सनातन धर्म में श्राद्ध एक विशेष कर्मकाण्ड है जो सभी को करना होता है और सभी का किया जाता है। इस आलेख में श्राद्ध की विस्तृत चर्चा करते हुये श्राद्ध विषयक विशेष महत्वपूर्ण जानकारी दी गयी है। श्राद्ध क्या है, श्राद्ध क्यों किया जाता है, श्राद्ध के प्रकार, श्राद्ध से लाभ, श्राद्ध न करने से दोष, श्राद्ध में विशेष महत्वपूर्ण, श्राद्ध में वर्जित, करने की विधि, मंत्र का प्रयोग इत्यादि बिन्दुओं पर शास्त्रों के प्रमाण सहित व्यापक चर्चा किया गया है। इस आलेख का विषय श्राद्ध मात्र है किन्तु प्रेतश्राद्ध या प्रेत कर्म श्राद्ध के लघु अंश हैं जिसकी चर्चा अन्य आलेख में की गयी है।
श्राद्ध कर्म विधि मंत्र – shraddh
सनातन धर्म की यह विशेषता है कि सनातन इस पञ्चभूतों से निर्मित देह को नश्वर मानता है किन्तु देह में स्थित वह तत्व जिसकी उपस्थिति से देह को जीवित और अनुपस्थिति से देह को मृत माना जाता है, उस तत्व को अनश्वर मानता है, उसी को देही, शरीरी, जीव, आत्मा आदि कहता है और धर्म का मुख्य उद्देश्य उसी जीव का कल्याण और शांति है।
श्राद्ध क्यों किया जाता है
मनुष्य जीते जी तो एक-दूसरे की सुख-सुविधा आदि का ध्यान तो रखता ही है लेकिन सनातन का सिद्धांत है कि यह सम्बन्ध केवल जीवित व्यक्तियों तक सीमित नहीं होता, जिनसे जीते जी जुड़े रहे उनके मृत्यु के बाद भी जुड़े रहते हैं। यह सम्बन्ध भी एकपक्षीय नहीं होता द्विपक्षीय होता है। पुत्रादि अपने मृतक पूर्वजों (पितरों) को अन्न–जलादि प्रदान करके तृप्ति प्रदान करता है और पितर गण तृप्त होकर उन पुत्रादिकों की रक्षा, वृद्धि आदि करते हैं।
श्राद्ध क्या है समझने के लिये यहां दिया गया वीडियो बहुत उपयोगी है। इस वीडियो में श्राद्ध सम्बन्धी महत्वपूर्ण जानकारी दी गयी है।
पिता-पुत्रादि सम्बन्ध भी अकारण स्थापित नहीं होते। पूर्व जन्मों के पारस्परिक व्यवहार द्वारा बंधे होते हैं और मृत्यु के उपरांत भी समाप्त नहीं होते। किसी बीज में उस वृक्ष के गुण विद्यमान होते हैं पुनः बीज से वृक्ष में और पुनः अगले बीज में भी यह क्रम चलता रहता है।
शास्त्रों में वर्णित है कि ७ पीढ़ियां ८४ कलाओं (गुणों व संस्कारों) द्वारा परस्पर जुड़ी रहती है। प्रत्येक व्यक्ति को पूर्व की ६ पीढ़ियों से गुण/कला/प्राणात्मक ऊर्जा प्राप्त होते हैं और अगली ६ पीढ़ियों में उसके गुण/कला/प्राणात्मक ऊर्जा वितरित होते हैं। पुरुष स्वयं कूटस्थ होता है। कूटस्थ अपने पिता, पितामह, प्रपितामह, वृद्ध प्रपितामह, अतिवृद्ध प्रपितामह, परमातिवृद्ध प्रपितामहों का सापिण्ड्य होता है एवं कूटस्थ के सापिण्ड्य पुत्र, पौत्र, प्रपौत्र, वृद्ध प्रपौत्र, अतिवृद्ध प्रपौत्र, परमातिवृद्ध प्रपौत्र होते हैं।
लेपभाजश्चतुर्थाद्याः पित्त्राद्याः पिण्डभागिनः । पिण्डदः सप्तमस्तेषां सापिण्डयं साप्तपौरुषम् ॥ सात पीढियां सप्तपुरुष से ही सापिण्ड्य निर्धारित होता है या कहलाता है। प्रथम पुरुष व्यक्ति स्वयं होता है, उससे ऊपर के तीन पिता, पितामह और प्रपितामह पिण्डभाज अर्थात पिण्ड के अधिकारी पुरुष होते हैं, उनसे ऊपर के वृद्ध-प्रपितामह, अतिवृद्ध-प्रपितामह और परमातिवृद्ध-प्रपितामह ये तीनों लेपभाजी पितर होते हैं। इन छहों पीढ़ियों के गुण या कला पुरुष को प्राप्त होता है जो पुनः अगली छः पीढियों में स्थान्तरित भी होता है।
भौतिकवादियों (नास्तिकों) को भौतिक धन-संपत्ति का हस्तांतरण तो दिखता है और मानते भी हैं लेकिन जो नहीं दिखता उसे कैसे माने ? क्यों मानें ? संभवतः कला (प्राणात्मक ऊर्जा) का पीढ़ियों स्थान्तरण समझना थोड़ा कठिन हो, DNA/RNA समझना आसान हो सकता है। पिता, पितामहादि के कला/प्राणात्मक ऊर्जा (गुण-दोष) उनके पुत्र-पौत्रादिकों को भी प्राप्त होता है और इसका प्रमाण है वंशानुगत रोग।
