ज्योतिष शास्त्रों में तीन प्रकार के गण्डान्त बताये गये हैं : नक्षत्र गण्डान्त, तिथि गण्डान्त और लग्न गण्डान्त। नक्षत्र गण्डान्त से ही राशि गण्डान्त की भी सिद्धि हो जाती है अतः राशि गण्डान्त की पृथक चर्चा नहीं होती। तिथि गण्डान्त और लग्न गण्डान्त की भी शांति करनी चाहिये किन्तु नक्षत्र गण्डान्त की ही शांति की जाती है। नक्षत्र गण्डान्त शांति की विधि तो समान ही होती है किन्तु कुछ विशेष क्रियायें यथा गोमुख प्रसव, नक्षत्र शांति स्नान आदि पूर्व ही की जाती है तो किसी क्षेत्र में पश्चात्। इस आलेख में मूल शान्ति विधि और उसके पूजा हवन के मंत्रादि दिया गया है।
मूल शांति पूजन विधि – mool shanti puja vidhi
तीन प्रकार के गण्डान्त में से एक है नक्षत्र गण्डान्त। नक्षत्र गण्डान्त में यद्यपि 6 नक्षत्र आते हैं किन्तु इन सबमें सबसे अधिक अशुभ मूल नक्षत्र होता है इसी कारण इसे गंडमूल भी कहा जाता है।
मूल शांति क्या होता है
मूल सत्ताईस नक्षत्रों में से एक नक्षत्र का नाम है और सम्पूर्ण मूल को ही दोषद कहा गया है। गण्डान्त नक्षत्रों में से सर्वाधिक दोषद होने के कारण मूल में जन्म होने पर दोष की विधि पूर्वक शांति की जाती है जिसे मूल शांति कहा जाता है। किन्तु मूल शांति का तात्पर्य मात्र मूल नक्षत्र की शांति नहीं होती है, क्योंकि अन्य दोषद नक्षत्रों में जन्म होने पर भी एक ही विधि से शांति होती है मात्र नक्षत्र जप-पूजा-हवन-मंत्र में परिवर्तन होता है। इस कारण मूल शांति का व्यापक तात्पर्य नक्षत्र गण्डान्त शांति होता है।
मूल नक्षत्र कितने होते हैं
मूल स्वयं ही एक नक्षत्र है, किन्तु गण्डान्त नक्षत्रों में 6 नक्षत्रों की गणना की जाती है। गण्डान्त नक्षत्र हैं – अश्विनी, अश्लेषा, मघा, ज्येष्ठा, मूल और रेवती। जैसा का गण्डान्त के 6 नक्षत्रों में से एक मूल भी है किन्तु सर्वाधिक दोषकारक होने से इसकी प्रधानता हो जाती है और व्यावहारिक रूप से मूल शांति, मूल नक्षत्र आदि पद का प्रयोग नक्षत्र गण्डान्त के लिये ही किया जाता है।
पूषाश्विनौ गुरुः सार्पं मघाचित्रैन्द्र मूलभे ऋक्षेष्वेत्तेषु जातस्य कुर्याद्यगोप्रसवं तथा॥
मूल शांति पूजन पद्धति
जनननक्षत्र के दिन जातक के माता-पिता नित्यकर्मादि करने के पश्चात् मूल शांति की सभी व्यवस्था करके संकल्प करे। संकल्पादि मंत्र आगे दिये गये हैं, उससे पूर्व मूलशांति करने के लिये व्यवस्था संबंधी जानकारी दी जा रही है, क्योंकि पूजा और व्यवस्था दोनों एक साथ नहीं की जा सकती इसलिये प्रथमतः व्यवस्था करके पूजादि का आरम्भ किया जाता है।
प्रथमतया गणेशाम्बिका पूजन करके गोमुखप्रसव किया जाता है अतः एक व्यवस्था गोमुखप्रसव की करनी होती है और एक व्यवस्था पूजा हवन की करनी होती है। गणेशाम्बिका पूजन गोमुखप्रसव से पूर्व ही करना चाहिये। शेष पूजा-हवन गोमुखप्रसव के पश्चात्। यदि स्थानाभाव हो तो संकल्प करके किसी पात्र में अष्टदल/स्वास्तिक निर्माण कर गणेशाम्बिका पूजन करके गोमुखप्रसव करके फिर शेष पूजा-हवन की व्यवस्था करे और यदि स्थानाभाव न हो तो सभी व्यवस्था प्रथम ही कर ले।
