क्या आप उपनयन संस्कार के इन महत्वपूर्ण तथ्यों को जानते हैं – upnayan sanskar

क्या आप उपनयन संस्कार के इन महत्वपूर्ण तथ्यों को जानते हैं – upnayan sanskar

अनाश्रमी

क्योंकि उपयनय में ही समावर्तन भी समाहित करने से विवाह में विलम्ब होने पर उतने दिन तक अनाश्रमी सिद्ध होता है न ही ब्रह्मचारी रहता है न ही गृहस्थ। समावर्तन होने का अर्थ होता है ब्रह्मचर्य का त्याग। अर्थात ब्रह्मचर्याश्रम से निःसृत हो जाता है और जब तक विवाह न हो तब तक गृहस्थाश्रम में प्रविष्ट नहीं होता अतः अनाश्रमी अर्थात आश्रमहीन होता है। अनाश्रमी होना भी दोषद है।

  • अनाश्रमी के विषय में दक्ष का वचन इस प्रकार प्राप्त होता है : अनाश्रमी न तिष्ठेत दिनमेकमपिद्विजः। आश्रमेण विना तिष्ठन्प्रायश्चित्तीयते यतः॥
  • पुनः मिताक्षरा में अनाश्रमी होने पर इस प्रकार प्रायश्चित्त का वर्णन प्राप्त होता है : अनाश्रमी संवत्सरं प्राजापत्यं कृच्छ्रं चरित्वाऽश्रममुपेयात् द्वितीये अतिकृच्छ्रं। तृतीये कृच्छ्रातिकृच्छ्रं। अत ऊर्ध्वं चान्द्रायणमितिहारीतोक्तेः ॥

इस प्रकार उपनयन के वर्तमान स्वरूप (गौण काल का भी उल्लंघन करने से) में तीन प्रकार के दोष सिद्ध होते हैं :

  1. व्रात्य – ससमय उपनयन न होने से व्रात्यता उपस्थित होता है। बरुआ पतित हो जाता है, वृषल कहलाता है।
  2. त्रिरग्निदोष – एक बार में चार कर्म करने से त्रिरग्नि दोष और प्रबल सिद्ध होता है। त्रिरग्नि का तात्पर्य तीन संख्या का निषेध नहीं दो से अधिक कर्म का निषेध होता है। कुछ विद्वानों ने तीन संख्या का ग्रहण करके 4 संख्या कर दिया जिससे दोष की वृद्धि ही होती है।
  3. अनाश्रमी दोष – एक साथ ही चारों संस्कार हो जाने से विवाह में विलम्ब होने पर अनाश्रमी दोष की भी सिद्धि होती है।

निराकरण हेतु परामर्श

इन दोषों को व्ययाधिक्यता के कारण भी ग्रहण न करे। विज्ञजन निवारण का प्रयास करें। बहुत विस्तृत आयोजन का प्रदर्शन करने से क्या लाभ जब पात्र ही दूषित हो जाये। आवश्यता दोष को समझने की है, सजग होने की है। इस विषय पर प्रथमतया ब्राह्मणवर्ग विचार करे तदनन्तर ही अन्य वर्ग के लिये संभव हो सकता है। जो व्यवहार मुख्य कर्म का बाधक बने उस व्यवहार का त्याग करे किन्तु मुख्य कर्म का त्याग न करे अथवा कर्म के काल का अतिक्रमण न करे।

यदि भोज के कारण ही उपनयन के उचित काल का अतिक्रमण होने लगा है तो उस भोज का त्याग भी किया जा सकता है। भोज अंग है न कि कर्म, कर्म उपनयन ही है। जैसे भोजन चावल-दाल है अनेकों प्रकार के चटनी-आचार-तिलौरी-पापड़-तरुआ आदि अंग मात्र हैं। जिस समय क्षुधित हों उस समय मात्र चावल-दाल भी उपलब्ध हो जाये तो उत्तम है। काल व्यतीत होने से क्षुधा वृद्धि नहीं क्षुधा पीड़ा होगी, शरीर अस्वस्थ होगा। अतः चटनी-आचार-तिलौरी-पापड़-तरुआ आदि की प्रतीक्षा करते हुये क्षुधित रहने पर भी चावल-दाल भोजन न करना बुद्धिमत्ता सिद्ध नहीं की जा सकती।

यदि ब्राह्मणवर्ग भी इन गंभीर विषयों पर जागरुक नहीं होते तो क्या कहा जा सकता है कलयुग का प्रभाव माना जा सकता है। किन्तु जो शास्त्र ब्राह्मण का बल है उस शास्त्र के संरक्षण हेतु भी ब्राह्मण को तत्पर रहना चाहिये।

एक बार पुनः स्पष्ट कर दूँ जिससे समझने में आसान हो जाये :