अशौच निर्धारण का भी मुख्य आधार यही है। सापिण्ड्य हेतु सात पीढियां इसी प्रकार निर्धारित होते हैं “सपिण्डता तु पुरुषे सप्तमे विनिवर्तते”, और सापिण्ड्य से आगे की ७ पीढ़ी (१४ वीं पीढ़ी तक) सोदक कहलाती है, इससे आगे की ७ पीढी (२१ वीं पीढ़ी तक) गोत्रज कहलाती है।
84 कलाओं (प्राणात्मक ऊर्जा) की विस्तृत चर्चा समझना भी कठिन होगा और विषय का विस्तार भी होगा अतः विस्तृत चर्चा अपेक्षित होने पर अन्य आलेख में करने का प्रयास करेंगे। आगे कलाओं की संक्षिप्त चर्चा की गयी है जो प्रथम अध्ययन में समझना थोड़ा कठिन होता है लेकिन कई बार अध्ययन और मनन करने पर समझ आ जाता है।
कलाओं की संक्षिप्त चर्चा : कुल 84 कलायें (प्राणात्मक ऊर्जा) होती है। शरीर सप्तकोशात्मक पिण्ड होता है जो पिता के अग्नि (वीर्य) और माता के सोम (रज) के संयोग का प्रतिफल होता है जो पिण्ड रूप में परिणत होता है।
- प्रथम कोश 28 कला का होता है जो संस्कारादि से स्वयं अर्जित करता है।
- द्वितीय कोश 21 कलाओं का होता है जो पिता से प्राप्त होता है।
- तृतीय कोश 15 कलाओं का होता है जो पितामह से प्राप्त होता है।
- चतुर्थ कोश 10 कलाओं का होता है जो प्रपितामह से प्राप्त होता है।
- पञ्चम कोश 6 कलाओं का होता है जो वृद्धप्रपितामह से प्राप्त होता है।
- षष्ठ कोश 3 कलाओं का होता है जो अतिवृद्धप्रपितामह से प्राप्त होता है।
- सप्तम कोष 1 कला का होता है जो परमातिवृद्धप्रपितामह से प्राप्त होता है।
इस प्रकार 28 स्वार्जित कलाओं के अतिरिक्त 56 कलायें पित्रादिकों से कूटस्थ को प्राप्त होता है। पित्रादिकों से कला प्राप्त करने वाला पुरुष उनका ऋणी होता है। धन-संपत्ति की प्राप्ति तो भौतिक होती है। 84 कलाओं वाले सप्तकोशात्मक शरीर में कूटस्थ के 6 कोशों से सोम द्रव्य में तो पित्रादिकों के कलायें ही होती है।
इसी प्रकार कूटस्थ पुरुष भी पुत्र को 21 कला, पौत्र को 15 कला, प्रपौत्र को 10 कला, वृद्धप्रपौत्र को 6 कला, अतिवृद्धप्रपौत्र को 3 कला व परमातिवृद्धप्रपौत्र को 1 कला प्रदान करता है।
इस प्रकार कूटस्थ पुरुष अपने पितरों का ऋणी होता है एवं पुत्रादिकों में उस ऋण प्रदान करता है। ये हस्तांतरण मात्र होता है किन्तु जब तक पितरों से प्राप्त ऋण शेष रहता है तब तक एक-दूसरे से बंधा रहता है, एक-दूसरे के पालन का दायित्व से भी बंधा रहता है। भौतिक रूप से जीवितों में तो स्पष्ट ही द्रष्टव्य होता है – पिता अपने पुत्र-पौत्रों का पालन करता है एवं वृद्ध हुये पिता-पितामह का भी पालन करना अनिवार्य होता है।
भौतिकवादी तो जीवित माता-पिता जिनसे धन-संपत्ति आदि भी प्रत्यक्ष प्राप्त करता है उनके पालन का दायित्व भी निर्वहन करने को तैयार नहीं होता सरकार को कानून द्वारा बाध्य करना पर रहा है। जो पितर हो गये अर्थात मृत्यु को प्राप्त हो गये उनके पालन का तो प्रश्न ही करना अनुचित होगा।
अशौच विधान
यहां जो 84 कला संबंधी विस्तृत चर्चा की गयी है उससे एक-दूसरी पीढ़ियां परस्पर कैसे जुड़ी हुई रहती है यह तो स्पष्ट हो ही जाता है। इन सबके प्रति पिण्ड संबंध होने से ये सपिण्ड भी कहलाते हैं। अशौच का भी मुख्य आधार यही होता है। अशौच मुख्य रूप से तो दो प्रकार के ही होते हैं किन्तु वास्तव में अशौच के अनेकानेक प्रकार हैं, यथा जननाशौच, मरणाशौच, स्रावाशौच या क्षतजाशौच। पुनः दूसरे विधान से भिन्न-भिन्न प्रकार होते हैं – स्पर्शाशौच, कर्माशौच और मंगलाशौच। अशौच स्वयं में विस्तृत विषय है और अशौच के संबंध में अलग से एक आलेख प्रस्तुत किया गया है : अशौच निर्णय पढ़ें ….