गोमुखप्रसव की व्यवस्था : पवित्र मंडलकृत भूमि पर श्वेताष्टदल निर्माण कर उसके ऊपर द्रोण परिमित (१० सेर) व्रीहि का पुंज बनाये। उसके ऊपर नया सूप रखे, सूप पर रक्तवस्त्र बिछाये फिर तिल से पूरित कर दे। उसी तिल पर जातक को पूर्वाभिमुख सुलाये। फिर मौली आदि से शूर्प सहित जातक को वेष्टित करके शिशु के समीप गोमुख लाये और गोमुख से शिशु के जन्म होने का भाव करते हुये अगले मंत्रों को पढ़े। व्यवहार में यह क्रिया गोद में लेकर करना सुरक्षित प्रतीत होता है। मंत्र आगे पूजा विधि काल में दिया गया है।
शांति-पूजा-हवन की व्यवस्था : शांतिकर्म हेतु निर्धारित भूमि पर मध्यभाग में हवन वेदी का निर्माण करे। उसके पूर्वभाग में पूजा वेदी का निर्माण करे। पूजा वेदी के ऊपर श्वेतवस्त्र प्रसारित करके २४ दलों का पद्म बनायें एवं उसके बाहर तीन परिधि इन्द्रादिलोकपालों हेतु बनायें । ईशानकोण (हवन वेदी के ईशान) में नवग्रह वेदी का निर्माण करे। पूजा समग्रियां व्यवस्थित कर ले। पंचगव्य का निर्माण कर ले।
मूल शांति विधि
यहां शांतिविधि में “पूजा क्रमावली अर्थात अनुक्रमणिका” का भी ध्यान रखा गया है एवं तदनुसार ही विधि दिये गये हैं।
उपरोक्त व्यवस्था करके सत्पनीक यजमान पूर्वाभिमुख होकर शुभ आसन पर बैठे। सर्वप्रथम पवित्रीकरण, स्वस्तिवाचनादि करके संकल्प व गणेशाम्बिका पूजन करे तत्पश्चात गोमुखप्रसव :
- सर्वप्रथम पवित्रीकरणादि करे।
- तत्पश्चात शान्ति पाठ अर्थात स्वस्तिवाचन करे।
मूल शांति विधि का संकल्प
जातक के माता-पिता नित्यकर्मादि करने के पश्चात् मूल शांति हेतु जनननक्षत्र के दिन सर्वप्रथम त्रिकुशा, तिल, जल, पुष्प, चन्दन, द्रव्यादि लेकर संकल्प करे :
संकल्प : ॐ अद्यैतस्य ब्रह्मणोऽह्नि द्वितीये परार्धे श्रीश्वेत वाराहकल्पे वैवस्वत मन्वन्तरे अष्टाविंशतितमे कलियुगे कलि प्रथमचरणे मासानां मासोतमे मासे ………. मासे ………… पक्षे ………… तिथौ ………… वासरे ………… गोत्रोत्पन्नः ………… शर्माऽहं (वर्माऽहं/गुप्तोऽहं) सपत्नीकोऽहं मूलनक्षत्रजननसूचितपित्रादि सर्वाऽरिष्ट परिहारार्थं मूल-शांतिं करिष्ये ॥ (यदि अन्य नक्षत्र की शांति हो तो मूल के स्थान पर उस नक्षत्र का नाम उच्चारण करे)
आचार्यवरण : संकल्पोपरांत आचार्यवरण करे, आचार्यवरण हेतु आचार्य वरण सामग्री त्रिकुशा-तिल-जल-पुष्पाक्षतद्रव्यादि लेकर पढ़े : ॐ अद्य कर्त्तव्य मूलशांति कर्मणि आचार्यकर्मकर्तुं एभिः वरणीय वस्तुभिः …………गोत्रं …………. शर्माणं ब्राह्मणं आचार्यत्वेन त्वामहं वृणे॥ तिल-जल वरण-सामग्री पर छिड़क कर आचार्य को प्रदान करे।
- आचार्य कहें – “वृत्तोस्मि”
- पुनः यजमान कहे – “यथाविहितं कर्म कुरु”
- पुनः आचार्य कहें – “कर्वाणि”
- आचार्यादि वरण करके दिग्रक्षण करे।
दिग्बंधन के पश्चात् गणेशाम्बिका पूजन करे, गणेशाम्बिका पूजन की विधि पूर्व आलेख में प्रकाशित है यदि देखना हो तो यहां क्लिक करके देखें : गणेशाम्बिका पूजन
गोमुखप्रसव
तत्पश्चात गोमुखप्रसव की व्यवस्था के अनुसार सर्वप्रथम गोमुख प्रसव करे। गोमुखप्रसव के लिये धान्यपुंज पर रक्तवस्त्रावेष्टित शूर्प में तिलपुंज पर जातक को पूर्वाग्र रखकर मौली आदि से वेष्टित करके उसके निकट गोमुख लाने की व्यवस्था बताई गयी है। उक्तकाल में अधिकांशतः सुरक्षाभाव के कारण गोद में ही धारण कर लिया जाता है। उसी काल में गोमुख से जातक के प्रसव होने की भावना करते हुये अगले मंत्रों को पढ़े :
