दीयते तवोपतिष्ठताम् ॥ अ.द.मो.
पिण्ड दाहिने हाथ में लेकर पितृतीर्थ से वेदी के कुशाओं पर रखे। पिंडतलस्थ कुशाओं में हाथ पोछ ले।
स.पू.त्रि. – दो बार आचमन करके हरिस्मरण करे। फिर दक्षिणाभिमुख हो जाये
- ॐ अत्र पितर्मादयस्व यथाभाग मा वृषायस्व ॥ सूर्य स्वरूप पिता का ध्यान करते हुए उत्तर से श्वास ले।
- ॐ अमीमदत पिता यथाभाग मा वृषायिष्ट॥ पश्चिम की ओर श्वास छोड़े।
फिर अवनेजन पूड़ा शेष जल सहित बांयें हाथ में ले, दाहिने हाथ में तिल-जल-मोड़ा लेकर प्रत्यवन उत्सर्ग करे :
प्रत्यवन : ॐ अद्य …………. गोत्र पितः ………. प्रेत प्रथम मासिक श्राद्ध पिण्डे अत्र प्रत्यवने निक्ष्व ते मया दीयते तवोपतिष्ठताम् ॥ अ.द.मो.
प्रत्यवन का उत्सर्ग कर पिण्ड पर दे दे। नीवीं विसर्जन या डाँरकडोर ससारे। फिर स.पू.त्रि. आचमन करे।
पिण्डपूजन : ॐ एतत्ते पितर्वासः ॥ (ॐ एतत्ते मातर्वासः) अ.द.मो.; फिर तिल, जल लेकर वस्त्रोत्सर्ग करे :
ॐ अद्य ………… गोत्र पितः ………… प्रेत प्रथम मासिक श्राद्ध पिण्डे एतद्वास्ते मया दीयते तवोपतिष्ठताम् ॥ अ.द.मो.
पान, पुष्प, चन्दन, द्रव्यादि भी चुपचाप पिण्ड पर चढ़ा दे। पिंडशेषान्न पिंड के चारों और अपसव्य क्रम से बिखेड़ दे ।
- ॐ शिवा: आपः सन्तु ॥ भोजनपात्र पर जल दे।
- ॐ सौमनस्यमस्तु ॥ भोजनपात्र पर फूल दे।
- ॐ अक्षतंचारिष्टमस्तु ॥ भोजनपात्र पर अक्षत दे।
तिल, मधु, घृत मिश्रित जल (अक्षय्योदक) पूड़े से पिण्ड पर दे।
अक्षय्योदक : ॐ अद्य ………. गोत्रस्य पितु: ……… प्रेतस्य प्रथम मासिक श्राद्धे दत्तैतदन्न पानादिकमुपतिष्ठताम् ॥ अ.द.मो.
जलधारा : ॐ अघोर: पिताऽस्तु ॥ ( अघोरा माताऽस्तु) पिण्ड पर पूर्वाग्र वारिधारा दे। स.पू.त्रि.
आशीष प्रार्थना : ॐ गोत्रन्नो वर्द्धतां दातरो नोऽभिवर्द्धन्तां वेदा: सन्ततिरेव च। श्रद्धा च नो मा व्यगमद् बहु देयञ्च नो ऽअस्तु। अन्नं च नो बहु भवेत् अतिथींश्च लभेमहि। याचितारश्च नः सन्तु मा च याचिष्म कञ्चन। एताः सत्याशिषः सन्तु ॥ स.पू.त्रि.
अपसव्य-दक्षिणाभिमुख-पवित्रीहस्त पिण्डस्थ सूत्रादि हटा दे। पिण्ड पर त्रिकुशा रख कर जल या दुग्धधारा दे । अ.द.मो. :-
वारिधारा : ॐ ऊर्जं वहन्तीरमृतं घृतं पयः कीलालं परिश्रुतम् । स्वधास्थ तर्पयत् मे पितरम् ॥
थोड़ा नम्र होकर पिण्ड को सूँघ ले और उठाकर फिर रख दे। पिण्ड के नीचे वाले कुशों को निकाल कर और वेदी पर भ्रमण किया गया अंगार आग में दे दे। अर्घ्यपात्र को उत्तान कर दे। मोड़ा, तिल, जल, द्रव्यादि लेकर दक्षिणा करे :-
दक्षिणा : ॐ अद्य …… गोत्रस्य पितुः ……… प्रेतस्य कृतैतत् प्रथम (द्वितीय/तृतीयादि मासिक अनुसार) मासिक श्राद्ध प्रतिष्ठार्थं एतावत् द्रव्यमूल्यक रजतं चन्द्रदैवतं ………. गोत्राय ………. शर्मणे ब्राह्मणाय दक्षिणां तुभ्यमहं सम्प्रददे ॥
- दक्षिणा लेकर ब्राह्मण ॐ स्वस्ति कहे ।
- आचमन कर तीन बार देवताभ्यः मन्त्र पढ़े : ॐ देवताभ्यः पितृभ्यश्च महायोगिभ्य एव च। नमः स्वाहायै स्वधायै नित्यमेव नमो नमः ॥३॥
- द.अप. दीप का किसी पत्रादि से आच्छादन कर दे। पू.स. आचमन कर अगला मन्त्र पढे :-
ॐ प्रमादात् कुर्वतां कर्म प्रच्यवेत्ताध्वरेषुयत् । स्मरणादेव तद्विष्णोः सम्पूर्णं स्यादिति श्रुतिः ॥
॥ ॐ विष्णुर्विष्णुर्हरिर्हरिः ॥
पिण्डवेदि को कनिष्ठिका अङ्गुलि से थोडा तोड़ दे। सूर्य भगवान को प्रणाम कर ले। श्राद्ध की सभी उपयोगी वस्तुयें ब्राह्मण को दे, पत्र-पुष्पादि जल में प्रवाहित करे।
अन्य मासिक श्राद्धों में प्रथम के स्थान पर क्रमशः प्रयोग करे : द्वितीय – तृतीय – चतुर्थ – पञ्चम – ऊनषाण् – षष्ठ – सप्तम – अष्टम – नवम – एकादश – ऊनवार्षिक और द्वादश। 11 मास के मध्य यदि अधिकमास हो तो त्रयोदश मासिक की वृद्धि होगी। लेकिन फिर क्रम में परिवर्तन होगा – एकादश-द्वादश-ऊनवार्षिक और त्रयोदश।
- श्राद्ध कर्म विधि मंत्र की विस्तृत जानकारी
- जानिये 16 श्राद्ध में क्या करना चाहिए
- एकादशाह श्राद्ध विधि pdf – सहित | shraddh vidhi | वाजसनेयी
- वार्षिक श्राद्ध विधि pdf सहित – वार्षिक श्राद्ध विधि मंत्र – वाजसनेयी
- अशौच निर्णय
सपिंडीकरण विधि
लेखविस्तारभयात् सपिण्डीकरण विषयक चर्चा किये बिना सपिंडी श्राद्ध विधि दी जा रही है। सपिण्डीकरण विषयक चर्चा अन्य आलेख में करेंगे :
सर्वप्रथम शुद्धिकरण करे, तीन बार आचमन कर कुशादि धारण करते हुए आत्मशुद्धि करे :
- पवित्रीकरण मंत्र : ॐ अपवित्रः पवित्रोऽ वा सर्वावस्थांगतोऽपि वा यः स्मरेत् पुण्डरीकाक्षं स बाह्याऽभ्यन्तरः शुचिः पुण्डरीकाक्षः पुनातु । ॐ पुण्डरीकाक्षः पुनातु ॥
- दिग्रक्षण मंत्र : ॐ नमो नमस्ते गोविन्द पुराण पुरूषोत्तम । इदं श्राद्धं हृषीकेश रक्ष त्वं सर्वतो दिशः ॥
सपिंडीकरण श्राद्ध संकल्प : त्रिकुशा-तिल-जल आदि लेकर आद्यश्राद्ध का संकल्प करे – ॐ अद्य …….… गोत्रस्य …….. पितुः ……. प्रेतस्य (माता के श्राद्ध में …….. गोत्रायाः ……… मातुः ………. प्रेतायाः कहे) प्रेतत्वविमुक्ति हेतु षोडश (सप्तदश) श्राद्धान्तर्गत सपिण्डीकरण श्राद्धं अहं करिष्ये ॥ स.पू.त्रि. संकल्प कर तिल जलादि भूमि पर गिराये त्रिकुशा सहित।
गायत्री जप : त्रिकुशा लेकर तीन बार गायत्री मंत्र जप करे। तीन बार देवताभ्यः मंत्र पढ़े : ॐ देवताभ्यः पितृभ्यश्च महायोगिभ्य एव च । नमः स्वाहायै स्वधायै नित्यमेव नमो नमः ॥३॥ स.पू.त्रि.
