भैक्ष्यचर्या
अत्र भिक्षाचर्यचरणम् : भवत्पूर्वां ब्राह्मणो भिक्षेत, भवन्मध्यां राजन्यः, भवदन्त्यां वैश्यः तिस्रोऽप्रत्याख्यायिन्यः षड्द्वादशापरिमिता वा मातरं प्रथमामेके (उक्त पारस्कर वचन से भिन्न व्यवहार मनुवचनानुसार प्रचलित) – फिर भिक्षा पात्र लेकर प्रथमतया माता से भिक्षा मांगे :
- ब्राह्मण बरुआ इस प्रकार कहे : ॐ भवति भिक्षां देहि ॥
- क्षत्रिय इस प्रकार कहे : ॐ भिक्षां भवति देहि ॥ और
- वैश्य इस प्रकार कहे : ॐ भिक्षां देहि भवति ॥
कुलाचारानुसार भिक्षायाचना करके आचार्य को अर्पित करे। आचार्य कहें “ॐ भुक्ष्व”, आचार्य के ऐसा कहने के पश्चात्त बरुआ उसे भिक्षापात्र अथवा उपस्थित डाला आदि में रखे।
भिक्षा के संबंध में विशेष चर्चा : उपरोक्त भिक्षा पर आचार्य के आज्ञानुसार जब तक समावर्तन न हो जाये बरुआ का अधिकार होता है और बरुआ भक्षण कर सकता है। किन्तु जब तत्क्षण (उसी दिन) वेदारम्भ व समावर्तन भी संपन्न हो जाता है तो इस कारण उस भिक्षा पर न तो बरुआ का अधिकार शेष रहता है न ही आचार्य का और न ही परिवार, कुटुम्बादि का अर्थात वह यज्ञशेषसामग्रीवत पुरोहित के अधिकारक्षेत्र में सिद्ध होता है।
अर्थात बरुआ द्वारा लाया गया भिक्षा समावर्तन के उपरान्त पुरोहित ग्रहण करे। उसमें नापित का कोई अधिकार सिद्ध नहीं होता तथापि पुरोहित स्वेच्छा से लोकाचारानुसार नापित को भी प्रदान करें।

कई जगहों पर भिक्षा सामग्री पर पुरोहित के अधिकार को लेकर प्रश्न उत्पन्न किया जाता इसलिये यहां स्पष्ट किया गया कि भिक्षा सामग्री पर पुरोहित का अधिकार कैसे सिद्ध होता है। इसको यदि बिन्दुबार कहा जाय तो समझने में यदि कोई भ्रम शेष भी हो उसका निवारण हो जायेगा :
- जिस समय माता व अन्य ने बरुआ को भिक्षा प्रदान किया उस समय माता व कुटुम्बों का अधिकार समाप्त हो गया।
- जब बटुक ने आचार्य को प्रदान किया तो आचार्य का अधिकार हुआ, किन्तु जब आचार्य ने भुङ्क्ष्व कहा तो आचार्य का अधिकार समाप्त हो गया और बरुआ का अधिकार सिद्ध हो गया।
- जब तक बटुक ब्रह्मचारी रहा तब तक बटुक का अधिकार रहा अर्थात जो गुरुकुल में जाकर भिक्षाटन करने वाले ब्रह्मचारी हैं उनका स्वयं का ही अधिकार हो गया, किन्तु जब घर में उपनयन किया जाता है तो उसी दिन समावर्तन किया जाता है, बर्ह्मचर्य का त्याग करके घर वापस आया अर्थात समावर्तन हो गया तो ब्रह्मचारी का भी अधिकार समाप्त हो गया क्योंकि उसने बर्ह्मचर्य का त्याग कर दिया।
- अब भिक्षा में प्राप्त सामग्री भी यज्ञशेष सामग्री में गण्य सिद्ध हुआ और उस पर कुल पुरोहित का अधिकार सिद्ध हुआ।
पूर्णाहुति
पूर्णाहुति मंत्र : तदुत्तर आचार्य और बरुआ दोनों उठ जायें और बरुआ आचार्य का हाथ स्पर्श किये रहे, पूर्णाहुति द्रव्य लेकर आचार्य थोड़ा झुककर पूर्णाहुति प्रदान करे : ॐ मूर्द्धानन्दिवो ऽअरतिम्पृथिव्या वैश्वानरमृत ऽआजातमग्निम् ॥ कवि ᳪ सम्म्राजमतिथिं जनानामासन्ना पात्रञ्जनयन्त देवाः स्वाहा ॥
भस्म धारण
स्रुव के पृष्ठभाग में ईशान कोण से भस्म ग्रहण कर जल से सिक्त करके क्रमशः ललाट, कण्ठ, दक्षिणबाहु और हृदय पर लगाए – ॐ त्र्यायुषम्जमदग्नेः (ललाट पर) । ॐ कश्यपस्य त्र्यायुषं (कंठ में) । ॐ यद्देवेषु त्र्यायुषं (दक्षिण बाहु पर) । ॐ तन्नोऽअस्तु त्र्यायुषं (हृदय में) । पुनः ब्रह्मचारी को भी भस्म लगाये : ॐ त्र्यायुषम्जमदग्नेः (ललाट पर) । ॐ कश्यपस्य त्र्यायुषं (कंठ में) । ॐ यद्देवेषु त्र्यायुषं (दक्षिण बाहु पर) । ॐ तत्तेऽअस्तु त्र्यायुषं (हृदय में) ।
॥ इति पं० दिगम्बर झा सुसम्पादितं “करुणामयीटीकाऽलंकृतं” उपनयनविधिः ॥
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