ॐ विष्णुर्योनिं कल्पयतु त्वष्टा रूपाणि पिंशतु । आ सिञ्चतु प्रजापतिर्धाता गर्भं दधातु ते ॥
ॐ गर्भं धेहि सिनीवालि गर्भं धेहि पृथुष्टुके । गर्भं तेऽअश्विनौ देवा वाधत्तां पुष्करस्नजौ ॥
ॐ हिरण्यमयीऽअरणीयाभ्यां निर्मन्थतामश्विनौ देवौ । तं ते गर्भं दधामहे दशमे मासि सूतवे ॥
उपरोक्त सूक्त को पढ़कर शिशु का पंचगव्य से अभ्युक्षण करे।
तत्पश्चात अगले मंत्र से गाय के सभी अंगों का स्पर्श करे : ॐ गवामङ्गेषु तिष्ठन्ति भुवनानि चतुर्दश । यस्माद् तस्माच्छिवं मे स्यादिह लोके परत्र च ॥
तत्पश्चात वस्त्रावेष्टित शिशु को देखे बिना (मुखदर्शन रहित), गाय के जघनभाग (पीछे) स्थित माता को दे : ॐ विष्णोः श्रेष्ठेन रूपेणाऽस्यां नार्यां गवीन्याम् । पुमांसं पुत्रानाधेहि दशमे मासि सूतवे ॥
माता पुनः शिशु को अन्य नये वस्त्र में स्थापित करे और पिता अगले मंत्रों द्वारा अभिषिक्त करे –
ॐ आपो हिष्ठा मयो भुवस्तानऽऊर्जे दधातन । महेरणाय चक्षसे ॥
ॐ यो वः शिवतमो रसस्तस्य भाजयतेह नः । उशतीरिव मातरः ॥
ॐ तस्माऽअरंगमाम वो यस्य क्षयाय जिन्वथ । आपोजन यथा च नः ॥
तत्पश्चात पुनः पिता उस शिशु को उठाये (शिशु का मुख ढंका रहना चाहिये) और अगले मंत्र से तीन बार शिशु का मस्तक सूंघे : ॐ अङ्गात् सम्भवसि हृदयादधिजायसे । आत्मा वै पुत्रनामासि सजीव शरदः शतम् ॥ इस मंत्र से तीन बार शिशु के मस्तक को सूंघकर पुनः माता को दे दे।
मूल शांति पूजन पद्धति
आगे मूलशांति करे, शतछिद्र कलश अथवा २७ छेद वाले कलश द्वारा माता और शिशु को स्नान करना विधिसंगत नहीं है। वह अभिषेक परक है जो विसर्जन के पश्चात की क्रिया है।
गोमुखप्रसव के उपरांत मूलशांति का आरंभ करते हुये आचार्य सर्वप्रथम हवन वेदी के पश्चिम भाग में बैठे और हवन विधि के अनुसार पंचभूसंस्कारादि पूर्वक अग्निस्थापन करे :
अग्नि स्थापन विधि
प्रायः पद्धतियों में अग्निस्थापन की विधि पूजा के अंत में दी जाती है किन्तु अग्निस्थापन करके ही पूजा करना विधिसम्मत है और शांतिकर्मों में तो विशेषरूप से पहले ही अग्निस्थापन करे। यहां प्रथमतः अग्निस्थापन की विधि ही दी जा रही है, आचार्य स्वविवेक का प्रयोग करते हुये करें।
- परिसमूह्य : ३ कुशाओं से स्थण्डिल या हस्तमात्र भूमि की सफाई करें। कुशाओं को ईशानकोण में (अरत्निप्रमाण) त्याग करे ।
- उल्लेपन : गोबर से ३ बार लीपे।
- उल्लिख्य – स्फय या स्रुवमूल से प्रादेशमात्र पूर्वाग्र दक्षिण से उत्तर क्रम में ३ रेखा उल्लिखित करे।
- उद्धृत्य – दक्षिणहस्त अनामिका व अंगुष्ठ से सभी रेखाओं से थोड़ा-थोड़ा मिट्टी लेकर ईशान में (अरत्निप्रमाण) त्याग करे।
- अग्नानयन व क्रव्यदांश त्याग – कांस्यपात्र या हस्तनिर्मित मृण्मयपात्र में अन्य पात्र से ढंकी हुई अग्नि मंगाकर अग्निकोण में रखवाए । ऊपर का पात्र हटाकर थोड़ी सी क्रव्यदांश अग्नि (ज्वलतृण) लेकर नैर्ऋत्यकोण में त्याग कर जल से बुझा दे ।
- अग्निस्थापन – दोनों हाथों से आत्माभिमुख अग्नि को स्थापित करे :- ॐ अग्निं दूतं पुरोदधे हव्यवाहमुपब्रुवे । देवां२ आसादयादिह ॥ अग्नानयन पात्र में अक्षत-जल छिरके।
- अग्निपूजन-उपस्थान – अग्नि को प्रज्वलित कर पूजा करे, नैवेद्य वायव्यकोण में देकर स्तुति करे : ॐ अग्निं प्रज्वलितं वन्दे जातवेदं हुताशनं। हिरण्यवर्णममलं समृद्धं विश्वतोमुखं ॥
