कैसे करते हैं चतुर्थी का विवाह – chaturthi vidhi

कैसे करते हैं चतुर्थी का विवाह – chaturthi vidhi

यहां एक और बात स्पष्ट रूप से समझाना आवश्यक है कि यदि एक व्यक्ति कोई कर्म ससमय न करे तो अन्य के लिये भी वह प्रमाण नहीं होता है, प्रमाण शास्त्र के वचन होते हैं। दूसरी बात यह कि मुख्यकाल के बाद भी करना चाहिये ताकि कर्मलोप न हो अतः विकल्प समझे, न की प्रकल्प। विकल्प प्रथमग्राह्य नहीं होता है किसी विशेष कारणवश, असमर्थता आदि में विकल्प ग्राह्य होता है।

अब एक और प्रश्न है जिस पर विचार करना आवश्यक है और वह प्रश्न है कि जिन लोगों (कुल/जाति) ने चतुर्थी करना छोड़ दिया है वो क्या करें ? क्या दुबारा आरम्भ करें अथवा दुबारा आरम्भ करना समयानुकूल नहीं है अर्थात सम्भव नहीं है तो विकल्प क्या अपनायें? क्योंकि प्रकल्प की असमर्थता में विकल्प भी तो होता ही है।

चतुर्थी की आवश्यकता को देखते हुये त्याग करना कर्मलोप सिद्ध होता है और सामाजिक रूप से कोई परिवार या व्यक्ति आरम्भ करने में सामाजिक विरोध का भय प्राप्त करता है। आगे हम विकल्प की भी चर्चा करेंगे किन्तु सामाजिक विरोध का भय अथवा यद्यपि शुद्धं लोकविरुद्धं के रट्टूमल तोताओं हेतु कुछ पंक्तियां अपेक्षित हैं ।

  • जब अशौच में कोई शुद्धिकरण (क्षौर) का त्याग कर देता है तब सामाजिक विरोध का भय क्यों नहीं होता ?
  • जब मंच बनाकर जयमाला नाम से अमर्यादित व्यवहार किया जाता है तब सामाजिक विरोध का भय क्यों नहीं होता?
  • जब बच्चे लिव एण्ड रिलेशनशिप में चले जाते हैं तब सामाजिक विरोध का भय क्यों नहीं होता?
  • जब संस्कार और उचित शिक्षा प्रदान नहीं करने से बच्चे स्वच्छन्द हो जाते हैं तब सामाजिक विरोध का भय क्यों नहीं होता?
  • जब बच्चे का उपनयन विवाह के दिन करते हैं तब सामाजिक विरोध का भय क्यों नहीं होता?

अर्थात् निषिद्ध कार्यों को करने में सामाजिक विरोध का भय नहीं होता किन्तु शास्त्रसम्मत आवश्यक कर्म या विधि में ही सामाजिक विरोध का भय अथवा यद्यपि शुद्धं लोकविरुद्धं का जिन्न सवार हो जाता है। यदि आप आवश्यकता को समझने के कारण चतुर्थी कर्म करना चाहते हैं और कोई सामाजिक विरोध की बात करे अथवा यद्यपि शुद्धं लोकविरुद्धं कहे तो एक ही प्रतिप्रश्न करें इसमें अनुचित क्या होगा अथवा लोकविरुद्ध क्या है?

अब उनके लिये जो बीती बात विसारिये आगे की सुधि लेहु का आश्रय ग्रहण करने वाले विज्ञजन हैं और अगले विवाह को चतुर्थी विधि पूर्वक पूर्ण सम्पन्न करना चाहते हैं उनके लिये प्रथम तो प्रकल्प ही ग्रहण करें अर्थात् चतुर्थी को ही करें । किन्तु यदि विकल्प का आश्रय लेना चाहें तो अपकर्षण पूर्वक विवाह दिन ही विवाह के उपरांत सम्पन्न करें किन्तु कर्मलोप न करें।

चतुर्थी सम्बन्धी एक अन्य विशेषता : विवाह पद्धतियों में चतुर्थी के विषय में स्नान के लिये एक विशेष विधि प्राप्त होती है, पालो (युगकाष्ठ) पर वर-वधू का स्नान करना। पालो हल जोतने के लिये दोनों बैलों ऊपर रखा जाता था जो चित्र से समझा जा सकता है।

