उपनयन का अर्थ
उपनयन का द्वितीय अर्थ – है वेद-ज्ञान-ब्रह्म के निकट ले जाना । कौन ले जाये ? गुरु ले जाये । यदि पिता ही गुरु हो तो भी यह खण्डित नहीं होता । कैसे ले जाये प्रथम अर्थ में इसका कोई उत्तर प्राप्त नहीं होता किन्तु द्वितीय अर्थ में उत्तर प्राप्त होता है संस्कृत करके दीक्षा और विद्या देकर ले जाये अर्थात ज्ञानरूपी चक्षु प्रदान करे। नयन से चक्षु का भी बोध होता है। नयन अर्थात ज्ञानचक्षु की प्राप्ति से ज्ञान की निकटता भी सिद्ध हो जाती है अर्थात ज्ञानी वही कहला सकता है जिसके पास ज्ञान हो।
शंका : किन्तु उपनयन के द्वितीय अर्थ को ग्रहण करने में भी एक संशय है यदि उपनयन से ही ज्ञान प्राप्त हो जाये तो वेदाध्ययन की आवश्यकता सिद्ध नहीं होती वेदाध्ययन अर्थात ज्ञान प्राप्त करना शेष रहता है अतः उपनयन से ज्ञान प्राप्ति की सिद्धि नहीं होती परन्तु ज्ञान प्राप्ति के अधिकार मात्र की सिद्धि होती है अर्थात वेदाध्ययन में अधिकार प्राप्त होता है।
शंकानिवारण : उपनयन से ज्ञानप्राप्ति का अर्थ ग्रहण करना ही अनर्थ का कारण है। निकट और प्राप्ति में अंतर होता है। ज्ञान के निकट का अर्थ ज्ञान प्राप्ति का अधिकार है; ज्ञान की प्राप्ति नहीं इसी कारण वेदाध्ययन उपनयन के उपरान्त होता है और उपनयन से वेदाध्ययन के अधिकार की ही सिद्धि अर्थात सामीप्य है।
उपनयन संस्कार : वेद स्वयं भगवान हैं। अनुपनीत को वेद का अधिकार प्राप्त नहीं होता अतः वेदाधिकार (सामीप्यता) सिद्धि हेतु संस्कृत (दीक्षित-उपनीत) करना उपनयन संस्कार कहलाता है।
स्त्रियों के लिए विवाह को ही उपनयन का स्थानापन्न माना गया है और इसके आधार पर कुछ अज्ञानी तत्व स्त्रियों का वेद और हवन में भी अधिकार सिद्धि कर देते हैं। किन्तु इसका स्त्रियों के लिए विवाह ही उपनयन का स्थानापन्न होने का तात्पर्य यह है कि पति जब हवन आदि कर रहा हो तो साथ में बैठने का अधिकार प्राप्त होना न कि स्वतंत्र रूप से हवन, वेदाध्ययन अधिकार की सिद्धि। पतिसंयुक्त होने पर वेदश्रवण के अधिकार की सिद्धि होती है। स्त्रीशूद्रद्विजबन्धूनां त्रयो न श्रुतिगोचरा। इति भारतमाख्यानं कृपया मुनिना कृतं॥
अर्थात स्त्रियों स्वतंत्र रूप से रुद्राभिषेक आदि करने का भी खण्डन होता है। रुद्राभिषेक में भी पतिसंयुक्त होने पर ही अधिकार होता है। रही बात फल की तो पति की अर्द्धांगिनी होती है और पति के पुण्य में अधिकारिणी होती है। स्त्रियों को विवाह से अधिकार की सिद्धि करने वाले पुनः स्वयं ही इसका खण्डन भी कर देते है और वो तब होता है जब स्त्रियों के उपनयन करते हैं। विवाह से ही स्त्रियों के उपनयन की भी सिद्धि हो जाती है इसमें आपत्ति नहीं है। किन्तु यदि विवाह से उपनयन की सिद्धि हो जाती है तो फिर उपनयन करने की आवश्यकता क्यों ?
