वरार्चन विधि
- कन्या दाता पवित्रीकरणादि करके, वर के लिये मण्डप में पूर्वाभिमुख बैठने हेतु हरिद्रादि से रञ्जित पीठ (पीढ़ा) रखे। फिर वर का हाथ पकड़कर कुशास्तरित पीढ़े पर बैठाये : ॐ साधुभवानास्तामर्चयिष्यामो भवन्तम् ॥
- वर कहे – “ॐ अर्चय”, फिर कन्यादाता पीढ़े पर पूर्वाग्र कुशा देकर वर को बैठाये। वर आचमन करके पवित्रीकरण कर ले। फिर कन्यादाता तिलक लगाकर माला पहना दे “ॐ विष्णुरूपिणे वराय नमः” ।
विष्टर – 1
- फिर कन्यादाता 25-25 कुशाओं अथवा अन्य विकल्प का 2 विष्टर बना ले। अन्य व्यक्ति (ब्राह्मण) तीन बार कहे – ॐ विष्टरो विष्टरो विष्टरः॥
- कन्यादाता एक विष्टर लेकर वर को दे – ॐ विष्टरः प्रतिगृह्यताम्॥
- वर दोनों हाथों से (अञ्जलि में – उत्तराग्र) विष्टर ग्रहण करे – ॐ विष्टरं प्रतिगृह्णामि॥
- फिर वर इस मंत्र को पढ़े – ॐ वर्ष्मोऽस्मि समानानामुद्यतामिव सूर्यः । इमं तमभितिष्ठामि यो मां कश्चाभिदासति ॥ फिर विष्टर दोनों पैरों के नीचे उत्तराग्र रखे।
पाद्य :
- फिर कन्यादाता पाद्यपात्र में किञ्चित उष्णजल दे। अन्यव्यक्ति (पुरोहित) कहे – ॐ पाद्यं पाद्यं पाद्यं ॥
- कन्यादाता वर को पाद्य दे : ॐ पाद्यं प्रतिगृह्यताम्॥
- वर पाद्यपात्र ग्रहण करे – ॐ पाद्यं प्रतिगृह्णामि॥
- तत्पश्चात पाद्यपात्र को भूमि पर रख दे। अञ्जलि में पाद्य का जल लेकर यह मंत्र पढ़े – ॐ विराजो दोहोऽसि विराजो दोहमशीय मयि पाद्यायै विराजो दोहः ॥ प्रथम बार में दाहिना पैर धोये। प्रथम दाहिना पैर का नियम ब्राह्मणों के लिये है, ब्राह्मणेतर प्रथम बांयां तदुत्तर दांयां पैर धोये – “पादं प्रक्षालयेद्विप्रो दक्षिणं प्रथमं सदा शूद्रस्तु वामं प्रथमं सामवेदी तथा वधू।”
- पुनः अञ्जलि में जल लेकर ॐ विराजो दोहोसि विराजो दोहमशीय मयि पाद्यायै विराजो दोहः ॥ मंत्र को पढ़े और बांया पैर धोये।
विष्टर – 2
- अन्य व्यक्ति (ब्राह्मण) तीन बार कहे – ॐ विष्टरो विष्टरो विष्टरः॥
- कन्यादाता एक विष्टर लेकर वर को दे – ॐ विष्टरः प्रतिगृह्यताम्॥
- वर दोनों हाथों से (अञ्जलि में – उत्तराग्र) विष्टर ग्रहण करे – ॐ विष्टरं प्रतिगृह्णामि॥
- फिर वर इस मंत्र को पढ़े – ॐ वर्मोऽस्मि समानानामुद्यतामिव सूर्यः । इमं तमभितिष्ठामि यो मां कश्चाभिदासति ॥ फिर विष्टर दोनों पैरों के नीचे उत्तराग्र रखे।
अर्घ :
- फिर कन्यादाता हाथ-पैर धो ले। अर्घ्यपात्र (शङ्ख) में जल, गंधपुष्पाक्षत, तिल, जौ, दूर्वा, फल आदि देकर अर्घ्य निर्माण करे। अन्य व्यक्ति (पुरोहित) कहें – ॐ अर्घो अर्घो अर्घः॥
- कन्यादाता अर्घ्यपात्र लेकर अगला मंत्र पढ़े और वर को दे : ॐ अर्घः प्रतिगृह्यताम्॥
- वर अर्घ्यपात्र को इस मंत्र से ग्रहण करे – ॐ अर्घं प्रतिगृह्णामि ॥
- फिर अगले मंत्र को पढ़े – ॐ आपःस्थ युष्माभिः सर्वान्कामानवाप्नुवानि ॥
- किञ्चित अक्षतादि शिर पर लेकर अगले मंत्र को पढ़े – ॐ समुद्रं वः प्राहिणोमि स्वां योनिमभिगच्छत । अरिष्टास्माकं वीरा मा परासेचिमत्पयः ॥ अर्घ्यपात्र के जल का ईशान में त्याग करे।
आचमन
- पुनः अन्य व्यक्ति (पुरोहित) कहे – ॐ आचमनीयं, आचमनीयं, आचमनीयं ॥
- कन्यादाता आचमनपात्र लेकर वर को प्रदान करे – ॐ आचमनीयं प्रतिगृह्यताम् ॥
- वर कन्यादाता से जलादियुक्त आचमन पात्र ग्रहण करे – ॐ आचमनीयं प्रतिगृह्णामि ॥