अग्नि स्थापन करने के बाद अग्नि रक्षणार्थ पर्याप्त ईंधन देकर आगे का पूजन कर्म करे।
हवन वेदी के पूर्व में निर्मित पूजा वेदी जिसपर श्वेत वस्त्र प्रसारित करके चतुर्विंशतिदल पद्म निर्मित किया गया हो; के पास बैठे। यदि चतुर्विंशतिदल पद्म पहले न बनाकर इसी समय बनाना हो तो बना ले। फिर जल लेकर मध्यभाग में जहां कलश स्थापित किया जायेगा “ॐ कलशाधारशक्ते इहागच्छ इह तिष्ठ” पढ़कर अभ्युक्षण करे।
कलश स्थापन
तत्पश्चात पूजावेदी पर चतुर्विंशतिदल पद्म के मध्य में ताम्र, कांस्य, मृण्मय यथोपलब्ध कलश स्थापन करे – कलश स्थापन विधि
चारों दिशाओं में अन्य चार कलश स्थापित करे। फिर प्रधान कलश पर ताम्रपात्र में निर्ऋति की स्वर्ण प्रतिमा अथवा शालिग्राम को स्थापित करे। यदि निर्ऋति की स्वर्ण प्रतिमा हो तो अग्न्युत्तारण (संक्षिप्त) करके प्राणप्रतिष्ठा करे। यदि शालिग्राम हों तो शालिग्राम पर ही निर्ऋति का आवाहन करे।
निर्ऋति पूजन
आवाहन : ॐ असुन्वन्तमयजमानमिच्छस्तेनस्येत्यामन्विहि तस्करस्य । अन्यमस्मद्रिच्छवातऽइत्या नमो देवि निर्ऋते तुभ्यमस्तु ॥ ॐ भूर्भुवः स्वः निर्ऋते इहागच्छ इह तिष्ठ ॥
मूलदेवं विरूपाक्षो श्यामं कुणपवाहनम् । खड्गखेटधरं चोग्रं द्विभुजं च वृकाननम् ॥
आवाहयामि देवेशं मूलदेवं महाबलम् । देवदेव गणाध्यक्षमूलमावाहयाम्यहम् ॥
आवाहन करके षोडशोपचार अथवा यथोपचार पूजन करे :
- जल : एतानि पाद्यादीनि एषोऽर्घ्यः ॐ निर्ऋतये नमः॥
- गंध : इदमनुलेपनम् ॐ निर्ऋतये नमः॥
- पुष्प : इदं पुष्पम् ॐ निर्ऋतये नमः॥
- अक्षत : इदमक्षतम् ॐ निर्ऋतये नमः॥
- जल : एतानि गन्धपुष्पधूपदीपताम्बूलयथाभागनैवेद्यादीनि ॐ निर्ऋतये नमः॥
- पुष्पांजलि : एष पुष्पाञ्जलिः ॐ निर्ऋतये नमः॥
निर्ऋति पूजा करके उनके दक्षिणभाग (उत्तरदिशा) में मूल नक्षत्र से पूर्व के नक्षत्र ज्येष्ठा के देवता इन्द्र की पूजा करे :
- इन्द्र आवाहन पूजन : ॐ त्रातारमिन्द्रमवितारमिन्द्र ᳪ हवे हवे सुहव ᳪ शूरमिन्द्रम्, ह्वायामि शक्रम्पुरुहूतमिन्द्र ᳪ स्वस्ति नो मघवा धात्विन्द्रः॥ ॐ ऐरावतगजारुढ़ं सहस्राक्षं शचीपतिम् । वज्रहस्तं सुराधीशमिन्द्रमावाहयाम्यहम् ॥ ॐ भूर्भुवः स्वः इन्द्र इहागच्छ, इह तिष्ठ॥
- इंद्र का आवाहन करने के बाद “ॐ भूर्भुवःस्वः इन्द्राय नमः” मंत्र से पंचोपचार पूजा करके प्रार्थना करे :
- प्रार्थना : देवराज गजारूढ पुरंदर शतक्रतो । वज्रहस्त महाबाहो वांछितार्थप्रदोभव ॥
वामभाग (दक्षिणदिशा) में मूल के अगले नक्षत्र पूर्वाषाढा के देवता वरुण का आवाहनपूजन करें –
- वरुण आवाहन पूजन : ॐ तत्त्वा यामि ब्रह्मणा वन्दमानस्तदाशास्ते यजमानो हविर्भिः अहेडमानो वरुणेह बोध्युरुश ᳪ समानऽआयुः प्रमोषीः ॥ ॐ शुद्धस्फटिकसंकाशं जलेशं यादसां पतिम् । आवाहये प्रतीचीशं वरुणं सर्वकामदम् ॥ ॐ भूर्भुवः स्वः वरुण इहागच्छ, इह तिष्ठ ॥
- वरुण का आवाहन करने के बाद “ॐ भूर्भुवःस्वः वरुणाय नमः” मंत्र से पंचोपचार पूजा करके प्रार्थना करे :
- प्रार्थना : सुपाशहस्तं देवेशं वरुणं त्वं जलाधिपम् । यादः पृष्ठ समारूढं श्वेतच्छत्रं महाबलम् ॥
इस प्रकार तीन नक्षत्र देवताओं की पूजा करने के पश्चात् शेष २४ नक्षत्राधिपतियों का चतुर्विंशतिदल पद्म में क्रमशः आवाहन करके पंचोपचार पूजन करे :