उपनयन संस्कार की आवश्यकता
ऊपर ये स्पष्ट हो चुका है कि उपनयन संस्कार से प्रणव में, गायत्री में, वेद में, श्रौत-स्मार्त्त कर्मों में अधिकार की सिद्धि होती है अतः आवश्यकता की अतिरिक्त चर्चा तो अपेक्षित ही नहीं है। ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्यों तीनों को उपरोक्त अधिकार प्राप्ति हेतु उपनयन संस्कार आवश्यक है। किन्तु जब वेद पढ़ना ही न हो तो आवश्यकता क्यों होगी ? प्रणव में, गायत्री में, श्रौत-स्मार्त्त कर्मों में अधिकार चाहिये या वो भी नहीं ? जब श्रौत-स्मार्त्त कर्म करेंगे तो वेद-मंत्र से करेंगे या नहीं ? अर्थात यदि वेदाध्ययन न भी करना हो तो भी तीनों वर्णों के लिये उपनयन अपेक्षित सिद्ध होता है।
वर्त्तमान में अनुपनीत बालकों से भी रुद्राभिषेक, हवन आदि प्रायः यत्र-तत्र देखा जाता है, इसमें मात्र यजमान ही दोषी नहीं होते कराने वाले ब्राह्मण भी दोषी होते हैं और जिस ब्राह्मण को इतना भी ज्ञान न हो; कल्याण चाहने वाला यजमान वैसे ब्राह्मणों को किसी कर्म में नियुक्त न करे। कल्याणकामी यजमानों के लिये सदा विद्वान ब्राह्मण को आमंत्रित करने का प्रावधान है और मूर्ख ब्राह्मण के त्याग में भी किसी प्रकार का दोष नहीं होता।
वेदाध्ययन नहीं करना है इसी कारण तो उपनयन यथाकाल न होकर विवाह के समय में किया जाता है। कुछ लोग मात्र धागा पहनना ही उपनयन समझते हैं और कलश स्पर्श करके पहन लेते हैं, उन्हें यह जान लेना आवश्यक है कि धारणमात्र करना उपनयन नहीं है, दीक्षित होना, संस्कृत होना, आचार्य से प्रणव-गायत्री-वेद-यज्ञ में अधिकार प्राप्त करना उपनयन है।
कुतर्कियों का यहां एक विशेष कुतर्क उपस्थित होगा – सब मम प्रिय सब मम उपजाये। और आगे की पंक्तियों को पचा जायेंगे मुँह से बाहर नहीं आने देंगे। भगवान ने ही सबको उत्पन्न किया है और सब भगवान को प्रिय हैं फिर ये आडम्बर क्यों ?
- साधारण सा प्रतिप्रश्न है राष्ट्रपति सबके होते हैं; किन्तु जैसे कोई मंत्री राष्ट्रपति से मिल सकता है क्या कोई सामान्य व्यक्ति मिल सकता है ?
- कुछ विशेष व्यक्ति होते हैं जिनके बंदी बनाने (गिरफ्तारी) से पूर्व ही बंधनसुरक्षाकवच (जमानत) छुट्टी के दिन भी सर्वोच्च न्यायालय से तुरंत मिल जाता है (उदहारण – तीस्ता सीतलवाड़), क्या सामान्य नागरिक को मिल सकता है ? क्या सामान्य नागरिक प्रथम बार में सर्वोच्च न्यायालय जा सकता है ?
- क्या सामान्य नागरिक देश के नागरिक नहीं होते ?
- क्या सामान्य नागरिक का कोई अधिकार नहीं होता ?
- एक चोरी का मोबाईल क्रय करने की त्रुटि मात्र करने वाला सामान्य नागरिक भी महीनों तक कारागार में रहता है, क्यों ?
- सांसद/विधायकों को संसद/विधानसभा में विशेष सुरक्षाकवच प्राप्त होता है, किसी भी वक्तव्य के लिये उन्हें वादी नहीं बनाया जा सकता जबकी वही वक्तव्य यदि संसद/विधानसभा के बाहर दें तो वादी बनाया जा सकता है और सामान्य नागरिक यदि वही वक्तव्य दे तो तत्काल बंदी भी बनाया जा सकता है। ऐसा क्यों होता है ?
आशा है उन लोगों को उत्तर समझ में आ गया हो कि मनुष्य-मनुष्य में क्या अंतर होता है, क्यों अंतर होता है, संस्कार की क्या आवश्यकता होती है ?