विश्वेदेव श्राद्ध
आसन : कल्पित विश्वेदेव श्राद्ध स्थान पर पूर्वाभिमुख या उत्तराभिमुख बैठकर, कल्पित त्रिकुशात्मक विश्वेदेवासन को सिक्त करके त्रिकुशा-जौ-जल से विश्वेदेव आसन उत्सर्ग करे – ॐ अद्य …….… गोत्रस्य …….. पितुः ……. प्रेतस्य सपिण्डीकरण निमित्तक श्राद्धे …….. गोत्र पितामह …….. शर्म सम्बन्धिनः, …….. गोत्र प्रपितामह …….. शर्म सम्बन्धिनः, …….. गोत्र वृद्धप्रपितामह …….. शर्म सम्बन्धिनश्च विश्वेदेवा इदं आसनं वो नमः ॥ सीधे हाथ विश्वेदेवासन का उत्सर्ग करे।
आवाहन :- करबद्ध विश्वेदेवों का आवाहन करे – ॐ विश्वान् देवानहं आवाहयिष्ये, विश्वेदेवा स आगत शृणुताम् इम ᳪ हवं एनं बर्हिनिषीदत ॥
ॐ यवोऽसि यवयास्मद्वेषो यवयारातीः ॥ विश्वदेवा के भोजनपात्र पर जौ छिड़के ।
फिर ये मंत्र पढ़े : ॐ विश्वेदेवाः शृणुतेम ᳪ हवं मे येऽअन्तरिक्षे य उपपद्यविष्ट येऽअग्निजिह्वा उतवा यजत्रा आसद्याऽस्मिन् बर्हिषि मादयध्वम् ॥ ॐ आगच्छन्तु महाभागा विश्वेदेवा महाबलाः । ये यत्र योजिताः श्राद्धे सावधाना भवन्तु ते ॥
अर्घ्यस्थापन :- अर्घ्य पूड़ा में पवित्री (कुश) देकर इन मंत्रों से क्रमशः जल व जौ दें –
- ॐ शन्नो देवीरभिष्टय ऽआपो भवन्तु पीतये । शंय्योरभिस्रवन्तु नः ॥ – जल।
- ॐ यवोऽसि यवयास्मद्वेषो यवयारातीः ॥ – जौ । फूल एवं चन्दन भी दे दें (बिना मंत्र के) ।
- फिर अर्घ्यपात्र को बांये हाथ में ले पूड़ा का पैंता (कुश) निकाल कर विश्वेदेवा के भोजन पात्र पर पूर्वाग्र रखकर अन्य जल से सिक्त कर दे ।
अर्ध्याभिमन्त्रण :- उत्तान दाहिने हाथ से अर्घ्यपूड़ा को ढंक कर यह मंत्र पढ़े – ॐ या दिव्या आपः पयसा सम्बभूबुर्या आंतरिक्षा उत पार्थीवीर्या:। हिरण्यवर्णा याज्ञियास्ता न आपः शिवा: स ᳪ स्योना: सुहवा भवन्तु ॥
अर्घोत्सर्ग :- त्रिकुशा, जौ, जल लेकर अर्थ्योत्सर्ग करे – ॐ अद्य …….… गोत्रस्य …….. पितुः ……. प्रेतस्य सपिण्डीकरण निमित्तक श्राद्धे …….. गोत्र पितामह …….. शर्म सम्बन्धिनः, …….. गोत्र प्रपितामह …….. शर्म सम्बन्धिनः, …….. गोत्र वृद्धप्रपितामह …….. शर्म सम्बन्धिनश्च विश्वेदेवा एषोऽर्घः वो नमः ॥ जौ, जल पूड़ा पर छिड़क कर भोजन पात्रस्थ कुश पर अर्घ दे ।
पैंता (कुश) को पुनः पूड़ा में रखकर पूड़ा को आसन के दक्षिण भाग में इस मंत्र से उत्तान रखे और दक्षिणापर्यंत हिलावे नहीं – ॐ विश्वेभ्यः देवेभ्यः स्थानमसि ॥
गन्धादि : त्रिकुशा, जौ, जल लेकर गन्धादि का उत्सर्ग करे – ॐ अद्य …….… गोत्रस्य …….. पितुः ……. प्रेतस्य सपिण्डीकरण निमित्तक श्राद्धे …….. गोत्र पितामह …….. शर्म सम्बन्धिनः, …….. गोत्र प्रपितामह …….. शर्म सम्बन्धिनः, …….. गोत्र वृद्धप्रपितामह …….. शर्म सम्बन्धिनश्च विश्वेदेवा एतानि गंध पुष्पधूपदीपताम्बूल यज्ञोपवीत- वस्त्रादिऽआच्छादनानि वो नमः ॥
भूस्वामि अन्नोत्सर्ग :-आसन सहित विश्वेदेवा के भोजन पात्र का जल से प्रदक्षिणक्रमानुसार मण्डल करे । दक्षि० अपसव्य होकर अपने वाम भाग में (पिण्डवेदी से पूर्व), मोड़ा-तिल-जल भूस्वामि के अन्न का उत्सर्ग करे – ॐ इदमन्नम् एतद् भूस्वामि पितृभ्यो नमः ॥
पूर्वा० सव्य हो त्रिकुशहस्त विश्वेदेवा के भोजनपात्र में अन्नादि, घी, मधु, जौ देकर जलपात्र वा पूड़ा में जल व घी दे ।
मधुप्रक्षेप (व्यवहारात् अन्नस्पर्श) :- त्रिकुश लेकर भोजनपात्र के अन्न में उत्तान दाहिना हाथ लगावे – ॐ मधुव्वाता ऋतायते मधुक्षरन्ति सिन्धवः माध्वीर्न: सन्त्वोषधिः मधुनक्तमुतोषसो मधुमत्पार्थिव ᳪ रजः मधुद्यौरस्तु नः पिता मधुमान्नो वनस्पतिर्मधुमां२ अस्तु सूर्यः माध्वीर्गावो भवन्तुनः ॥ ॐ मधु मधु मधु ॥