- आवाहन मंत्र : ॐ भूर्भुवः स्वः विश्वेदेवा इहागच्छ इहतिष्ठ ॥१॥ ॐ भूर्भुवः स्वः विश्वेभ्यो देवेभ्यो नमः ॥१॥
- आवाहन मंत्र : ॐ भूर्भुवः स्वः विष्णो इहागच्छ इहतिष्ठ ॥ पूजा मंत्र : ॐ भूर्भुवः स्वः विष्णवे नमः ॥२॥
- आवाहन मंत्र : ॐ भूर्भुवः स्वः अष्टवसवः इहागच्छत इहतिष्ठत ॥ पूजा मंत्र : ॐ भूर्भुवः स्वः अष्ट्टवसुभ्यो नमः ॥३॥
- आवाहन मंत्र : ॐ भूर्भुवः स्वः वरुण इहागच्छ इहतिष्ठ ॥ पूजा मंत्र : ॐ भूर्भुवः स्वः वरुणाय नमः ॥४॥
- आवाहन मंत्र : ॐ भूर्भुवः स्वः अजैकपाद इहागच्छ इहतिष्ठ ॥ पूजा मंत्र : ॐ भूर्भुवः स्वः अजैकपदे नमः ॥५॥
- आवाहन मंत्र : ॐ भूर्भुवः स्वः अहिर्बुध्न्य इहागच्छ इहतिष्ठ ॥ पूजा मंत्र : ॐ भूर्भुवः स्वः अहिर्बुध्न्याय नमः ॥६॥
- आवाहन मंत्र : ॐ भूर्भुवः स्वः पूषन् इहागच्छ इहतिष्ठ ॥ पूजा मंत्र : ॐ भूर्भुवः स्वः पूष्णे नमः॥७॥
- आवाहन मंत्र : ॐ भूर्भुवः स्वः अश्विनौ इहागच्छतं इहतिष्ठतं ॥ पूजा मंत्र : ॐ भूर्भुवः स्वः अश्विभ्यां नमः ॥८॥
- आवाहन मंत्र : ॐ भूर्भुवः स्वः यम इहागच्छ इहतिष्ठ ॥ पूजा मंत्र : ॐ भूर्भुवः स्वः यमाय नमः ॥९॥
- आवाहन मंत्र : ॐ भूर्भुवः स्वः अग्ने इहागच्छ इहतिष्ठ ॥ पूजा मंत्र : ॐ भूर्भुवः स्वः अग्नये नमः ॥१०॥
- आवाहन मंत्र : ॐ भूर्भुवः स्वः प्रजापते इहागच्छ इहतिष्ठ ॥ पूजा मंत्र : ॐ भूर्भुवः स्वः प्रजापतये नमः ॥११॥
- आवाहन मंत्र : ॐ भूर्भुवः स्वः सोम इहागच्छ इहतिष्ठ ॥ पूजा मंत्र : ॐ भूर्भुवः स्वः सोमाय नमः ॥१२॥
- आवाहन मंत्र : ॐ भूर्भुवः स्वः रुद्र इहागच्छ इहतिष्ठ ॥ पूजा मंत्र : ॐ भूर्भुवः स्वः रुद्राय नमः ॥१३॥
- आवाहन मंत्र : ॐ भूर्भुवः स्वः अदिते इहागच्छ इहतिष्ठ ॥ पूजा मंत्र : ॐ भूर्भुवः स्वः अदितये नमः ॥१४॥
- आवाहन मंत्र : ॐ भूर्भुवः स्वः बृहस्पते इहागच्छ इहतिष्ठ ॥ पूजा मंत्र : ॐ भूर्भुवः स्वः बृहस्पतये नमः ॥१५॥
- आवाहन मंत्र : ॐ भूर्भुवः स्वः सर्पाः इहागच्छत इहतिष्ठत ॥ पूजा मंत्र : ॐ भूर्भुवः स्वः सर्पेभ्यो नमः ॥१६॥
- आवाहन मंत्र : ॐ भूर्भुवः स्वः पितरः इहागच्छत इहतिष्ठत ॥ पूजा मंत्र : ॐ भूर्भुवः स्वः पितृभ्यो नमः ॥१७॥
- आवाहन मंत्र : ॐ भूर्भुवः स्वः भग इहागच्छ इहतिष्ठ ॥ पूजा मंत्र : ॐ भूर्भुवः स्वः भगाय नमः ॥१८॥
- आवाहन मंत्र : ॐ भूर्भुवः स्वः अर्यमन् इहागच्छ इहतिष्ठ ॥ पूजा मंत्र : ॐ भूर्भुवः स्वः अर्यमणे नमः ॥१९॥
- आवाहन मंत्र : ॐ भूर्भुवः स्वः विश्वकर्मन् इहागच्छ इहतिष्ठ ॥ पूजा मंत्र : ॐ भूर्भुवः स्वः विश्वकर्मणे नमः ॥२०॥
- आवाहन मंत्र : ॐ भूर्भुवः स्वः सविते इहागच्छ इहतिष्ठ ॥ पूजा मंत्र : ॐ भूर्भुवः स्वः सवित्रे नमः, ॥२१॥
- आवाहन मंत्र : ॐ भूर्भुवः स्वः वायो इहागच्छ इहतिष्ठ ॥ पूजा मंत्र : ॐ भूर्भुवः स्वः वायवे नमः ॥२२॥
- आवाहन मंत्र : ॐ भूर्भुवः स्वः इन्द्राग्नौ इहागच्छतं इहतिष्ठतं ॥ पूजा मंत्र : ॐ भूर्भुवः स्वः इन्द्राग्निभ्यां नमः॥२३॥
- आवाहन मंत्र : ॐ भूर्भुवः स्वः मित्र इहागच्छ इहतिष्ठ ॥ पूजा मंत्र : ॐ भूर्भुवः स्वः मित्राय नमः॥२४॥
पुनः परिधि पर दसो दिशाओं में दशदिक्पाल का आवाहन पूजन करे :
- आवाहन मंत्र : ॐ भूर्भुवः स्वः इन्द्र इहागच्छ इहतिष्ठ ॥ पूजा मंत्र : ॐ भूर्भुवः स्वः इन्द्राय नमः॥१॥