श्राद्ध का अर्थ या श्राद्ध की परिभाषा
उपरोक्त नियमानुसार पुत्रादि अपने पितरों का ऋणी होता है और एक-दूसरे के पालन नियम से बंधा रहता है। जीवित पिता-पितामहादि का भौतिक रूप से पालन तो करना ही चाहिये लेकिन जो मृत्यु को प्राप्त करके पितर हो गये उनके पालन का दायित्व भी निर्वहन करना अनिवार्य होता है और इस दायित्व का निर्वहन करने के लिये श्रद्धा अनिवार्य होती है। इसी कारन पितरों के पालन कर्म को श्राद्ध कहा जाता है।
जिस प्रकार पिता आदि प्रेम पूर्वक पुत्रादिकों का पालन करते हैं एवं अपनी कलायें प्रदान करते हैं उसका ऋणी पुत्र भी उनके पालन धर्म से बंधा रहता है। लेकिन उनका पालन होगा कैसे यह प्रश्न उत्पन्न होना स्वाभाविक है। पोषण-शक्ति अन्न-जल में निहित है और अन्न-जलादि से ही पालन किया जा सकता है। अतः पितरों के पालन हेतु भी श्रद्धा रखते हुये या श्रद्धा पूर्वक अन्न-जलादि प्रदान करना चाहिये अर्थात श्राद्ध कर्म करना चाहिये जिसकी विधि और मंत्र वेदों से प्राप्त होती है।
श्राद्ध का अर्थ : श्राद्ध का अर्थ श्रद्धा पूर्वक देना या श्रद्धा पूर्वक किया गया कर्म होता है।
श्राद्ध क्या है
लेकिन इस अर्थ से तो सभी कर्म जिसमें श्रद्धा रहे श्राद्ध संज्ञक ही होगा। इसलिये इसमें एक और विशेषता कही गयी है कि पितरों के निमित्त श्रद्धा पूर्वक अन्न-जलादि का उत्सर्ग करना श्राद्ध कहलाता है।
शास्त्रों में श्राद्ध की परिभाषा :
- होमश्च पिण्डदानश्च तथा ब्राह्मणभोजनम् । श्राद्ध शब्दाभिधेयं स्यादेकस्मिन्नौपचारिके ॥ – हेमाद्रि
- संस्कृतं व्यञ्जनाद्यं च पयोमधु घृतान्वितम् । श्रद्धया दीयते यस्माच्छ्राद्धं तेन निगद्यते ॥ – बृहस्पति
- देशेकाले च पात्रे च श्रद्धयाविधिना च यत् । पितृनुद्दिश्य विप्रेभ्यो दत्तं श्राद्धमुदाहृतम् ॥ – ब्रह्मांडपुराण
उपरोक्त परिभाषाओं के आधार पर श्राद्ध के विषय में कुछ महत्वपूर्ण तथ्य स्पष्ट इस प्रकार स्पष्ट होते हैं :
- श्राद्ध पितरों के निमित्त किया जाता है अर्थात पितरों के लिये किया जाता है।
- श्राद्ध एक विशेष विधि है जिसमें मंत्रों द्वारा पितरों के निमित्त अन्न-जलादि उत्सर्ग करके ब्राह्मणों को दिया जाता है।
- श्राद्ध के लिये समय का भी नियम होता है और उचित समय पर ही श्राद्ध करना चाहिये।
- श्राद्ध करने के लिये उचित स्थान का भी महत्व होता है जिसे पवित्र भी किया जाता है।
- श्राद्ध में जो भी वस्तु उत्सर्ग करे वह पवित्र व निर्मल होना आवश्यक है।
- स्थान-समय-पात्र (ब्राह्मण)-वस्तु-विधि और मंत्र के साथ-साथ श्रद्धा भी अनिवार्य है।
होमश्च पिण्डदानश्च तथा ब्राह्मण भोजनम् – इस पद से श्राद्ध के तीन मुख्य अङ्ग सिद्ध होते हैं – होम, पिण्डदान और ब्राह्मण भोजन। प्रेतश्राद्ध में होम नहीं होता किन्तु सपिण्डी में होम होता है, क्योंकि सपिण्डी में पार्वण विधि भी होती है। वर्तमान युग में अपात्रक श्राद्ध होने से ब्राह्मण भोजन भी श्राद्ध के अंत में होता है।
किन्तु एक विषय विचारणीय है कि प्रेत श्राद्ध में द्वादशाह के दिन लगभग सम्पूर्ण दिन श्राद्ध ही होता रहता है और ऐसी स्थिति में कई जगहों पर ब्राह्मण को भर दिन भूखा ही रहना पड़ता है जो श्राद्ध नियम के विरुद्ध है। मध्य में भोजन नहीं किया जा सकता किन्तु भूखे भी नहीं रहना चाहिये अतः फलाहार की पर्याप्त व्यवस्था रहनी चाहिये और जब भी ब्राह्मण क्षुधित लगें फलाहार कराना चाहिये।
श्राद्ध के प्रकार
मत्स्यपुराण में श्राद्ध के तीन प्रकार बताये गये हैं : ‘नित्यं नैमित्तिकं काम्यं त्रिविधं श्राद्धमुच्यते । – मत्स्यपुराण, अध्याय १६, श्लोक ५ अर्थात, श्राद्ध के तीन प्रकार हैं – नित्य, नैमित्तिक एवं काम्य ।
नित्यं नैमित्तिकं काम्यं वृद्धिश्राद्धं तथैव च। पार्वणं चेति मनुना श्राद्धं पञ्चविधं स्मृतं॥ – यमस्मृति में और मनु महाराज ने पांच प्रकार के श्राद्ध बताये हैं – नित्य, नैमित्तिक, काम्य, वृद्धि और पार्वण।
- नित्य श्राद्ध : प्रतिदिन किए जानेवाले श्राद्ध को नित्य श्राद्ध कहते हैं । इसमें केवल जल-तिल से तर्पण किया जाता है।