पात्रालम्भन : दाहिने हाथ के नीचे उन्मुख बायें हाथ से विश्वेदेवान्न पात्र का स्पर्श करे –
- ॐ पृथिवी ते पात्रं द्यौरपिधानं ब्राह्मणस्य मुखे अमृते ऽअमृतं जुहोमि स्वाहा ॥
- ॐ इदं विष्णुर्विचक्रमे त्रेधा निदधे पदम् समूढ़मस्य पा ᳪ सुरे ॥
- ॐ कृष्ण हव्यमिदं रक्षमदियं ॥
अवगाहन : बांये हाथ को पूर्ववत रखे हुए दाहिने हाथ के अँगूठा से विश्वेदेवान्न, पूड़ा का जल घी और फिर अन्न में अंगुष्ठ निवेषण करे – ॐ इदमन्नम् ॥ (अन्न) । ॐ इमा आपः ॥ (जल) । ॐ इदमाज्यम् ॥ (घी)। ॐ इदं हविः ॥ (अन्न) बाएं हाथ को भोजन में लगाकर रखते हुए दाहिने हाथ में जौ लेकर इस मंत्र से विश्वेदेवान्न पर छिड़के –
यवविकिरण :- दाहिने हाथ में जौ लेकर इस मंत्र से विश्वेदेवान्न पर छिड़के – ॐ यवोऽसि यवयास्मद्वेषो यवयारातीः ॥
अन्नोत्सर्ग :- त्रिकुशा–जौ–जल से अगला मंत्र पढते हुए विश्वेदेवान्न का उत्सर्ग करे – ॐ अद्य …….… गोत्रस्य …….. पितुः ……. प्रेतस्य सपिण्डीकरण निमित्तक श्राद्धे …….. गोत्र पितामह …….. शर्म सम्बन्धिनः, …….. गोत्र प्रपितामह …….. शर्म सम्बन्धिनः, …….. गोत्र वृद्धप्रपितामह …….. शर्म सम्बन्धिनश्च विश्वेदेवा इदमन्नं सोपकरणं वो नमः ॥
सपिंडी श्राद्ध – प्रेत सहित पितृ श्राद्ध
(द्वादशाह के दिन 14 मासिक श्राद्ध होने के कारण सपिण्डीकरण श्राद्ध हेतु समयाभाव होता है और पद्धतियों में पितृ श्राद्ध अलग–अलग रहने पर भी तंत्र प्रयोग ही किया जाता है इस कारण यहां तंत्र विधि से ही पितृ श्राद्ध विधि दी गयी है जिससे और अधिक उपयोगी सिद्ध हो सकता है।)
प्रेत-आसन : अपसव्य–दक्षिणाभिमुख–पातितवामजानु होकर, प्रेतासन को जल से सिक्त करे फिर मोड़ा-तिल-जल लेकर प्रेतासन का उत्सर्ग करे – ॐ अद्य ……….. गोत्र पितः ……….. प्रेत सपिण्डीकरण श्राद्धे इदं आसनं ते मया दीयते तवोपतिष्ठताम् ॥ अ.द.मो. ॥ (स्त्रीलिंगे : ……… गोत्रे मातः ……… प्रेते) पितृतीर्थ से पूर्वकल्पित आसन पर छिड़के।
प्रेतासन उत्सर्ग करने के बाद पितामहादि पितरों के आसन को जल से सिक्त करे, तीन मोड़ा, तिल, जल लेकर पितामह, प्रपितामह एवं वृद्ध प्रपितामहों के आसनों का भी उत्सर्ग करे – ॐ अद्य …….. गोत्रस्य पितुः …….. प्रेतस्य सपिण्डिकरण निमित्तक श्राद्घे ……… गोत्राः पितामह-प्रपितामह-वृद्धप्रपितामहाः …….. शर्माणः इमानि आसनानि त्रिधा विभक्तानि तेभ्यः वः स्वधा ॥ (…….. गोत्राः पितामही-प्रपितामही-वृद्धप्रपितामह्यः ……… देव्यः) तिल, जल पश्चिम-पूर्व क्रम से तीनों कल्पित पितृ आसनों पर क्रमिक रूप से छिड़कें।
आवाहन :- पितरों के निमित पढे – ॐ पितृन् अहं आवाहयिष्ये, ॐ उशन्तस्त्वा निधीमह्युशन्तः समिधीमहि । उशन्नुशत आवह पितृन् हविषे अत्तवे ॥
तिलविकिरण :- पितामहादि तीनों के भोजनपात्र पर तिल छिड़के – ॐ अपहता ऽअसुरा रक्षा ᳪ सि वेदिषदः ॥
आवाहन : ॐ आयन्तु नः पितरः सोम्यासोऽ अग्निष्वाता: पथिभिर्देवयानै: अस्मिन् यज्ञे स्वधया मदन्तोऽधि ब्रुवन्तु तेऽवन्त्वस्मान् ॥ करबद्ध पित्र्यावाहन करे। स.द.त्रि. ॥
अर्घ्यस्थापन :- चारों अर्घ्यपुटकों में पवित्री देकर अगले दोनों मंत्रों से जल व तिल दें :-
- जल : ॐ शन्नो देवीरभिष्टय ऽआपो भवन्तु पीतये शंय्योरभि स्रवन्तुनः॥ अर्घ्य पात्र में जल दे। स.द.त्रि.
- तिल : ॐ तिलोऽसि सोम देवत्यो गोसवो देवनिर्मितः। प्रत्नद्भिः पृक्त: स्वधया पितृन् लोकान् प्रीणाहि नः स्वाहा ॥ स.द.त्रि.