- आवाहन मंत्र : ॐ भूर्भुवः स्वः अग्ने इहागच्छ इहतिष्ठ ॥ पूजा मंत्र : ॐ भूर्भुवः स्वः अग्नये नमः ॥१॥
- आवाहन मंत्र : ॐ भूर्भुवः स्वः यम इहागच्छ इहतिष्ठ ॥ पूजा मंत्र : ॐ भूर्भुवः स्वः यमाय नमः॥३॥
- आवाहन मंत्र : ॐ भूर्भुवः स्वः निर्ऋते इहागच्छ इहतिष्ठ ॥ पूजा मंत्र : ॐ भूर्भुवः स्वः निर्ऋतये नमः ॥४॥
- आवाहन मंत्र : ॐ भूर्भुवः स्वः वरुण इहागच्छ इहतिष्ठ ॥ पूजा मंत्र : ॐ भूर्भुवः स्वः वरुणाय नमः ॥५॥
- आवाहन मंत्र : ॐ भूर्भुवः स्वः वायो इहागच्छ इहतिष्ठ ॥ पूजा मंत्र : ॐ भूर्भुवः स्वः वायवे नमः, वायुम् ० ॥६॥
- आवाहन मंत्र : ॐ भूर्भुवः स्वः सोम इहागच्छ इहतिष्ठ ॥ पूजा मंत्र : ॐ भूर्भुवः स्वः सोमाय नमः ॥७॥
- आवाहन मंत्र : ॐ भूर्भुवः स्वः ईशान इहागच्छ इहतिष्ठ ॥ पूजा मंत्र : ॐ भूर्भुवः स्वः ईशानाय नमः ॥८॥
- आवाहन मंत्र : ॐ भूर्भुवः स्वः ब्रह्मन् इहागच्छ इहतिष्ठ ॥ पूजा मंत्र : ॐ भूर्भुवः स्वः ब्रह्मणे नमः॥९॥
- आवाहन मंत्र : ॐ भूर्भुवः स्वः अनन्त इहागच्छ इहतिष्ठ ॥ पूजा मंत्र : ॐ भूर्भुवः स्वः अनन्ताय नमः॥१०॥
प्रतिष्ठा : ॐ मनोजूतिर्जुषतामाज्यस्य बृहस्पतिर्यज्ञमिमं तन्नोत्वरिष्टं यज्ञ ᳪ समिमं दधातु। विश्वेदेवा स इह मादयंतामों३ प्रतिष्ठ॥ ॐ भूर्भुवः स्वः आवाहितविश्वादिदेवताः इह सुप्रतिष्ठिताः वरदाः भवन्तु ॥
तत्पश्चात दिये गये पूजन नाममंत्रों से सभी का पंचोपचार पूजन करे। तत्पश्चात नवग्रह मंडल पूजन करे।
- फिर नवग्रह मंडल स्थापन-पूजन करे।
- फिर नवग्रह मंडल के ईशान में अष्टदल बनाकर कलश स्थापन पूजन करे।
उस कलश पर असंख्यातरुद्र का आवाहन करके पंचोपचार पूजन करे :
आवाहन मंत्र : ॐ असंख्याता सहस्राणि ये रुद्राऽअधिभूम्याम् । तेषा ᳪ सहस्रयोजनेव धन्वानितन्मसि ॥ ॐ भूर्भुवः स्वः असंख्यातरुद्राः इहागच्छत इह तिष्ठत ॥
पूजन मंत्र : ॐ भूर्भुवः स्वः असंख्यात रुद्रेभ्यो नमः ॥
हवन संकल्प : तत्पश्चात त्रिकुशा-तिल-जलादि लेकर हवन का संकल्प करे : ॐ अद्य अमुके मासि अमुके पक्षे अमुक तिथौ अमुकगोत्रोऽहम् अस्मिन् मूलशान्तिकर्मणि साङ्गसायुधसवाहनसपरिवारमूलनक्षत्रस्य प्रधानदेवता निर्ऋतिप्रीतये तन्मन्त्रस्य अष्टोत्तरशतम्, (अष्टाविंशतिम्, अष्टौ वा) आज्याहुतेः होष्ये॥
तत्पश्चात ब्रह्मावरण करके आगे का हवन कर्म करे। यदि जप किया गया हो तो जप का दशांश होम करे, अन्यथा अष्टोत्तरशत अथवा अष्टोत्तरसहस्र करे। हवन विधि के अनुसार वाराहुति करके नवग्रहादि आहुति देकर पूर्वांग संपन्न करके तत्पश्चात मध्याङ्ग होम से पूर्व अग्नि में निर्ऋति का ध्यान करे : ॐ असुन्वन्तमयजमानमिच्छस्तेनस्येत्यामन्विहि तस्करस्य । अन्यमस्मद्रिच्छवातऽइत्या नमो देवि निर्ऋते तुभ्यमस्तु ॥
तत्पश्चात संकल्पित संख्या के अनुसार निर्ऋति को “ॐ असुन्वन्तमयजमानमिच्छस्तेनस्येत्यामन्विहि तस्करस्य । अन्यमस्मद्रिच्छवातऽइत्या नमो देवि निर्ऋते तुभ्यमस्तु स्वाहा॥” मंत्र से अथवा नाम मंत्र “ॐ निर्ऋतये स्वाहा॥” से १०८/२८/०८ आहूति प्रदान करे।
तत्पश्चात अन्य आवाहित पूजित देवताओं को भी नाम मंत्र में स्वाहा का प्रयोग करते हुये आहूति प्रदान करे यथा : ॐ भूर्भुवःस्वः इन्द्राय स्वाहा॥ ॐ भूर्भुवःस्वः वरुणाय स्वाहा॥ ॐ भूर्भुवःस्वः विश्वेभ्यो देवेभ्यो स्वाहा॥ ………….. ॐ भूर्भुवःस्वः अनन्ताय स्वाहा॥ तत्पश्चात मृत्युंजय मंत्र से आहूति देकर
