भूतोत्सारण : ॐ अपसर्पन्तु ते भूता ये भूता भूमिसंस्थिताः । ये भूता विघ्नकर्तारस्ते नश्यन्तु शिवाज्ञया ॥ – विस्तृत रक्षाविधान
पञ्चगव्य प्रयोग विधान – प्राशन , स्नान और प्रोक्षण
भूमि पूजन : ॐ भूरसि भूमिरस्यदितिरसि विश्वधाया विश्वस्य भुवनस्य धर्त्री। पृथिवीं यच्छ पृथिवीं दृ ᳪ ह पृथिवी ᳪ माहि ᳪ सीः ॥ भूमिपूजन मंत्र – लं पृथिव्यै नमः।
तदुत्तर आचार्य मध्य अथवा पूर्व भाग में (कलशपूजा भाग छोड़कर) वेदी निर्माण कर अथवा हस्त मात्र भूमि नाप कर पंचभूसंस्कार पूर्वक हवन विधि के अनुसार अग्निस्थापन करे।
अग्निस्थापन विधि
- परिसमूह्य : ३ कुशाओं से स्थण्डिल या हस्तमात्र भूमि की सफाई करें। कुशाओं को ईशानकोण में (अरत्निप्रमाण) त्याग करे ।
- उल्लेपन : गोबर से ३ बार लीपे।
- उल्लिख्य – स्फय या स्रुवमूल से प्रादेशमात्र पूर्वाग्र दक्षिण से उत्तर क्रम में ३ रेखा उल्लिखित करे।
- उद्धृत्य – दक्षिणहस्त अनामिका व अंगुष्ठ से सभी रेखाओं से थोड़ा-थोड़ा मिट्टी लेकर ईशान में (अरत्निप्रमाण) त्याग करे।
- अग्नानयन व क्रव्यदांश त्याग – कांस्यपात्र या हस्तनिर्मित मृण्मयपात्र में अन्य पात्र से ढंकी हुई अग्नि मंगाकर अग्निकोण में रखवाए । ऊपर का पात्र हटाकर थोड़ी सी क्रव्यदांश अग्नि (ज्वलतृण) लेकर नैर्ऋत्यकोण में त्याग कर जल से बुझा दे ।
- अग्निस्थापन – दोनों हाथों से आत्माभिमुख अग्नि को स्थापित करे :- ॐ अग्निं दूतं पुरोदधे हव्यवाहमुपब्रुवे । देवां२ आसादयादिह ॥ अग्नानयन पात्र में अक्षत-जल छिरके।
- अग्निपूजन-उपस्थान – अग्नि को प्रज्वलित कर पूजा करे, नैवेद्य वायव्यकोण में देकर स्तुति करे : ॐ अग्निं प्रज्वलितं वन्दे जातवेदं हुताशनं। हिरण्यवर्णममलं समृद्धं विश्वतोमुखं ॥
फिर हवन वेदी के पूर्व भाग में आचार्य पांच रंगों अथवा श्वेत चावल से स्वास्तिक बनाकर पूर्वाग्र कुशायें बिछा दें। उसके ऊपर श्रीपर्णी (गम्हारि) अथवा अन्य शुद्ध लकड़ी का पीठ स्थापित करके उसपर श्वेत वस्त्र बिछायें। पुनः पीठ पर पूर्वादि चारों दिशाओं में 4 स्वास्तिक और निर्माण करे।
फिर चारों ब्राह्मण अलग-अलग चारों स्वास्तिकों पर एक वर्ण के चार “कलश स्थापन विधि” से पूर्णपात्रांत कलश स्थापित करें। कलश स्थापन में विशेषता यह है कि संगम का जल दे एवं सप्तमृत्तिका (अथवा पञ्चमृत्तिका) के अलग मंत्र भी बताये गए हैं :
पञ्चमृत्तिका – उद्धतासिवराहेणकृष्णेन शतवाहुना। मृत्तिके हर मे पापं यन्मया दुष्कृतंकृतं ॥ तथा गंधद्वारां मंत्र से चंदन, अगरु, केशर, कस्तूरी, कर्पूर, गोरोचन, गुग्गुल आदि भी निक्षेप करे।
फिर कलशस्य मुखे विष्णु का पाठ कर कलश में अधिष्ठात्री देवताओं का आवाहन करें :