- नैमित्तिक श्राद्ध : एकोद्दिष्ट को ही नैमित्तिक श्राद्ध कहा जाता है।
- काम्य श्राद्ध : विशेष कामना की पूर्ति के लिए किए जानेवाले श्राद्ध को काम्य श्राद्ध कहते हैं । फलप्राप्ति के उद्देश्य से विशेष दिन, तिथि एवं नक्षत्र पर श्राद्ध करने से विशेष फल की प्राप्ति होती है । :- त्रिपिंडी श्राद्ध pdf सहित – विधि और मंत्र, पितृदोष शांति के उपाय
- वृद्धि श्राद्ध : विवाहादि मांगलिक कार्यों, वृद्धि के अवसरों पर वृद्धि श्राद्ध किया जाता है। :- वृद्धि श्राद्ध विधि अर्थात आभ्युदयिक श्राद्ध विधि
- पार्वण : अमावस्या आदि पर्व तिथियों पर किया जाने वाला श्राद्ध पार्वण श्राद्ध कहलाता है। :- पार्वण श्राद्ध विधि
विश्वामित्र ने श्राद्ध के द्वादश भेद बताये हैं :
नित्यं नैमित्तिकं काम्यं वृद्धिश्राद्धं सपिण्डनं। पार्वणञ्चेति विज्ञेयं गोष्ठ्यां शुद्ध्यर्थमष्टकम् ॥
कर्म्माङ्गं नवमं प्रोक्तं दैविकं दशमं स्मृतम् । यात्रार्थैकादशं प्रोक्तं पुष्ट्यर्थं द्वादशं स्मृतम् ॥
क्रियाविधि के आधार पर श्राद्ध के मुख्य 2 प्रकार हैं :- 1. एकोद्दिष्ट और 2. पार्वण । इसी प्रकार 3 गौण प्रकार और होते हैं – 3. आमश्राद्ध, 4. हेमश्राद्ध और 5. घृतश्राद्ध ।
एकोद्दिष्ट श्राद्ध :- जो श्राद्ध एक पितर के लिये किया जाता है अर्थात् जिस श्राद्ध में मात्र एक पिण्ड हो उसे एकोद्दिष्ट श्राद्ध कहते हैं। एकादशाह को एक पिण्ड दान होता है, मासिक श्राद्धों में एक पिण्ड दान होता है, वार्षिक श्राद्ध में एक पिण्ड दान होता है इसलिए ये सभी एकोद्दिष्ट श्राद्ध के उदाहरण हैं। एकोद्दिष्ट श्राद्ध में देव (विश्वेदेव) श्राद्ध, अग्नौकरण नहीं होता है।
पार्वण श्राद्ध :- अमावस्या, पूर्णिमा, संक्रांति आदि पर्व तिथियों पर किया जाने वाला श्राद्ध भी पार्वणश्राद्ध कहलाता है जो पूर्व में चर्चा हो चुकी है। किन्तु पार्वण एक क्रिया विधि भी है। पार्वण श्राद्ध में देव श्राद्ध भी होता है और अग्नौकरण भी। पार्वण श्राद्ध में 3 से 12 तक पिण्ड होते हैं और इस कारण पिण्ड संख्या के आधार पर इसके चार भेद होते हैं :-
- त्रिपौरुष – जब तीन पिण्ड दान किया जाय तो वह त्रिपौरुष श्राद्ध कहलाता है। जैसे सपिण्डिकरण श्राद्घ भी क्रिया विधि के आधार पर पार्वण श्राद्ध ही है और इसमें तीन पिण्ड ही होते हैं। जिसके माता और मातामह जीवित हों वह महालय श्राद्ध में भी 3 पिण्ड दान ही करेगा अतः वह त्रिपौरुष श्राद्ध होगा।
- षड्दैवत्य – जिस पार्वण श्राद्ध में 6 पिंडदान होते हैं उसे षड्दैवत्य कहा जाता है। षड्दैवत्य श्राद्ध में पिता, पितामह और प्रपितामह 3 पितृपक्ष के लिये एवं मातामह, प्रमातामह और वृद्धप्रमातामह के लिये 3 कुल 6 पिण्डदान होते हैं। इसमें पुरुष वर्ग को सप्तनीक माना जाता है।
- नवदैवत्य – जिस पार्वण श्राद्ध में 9 पिंडदान होते हैं उसे नवदैवत्य कहा जाता है। षड्दैवत्य श्राद्ध में ही माता, पितामही और प्रपितामही के लिये 3 पिण्ड और करने पर वह नवदैवत्य हो जाता है।
4. द्वादशदैवत्य – द्वादशदैवत्य श्राद्ध में 12 पिण्ड दान किया जाता है। नवदैवत्य श्राद्ध में मातामही, प्रमातामही और वृद्धप्रमातामही के 3 पिण्ड अधिक करने पर द्वादशदैवत्य हो जाता है।
श्राद्ध द्रव्य की पितर को प्राप्ति
यथा गोषु प्रनष्टो वै वत्सो विन्दतिलातरम्। एवं श्राद्धेऽन्नमुद्दिष्टं मन्त्रः प्राप्यते पितॄन्॥
नामगोत्रं पितॄणान्तु प्रापकं हव्यकव्ययोः। नाममन्त्रैस्तथोद्देशो भवान्तरगतानपि॥
प्राणिनः प्रीणयन्त्येते तदाहारत्वमागताः। देवो यदि पिता जातः शुभकर्मानुसारतः॥
श्राद्धान्नममृतं भूत्वा देवत्वेऽप्यनुगच्छति। दैत्यत्वे भोग्यरूपेण पशुत्वे च तृणं भवेत्॥
श्राद्धान्नंवायुरूपेण नागत्वेऽप्यनुगच्छति। पानं भवति यक्षत्वेगृध्रत्वे च तथामिषम्॥
दनुजत्वे तथा मांसं प्रेतत्वेरुधिरोदकम्। मानुषत्वेऽन्नपानादि नानाभोगरसंतथा ॥
कुछ महत्वपूर्ण प्रश्न जो श्राद्ध द्रव्य के पितृ प्राप्ति विषयक हैं वो इस प्रकार हैं :
- श्राद्ध का द्रव्य तो ब्राह्मण ले जाते हैं, भोजन ब्राह्मण करते हैं तो वह पितर को कैसे प्राप्त होता है ?