पुनः हवन विधि के उत्तराङ्ग स्विष्टकृद्धोम, वाराहुति आदि संपन्न करके, गण्डान्त दोषशांति अभिषेक करे :
मूल शान्ति मंत्र
यह अभिषेक गण्डान्तदोष शांति का अभिषेक है। इस अभिषेक हेतु किसी स्तम्भादि के सहारे शतछिद्र कलश को टिकाकार उसमें में ऊर्ण-लौह (कील)-स्वर्ण-पिलीसरसों-दूर्वा-27 वृक्षों के पत्र, यदि शुद्ध सर्वौषधि-सप्तमृत्तिका आदि उपलब्ध हो तो वो भी, सप्तधान्य, पंचगव्य, आदि दे। इसमें शतछिद्र कलश के नीचे चलनी (चालन) का भी प्रयोग किया जाता है, यथाव्यवहार अन्य प्रयोग भी करे। उसके नीचे शिशु सहित माता-पिता (पति के वाम भाग में पत्नी) बैठे, अन्य लोग उनके ऊपर कम्बल का भी आच्छादन करे और फिर आचार्य २७ कूपजलों को शतछिद्र कलश में देते हुये अगले मंत्रों से दोषनिवारक अभिषेक करे :
ॐ योऽसौ वज्रधरो देवो महेन्द्रो गजवाहनः । मूलजातं शिशोर्दोषं मातापित्रोर्व्यपोहतु ॥१॥
योऽसौ शक्तिधरो देवो हुतभुङ् मेषवाहनः । सप्तजिह्वश्चदेवोऽग्निर्मूलदोषं व्यपोहतु ॥२॥
योऽसौ दंडधरो देवो धर्मो महिषवाहनः । मूलजातं शिशोर्दोषं व्यपोहतु यमो मम ॥३॥
योऽसौ खड्गधरो देवो निर्ऋती राक्षसाधिपः । प्रशामयतु मूलोत्थं दोषं गण्डान्तसंभवम् ॥४॥
योऽसौ पाशधरो देवो वरुणश्च जलेश्वरः । नक्रवाहः प्रचेता नो मूलदोषं व्यपोहतु ॥५॥
योऽसौ देवो जगत्प्राणो मारुतो मृगवाहनः । प्रशामयतु मूलोत्थं दोषं बालस्य शान्तिदः ॥६॥
योऽसौ निधिपतिर्देवः खङ्गभृद्वाजिवाहनः । मातापित्रोः शिशोश्चैव मूलदोषं व्यपोहतु ॥७॥
योऽसौ पशुपतिर्देवः पिनाकी वृषवाहनः । मूलादिसर्वगण्डान्तं दोषमाशु व्यपोहतु ॥८॥
विघ्नेशः क्षेत्रपो दुर्गा लोकपाला नवग्रहाः । सर्वदोषप्रशमनं सर्वे कुर्वन्तु शान्तिदाः ॥९॥
मूलनक्षत्रजातस्य मातापित्रोर्धनस्य च । भ्रातृज्ञातिकुलोत्थानां दोषं सर्वं व्यपोहतु ॥१०॥
पितरः सर्वभूतानां रक्षन्तु पितरः सदा । मूलनक्षत्रजातस्य वित्तं च ज्ञातिबांधवान् ॥११॥
मुखावलोकन
तत्पश्चात धारित वस्त्रों का त्याग करके पुनः शुद्ध वस्त्र धारण कर सपत्नीक यजमान हवन वेदी के पश्चिम भाग में बैठकर, दो बार आचमन करके मुखवालोकन करे। कांस्य के घृतपूरित आज्यस्थाली (कांस्यपात्र) में शिशु का मुखावलोकन करे :
मुखावलोकन मंत्र : ॐ रूपेण वो रूपमब्भ्यागान्तुथो वो विश्ववेदा व्विभजतु । ऋतस्य यथा प्रेतचन्द्र दक्षिणाविस्वः पश्य व्व्यन्तरिक्षं व्यत्तस्वसदस्यैः॥ व्यवहार में और भी दो प्रकार से मुखावलोकन किया जाता है, तैलपूरित पात्र में, दर्पण में और तत्पश्चात सद्यः। यथा व्यवहार अन्य प्रकारों से भी मुखावलोकन करे।
आज्यपात्र दान : तत्पश्चात त्रिकुशा-तिल-जल लेकर आज्यपात्र (सहिरण्य/द्रव्य) दान करे – ॐ अद्य कृतस्यास्य बालकस्य मुखावलोकनकर्मणः साङ्गतासिद्धयर्थम् एतावद्रव्यमूल्यक- हिरण्यसहितम् इदं घृतपूर्णकांस्यपात्रं यथानामगोत्राय ब्राह्मणाय दातुमहमुत्सृज्ये ॥
विसर्जन : ॐ यान्तु देवगणाः सर्वे पूजामादाय मामकिम् । इष्टकामप्रसिद्धयर्थं पुनरागमनाय च ॥ ॐ पूजितदेवताः पूजिताः स्थ क्षमध्वं स्वस्थानं गच्छत ॥
विष्णु स्मरण
ॐ प्रमादात् कुर्वतां कर्म प्रच्यवेत्ताध्वरेषु यत् । स्मरणादेव तद्विष्णोः सम्पूर्णं स्यादिति श्रुतिः ॥
ॐ यस्य स्मृत्या च नामोक्त्या तपोयज्ञ क्रियादिषु । न्यूनं सम्पूर्णतां याति सद्यो वन्दे तमच्युतम् ॥