पालो कहने से कई भाव प्रकट होता है :

  • पालो दो बैलों को जोड़ता है।
  • पालो पर ही हल टिका होता है और हल से खेत की जुताई होती है और फिर बीज वपन होता है।
  • सूर्योदय से पहले ही पालो बैल के ऊपर लगा लिया जाता है।
  • पालो द्वारा जुड़ने पर दो बैल मिलकर भी कुशलता पूर्वक एक कार्य ही करते हैं।
  • अर्थात जैसे बैल दो होकर भी एक ही होते हैं क्योंकि एक ही कार्य करते हैं उसी प्रकार पति-पत्नी दो होकर भी प्रत्येक कर्म में एक दूसरे के सहयोगी होंगे।
  • परस्पर सामंजस्य बैठाकर जीवन निर्वाह करेंगे।
पति-पत्नी का सम्बन्ध
पति-पत्नी का सम्बन्ध

चतुर्थी विधि और मंत्र

चतुर्थी कर्म की रात (अंतिम प्रहर) में वर-वधू दोनों तैल-उबटन लगाकर स्नान करे। स्नान हेतु पूर्व ही चर्चा हो चुकी है कि पालो पर बैठकर स्नान करे। स्वच्छ वस्त्र धारण करके पूर्व से संग्रहित सामग्री लेकर पूजा-हवन स्थान पर बैठे।

सर्वप्रथम पवित्रीकरणादि करे :

1 – पवित्रीधारण : ॐ पवित्रेस्थो वैष्णव्यो सवितुर्वः प्रसवऽउत्पुनाम्यच्छिद्रेण पवित्रेण सूर्यस्य रश्मिभिः । तस्य ते पवित्रपते पवित्रपूतस्य यत्कामः पुनेतच्छकेयम् ॥ इस मंत्र से पवित्रीधारण करे। 

2. पवित्रीकरण मंत्र : ॐ अपवित्र: पवित्रो वा सर्वावस्थाङ्गतोऽपि वा। य: स्मरेत् पुण्डरीकाक्षं स: बाह्याऽभंतर: शुचि:॥  ॐ पुण्डरीकाक्षः पुनातु ॥ हाथ में गंगाजल/जल लेकर इस मंत्र से शरीर और सभी वस्तुओं  पर छिड़के । 

3. आचमन : ॐ केशवाय नमः। ॐ माधवाय नमः। ॐ नारायणाय नमः। मुख व हस्त मार्जन (२ बार) ॐ हृषिकेशाय नमः॥ फिर प्राणायाम कर ले।

4. आसन पवित्रीकरण मंत्र : ॐ पृथ्वि त्वया धृता लोका देवि त्वं विष्णुनाधृता। त्वं च धारय मां देवि पवित्रं कुरु चासनम्॥ इस मंत्र से आसन पर जल छिड़क कर आसनशुद्धि करें।

तत्पश्चात स्वस्तिवाचन करे, गणेशाम्बिका पूजा करे अथवा स्मरण कर ले।

संकल्प : विवाहाङ्ग होने से स्वतंत्र संकल्प की आवश्यकता नहीं होती। तथापि कुछ पद्धतियों में संकल्प प्राप्त भी होता है। अतः यदि संकल्प करना चाहे तो कर सकता है क्योंकि निषिद्ध भी नहीं कहा जा सकता।