फूल, चन्दन भी दे दें।
अर्ध्याभिमंत्रण :- प्रेतार्घपूड़ा को दांये हाथ से उठाकर बांये हाथ में रखे, उससे पैंता/पवित्री निकाल कर प्रेत भोजनपात्र पर उत्तराग्र रखकर जल से सिक्त कर दे। पूड़ा को दाहिने हाथ से ढंककर यह मंत्र पढ़े :- ॐ या दिव्या आपः पयसा सम्बभूबुर्या आंतरिक्षा उत पार्थीवीर्या:। हिरण्यवर्णा याज्ञियास्ता न आपः शिवा: स ᳪ स्योना: सुहवा भवन्तु ॥
अर्घ्योत्सर्ग : फिर दाहिने हाथ में मोटक, तिल, जल लेकर अर्घ्योत्सर्ग करे – ॐ अद्य ……… गोत्र पितः …… प्रेत सपिण्डीकरण श्राद्धे इदमर्घ्यं ते मया दीयते तवोपतिष्ठताम् ॥ अ.द.मो.; फिर अर्घपात्र दाहिने हाथ में लेकर पूर्वसिक्त कुशा पर पितृतीर्थ से चतुर्थांश मात्र जल दे। पुनः अर्घपात्र को बांये हाथ में रखकर दाहिने हाथ से पवित्री उठाकर अर्घपात्र में दक्षिणाग्र रखे। अर्घपात्र को दाहिने हाथ में लेकर जल सही यथावत वेदी पर रख दे।
पितामहादि अर्घ्य : तदूत्तर तीन त्रिकुशा लेकर पितामहादिकों के अर्घ्यपात्रों से पैंता/पवित्री निकाल कर भोजन पात्र पर उत्तराग्र रखकर जल से सिक्त करे, तीनों अर्घ्यपुटकों को दोनों हाथों से ढंक कर ॐ या दिव्या ….. मंत्र पढ़े । त्रिक मोड़ा-तिल-जल से अर्घ्यों का उत्सर्ग करे – ॐ अद्य …….. गोत्रस्य पितुः …….. प्रेतस्य सपिण्डिकरण निमित्तक श्राद्घे ……… गोत्राः पितामह-प्रपितामह-वृद्धप्रपितामहाः …….. शर्माणः इमानि अर्घ्यानि वः स्वधा ॥
एक (पश्चिम वाला) अर्घ्यपात्र दाहिने हाथ में लेकर सामने के भोजनपात्रस्थ उतराग्र पवित्री पर पितृतीर्थ से चतुर्थांश जल देकर पवित्री को पुनः पूड़ा में रख पूड़ा यथास्थान रखे; पुनः बीच वाले दूसरे व फिर तीसरे पूड़े से भी उसी प्रकार चतुर्थांश अर्घ्य देकर पवित्री को पूड़ा में रखकर पूर्ववत यथास्थान रखे ।
पूर्वा० सव्य हो आचमन कर “ॐ विष्णुर्विष्णुर्हरिर्हरिः” पढ़ कर हरिस्मरण करे ।
अर्घ्यसंयोजन :- दक्षि० अपसव्य-मोटकहस्त होकर अग्रिम मंत्र से प्रेतार्घपात्र का जल अलग से पूर्वाग्र रखे हुए तीन खाली पूड़ों में से दो पूड़ों में समंत्र व एक में बिना मंत्र के एक-एक तिहाई जल दे –
ॐ ये समानाः समनसः पितरो यमराज्ये । तेषां लोकः स्वधा नमो यज्ञो देवेषु कल्पताम् ॥
ॐ ये समानाः समनसो जीवा जीवेषु मामकाः। तेषा ᳪ श्रीर्मयि कल्पतामस्मिंल्लोके शत ᳪ समाः ॥
तदूत्तर पितामह सम्बन्धी पूड़े का समस्त जल प्रेतपूड़ा में लेकर ॐ ये समानाः समाः …… मंत्र पढ़कर पितामह के पूड़ा में सभी जल गिरा दे; पुनः पूर्ववत् प्रपितामह संबंधी पूड़ा का जल प्रेतपूड़ा में लेकर प्रपितामह के अर्घ्यपूड़ा में समंत्र दे दे । इसी विधि से समंत्र वृद्धप्रपितामह के अर्घ्यपूड़ा में भी जल दे ।
न्युब्जीकरण :- पवित्री सहित प्रेतार्घपूड़ा को इस मंत्र से प्रेतासन से पश्चिम अधोमुखकर दे – ॐ पित्रे (मात्रे) स्थानमसि ॥ दक्षिणा देने तक उस पूड़ा को नहीं हिलावे ।
वृद्धप्रपितामह के अर्घ्यपूड़ा का जल और पवित्री प्रपितामह के अर्घ्यपूड़ा में देकर यथास्थान रखे, फिर प्रपितामह के अर्घ्यपूड़ा का जल और पवित्री पितामह के अर्घ्यपूड़ा में गिराकर यथास्थान रखे, पुनः जल सहित पितामहार्घपात्र को उठा कर प्रपितामहार्घपात्र में रखे फिर दोनों अर्घ्यपात्रों को उठाकर वृद्ध-प्रपितामहार्घपात्र में रखकर तीनों पूड़ा को पितामहादिकों के आसन से पश्चिम भाग में अधोमुख कर दे – ॐ पितृभ्यः स्थानमसि ॥ दक्षिणा देने तक उन पूड़ों को न हिलावे ।
गन्धादि :- प्रेतमोड़ा, तिल, जल लेकर प्रेत के गन्धादि का उत्सर्ग करे – ॐ अद्य ……… गोत्र पितः …… प्रेत सपिण्डीकरण श्राद्धे एतानि गन्धपुष्पधूपदीपताम्बूल यज्ञोपवीता ऽऽच्छादनानि / विद्यमानोपकरणानि ते मया दीयन्ते तवोपतिष्ठन्ताम् ॥
फिर त्रिक मोड़ा, तिल, जल लेकर पितामहादि तीनों के गन्धादि का उत्सर्ग करे – ॐ अद्य …….. गोत्रस्य पितुः …….. प्रेतस्य सपिण्डिकरण निमित्तक श्राद्घे ……… गोत्राः पितामह-प्रपितामह-वृद्धप्रपितामहाः …….. शर्माणः एतानि गन्ध पुष्प धूप दीप ताम्बूल यज्ञोपवीत ऽऽच्छादनानि/विद्यमानोपकरणानि वः स्वधा ॥
प्रेत मोड़ा लेकर पिता के भोजनपात्र व आसन के चारों ओर जल से मण्डल (अप्रदक्षिण) कर दे । पुनः त्रिकमोड़ा लेकर क्रमशः पितामहादिकों के भोजनपात्र व आसन के चारों ओर भी जल से अपसव्य मण्डल करे ।