- फिर इस मंत्र से वर एक बार आचमन करे – ॐ आमागन् यशसा स ᳪ सृज वर्चसा तन्मा कुरु प्रियं प्रजानामधिपतिं पशूनामरिष्टिं तनूनाम् ॥
- पुनः बिना मंत्र के दो बार आचमन करके ओष्ठ और हाथों को धो ले।
मधुपर्क
- फिर अन्य व्यक्ति (पुरोहित) कहें – ॐ मधुपर्को मधुपर्को मधुपर्कः ॥
- कन्यादाता मधुपर्क पात्र (कांस्यपात्र में दधि, मधु, घृत देकर अन्य कांस्य पात्र से ढंककर) ले और अगले मंत्र से वर को प्रदान करे – ॐ मधुपर्कः प्रतिगृह्यताम् ॥
- अगले मंत्र से वर मधुपर्क पात्र स्पर्श करते हुये पढ़े – ॐ मधुपर्कं प्रतिगृह्णामि ॥
- फिर ऊपर से ढंके हुये दूसरे पात्र को हटाकर मधुपर्क देखते हुये यह मंत्र पढ़े – ॐ मित्रस्य त्वा चक्षुषा प्रतीक्षे ॥
- फिर अगले मंत्र को पढ़कर कन्यादाता के हाथ से मधुपर्क पात्र वर ग्रहण करे – ॐ देवस्य त्वा सवितु प्रसवेश्विनोर्बाहुभ्यां पूष्णो हस्ताभ्यां प्रतिगृह्णामि ॥ मधुपर्क पात्र को बांये हाथ में ले ले।
- फिर अगले मंत्र को पढ़ते हुये दाहिने हाथ कि अनामिका प्रदक्षिण क्रम से घुमाते हुये मधुपर्क को मिलाये – ॐ नमः श्यावास्यायान्नशने यत्त आविद्ध तत्ते निष्कृन्तामि ॥ अनामिका और अंगुष्ठ से थोड़ा सा मधुपर्क भूमि पर त्यागे। उपरोक्त क्रिया “ॐ नमः श्यावास्यायान्नशने यत्त आविद्ध तत्ते निष्कृन्तामि” मंत्र पढ़ कर दो बार और करे। कुल तीन बार करे।
- फिर अगले मंत्र को पढ़कर अनामिका और अंगुष्ठ से मधुपर्क ग्रहण करे – ॐ यन्मधुनो मधव्यं परम ᳪ रूपमन्नाद्यम् । तेनाहं मधुनो मधव्येन परमेण रूपेणान्नाद्येन परमो मधव्योऽन्नादोऽसानि ॥ अनामिका व अंगुष्ठ से मधुपर्क प्राशन करे। “ॐ यन्मधुनो मधव्यं…” मंत्र को पढ़कर दो बार और मधुपर्क प्राशन करे। कुल तीन बार प्राशन करे।
असञ्चरदेशे धारयेत् – मधुपर्क पात्र को फिर असञ्चर देश (एकान्त में जहां कोई आवागमन न करे) रख दे। हाथ धोकर दो बार आचमन कर ले। असञ्चर देश की एक व्याख्या इस प्रकार भी की जाती है कि अग्नि और प्रणीता के मध्य भाग में आवागमन निषिद्ध होता है अतः वह असञ्चर देश होता है।
किन्तु यह समुचित प्रतीत नहीं होता। जब प्रणीता पात्र का स्थापन हो जाये तत्पश्चात अग्नि-प्रणीता मध्य की सिद्धि होती है। किन्तु अभी तो अग्निस्थापन भी शेष है अतः वह असञ्चर देश सिद्ध नहीं होता। असञ्चर देश की वास्तविक सिद्धि एकान्त स्थान जहां कोई आवागमन न करे; के रूप में ही होती है।
अङ्गस्पर्श
- ॐ वाङ्मे आस्येऽस्तु – पांचो अंगुलियों से मुख का स्पर्श करे।
- ॐ नसोर्मे प्राणोऽस्तु – तर्जनी व अंगुष्ठ से नाक के दोनों पूड़े को छुये।
- ॐ अक्षोर्मे चक्षुरस्तु – अनामिका व अंगुष्ठ से दोनों नेत्रों का स्पर्श करे।
- ॐ कर्णयोर्मे श्रोत्रमस्तु – दोनों कर्ण का स्पर्श करे।
- ॐ बाह्वोर्मे बलमस्तु – दोनों बांहों का स्पर्श करे।
- ॐ ऊर्वोर्मे ओजोऽस्तु – दोनों जंघाओं का स्पर्श करे।
- ॐ अरिष्टानि मेऽङ्गानि तनूस्तन्वा मे सह सन्तु – दोनों हाथों द्वारा शिर से पैर तक स्पर्श करे।
गौर्गोर्गौः कहकर नापित वर को तृण (खड़) दे। फिर वर अगला मंत्र पढ़े – ॐ माता रुद्राणां दुहिता वसूना ᳪ स्वसाऽदित्यानाममृतस्य नाभिः प्रणुवोचं चिकितुषे जनाय मा गामनानामदिति वधिष्ट ॥ मम च ………. शर्मणः (वर्मणो/गुप्तस्य) यजमानस्य च उभयोः पाप्माहतः ॐ उत्सृजत् तृणान्यत्तु ॥ वर खड़ (तृण) को तोड़ दे।