अग्नि स्थापन

  1. परिसमूह्य : ३ कुशाओं से स्थण्डिल या हस्तमात्र भूमि की सफाई करें। कुशाओं को ईशानकोण में (अरत्निप्रमाण) त्याग करे । 
  2. उल्लेपन : गोबर से ३ बार लीपे।
  3. उल्लिख्य – स्फय या स्रुवमूल से प्रादेशमात्र पूर्वाग्र दक्षिण से उत्तर क्रम में ३ रेखा उल्लिखित करे।
  4. उद्धृत्य – दक्षिणहस्त अनामिका व अंगुष्ठ से सभी रेखाओं से थोड़ा-थोड़ा मिट्टी लेकर ईशान में (अरत्निप्रमाण) त्याग करे।
  5. अग्नानयन व क्रव्यदांश त्याग – कांस्यपात्र या हस्तनिर्मित मृण्मयपात्र में अन्य पात्र से ढंकी हुई अग्नि मंगाकर अग्निकोण में रखवाए । ऊपर का पात्र हटाकर थोड़ी सी क्रव्यदांश अग्नि (ज्वलतृण) लेकर नैर्ऋत्यकोण में त्याग कर जल से बुझा दे ।
  6. अग्निस्थापन – दोनों हाथों से आत्माभिमुख बिना स्थापन मंत्र के हीअग्नि को स्थापित करे, अग्नानयन पात्र में अक्षत-जल छिरके। अग्नि को प्रज्वलित कर पूजा करे ।
chaturthi vidhi
chaturthi vidhi
  1. ब्रह्मावरण – उत्तर दिशा में स्थित प्रत्यक्ष ब्रह्मा (विद्वान ब्राह्मण) ब्रह्मा का वरण वस्त्र, पान, सुपारी, द्रव्य, तिल, जलादि लेकर करे : ॐ अस्यां रात्रौ कर्तव्य चतुर्थी होम कर्मणि कृताकृतावेक्षणरूप ब्रह्मकर्मकर्तुं एभिः वरणीय वस्तुभिः ……….. गोत्रं ……….. शर्माणं ब्रह्मत्वेन त्वामहं वृणे॥ ब्रह्मा स्वीकार करके वृत्तोस्मि” कहे पुनः यजमान “यथाविहितं कर्म कुरु” कहे और ब्रह्मा करवाणि” कहे। अथवा ५० कुशात्मक ब्रह्मा पक्ष में : ॐ अद्य अस्मिन् होम कर्मणि कृताकृतावेक्षणरूप कर्मकर्तुं त्वं मे ब्रह्मा भव कुशात्मक ब्रह्मा में प्रतिवचन नहीं होता।
  2. बह्मा का आसन – दक्षिण दिशा (अग्निकोण) में, परिस्तरण भूमि को छोड़कर ब्रह्मा के लिये ३ कुश का आसान पूर्वाग्र बिछाये। प्रत्यक्ष ब्रह्मा का दक्षिणहस्त ग्रहण कर (कुशात्मक बह्मा को उठाकर) प्रदक्षिण क्रम से दक्षिण ब्रह्मासन तक ले जाकर स्वयं पूर्वाभिमुख होकर ब्रह्मा को उत्तराभिमुख बैठाये या कुशात्मक ब्रह्मा को रखे – ॐ अस्मिन होम कर्मणि त्वं मे ब्रह्मा भव॥ प्रतिवचन “ॐ भवानि” ब्रह्मा की पूजा अमंत्रक ही करे। पुनः अप्रदक्षिणक्रम से अग्नि के पश्चिम आकर आसन पर बैठे।
  3. तत्पश्चात चरु निर्माण करे, हवन की अग्नि पर पका ले। चरु पकने के बाद उतारकर उत्तर भाग में रखे।
  4. प्रणीय – तदनन्तर प्रणीतापात्र को आगे में रखकर जल भरे, कुशाओं से आच्छादन करे । फिर ब्रह्मा का मुखावलोकन करते हुए अग्नि के उत्तर भाग में विहित कुशाओं के आसन पर रखे ।
  5. परिस्तरण – तदनन्तर १६ कुशा लेकर परिस्तरण करे । ४ कुशा अग्निकोण से ईशानकोण तक उत्तराग्र, ४ कुशा दक्षिण में ब्रह्मा से अग्नि पर्यंत पूर्वाग्र, ४ कुशा नैर्ऋत्यकोण से वायव्यकोण तक उत्तराग्र और ४ कुशा उत्तर दिशा में अग्नि से प्रणीता तक पूर्वाग्र बिछाए । (परिस्तरण हेतु एक और प्राकान्तर प्राप्त होता है : पूर्व में पूर्वाग्र, दक्षिण में उत्तराग्र, पश्चिम में पूर्वाग्र और उत्तर में पुनः उत्तराग्र।)