- गीता व अनेक पुराणों में तो यह कहा गया है कि एक देह छोड़ने के बाद देही पुनः दूसरे देह को प्राप्त करता है फिर उसे कैसे प्राप्त होगा ?
उपरोक्त श्लोकों में इसी का उत्तर दिया गया है जिसका भाव यह है कि मृतक अपने कर्मानुसार जिस किसी भी देह को प्राप्त करता है पुत्रादि द्वारा श्राद्ध में जो दिया जाता है वह उसके देह के अनुसार परिवर्तित रूप में उसे प्राप्त होता है। जैसे यदि देवता बने तो अमृत, दैत्य को भोग, पशु को तृण (घास आदि) प्रकार से परिवर्तित रूप में प्राप्त होता है।
पुनः प्रश्न यह है कि सभी वस्तु तो ब्राह्मण प्राप्त करते हैं और भोग करते हैं, ये परिवर्तित कैसे हो सकता है ? इत्यादि

कोई भी वस्तु नष्ट नहीं होती मात्र स्वरूप में परिवर्तन होता है। ये परिवर्तित होने की क्रिया आँखों द्वारा दिखे यह आवश्यक नहीं है। जैसे माता वही अन्नादि बच्चे के जन्म से पूर्व भी भक्षण करती है और बच्चे के जन्म देने के बाद भी। जब तक कोई स्त्री बच्चे को जन्म नहीं देती उसके स्तनों में दुग्ध उत्पन्न नहीं होता, किन्तु जब कोई स्त्री बच्चे को जन्म देती है तो बच्चे की आवश्यकता के अनुकूल माता द्वारा भक्षण किया गया वही अन्नादि दुग्ध रूप में परिवर्तित होकर बच्चे को स्तन द्वारा प्राप्त होता है।
- क्या माता द्वारा भक्षण किया गया अन्नादि को दुग्ध में परिवर्तित होते हुये किसी ने देखा है ?
- क्या आवश्यकता अर्थात उचित समय से पूर्व वह अन्नादि दुग्ध में परिवर्तित होता है ?
- क्या आवश्यक होने पर अर्थात उचित समय पर वही अन्नादि दुग्ध में परिवर्तित नहीं होता ?
अब पुनः एक प्रश्न आता है कि कई बार दुग्ध नहीं भी उत्पन्न होता है, ऐसा क्यों ? यह सिद्धांत तो खंडित हो जाता है।
लेकिन इस प्रश्न से यह सिद्धांत खण्डित नहीं होता अपितु और पुष्ट होता है। जिस बच्चे ने जन्म लिया है उसे किस कर्म के आधार पर दुग्धादि प्राप्त होगा ? उसके पूर्व कर्मों और पुत्रादिकों द्वारा किये गए श्राद्ध के आधार पर। बच्चे के शरीर में जो देही है उसका पूर्वकर्म भी अप्राप्ति का कारक होगा और उसके पुत्रों ने श्राद्ध भी नहीं किया होगा जिससे उसे प्राप्त हो।
यही कारण है कि एक कुत्ता गली-गली पत्थर खाता है और एक कुत्ता सामान्य मनुष्यों के लिये दुर्लभ सुख-सुविधा प्राप्त करता है। एक वृक्ष के मूल में श्वान मूत्रोत्सर्ग करता है और एक वृक्ष को केवल जल ही प्राप्त नहीं होता पूजा भी की जाती है। एक मनुष्य आजीवन दरिद्र रहता है और एक मनुष्य जन्म से ही सोने के पालने में झूलता है।
श्राद्ध की त्रयोदश क्रिया
पादार्घमासनं चार्घ्यं अर्चनं चान्नकल्पनम् । अवनेजनं पिंडदानं प्रत्यवनेजनार्चनम् ॥
सुप्रोक्ष्य दक्षिणादानं प्रच्छादीपं तु कारयेत् । त्रयोदशैव कर्माणि कर्तव्यानि मनीषिभिः ॥
श्राद्ध प्रयोग
क्षणः पादार्घमादौ स्यात् प्राणायामः तथैव च।
मधुमतीं च गायत्रीं दिग्बंधो नीवीबंधनम्॥
श्राद्धभूमौ इति पठेत् यद्देवा देवहेडनम्।
पाकस्य प्रोक्षणं पश्चात्प्र योग उच्चारणं तत: ॥
आसनावाहने चैव ह्यर्घो न्युब्जं तथार्चनम्।
अग्नौ पात्रान्नसंकल्पः विकिरः चावनेजनम्॥
पिंड प्रत्यवनं चार्चा प्रोक्षं अक्षय्य आशिष: ।
स्वधा ऊर्जं दक्षिणा पृच्छा चालनं स्वस्तिवाचनम्॥
श्राद्ध में क्या भोजन बनाना चाहिए
श्राद्ध में शुद्ध और सात्विक भोजन बनाना चाहिये। श्राद्ध के भोजन को दो भागों में समझना चाहिये – प्रथम भाग वो है जिसमें पितर के लिये ब्राह्मण को या दर्भबटु को प्रदान किया जाता है और दूसरा भाग वो है जिसमें भोज किया जाता है।
- पितर के लिये चावल का भात या खीर, केला-ओल की सब्जी, दही, मधु, घृत आदि भोजन का प्रबंध करना चाहिये।