अग्नौकरण :- पूर्वा० सव्य होकर एक पूड़ा में जल व जौ रखे, दूसरे पूड़े में सिद्धान्न, घी रखे। पातित-दक्षिणजानु होकर अनामिका और अंगूठा से पूड़ा का अन्नादि लेकर जल वाले पूड़े में दो बार आहुति प्रदान करे –
- ॐ अग्नये कव्यवाहनाय स्वाहा ॥ पहली आहुति ।
- ॐ सोमाय पितृमते स्वाहा ॥ दूसरी आहुति दे ।
अप० दक्षि० पितामहादि के भोजन पात्र पर थोड़ा-थोड़ा हुतशेषान्न दे। प्रेत भोजनपात्र पर पुरुषाहार-परिमित प्रेतान्न, दूध, दही, घी, मधु, व्यञ्जनादि परोस कर रख दे । एक पात्र में घी एवं तिल युत जल भोजन के उत्तरभाग में रख दे। अग्नौकरण हुतशेषान्न पितामहादि पाक में मिलाकर पुनः पितामहादि तीनों के लिए भी भोजन परोसे व तीन जल पात्रों में जल-घृत देकर भोजनपात्र के निकट रखे।
मधुप्रक्षेप (व्यवहारात् अन्नस्पर्श) : प्रेतत्रिकुशा लेकर भोजनपात्र के अन्न में मधु दे या अधोमुखी दाहिना हाथ लगावे – ॐ मधुव्वाता ऋतायते मधुक्षरन्ति सिन्धवः माध्वीर्न: सन्त्वोषधिः मधुनक्तमुतोषसो मधुमत्पार्थिव ᳪ रजः मधुद्यौरस्तु नः पिता मधुमान्नो वनस्पतिर्मधुमां२ अस्तु सूर्यः माध्वीर्गावो भवन्तुनः ॥ ॐ मधुमधुमधु ॥
पात्रालम्भन :- दाहिने हाथ के नीचे अधोमुख बायें हाथ से भोजनपात्र का स्पर्श करे –
- ॐ पृथिवी ते पात्रं द्यौरपिधानं ब्राह्मणस्य मुखे अमृते ऽअमृतं जुहोमि स्वाहा ॥
- ॐ इदं विष्णुर्विचक्रमे त्रेधा निदधे पदम् समूढ़मस्य पा ᳪ सुरे ॥
- ॐ कृष्ण कव्यमिदं रक्षमदियं ॥
अवगाहन :- बांये हाथ को भोजनपात्र में लगाए रखते हुए ही भोजनपात्र का अन्न पूड़ा का जल, घी और फिर अन्न में अङ्गुष्ठ निवेश करे –
ॐ इदमन्नं ॥ इमा आपः ॥ इदं आज्यं ॥ इदं हविः ॥ अ.द.त्रि.
तिलविकिरण :- अन्न पर तिल छिड़के – ॐ अपहता ऽअसुरा रक्षा ᳪ सि वेदिषदः ॥
भोजन :- दाहिने हाथ मे मोड़ा, तिल, जल लेकर प्रेतान्न का उत्सर्ग करे – ॐ अद्य ……… गोत्र पितः …… प्रेत सपिण्डीकरण श्राद्धे इदमन्नं सोपकरणं ते मया दीयते तवोपतिष्ठताम् ॥
पितामहादिक भोजन :– पुनः पूर्ववत् पितामहादिकों के भोजनों का त्रिक-त्रिकुशा लेकर अधोमुखी दाहिने हाथ से स्पर्श कर “ॐ मधुव्वाता ….. मधु” मंत्र का पाठ करके दाहिने हाथ के नीचे बायां हाथ भी भोजनपात्र में लगा दे व “ॐ पृथिवी ते …… मदीयम्” का पाठ करे ।
अवगाहन :- दाहिना हाथ हटा ले व अंगूठे से अन्न, जल, घी व अन्न का मंत्र पढ़ते हुए स्पर्श करे – ॐ इदमन्नम् ॥ (अन्न) । ॐ इमा आपः ॥ (जल) । ॐ इदमाज्यम् ॥ (घी) । ॐ इदं हविः ॥ (अन्न)
अन्नोत्सर्ग :- दाहिने हाथ में त्रिक मोड़ा, तिल, जल लेकर पितामहादिकों के भोजन का उत्सर्ग करे – ॐ अद्य …….. गोत्रस्य पितुः …….. प्रेतस्य सपिण्डिकरण निमित्तक श्राद्धे ……… गोत्राः पितामह-प्रपितामह-वृद्धप्रपितामहाः …….. शर्माणः इमानि अन्नानि सोपकरणानि त्रिधाविभक्तानि वः स्वधा ॥
- बाएं हाथ को हटाकर पूर्वा० सव्य होकर तीन बार गायत्री जप करे ।
- दक्षि० अप० “मधुमती ऋचा” और यह मंत्र पढे – ॐ अन्नहीनं क्रियाहीनं विधिहीनं च यद्भवेत्। तत्सर्वमच्छिद्रमस्तु ॥
- गायत्री जप कर आसन के नीचे कुशा रखे ।
- पुनः अपसव्य दक्षिणाभिमुख “मधुमती ऋचा” पाठ करे ।
ॐ कृणुष्वपाजः प्रसितिन्न पृथिवीं याहि राजे वामवां इभेन । तृष्वीमनु प्रसितिं द्रूनाणोऽस्तासि विध्य रक्षसस्तपिष्ठैः । तवभ्रमास आसुया पतन्त्यनुस्पृस धृषता शोसुचानः । तपू ᳪ ष्यग्ने जुह्वा पतङ्गानसन्दितो विसृज विश्वगुल्काः । प्रतिष्पशो विसृज तूर्णितमो भवा पायुर्विशो अस्याऽअदब्धः । यो नो दूरे अघश ᳪ सो यो अन्त्यग्ने माकिष्टे व्यथिरा दधर्षीत । उदग्ने तिष्ठ प्रत्या तनुष्वन्य मित्रां ओषता तिग्महेते । यो नो ऽअराति ᳪ समिधानचक्रे नीचा तं धक्ष्यत सन्न शुष्कम् । उर्ध्वो भव प्रतिविध्या ध्यस्मदा विष्कृणुष्व दैव्यान्यग्ने अवस्थिरा तनुहि यातु यूनाम् जामिमजामिं प्रमृणीहि शत्रून् ॥ पाठ कर तिल बिखेरे।
ॐ उदीरतामवर उत्परास उन्मध्यमाः पितरः सौम्यासः । असूंऽयईयुरवृका ऋतज्ञास्ते नोऽवन्तु पितरो हवेषु अङ्गिरसो नः पितरः सौम्यासः । तेषा ᳪ वय ᳪ सुमतौ यज्ञियानामपि भद्रे सौमनसे स्याम ये नः पूर्वे पितरः सोम्यासोऽअनुहिरे सोमपीथं वशिष्ठाः तेभिर्यमः स ᳪ रराणो हवी ᳪ स्युसन्नुसद्भिः प्रतिकाममत्तु ॥
- ॐ सहस्रशीर्षा पुरुषः सहस्राक्षः सहस्रपात् । भूमि ᳪ सर्वतस्पृत्त्वात्त्यतिष्ठद्दशाङ्गुलम् ॥ इत्यादि पुरुषसूक्त पाठ