कलशस्यमुखे विष्णु: कण्ठेरुद्रः समाश्रित:। मूलेत्वस्य स्थितो ब्रह्मा मध्येमातृगणा: स्मृता:॥
कुक्षौ तु सागरा: सर्वे सप्तद्वीपा च मेदिनी। अर्जुनी गोमती चैव चन्द्रभागा सरस्वती ॥
कावेरी कृष्णवेणा च गंगा चैव महानदी । तापी गोदावरी चैव माहेन्द्री नर्मदा तथा ॥
नदाश्च विविधा जाता नद्य: सर्वास्तथापरा:। पृथिव्यां यानि तीर्थानि कलशस्थानि तानि वै॥
सर्वे समुद्रा: सरितस्तीर्थानि जलदा नदा: । आयान्तु मम शान्त्यर्थं दुरितक्षयकारका: ॥
ऋग्वेदोऽथ यजुर्वेद: सामवेदो ह्यथर्वण: । अंगैश्च सहिता: सर्वे कलशं तु समाश्रिता: ॥
अत्र गायत्री सावित्री शान्ति पुष्टिकरी तथा । आयान्तु मम शान्त्यर्थम् दुरितक्षयकारकाः ॥
फिर वरुण का आवाहन करें : ॐ त्वन्नोऽअग्ने वरुणस्य विद्वान् देवस्य हेडो अवयासि सीष्ठाः। यजिष्ठो वह्नितमः शोशुचानो विश्वा द्वेषा ᳪ सि प्रमुमुग्ध्यस्मत् ॥ फिर ॐ मनो जूतिर्ज्जुषतामाज्ज्यस्य बृहस्पतिर्य्यज्ञमिमं तनोत्वरिष्टं य्यज्ञ ᳪ समिमं दधातु। विश्वे देवासऽइह मादयन्तामों३ प्रतिष्ठ ॥ कलशे वरुणाद्यावाहितदेवता: सुप्रतिष्ठिता: वरदा: भवन्तु ॥ ॐ वरुणाद्यावाहित देवताभ्यो नम: ॥ मंत्र से प्राण प्रतिष्ठा करके षोडशोपचार पूजन करें।
तत्पश्चात् ॐ आनो भद्राः ………. ॐ शन्नो वातः ………. आदि शांतिपाठ करें। पुनः हवन वेदी के ईशानभाग में एक अन्य पीठ/वेदी पर कलश स्थापन विधि से पूर्णपात्र पर्यन्त कलश स्थापन करें। गणेशाम्बिका की स्वर्ण निर्मित प्रतिमा का अग्न्युत्तारण करके कलश पर रखे और प्राण प्रतिष्ठा-आवाहन करे :
- गणपति आवाहन : ॐ गणानान्त्वा गणपति ᳪ हवामहे प्रियाणान्त्वा प्रियपति ᳪ हवामहे निधीनान्त्वा निधिपति ᳪ हवामहे व्वसो मम आहमजानि गर्भधमात्त्वमजासि गर्भधम् ॥ ॐ तत्पुरुषाय विद्महै वक्रतुण्डाय धीमहि तन्नो दंतिः प्रचोदयात् ॥ ॐ भूर्भुवः स्वः विनायक इहागच्छ इहतिष्ठ ॥
- गौरी आवाहन : ॐ अम्बेऽअम्बिकेऽम्बालिकेन मानयतिकश्चनः । ससस्त्यश्वकः सुभद्रिकां काम्पीलवासिनीम् ॥१॥ ॐ सुभगायैविद्महे काममालिन्यैधीमहि ॥ तन्नो गौरी प्रचोदयात् ॥२॥ ॐ भूर्भुवः स्वगौरि इहागच्छ इहतिष्ठ ॥
कलश के निकट वेदी/पीठ पर 15 पान, पूगीफल देकर अक्षपुञ्ज दे और अगले मंत्रों से एक-एक पर क्रमशः व्योमकेशादि का आवाहन करे :-
- ॐ व्योमकेश इहागच्छ इहतिष्ठ ॥१॥
- ॐ पार्वती इहागच्छ इहतिष्ठ ॥२॥
- ॐ भीमज इहागच्छ इहतिष्ठ ॥३॥
- ॐ वसुदेव इहागच्छ इहतिष्ठ ॥४॥
- ॐ अर्क इहागच्छ इहतिष्ठ ॥५॥
- ॐ सोम इहागच्छ इहतिष्ठ ॥६॥
- ॐ भौम इहागच्छ इहतिष्ठ ॥७॥
- ॐ बुध इहागच्छ इहतिष्ठ ॥८॥
- ॐ बृहस्पते इहागच्छ इहतिष्ठ ॥९॥
- ॐ शुक्र इहागच्छ इहतिष्ठ ॥१०॥
- ॐ शनैश्चर इहागच्छ इहतिष्ठ ॥११॥