  6. आसादन : अग्नि के उत्तरभाग में पश्चिमपूर्व क्रम से क्रमशः आसादित करे : पवित्रीच्छेदन 3 कुशा, पवित्रिनिर्माण 2 कुशा, आज्यस्थाली, सम्मार्जन कुशा, उपयमन कुशा, 3 समिधा, स्रुवा, घी, चरुपात्र, पूर्णपात्र।
  7. पवित्री निर्माण – पवित्री निर्माण हेतु आसादित पवित्रिकरण २ कुशाओं को ग्रहण करे फिर मूल से प्रादेशप्रमाण भाग पर पवित्रच्छेदन ३ कुशाओं को रखकर दक्षिणावर्त २ बार परिभ्रमित करके नखों का प्रयोग किये बिना २ कुशों का मूल वाला प्रादेशप्रमाण भाग तोड़ ले शेष का उत्तर दिशा में त्याग करे। ग्रहण किये हुए प्रादेशप्रमाण २ कुशाओं में दक्षिणावर्त ग्रंथि दे । प्रोक्षणीपपात्र को प्रणिता के निकट रखे।
  8. पवित्रीहस्त प्रणीता से प्रोक्षणी में ३ बार जल देकर पवित्री को उत्तराग्र करके अंगूठा व अनामिका से ३ बार प्रणीता का जल ऊपर उछाले या मस्तक पर प्रक्षेप करे।
  9. प्रोक्षणीपात्र को बांये उठाकर दाहिने हाथ से अनामिका और अंगूठे द्वारा पवित्री ग्रहण किये हुए जल को ३ बार ऊपर उछाले। प्रणीतापात्र के जल से प्रोक्षणी को ३ बार सिक्त करके प्रोक्षणी के जल से होमार्थ आसादित-अनासादित सभी वस्तुओं को सिक्त करके अग्नि व प्रणिता के मध्य भाग में कुशा के आसन पर प्रोक्षणीपात्र को रख दे।
  10. घृतपात्र में घृत डालकर घृतपात्र को प्रदक्षिणक्रम से घुमाते हुए अग्नि दक्षिण में और चरुपात्र को अग्नि के उत्तरभाग में चढ़ाये। २ प्रज्वलित तृण को प्रदक्षिणक्रम से घृत व चरु के ऊपर घुमाकर (घृत में सटाये बिना ऊपर घुमाकर) अग्नि में प्रक्षेप करे दे । दाहिने हाथ से स्रुव को ३ बार अग्नि पर तपाकर बांये हाथ में रखे, दाहिने हाथ से सम्मार्जन कुशा लेकर कुशाग्र से स्रुव के ऊपरी भाग का मूल से अग्रपर्यन्त सम्मार्जन करे और कुशमूल से स्रुव के पृष्ठभाग का अग्र से मूलपर्यन्त मार्जन करके प्रणीतोदक से ३ बार सिक्त करके स्रुव को दाहिने हाथ में लेकर पुनः ३ बार तपाकर दक्षिणभाग में कुशा के ऊपर रखे। स्रुचि के लिये भी स्रुववत् विधि।
  11. घृतपात्र को प्रदक्षिणक्रम में अग्नि से उतारकर आगे में रखे, चरुपात्र को भी उतारकर घृतपात्र के उत्तर भाग में रखे।। पूर्व की भांति पवित्री से घृत को भी ३ बार ऊपर उछाले या मस्तक पर प्रक्षेप करे। तत्पश्चात घृत को भलीभांति देखे, कुछ अपद्रव्यादि हो तो निकाल दे। पुनः प्रोक्षणी के जल को ३ बार ऊपर की पूर्ववत उछाले।
  12. फिर बांये हाथ में उपयमन कुशा ग्रहण करके, उठकर ३ घृताक्त समिधा प्रजापति का ध्यानमात्र करते हुए अग्नि में प्रक्षेप करे।
  13. पर्युक्षण – फिर बैठकर पवित्रिहस्त प्रोक्षणी से जल लेकर सभी सामग्रियों सहित अग्नि का प्रदक्षिणक्रम से पर्युक्षण करे। ३ बार पर्युक्षण करके पवित्री को प्रणीतापात्र में रख दे।

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