- ॐ आशुः शिषाणो वृषभो न भीमो घनाघनः क्षोभनश्चर्षनिनां । संक्रदनो निमिष एकवीरः शत ᳪ सेना अजयत्साकमिन्द्रः ॥
- ॐ नमः शम्भवाय च मयोभवाय च नमः शङ्कराय च मयस्कराय च नमः शिवाय च शिवतराय च ॥
- ॐ नमस्तुभ्यं विरूपाक्ष नमस्तेनेक चक्षुषे । नमः पिनाकहस्ताय वज्रहस्ताय वै नमः ॥
- ॐ सप्तव्याधा दशार्णेषु मृगाः कालञ्जरे गिरौ । चक्रवाकाः शरद्वीपे हन्साः सरसि मानसे ॥
- तेऽपि जाताः कुरुक्षेत्रे ब्राह्मणा वेदपारगाः । प्रस्थिता दूरमध्यानौ यूयं तेभ्योवसीदथ ॥
- ॐ रुची रुची रुचिः ॥ पाठ करे।
विकिरदान :- वेदी के पश्चिम त्रिकुश रखकर जल से सिक्त कर दे । एक पूड़ा में अन्नादि लेकर मधुमती ऋचा पढ़कर और जल से आप्लावित करे, फिर मोड़ा के जड़ से सहारा देकर त्रिकुश पर बांए हाथ के पितृतीर्थ से दे – ॐ अनग्निदग्धाश्च ये जीवा ये प्रदग्धाः कुले मम । भूमौ दत्तेन तृप्यन्तु तृप्ता यान्तु पराङ्गतिम् ॥
त्रिकुश धारण कर पूर्वा० सव्य हो आचमन कर “ॐ विष्णुर्विष्णुर्हरिर्हरिः” पढ़कर त्रिगायत्री जपे । फिर दक्षि० अप० होकर मधुमती ऋचा पाठ करे ।
उल्लेखन :- दक्षि० अप० होकर बालुकामयी एक हाथ लंबा-चौड़ा और 4 अंगुल ऊँचा दक्षिणप्लव वेदी निर्माण करे, बालुकामयी पिंडवेदी को जल से सिक्त कर दर्भपिञ्जलि से प्रेत-पिण्डस्थान में प्रादेशमात्र – दक्षिणाग्र रेखा करे – ॐ अपहता ऽअसुरा रक्षा ᳪ सि वेदिषदः ॥ दर्भपिञ्जलि ईशान में त्याग दे।
अंगारभ्रमण :- प्रादेशप्रमाण रेखा पर थोड़ा आग रख कर कुश के मूल से भ्रमणपूर्वक चलाते हुए दक्षिण में गिरा दे – ॐ ये रूपाणि प्रतिमुञ्चमाना असुराः सन्तः स्वधया चरन्ति। परापुरो निपुरो ये भरंत्यग्निष्टांलोकात् प्रणुदात्यस्मात् ॥ अ.द.मो. ॥ दर्भपिञ्जलि ईशान में त्याग दे।
पुनः पितामहादि के लिये भी बालुका से एक हाथ लंबा-चौड़ा और 4 अंगुल ऊँचा दक्षिणप्लव पिण्ड वेदी निर्माण करे, बालुकामयी पिंडवेदी को जल से सिक्त कर पिण्ड वेदी पर पूर्ववत रेखाकरण और अंगारभ्रमण करे । दर्भपिञ्जलि ईशान में त्याग दे।
सभी प्रादेशप्रमाण रेखाओं पर नौ छिन्नमूल कुश रखकर जल से सिक्त कर दे।
पूर्वा० सव्य होकर तीन बार ॐ देवताभ्यः मंत्र पढ़े – ॐ देवताभ्यः पितृभ्यश्च महायोगिभ्य एव च । नमः स्वाहायै स्वधायै नित्यमेव नमो नमः ॥
अत्रावन :- अप० दक्षि० हो बाएं हाथ में तिल-जल-पुष्प-चंदन युक्त एक पूड़ा लेकर दाहिने हाथ में प्रेत-मोड़ा, तिल जल लेकर इस मंत्र से उत्सर्ग करे – ॐ अद्य ……… गोत्र पितः …… प्रेत सपिण्डीकरण श्राद्धपिण्डस्थाने अत्रावने निक्ष्व ते मया दीयते तवोपतिष्ठताम् ॥ उत्सर्ग कर पूड़ा का आधा जल दाहिने हाथ के पितृतीर्थ से प्रेतवेदी के कुशों पर दे ।
पुनः त्रिकमोड़ा, तिल, जल लेकर पूर्वस्थापित पितामहादिक अवनेजन के तीन पूड़ाओं का इस मंत्र से उत्सर्ग करे – ॐ अद्य …….. गोत्रस्य पितुः …….. प्रेतस्य सपिण्डिकरण निमित्तक श्राद्धे ……… गोत्राः पितामह-प्रपितामह-वृद्धप्रपितामहाः …….. शर्माणः पिण्डस्थाने अत्रावनेषु निग्ध्वं वः स्वधा ॥ उत्सर्गोपरांत क्रमशः अवनेजन पात्रों का आधा जल बारी-बारी दक्षिणाग्र तीन जगह वेदी के कुशाओं पर पितृतीर्थ से दे दे ।
पिण्ड :- बिल्वप्रमाण प्रेत-पिण्ड बनाकर बाएं हाथ में रखे, दाहिने हाथ में प्रेतमोड़ा, तिल, जल लेकर पिण्डोत्सर्ग करे – ॐ अद्य ……… गोत्र पितः …… प्रेत सपिण्डीकरण श्राद्धे एष पिण्डः ते मया दीयते तवोपतिष्ठताम् ॥ अ.द.मो. ॥ पिण्ड को दाएं हाथ में लेकर पितृतीर्थ से प्रेत-पिण्डस्थान के कुशों पर रखे ।
पुनः पितामह, प्रपितामह व वृद्ध-प्रपितामहों के पिण्डों का भी बारी-बारी से तत्तत् मोड़ा, तिल-जल लेकर उत्सर्ग करे –
- ॐ अद्य …….. गोत्रस्य पितुः …….. प्रेतस्य सपिण्डिकरण निमित्तक श्राद्धे ……… गोत्राः पितामह …….. शर्मन् एष पिण्डः ते स्वधा ॥
- ॐ अद्य …….. गोत्रस्य पितुः …….. प्रेतस्य सपिण्डिकरण निमित्तक श्राद्धे ……… गोत्राः प्रपितामह …….. शर्मन् एष पिण्डः ते स्वधा ॥
- ॐ अद्य …….. गोत्रस्य पितुः …….. प्रेतस्य सपिण्डिकरण निमित्तक श्राद्धे ……… गोत्राः वृद्धप्रपितामहाः …….. शर्मन् एष पिण्डः ते स्वधा ॥
उत्सर्गोपरांत पिण्डों को पितामहादिकों के पिण्डस्थान पर दाहिने हाथ के पितृतीर्थ से स्थापित रखकर पितामहादिकों के पिण्डतलस्थ कुशों में हाथ पोंछे – ॐ लेपभागभुजस्तृप्यन्तु ॥