- पुनः दूसरे प्रकार में भोज के भी कई प्रकार होते हैं – ब्राह्मण भोज, भइयारी भोज और निमंत्रित अतिथि भोज ।
- ब्राह्मण भोज में विविध पक्वान्नों के साथ मधुर (मिष्टान्न) का अधिक महत्व होता है एवं ब्राह्मण को भोजन के बाद भोजनदक्षिणा भी प्रदान करना आवश्यक होता है। मिथिला के ब्राह्मण भोजन में पक्वान्नों की अपेक्षा दही-चूड़ा का भोज अधिक महत्वपूर्ण होता है। इसके साथ ही सभी देशों के लिये पायस (खीर) भी ब्राह्मण भोजन के लिये उत्तम माना गया है, किन्तु पायस भोजन के लिये एक अनिवार्य शर्त यह होता है कि पायस बनाने वाला भी ब्राह्मण ही होना चाहिये।
- भइयारी भोज में भात (चावल) का अधिक महत्व होता है । यद्यपि वर्त्तमान में भइयारी भोजन का निर्माण भी हलवाई द्वारा कराया जाने लगा है, किन्तु भइयारी भोज के भात आदि का निर्माण स्वयं (बंधु-बांधवों सहित) ही करना आवश्यक होता है।
- निमंत्रित अतिथि के लिये भात का भोज नहीं होता पूरी-पक्वान्न-मिष्टान्नादि करना चाहिये। पूरी-पक्वान्न-मिष्टान्नादि पवित्रात्मा हलवाई द्वारा बनवाया जा सकता है।
- कभी-कभी सबका सम्मिलित भोज होता है तो उसमें भी पूरी-पक्वान्न-मिष्टान्न आदि का भोजन बनाया जाता है।
श्राद्ध भोजन के संबंध में प्रायः ऐसा भी देखा जाता है कि बहुत लोग श्राद्ध का भोजन नहीं करते हैं। लेकिन यह कोई मनमाना आचरण नहीं है इसका विधान शास्त्र से ही है। जिसका मंगलकार्य (विवाहादि) हुआ हो उसे वर्षपर्यंत श्राद्ध का भोजन नहीं करना चाहिये आदि-आदि। परन्तु मनमाना यह है कि बहुत सारे ब्राह्मण जो श्राद्ध कर्म में विभिन्न प्रकार से भाग लेते हैं उनमें से भी कुछ श्राद्ध का भोजन न करने की बात करते हैं।
इस प्रकार श्राद्ध का भोजन करना चाहिये या नहीं यह विचार करना अपेक्षित है ….
16 श्राद्ध में क्या करना चाहिए
किसी मृतक के लिये जो श्राद्ध किया जाता है उसे षोडशी श्राद्ध कहते हैं। षोडशी श्राद्ध भी तीन प्रकार के होते हैं मलिन षोडशी, मध्यम षोडशी और उत्तम षोडशी। मलिन षोडशी सर्वत्र प्रचलित है, किन्तु मिथिला में मुख्य रूप से मात्र दशगात्र पिण्डदान का व्यवहार है दाह पूर्व के 6 पिंड नहीं देखा जाता। मध्यम षोडशी सर्वत्र नहीं किये जाते हैं। उत्तम षोडशी सर्वत्र प्रचलित है। षोडशी अर्थात 16 श्राद्ध का तात्पर्य है 16 पिण्ड प्रदान करना। षोडश श्राद्ध और विधि की विस्तृत चर्चा आगे करेंगे। षोडश श्राद्ध विधि पर जायें :- षोडश श्राद्ध विधि
श्राद्ध कब नहीं करना चाहिए
- यदि श्राद्ध आरम्भ करने से पहले अशौच हो जाये तो श्राद्ध नहीं करना चाहिये।
- श्राद्ध पूर्वाह्न में भी नहीं करना चाहिये। मात्र एक नान्दी श्राद्ध ही पूर्वाह्न में करना चाहिये।
- श्राद्ध रात में भी नहीं करना चाहिये क्योंकि रात में श्राद्ध करना शास्त्रों में निषिद्ध बताया गया है।
श्राद्ध करने से लाभ
श्राद्ध द्वारा पितरों को तृप्त करना पुत्र का कर्तव्य होता है। जो पुत्र विधि पूर्वक श्राद्ध करके पितरों को तृप्त करता है उसके पितर प्रसन्न होकर आशीर्वाद प्रदान करते हैं। लाभ पर विचार करने से पहले हमें यह दृढ निश्चय कर लेना चाहिये कि जो उत्तरदायित्व है, धर्म है, कर्तव्य है, उसके करने में लाभ-हानि जो भी हो उसका पालन अवश्य करेंगे। लेकिन सभी स्वार्थी होते हैं यह ऋषि-महर्षियों को भी ज्ञात था, यदि लाभ न दिखे तो धर्मपालन भी नहीं करेगा, व्रत-यज्ञ-श्राद्ध कुछ भी नहीं करेगा। इसलिये प्रत्येक कर्म का लाभ भी शास्त्रों में बताया गया है :
पिता ददाति सत्पुत्रान् गोधनानि पितामहः । धनदाता भवेत्सोऽपि यस्तस्य पितामहः ॥