  • जिस समय मुण्डन किया जाता है उस समय चूडाकरण करे। यथा व्यवहार (मुण्डन) के अनुसार भोज आदि करे। मुण्डन के समय चूडाकरण कहने का तात्पर्य है कि वह अनुपनीत होने पर भी पिता के विधिवत श्राद्ध का अधिकारी हो जायेगा। चार कर्मों में से एक कर्म संपन्न हो जायेगा। बहुत लोग तो मुण्डन गंगादि तट या क्षेत्रीय विशेष मंदिरों पर जाकर करते हैं अतः मण्डप की अनिवार्यता भी समाप्त हो जाती है। इससे चूडाकरण के मुख्य उद्देश्य शिखा-स्थापन और शिखा धारण में प्रवृत्ति होगी।
  • जिस समय उपनयन (चारों संस्कार) करते हैं उस समय नहीं यथाकाल (षोडशवर्ष) में शेष तीन (उपनयन, वेदारम्भ और समावर्तन) में से समावर्तन को छोड़कर उपनयन और वेदारम्भ कर ले। उपनयन के व्यवहार से भोज आदि करे। अर्थात उचित प्रकार से करने पर भी व्ययाधिक्यता संबंधी समस्या नहीं होगी। क्योंकि उचित काल में संस्कार करने पर भी अनेक मण्डप, अनेक पंडाल, अनेक भोज कि आवश्यकता नहीं होगी।
  • हस्तग्रहण से पूर्व अथवा हस्तग्रहण के दिन ही समावर्तन कर ले। इससे अनाश्रमी होने के दोष का निवारण हो जायेगा।

सनातन धर्म के 16 संस्कार

युगधर्मानुसार 16 संस्कार संपादन

इस संबंध में कुछ और भी महत्वपूर्ण बातें हैं जिसकी चर्चा अपेक्षित है । क्योंकि संस्कार लोप का व्यवहार प्रचलित होने लगा है। संस्कारों का लोप न हो इस कारण अपकर्षण व उपकर्षण का विकल्प भी प्राप्त होता है एवं उपनयन में दोनों का प्रयोग देखा जाता है। वेदारम्भ और समावर्तन परवर्ती संस्कार है जिसका अपकर्षण उपनयन में किया जाता है एवं चूडाकरण का उपकर्षण किया जाता है। और इसी कारण उपनयन में चूडाकरण से समावर्तन तक 4 संस्कार का प्रचलन प्राप्त होता है।

तथापि यदि इस प्रकार भी विचार किया जाय तो चूडाकरण से समावर्तन तक 4 संस्कार, पुनः पांचवां विवाह और छठा दाह संस्कार कुल 6 संस्कार ही करने से 10 संस्कार का लोप तो होता ही है। इस लोप के लिये बचने के लिये शास्त्रानुमोदित मार्ग की आवश्यकता है जिससे सामान्य जनों के भी संस्कारों का लोप न हो। तदर्थ अपकर्षण व उपकर्षण विधि; जो शास्त्र व व्यवहार दोनों से सिद्ध है; का आश्रय लेना होगा।

  • स्वतंत्र रूप से यदि गर्भाधान संस्कार न किया जा सके तो विवाहोपरांत अपकर्षण पूर्वक करे। समावर्तन विवाह में वरवरण से पूर्व करे।
  • तदुपरांत यदि जातकर्म भी न कर सके तो नामकरण संस्कार करे। नामकरण संस्कार में पुंसवन, सीमन्तोन्नयन का प्रायश्चित्त कर ले व जातकर्म का उपकर्षण करे और निष्क्रमण का अपकर्षण करे।
  • तदुपरांत चूडाकरण में अन्नप्राशन का उपकर्षण, विद्यारम्भ का अपकर्षण करे।
  • उपनयन में कर्णवेध का उपकर्षण, वेदारम्भ व केशान्त का अपकर्षण करे।
  • दाह-संस्कार हेतु अपकर्षण-उपकर्षण का कोई प्रश्न ही उप्तन्न नहीं होता।

मुंडन संस्कार (चूडाकरण विधि)

इस प्रकार मूल समस्या जो व्ययाधिक्य माना जाता है उसका निवारण भी जो जायेगा और यथाकाल संस्कार भी होगा। अर्थात विभिन्न प्रकार के दोषों की व्याप्ति नहीं होगी। जिस प्रकार शास्त्राज्ञा का पालन हो सके उस प्रकार से ही सही किन्तु पालन अवश्य करे। ऊपर शास्त्राज्ञा उल्लंघन का कारण स्पष्ट करते हुये निवारण भी प्रस्तुत किया गया है, जिससे चेतना प्रस्फुटित हो सके, उचित-अनुचित का ज्ञान प्राप्त हो और अनुचित का त्याग करते हुए उचित को ग्रहण किया जा सके।

उपरोक्त आलेख में किसी भी त्रुटि मिलने पर अथवा सुझाव प्रदान करने हेतु व्हाटसप पर संदेश भेजें : 7992328206.