- ॐ राहो इहागच्छ इहतिष्ठ ॥१२॥
- ॐ केतो इहागच्छ इहतिष्ठ ॥१३॥
- ॐ बाहुलेय इहागच्छ इहतिष्ठ ॥१४॥
- ॐ विष्णो इहागच्छ इहतिष्ठ ॥१५॥
गन्धादि से सबका अलग-अलग अथवा तंत्र से पूजन कर ले ।
विनायक के उत्तर भाग में नवग्रह वेदी स्थापित करे । नवग्रह वेदी पर नवग्रह-दिक्पालादि पूजन करे ।
पुनः नवग्रहवेदी के ईशानभाग में दधि-अक्षत से विभूषित कलश स्थापन-पूजन करे । तत्पश्चात् पुनः अग्नि के समीप बैठकर हवन विधि के अनुसार ब्रह्मा का आसनादि करके चरु पकाए :
ब्रह्मावरणादि :
- ब्रह्मावरण – उत्तर दिशा में स्थित प्रत्यक्ष ब्रह्मा (विद्वान ब्राह्मण) ब्रह्मा का वरण वस्त्र, पान, सुपारी, द्रव्य, तिल, जलादि लेकर करे : ॐ अद्य कर्तव्य ……….. होम कर्मणि कृताकृतावेक्षणरूप ब्रह्मकर्मकर्तुं एभिः वरणीय वस्तुभिः ……….. गोत्रं ……….. शर्माणं ब्रह्मत्वेन त्वामहं वृणे॥ ब्रह्मा स्वीकार करके “वृत्तोस्मि” कहे पुनः यजमान “यथाविहितं कर्म कुरु” कहे और ब्रह्मा “करवाणि” कहे। अथवा ५० कुशात्मक ब्रह्मा पक्ष में : ॐ अद्य अस्मिन् होम कर्मणि कृताकृतावेक्षणरूप कर्मकर्तुं त्वं मे ब्रह्मा भव । कुशात्मक ब्रह्मा में प्रतिवचन नहीं होता।
- बह्मा का आसन – दक्षिण दिशा (अग्निकोण) में, परिस्तरण भूमि को छोड़कर ब्रह्मा के लिये ३ कुश का आसान पूर्वाग्र बिछाये। प्रत्यक्ष ब्रह्मा का दक्षिणहस्त ग्रहण कर (कुशात्मक बह्मा को उठाकर) प्रदक्षिण क्रम से दक्षिण ब्रह्मासन तक ले जाकर स्वयं पूर्वाभिमुख होकर ब्रह्मा को उत्तराभिमुख बैठाये या कुशात्मक ब्रह्मा को रखे – ॐ अस्मिन होम कर्मणि त्वं मे ब्रह्मा भव॥ ब्रह्मा की पूजा अमंत्रक ही करे। पुनः अप्रदक्षिणक्रम से अग्नि के पश्चिम आकर आसन पर बैठे।
- प्रणीय – तदनन्तर प्रणीतापात्र को आगे में रखकर जल भरे, कुशाओं से आच्छादन करे । फिर ब्रह्मा का मुखावलोकन करते हुए अग्नि के उत्तर भाग में विहित कुशाओं के आसन पर रखे । (वाजसनेयी विशेष, छन्दोग में अभाव)
- परिस्तरण – तदनन्तर १६ कुशा लेकर परिस्तरण करे । ४ कुशा अग्निकोण से ईशानकोण तक उत्तराग्र, ४ कुशा दक्षिण में ब्रह्मा से अग्नि पर्यंत पूर्वाग्र, ४ कुशा नैर्ऋत्यकोण से वायव्यकोण तक उत्तराग्र और ४ कुशा उत्तर दिशा में अग्नि से प्रणीता तक पूर्वाग्र बिछाए । (परिस्तरण हेतु एक और प्राकान्तर प्राप्त होता है : पूर्व में पूर्वाग्र, दक्षिण में उत्तराग्र, पश्चिम में पूर्वाग्र और उत्तर में पुनः उत्तराग्र।) – तत्पश्चात चरु पकाये
तत्पश्चात गाय के घृत में पिली सरसों चूर्ण या खली मिलाकर सम्पूर्ण शरीर में उद्वर्तन लेपित करे। सिर में सर्वौषधि और सभी प्रकार के गंध का लेप करके भद्रासन पर बैठकर पुण्याहवाचन करे।