दद्याद्विपुलमन्नाद्यं वृद्धस्तु प्रपितामहः । तृप्ताः श्राद्धेन ते सर्वे दत्त्वा पुत्रस्य वाञ्छितम् ॥
गच्छन्ति धर्ममार्गेश्च धर्मराजस्य मन्दिरम् । तत्र धर्मसभायां ते तिष्ठन्ति परमादरात् ॥ – गरुडपुराण
गरुडपुराण में कहा गया है पुत्र द्वारा किये गये श्राद्ध से तृप्त पितर आर्शीवाद देते हैं, कल्याण और रक्षा करते हैं। पिता प्रसन्न हो तो सत्पुत्र प्रदान करता है, पितामह गो आदि पशु और धन प्रदान करते हैं, प्रपितामह विपुल अन्नादि प्रदान करते हैं या वृद्धि करते हैं, भलीभांति तृप्त होने पर पितर मनोवांछित फल भी प्रदान करते हैं। और जिसका पुत्र भलीभांति श्राद्ध करता है उसके पितर धर्मराज की धर्मसभा में विराजते हुये आदर-सत्कार पाते हैं।
आयुः पुत्रान् यशः स्वर्गं कीर्तिं पुष्टिं बलं श्रियं । पशुं सौख्यं धनं धान्यं प्राप्नुयात् पितृपूजनात् ॥ – यमस्मृति में बताया गया है कि पितृ पूजन अर्थात श्राद्ध से पुत्रों को आयु, पुत्र, यश, स्वर्ग, कीर्ति, पुष्टि, बल, श्री, पशु, सुख, धन और धान्यादि सभी की प्राप्ति होती है।
आयुः प्रजां धनं विद्यां स्वर्गं मोक्षं सुखानि च । प्रयच्छन्ति तथा राज्यं नृणां प्रीताः पितामहा ॥ – याज्ञवल्क्य का वचन है कि पितामह प्रसन्न होने पर आयु, पुत्र, धन, विद्या, स्वर्ग, मोक्ष, सुख, राज्य सब कुछ प्रदान कर सकते हैं या करते हैं।
श्राद्ध नहीं करने से दोष
न सन्ति पितरश्चेति कृत्वा मनसि यो नर:। श्राद्धं न कुरूते मोहातस्य रक्तं पिबन्ति ते ॥ – आदित्य पुराण में कहा गया है कि जो व्यक्ति यह सोचता है कि ये सब मेरे पितर नहीं हैं अथवा पितर नहीं होते हैं, और इस मोह के कारण श्राद्ध नहीं करता उसके अतृप्त क्षुधा-तृष्णा से व्याकुल पितर उसी का रक्त (खून) पीते हैं।
“पितरस्तस्य शापं दत्त्वा प्रयान्ति च” – नागरखण्ड में कहा गया है जो श्राद्ध नहीं करते अथवा विधि का पालन किये बिना मनमाना आचरण करते हैं उसके पितर अतृप्त रहने से श्राप देकर चले जाते हैं।
न च वीराः प्रजायन्ते नाऽरोगाः न शतायुषः । न च श्रेयांसि वर्तन्ते यत्र श्राद्धं विवर्जितम् ॥ – हारीत स्मृति में कहा गया जहां श्राद्ध नहीं किया जाता वहां वीर पुत्र जन्म नहीं लेते, न ही निरोगी होते हैं, न ही शतायु होते हैं और वहां कल्याण या शान्ति नहीं रहती।
पुत्र अपने पितरों का ऋणी होता है और श्राद्ध करके पितरों को तृप्त करना उसका कर्तव्य होता है। जो अपने कर्तव्य का पालन नहीं करता कर्मच्युत होने पर उसे पतित कहा जाता है। पतित व्यक्ति नरक का भागी होता है। और ऐसे पुत्रों को पितर आशीर्वाद नहीं प्रदान करते हैं।
विशेष आपदाओं के समय रक्षा भी नहीं करते। विशेष आपदा/संकट/अनहोनी के समय पितर ही अपने पुत्रों की सर्वाधिक रक्षा करते हैं। लेकिन जो अपने पितरों को श्राद्ध से तृप्त नहीं करता उसके पितर रक्षा भी नहीं करते। श्राद्ध नहीं करने वाला व्यक्ति पितृदोष का भागी बनता है जो जन्म-जन्मांतर तक परेशान करता है।
तर्काधार लेकर यह कहा जा सकता है कि मनुष्य स्वयं के बारे में भी विचार करे कि कुछ वर्षों बाद वह भी मृत्यु को प्राप्त करेगा और अपने पुत्रादिकों का पितर होगा। यदि वर्त्तमान में वह श्राद्ध द्वारा पितरों को तृप्त नहीं करेगा तो उसके पुत्रादि भी भविष्य में उसका श्राद्ध नहीं करेंगे और वह स्वयं भी उस समय क्षुधा-तृष्णा से पीड़ित होगा, नरक यातना सहेगा। उसके स्वयं की दुर्गति न हो इसलिये भी पुत्रादि को शुभकर्म का संदेश देते हुये श्राद्ध करे।
श्राद्ध में विशेष महत्वपूर्ण
- स्कंदपुराण में कहा गया है कि पितरों की तृप्ति के लिये तुलसी की छाया में श्राद्ध करना चाहिये।