पूर्वा० सव्य हो आचमन कर “ॐ विष्णुर्विष्णुर्हरिर्हरिः” पढ़कर हरिस्मरण करे । पुनः अप० दक्षि० –
- ॐ अत्र पितर्मादयस्व यथाभाग मा वृषायस्व ॥ सूर्य स्वरूप पिता का ध्यान करते हुए उत्तर से श्वास ले।
- ॐ अमीमदत पिता यथाभाग मा वृषायिष्ट ॥ पश्चिम की ओर श्वास छोड़े।
पुनः करबद्ध उत्तर मुंह कर इस मंत्र से श्वास ले, सांस को रोक कर पितामहादिकों का ध्यान करे ।
- ॐ अत्र पितरोमादयध्वं यथाभाग मा वृषादयध्वम् ॥ उत्तर से श्वास ले।
- ॐ अमीमदन्त पितरो यथाभाग मा वृषायिषत ॥ पश्चिमाभिमुख श्वास छोड़े ।
प्रत्यवन :- प्रेतप्रत्यवन पूड़ा बाएं हाथ में लेकर प्रेतमोड़ा, तिल, जल ले प्रत्यवन उत्सर्ग करे – ॐ अद्य ……… गोत्र पितः …… प्रेत सपिण्डीकरण श्राद्धपिण्डे अत्र प्रत्यवने निक्ष्व ते मया दीयते तवोपतिष्ठताम् ॥ उत्सर्ग कर पूड़ा का जलादि (प्रत्यवन) दाहिने हाथ के पितृतीर्थ से प्रेतपिण्ड पर दे ।
ॐ अद्य …….. गोत्रस्य पितुः …….. प्रेतस्य सपिण्डिकरण निमित्तक श्राद्धे ……… गोत्राः पितामह-प्रपितामह-वृद्धप्रपितामहाः …….. शर्माणः श्राद्ध पिण्डेषु अत्र प्रत्यवनेषु निग्ध्वं वः स्वधा ॥ पितामहादिकों के प्रत्यवन पूड़ा का जल पितृतीर्थ से उनके उनके पिण्डों पर दे ।
दाहिने कोहनी से नीवीं (डांर) ससार कर, पूर्वा०सव्य हो आचमन करे, अप०द० हो प्रेतमोड़ा धारण कर प्रेतपिण्ड पर सूत्र दे – ॐ एतत्ते पितर्वासः/मातर्वासः ॥
त्रिकमोड़ा लेकर पितामहादिकों के पिण्डों पर तीन सूता दे – ॐ नमो वः पितरो रसाय नमो वः पितरो शोषाय नमो वः पितरो जीवाय नमो वः पितरः स्वधायै नमो वः पितरो घोराय नमो वः पितरो मन्यवे नमो वः पितरः पितरो नमो वो गृहान्नः पितरो दत्त सतो वः पितरो द्वेष्म ॥ ॐ एतद् वः पितरो वासः ॥ पितामहादिक तीनों के पिण्डों पर तीन सूता चढ़ा दे ।
वस्त्रोत्सर्ग :- प्रेत-मोड़ा, तिल, जल ले प्रेत-सूत्र का उत्सर्ग करे – ॐ अद्य ……… गोत्र पितः …… प्रेत सपिण्डीकरण श्राद्धपिण्डे एतद्वासः ते मया दीयते तवोपतिष्ठताम् ॥
त्रिकमोड़ा, तिल, जल लेकर पितामहादिकों के सूत्र का उत्सर्ग करे – ॐ अद्य …….. गोत्रस्य पितुः …….. प्रेतस्य सपिण्डिकरण निमित्तक श्राद्धे …… गोत्राः पितामह-प्रपितामह-वृद्धप्रपितामहाः ….. शर्माणः श्राद्ध पिण्डेषु इमानि वासांसि वः स्वधा ॥
पिण्डच्छेदन :- हाथ धोकर पितरों का ध्यान करते हुए बिना मंत्र के पहले प्रेतपिण्ड पर पान, सुपारी, पुष्प चन्दनादि चढ़ाकर पिण्ड के चारों ओर पिण्ड शेषान्न बिखेर दे, फिर पितामहादिकों के पिण्डों पर पान, सुपारी, पुष्प, चन्दनादि चढ़ाकर पिण्ड के चारों ओर पिण्ड शेषान्न बिखेरे ।
पुनः त्रिकुशा के मूल से पिण्डस्थ पानादिकों को हटा कर स्वर्ण/रजत शलाका को दोनों हाथ (बांए हाथ में जड़भाग) से पकड़कर ‘ॐ ये समानाः मंत्र पढते हुए प्रेत-पिण्ड का तृतीय भाग काटे, पुनः दुबारा मंत्र पढ़ कर दुबारा तृतीय भाग काटे, प्रेत-पिण्ड को दो बार तृतीयांश काटने पर तीन भाग बनेगा –
ॐ ये समानाः समनसः पितरो यमराज्ये । तेषां लोकः स्वधा नमो यज्ञो देवेषु कल्पताम् ॥
ॐ ये समानाः समनसो जीवा जीवेषु मामकाः। तेषा ᳪ श्रीर्मयि कल्पतामस्मिंल्लोके शत ᳪ समाः ॥
पिण्डसम्मेलन :- एक-एक भाग को ‘ॐ ये समानाः……. समाः‘ मंत्र पढ़ते हुए क्रमशः पितामहादिकों के तीनों पिण्ड में मिला दे । पुनः सब पिण्डों को एकत्र मिला कर गोल करे, फिर पिता पितामहादिकों का ध्यान करते हुए पिण्ड पर पितृतीर्थ से चार अंजलि जल दे ।
पिण्डपूजन :- चन्दन-फूल-माला-पान-मखान-द्रव्यादि चढ़ाकर पिण्ड पूजा करे । पिण्डशेषान्न पिण्ड के समीप बिखेर दे। पूर्वा० सव्य त्रिकुश-हस्त हो कर विश्वेदेवान्न पर, फिर दक्षि० अप० मोटकहस्त प्रेत, पितामहादि चारों के भोजनों पर अगले मंत्र पढ़ते हुए क्रमशः जल, फूल व अक्षत चढ़ावे :
ॐ शिवा आपः सन्तु ॥ जल । ॐ सौमनस्यमस्तु ॥ फूल । ॐ अक्षतंचारिष्टमस्तु ॥ अक्षत ।
अक्षय्योदक :- तदूत्तर चार पूड़ा में जल, चन्दन, फूल, तिल, घी, मधु देकर अक्षय्योदक बना ले । प्रेतमोड़ा तिल, जल लेकर प्रेत के अक्षय्योदक का उत्सर्ग कर पिण्ड पर पूड़ा का जल दे दे – ॐ अद्य …….. गोत्रस्य पितुः …….. प्रेतस्य सपिण्डीकरण श्राद्धपिण्डे दत्तैतदन्नपानादिकमुपतिष्ठताम् ॥
