विवाह पद्धति | विवाह विधि और मंत्र | जयमाला विधि सहित – वाजसनेयी – vivah vidhi

विवाह पद्धति | विवाह विधि और मंत्र | जयमाला विधि सहित – वाजसनेयी – vivah vidhi

अग्नि स्थापन

तदुत्तर मण्डप के उत्तर/ईशान में पूर्वनिर्मित वेदी पर अथवा हस्त मात्र भूमि का माप करके अग्निस्थापन करे। कन्यादान के लिये देवाग्निद्विजसन्निधौ से अग्नि का सान्निध्य अनिवार्य सिद्ध होता है। यहां कुछ लोग दीप और धूप को भी अग्नि कहने का कुतर्क कर सकते हैं। किन्तु अग्निसन्निध्य का तात्पर्य विधि पूर्वक स्थापित की हुई अग्नि है न कि धूप-दीप में उपस्थित अग्नि। पुनः विधिपूर्वक स्थापन होना भी आवश्यक है बहुत लोग अन्य व्यक्ति द्वारा विधिरहित अग्निप्रज्वलन भी करा लेते हैं।

  1. परिसमूह्य : ३ कुशाओं से स्थण्डिल या हस्तमात्र भूमि की सफाई करें। कुशाओं को ईशानकोण में (अरत्निप्रमाण) त्याग करे । 
  2. उल्लेपन : गोबर से ३ बार लीपे।
  3. उल्लिख्य – स्फय या स्रुवमूल से प्रादेशमात्र पूर्वाग्र दक्षिण से उत्तर क्रम में ३ रेखा उल्लिखित करे।
  4. उद्धृत्य – दक्षिणहस्त अनामिका व अंगुष्ठ से सभी रेखाओं से थोड़ा-थोड़ा मिट्टी लेकर ईशान में (अरत्निप्रमाण) त्याग करे।
  5. अग्नानयन व क्रव्यदांश त्याग – कांस्यपात्र या हस्तनिर्मित मृण्मयपात्र में अन्य पात्र से ढंकी हुई अग्नि मंगाकर अग्निकोण में रखवाए । ऊपर का पात्र हटाकर थोड़ी सी क्रव्यदांश अग्नि (ज्वलतृण) लेकर नैर्ऋत्यकोण में त्याग कर जल से बुझा दे ।
  6. अग्निस्थापन – दोनों हाथों से आत्माभिमुख बिना स्थापन मंत्र के हीअग्नि को स्थापित करे, अग्नानयन पात्र में अक्षत-जल छिरके। अग्नि को प्रज्वलित कर पूजा करे व अग्नि रक्षार्थ पर्याप्त ईंधन दे दे। अग्निनाम – योजक

विवाह हवन दानकर्ता का कार्य वारार्चन करके देवाग्निद्विज सन्निधि में कन्यादान करना है, हवन करना वर का कार्य है। विवाह में वर उपनीत होता है अस्तु स्वयं हवन कर सकता है, आचार्य की आवश्यकता नहीं होती। किन्तु कन्यादान से पूर्व यदि अग्निस्थापन न हो तो देव-द्विज सान्निध्य की सिद्धि होते हुये भी अग्निसान्निध्य की सिद्धि नहीं होती है, अग्नि का तात्पर्य विधिपूर्वक (शाखोक्त) स्थापित अग्नि होता है न कि कोई भी अग्नि।

फिर देशाचार विधि से मङ्गलगानादि पूर्वक कन्या को मण्डप में लाये। यद्यपि विधि के अनुसार वस्त्र कन्या को मण्डप में लाकर पहनाना सिद्ध होता है किन्तु जब कन्या युवती न हो तभी यह स्वीकार्य हो सकता है। युवती कन्यापक्ष में पूर्व ही वस्त्राभूषण धारण करना समुचित है। तथापि मण्डप पर मंत्र प्रयोग पूर्वक वस्त्र का स्पर्शमात्र करे।

वर धोती धारण कर द्वितीय उपवस्त्र भी धारण कर ले। संस्कार हेतु सिले हुये कुर्ते-पाजामे आदि का मोह न करते हुये त्याग कर दे और ये बातें अपने बच्चों को उसके अभिभावक पूर्व ही समझा दें, क्योंकि बहुत से कुसंस्कारग्रस्त ऐसे भी होते हैं जो किसी प्रकार संस्कार-विवाह का महत्व नहीं समझते अपने मंहगे वस्त्र का महत्व समझते हैं। कुछ तो धारण न करने पर गौरवान्वित भी होते हैं, किन्तु यह दोष वर का नहीं मानना चाहिये उसके माता-पिता-परिवार का होता है।

वस्त्र धारण कर दो बार आचमन कर ले, कन्या जलस्पर्श कर ले, फिर क्रमशः वस्त्र धारण मंत्रों से कन्या व स्वयं के वस्त्रों का स्पर्श कर ले।

कन्या के वस्त्र का स्पर्श करे :

  1. ॐ जरां गच्छ परिधत्स्व वासो भवा कृष्टीनामभिशस्ति पावा शतञ्च जीव शरदः सुवर्चा रयिञ्च पुत्राननु संव्ययस्वायुष्मतीदं परिधत्स्व वासः ॥
  2. ॐ या अकृन्तन्नवयन्या अतन्वत याश्च देव्यस्तन्तूनभितो ततन्थ । तास्त्वा देवीर्जरसे संव्ययस्वायुष्मतीदं परिधत्स्व वासः

फिर वर स्वयं के वस्त्रों का स्पर्श करे :

  1. ॐ परिधास्यै यशोधास्यै दीर्घायुत्वाय जरदष्टिरस्मि । शतं च जीवामि शरदः पुरूची रायस्पोषमभिसंव्ययिष्ये ॥
  2. ॐ यशसा मा द्यावा पृथिवी यशसेन्द्रा बृहस्पती यशोभगश्च माविन्दद्यशो मा प्रतिपद्यताम् ॥

जयमाला

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