- पद्मपुराण में कहा गया है कि शिवलिङ्ग और शालिग्राम की अर्चना और पीठ पर स्थापन करके श्राद्ध करना पितरों के लिये करोड़ों कल्प तक स्वर्ग का प्रदायक होता है।
- श्राद्ध में दौहित्र (नाती), कुतुप और तिल को विशेष महत्वपूर्ण कहा गया है।
- श्राद्ध भोजन में मधु को विशेष तृप्तिकारक बताया गया है।
- श्राद्ध में कुतुप को अत्यधिक महत्वपूर्ण बताया गया है।
श्राद्ध में वर्जित
- म्लेच्छ देश (अपवित्रभूमि) और आकाश का श्राद्ध में निषिद्ध है या पहले भी निषेध बताया जा चुका है।
- रात में और संध्याकाल में भी श्राद्ध करने का निषेध है।
- घंटा का बजाना श्राद्ध में निषिद्ध है।
- गर्दभ की निकटता निषिद्ध है।
- द्रोण, कनेर, केतकी, अगस्त्य, चंपा, शमी आदि पुष्पों का श्राद्ध में निषेध है।
- तुलसीपत्र, बिल्वपत्र, कमल के पत्ते आदि का श्राद्ध में निषेध है।
- कलयुग में “देवराच्च सूतोत्पत्ति” का निषेध बताने से क्षेत्रज पुत्र का भी निषेध हो जाता है। यह विचारणीय है कि वर्तमान में जिनको संतान प्राप्ति नहीं होती उनमें क्षेत्रज पुत्रोत्पत्ति का प्रचलन भी बढ़ता जा रहा है।
श्राद्ध सामग्री लिस्ट
श्राद्ध करने के लिये अनेकानेक सामग्रियों की आवश्यकता होती है और उसे जानना व समझना भी आवश्यक होता है। सर्वप्रथम तथ्य तो यह है कि श्राद्ध का तात्पर्य ही होता है पितरों के उद्देश्य से ब्राह्मणों को भोजन, दानादि प्रदान करना। तथापि बहुत लोगों के मन में ऐसे भाव भी होते हैं कि श्राद्ध का तात्पर्य मंत्रों को पढ़ना मात्र होता है किन्तु यह अनुचित भाव होता है। श्राद्ध सामग्री में पिण्डदान सामग्री को अलग और दान सामग्री को अलग करके समझना अधिक आवश्यक हो जाता है।
श्राद्ध सामग्रियों को समझने के लिये यह लेख विशेष महत्वपूर्ण है : श्राद्ध सामग्री लिस्ट pdf सहित – shraddh samagri
प्रेत श्राद्ध
श्राद्ध विषयक चर्चा में प्रेत श्राद्ध विशेष महत्वपूर्ण है और यह इतना महत्वपूर्ण है कि सामान्य जनमानस श्राद्ध का तात्पर्य ही प्रेत श्राद्ध समझ बैठते हैं जबकि प्रेत श्राद्ध मात्र एक लघु अंग है और मात्र एक बार ही किया जाता है। प्रेत श्राद्ध (सपिंडीकरण पर्यन्त) हो जाने के बाद दुबारा प्रेत श्राद्ध नहीं होता किन्तु क्षयाह (वार्षिक) श्राद्ध, पार्वण श्राद्ध आदि बारम्बार जीवन पर्यन्त होते रहते हैं। यद्यपि नारायणबलि भी प्रेत से ही सम्बद्ध है तथापि प्रेत श्राद्ध का मुख्य तात्पर्य षोडशी अथवा षोडश श्राद्ध है। प्रेत श्राद्ध से सम्बंधित जानकारी इस आलेख में दी गयी है : श्राद्ध कर्म विधि मंत्र की विस्तृत जानकारी – shraddh Karm
विधिवत् श्राद्ध करने के इच्छुक व्यक्ति यदि संपर्क करना चाहें तो संपर्क कर सकते हैं, सम्पर्क सूत्र – 9279259790. विधिवत् श्राद्ध करना प्रचलित विधि की अपेक्षा जटिल है यह ध्यान रखें। प्रचलित व्यवहार में भोज और प्रदर्शन को प्रधान और श्राद्ध को अङ्ग समझ लिया गया है। विधिवत् श्राद्ध करने वाले को श्राद्ध कर्म प्रधान और भोज को उसका अङ्ग स्वीकार करना होगा एवं प्रदर्शन का कोई स्थान नहीं होगा।
नान्दीमुख श्राद्ध विधि pdf श्राद्ध पद्धति book
कर्मकांड विधि में शास्त्रोक्त प्रमाणों के साथ प्रामाणिक चर्चा की जाती है एवं कई महत्वपूर्ण विषयों की चर्चा पूर्व भी की जा चुकी है। तथापि सनातनद्रोही उचित तथ्य को जनसामान्य तक पहुंचने में अवरोध उत्पन्न करते हैं। एक बड़ा वैश्विक समूह है जो सनातन विरोध की बातों को प्रचारित करता है। गूगल भी उसी समूह का सहयोग करते पाया जा रहा है अतः जनसामान्य तक उचित बातों को जनसामान्य ही पहुंचा सकता है इसके लिये आपको भी अधिकतम लोगों से साझा करने की आवश्यकता है।