॥ ॐ विष्णवे नमः ॥ ॐ विष्णवे नमः ॥ ॐ विष्णवे नमः ॥
दक्षिणा
- कर्मदक्षिणा : त्रिकुशा-तिल-जल-दक्षिणाद्रव्यादि लेकर दक्षिणा करे – ॐ अद्य कृतैतद् गोमुखप्रसव मूलनक्षत्रजनन शान्तिकर्मणो साङ्गतासिद्धयर्थम् एतावद्-द्रव्यमूल्यकां गां रुद्रदैवतां यथानामगोत्राय ब्राह्मणाय दक्षिणां दातुमहमुत्सृज्ये ॥
- भूयसी : ॐ अद्य कृतैतद्-मूलशान्तिकर्मणि न्यूनातिरिक्तदोषपरिहारार्थं नानानामगोत्रेभ्यो ब्राह्मणेभ्यो भूयसीं दक्षिणां दातुमहमुत्सृज्ये ॥
दोष शांति के मंत्रों के बाद आशीर्वादात्मक एवं रक्षात्मक मंत्रों से अभिषेक करें ।
अभिषेक मंत्र
सुरास्त्वामभिषिंचन्तु ब्रह्म विष्णु महेश्वराः । वासुदेवोजगन्नाथस्तथा संकर्षणो विभुः ॥१॥
प्रद्युम्नश्चानिरुद्धश्च भवन्तु विजयाय ते । आखण्डलोऽग्निर्भगवान् यमौ वै निर्ऋतिस्तथा ॥२॥
वरुणः पवनश्चैव धनाध्यक्षस्तथा शिवः । ब्रह्मणाऽनन्तसहिता दिक्पालाः पान्तु ते सदा ॥३॥
कीर्तिर्लक्ष्मीर्धृर्तिर्मेधा पुष्टिः श्रद्धा क्रिया मतिः । बुद्धिर्लज्जा वपुः शान्तिस्तुष्टिः कान्तिश्च मातरः ॥
एतास्त्वामभिषिंचन्तु देवपत्न्यः समागताः ॥४॥
आदित्यश्चन्द्रमा भौमो बुध जीवसितार्कजाः । ग्रहास्त्वामभिषिचन्तु राहुकेतुश्च तर्पिताः ॥५॥
ऋषयो मुनयो गावो देवमातर एव च । देवपत्न्यो द्रुमानागा दैत्याश्चाप्सरसां गणाः ॥६॥
अस्त्राणि सर्वशस्त्राणि राजानो वाहनानि च । औषधानि च रत्नानि कालस्यावयवाश्च ये ॥७॥
सरितः सागराः शैलस्तीर्थानि जलदानदाः । एते त्वामभिषिंचन्तु सर्व कामार्थसिद्धये ॥८॥
सहस्राक्षं शतधारमृषिभिः पावनं कृतम् । तेन त्वामभिषिंचामि पावमान्यः पुनन्तु ते ॥९॥
भगं ते वरुणो राजा भगं सूर्येः बृहस्पतिः । भगमिन्द्रश्च वायुश्च भगं सप्तर्षयो दधुः ॥१०॥
यत्ते केशेषु दौर्भाग्यं सीमन्ते यश्चमूर्धनि । ललाटे कर्णयोरक्ष्णो रापो निघ्नन्तु ते सदा ॥११॥
॥ इति मूलशांति प्रयोगः ॥
इस प्रकार से यहां मूल शांति विधि दी गयी है किन्तु यदि मूल नक्षत्र के अतिरिक्त अन्य नक्षत्रों में जन्म हो अर्थात अश्विनी, अश्लेषा, मघा, ज्येष्ठा और रेवती में से कोई अन्य नक्षत्र शांति करनी हो तो उसमें प्रधान देवता, अधिदेवता, प्रत्यधिदेवता के मंत्रों में परिवर्तन होगा। एवं इसके साथ ही एक मुख्य परिवर्तन जो होगा वह है चतुर्विंशति (24) दल पर शेष 24 नक्षत्राधिपों की पूजा और क्रम जिसका कहीं विचार ही नहीं किया जाता है।
उपरोक्त परिवर्तनों का विचार करते हुये अन्य गण्डान्त दोष होने पर सही क्रम से पूजा विधि और मंत्र इस आलेख में दिये गए हैं : “गण्डान्त शांति कैसे करें” ? यदि मूल नक्षत्र से भिन्न नक्षत्र की शांति करनी हो तो इस आलेख का अवलोकन भी अवश्य करें।
कर्मकांड विधि में शास्त्रोक्त प्रमाणों के साथ प्रामाणिक चर्चा की जाती है एवं कई महत्वपूर्ण विषयों की चर्चा पूर्व भी की जा चुकी है। तथापि सनातनद्रोही उचित तथ्य को जनसामान्य तक पहुंचने में अवरोध उत्पन्न करते हैं। एक बड़ा वैश्विक समूह है जो सनातन विरोध की बातों को प्रचारित करता है। गूगल भी उसी समूह का सहयोग करते पाया जा रहा है अतः जनसामान्य तक उचित बातों को जनसामान्य ही पहुंचा सकता है इसके लिये आपको भी अधिकतम लोगों से साझा करने की आवश्यकता है।