F & Q :

प्रश्न : वैदिक काल में बालक का उपनयन संस्कार कितनी आयु में किया जाता था?
उत्तर : वैदिककाल में बालक का उपनयन 5 – 11 वर्ष की आयु में किया जाता था। ब्राह्मणों के लिये 8 अथवा 5 वर्ष से 16 वर्ष, क्षत्रिय के लिये 11 से 22 वर्ष और वैश्य के लिये 12 से 24 वर्ष उपनयन करने की उचित आयु होती है जो वर्त्तमान में भी यथावत है।

प्रश्न : उपनयन से आप क्या समझते हैं?
उत्तर : उपनयन शब्द में उप का अर्थ निकट या पास होता है और नयन का अर्थ ले जाना होता है। अर्थात उपनयन का अर्थ होता है निकट या पास ले लाना। यहां पास लाने का तात्पर्य है उचित काल में गुरु द्वारा वेद/ज्ञान के निकट ले जाना।

प्रश्न : उपनयन संस्कार कितने प्रकार के होते हैं?
उत्तर : उपनयन संस्कार दो प्रकार के होते हैं – प्रथम मुख्य उपनयन और द्वितीय पुनरुपनयन।

  • मुख्य उपनयन : जो प्रथम बार उचित काल में किया जाता है वह उपनयन का मुख्य प्रकार है।
  • पुनरुपनयन : शास्त्रों में उपनीतों के लिये कई प्रकार के निषेध किये गये हैं। किसी कारणवश निषिद्ध आचरण होने में पर पुनः उपनयन करने की अलग विधि है जिसे पुरुपनयन कहा जाता है।

प्रश्न : उपनयन संस्कार में कौन कौन सी सामग्री लगती है?
उत्तर : उपनयन संस्कार में कौपीन, समिधा, घृत, मेखला, मृगचर्म, दण्ड, यज्ञोपवीत, पान, सुपारी, ईंधन, हवन के पात्र, कुशा आदि सामग्री लगता है।

प्रश्न : जनेऊ की लंबाई कितनी होनी चाहिए?
उत्तर : जनेऊ धारण करने वाले के हाथ की चारों ऊँगली मूल में 96 बार लपेटने पर जो माप हो उससे बनाना चाहिये। जनेऊ की लम्बाई नाभि तक माप की होनी चाहिये, न ही नाभि से बहुत नीचे और न ही नाभि से बहुत ऊपर होना चाहिये।

प्रश्न : जनेऊ अशुद्ध होने पर क्या करें?
उत्तर : जनेऊ अशुद्ध होने पर उसका त्याग करके तुरंत दूसरा जनेऊ धारण करना चाहिये। अशुद्ध जनेऊ पहनकर कोई भी कर्म नहीं करना चाहिये यहाँ तक कि आचमन, भोजन आदि भी नहीं करे।

प्रश्न : क्या स्त्री जनेऊ धारण कर सकती है?
उत्तर : कलयुग के अतिरिक्त अन्य युगों में स्त्रियों के दो प्रकार होते थे ब्रह्मचारिणी और सद्योवधू। अन्य युगों में ब्रह्मचारिणी स्त्रियों के लिये जनेऊ धारण करने का नियम था किन्तु कलयुग में वर्जित है; अतः वर्तमान में कलयुग होने के कारण स्त्रियों को जनेऊ धारण नहीं करना चाहिये।

प्रश्न : जनेऊ का दूसरा नाम क्या है?
उत्तर : जनेऊ का दूसरा नाम यज्ञोपवीत है, इसी प्रकार अन्य नाम ब्रह्मसूत्र भी है।

प्रश्न : जनेऊ किस किसका होता है?
उत्तर : जनेऊ ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्यों का होता है।

कर्मकांड विधि में शास्त्रोक्त प्रमाणों के साथ प्रामाणिक चर्चा की जाती है एवं कई महत्वपूर्ण विषयों की चर्चा पूर्व भी की जा चुकी है। तथापि सनातनद्रोही उचित तथ्य को जनसामान्य तक पहुंचने में अवरोध उत्पन्न करते हैं। एक बड़ा वैश्विक समूह है जो सनातन विरोध की बातों को प्रचारित करता है। गूगल भी उसी समूह का सहयोग करते पाया जा रहा है अतः जनसामान्य तक उचित बातों को जनसामान्य ही पहुंचा सकता है इसके लिये आपको भी अधिकतम लोगों से साझा करने की आवश्यकता है।

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