पुनः त्रिकमोड़ा, तिल, जल लेकर तीनों अक्षय्योदकों का उत्सर्ग कर पितामहादिकों के वास्ते पिण्ड पर दे – ॐ अद्य …….. गोत्रस्य पितुः …….. प्रेतस्य सपिण्डिकरण निमित्तक श्राद्धे गोत्राणां पितामह-प्रपितामह-वृद्धप्रपितामहानाम् दत्तैतदन्न पानादिकानि अक्षय्यानि सन्तु ॥
जलधारा :- पूर्वा० सव्य हो दक्षिण की ओर देखते हुए अंजलि से पिण्ड पर पूर्वाग्र जलधारा दे – ॐ अघोराः पितरः सन्तु ॥ (अंजलिबद्ध)
आशीषप्रार्थना :- पूर्वा० प्रणाम कर दक्षिणदिशा देखते हुए पढ़े – ॐ गोत्रन्नो वर्द्धतां दातरो नोऽभिवर्द्धन्तां वेदा: सन्ततिरेव च। श्रद्धा च नो मा व्यगमद् बहु देयञ्च नो ऽअस्तु। अन्नं च नो बहु भवेत् अतिथींश्च लभेमहि। याचितारश्च नः सन्तु मा च याचिष्म कञ्चन। एताः सत्याशिषः सन्तु ॥
अप० दक्षि० त्रिकुशा से पिण्डस्थ पान-पुष्पादि हटाकर त्रिकुशा को पिण्ड पर दक्षिणाग्र करके रख दे ।
वारिधारा :- एक पूड़ा में जल तिल, पुष्प, चंदन या दूध लेकर इस मंत्र से पिण्डस्थ त्रिकुश पर दक्षिणाग्र पर धारा दे – ॐ ऊर्जं वहन्तीरमृतं घृतं पयः कीलालं परिश्रुतम् । स्वधास्थ तर्पयत् मे पितॄन् ॥
- विनम्रभाव से पिण्ड को सूंघकर दोनों हाथों से थोड़ा उठाकर फिर रख दे ।
- पिण्डतलस्थ कुशों और अंगारभ्रमण वाली अंगार को आग में दे दे ।
- सव्य होकर विश्वेदेवार्घपात्रों का पूर्वाग्र हिला दे ।
- पुनः अप० दक्षि० होकर प्रेत एवं पितामहादिकों के अधोमुखी अर्घ्यपात्रों को उत्तान कर दे ।
विश्वेदेव श्राद्धदक्षिणा :- पूर्वा० सव्य० हो त्रिकुशा, तिल, जल लेकर विश्वेदेवश्राद्ध की दक्षिणा करे – ॐ अद्य …… गोत्रस्य पितुः …….. प्रेतस्य (…….. गोत्रायाः मातुः प्रेतायाः) सपिण्डीकरण निमित्तक श्राद्धे ……….. गोत्राणां पितामह-प्रपितामह-वृद्धप्रपितामहानाम् ………. शर्मसम्बन्धिनां विश्वेषां देवानां कृतैतत् श्राद्धप्रतिष्ठार्थम् एतावत् द्रव्यमूल्यक हिरण्यं अग्निदैवतं यथानाम गोत्राय ब्राह्मणाय दक्षिणां दातुमहमुत्सृज्ये ॥
प्रेतश्राद्ध दक्षिणा :- अप० दक्षि० प्रेतमोड़ा, तिल, जल ले करे प्रेत श्राद्ध का दक्षिणा करे – ॐ अद्य ……. गोत्रस्य पितुः …….. प्रेतस्य कृतैतत् सपिण्डीकरण श्राद्धप्रतिष्ठार्थम् एतावत् द्रव्यमूल्यकं रजतं चन्द्र दैवतं ……… गोत्राय ……… शर्मणे ब्राह्मणाय दक्षिणां तुभ्यमहं सम्प्रददे ॥ मंत्र का पढ़कर ब्राह्मण को दक्षिणा दे और ब्राह्मण ‘ॐ स्वस्ति’ कहकर दक्षिणा ले लें ।
पितामहादित्रय श्राद्ध दक्षिणा :- पुनः त्रिकमोड़ा, तिल, जल लेकर पितामहादिक श्राद्ध की दक्षिणा करे – ॐ अद्य ……. गोत्रस्य पितुः …….. प्रेतस्य सपिण्डीकरणनिमित्तक श्राद्धे ………. गोत्राणां ………. पितामह-प्रपितामह-वृद्धप्रपितामहानाम् शर्मणां कृतैतानि श्राद्धानि प्रतिष्ठार्थम् एतावत् द्रव्यमूल्यकं रजतं चन्द्रदैवतं यथानाम गोत्राय ब्राह्मणाय दक्षिणामहं ददे ॥
पूर्वा० सव्य विश्वेदेवों का विसर्जन जल लेकर कर दे – ॐ विश्वेदेवाः प्रीयन्ताम् ॥
प्रणाम कर तीन बार ॐ देवताभ्यः पाठ करे – ॐ देवताभ्यः पितृभ्यश्च महायोगिभ्य एव च । नमः स्वाहायै स्वधायै नित्यमेव नमो नमः ॥
अप० होकर दीप का आच्छादन कर हाथ-पैर धो ले, पूर्वा० सव्य हो आचमन कर प्रमादात् मंत्र पढ़े – ॐ प्रमादात् कुर्वतां कर्म प्रच्यवेत्ताध्वरेषुयत् । स्मरणादेव तद्विष्णोः सम्पूर्णं स्यादिति श्रुतिः ॥
॥ ॐ विष्णुर्विष्णुर्हरिर्हरिः ॥
पिण्डवेदि को कनिष्ठिका अङ्गुलि से थोडा तोड़ दे। सूर्य भगवान को प्रणाम कर ले। श्राद्ध की सभी उपयोगी वस्तुयें ब्राह्मण को दे, पत्र-पुष्पादि जल में प्रवाहित करे।
ब्राह्मण भोजन कराकर स्नान करे, धारित वस्त्र त्याग कर नया वस्त्र-यज्ञोपवीतादि धारण करे। गृहप्रांगण में जाकर कलश पूजन करे। देव-निमित्तक ब्राह्मण भोजन कराकर दक्षिणा देकर स्वयं भी भोजन करे।
कर्मकांड विधि में शास्त्रोक्त प्रमाणों के साथ प्रामाणिक चर्चा की जाती है एवं कई महत्वपूर्ण विषयों की चर्चा पूर्व भी की जा चुकी है। तथापि सनातनद्रोही उचित तथ्य को जनसामान्य तक पहुंचने में अवरोध उत्पन्न करते हैं। एक बड़ा वैश्विक समूह है जो सनातन विरोध की बातों को प्रचारित करता है। गूगल भी उसी समूह का सहयोग करते पाया जा रहा है अतः जनसामान्य तक उचित बातों को जनसामान्य ही पहुंचा सकता है इसके लिये आपको भी अधिकतम लोगों से साझा करने की आवश्यकता है।