विवाह पद्धति | विवाह विधि और मंत्र | जयमाला विधि सहित – वाजसनेयी – vivah vidhi

विवाह पद्धति | विवाह विधि और मंत्र | जयमाला विधि सहित – वाजसनेयी – vivah vidhi

जयमाला

यदि जयमाला करना ही हो तो यहां जब कन्यादाता अनुज्ञा दे तब करे। कुलीन जन इससे पूर्व न करे व कुलीनता को अपने साथ लेकर विदा न हो कुलीनता अगली पीढ़ी को प्रदान करके विदा हो।

कन्यादाता दोनों को सम्बोधित करते हुये कहे – ॐ परस्परं समञ्जेथाम् ॥ विधकरी दोनों को वरमाला-जयमाला दे । वर और कन्या एक दूसरे के सम्मुख हो जाये। विधकरी कन्या के मुख से आँचल हटा दे और वर कन्या एक-दूसरे को देखे। इस समय वर यह मंत्र पढ़े – ॐ समञ्जन्तु विश्वेदेवाः समापो हृदयानि नौ । सम्मातरिश्वा सन्धाता समुदेष्ट्री दधातु नौ ॥ फिर वर-कन्या एक दूसरे को माला पहनाकर जयमाला विधि पूर्ण करे। आचार्य इस मंत्र से वरकन्या को आशीर्वादाक्षतपुष्प प्रदान करे –

घर में लक्ष्मी कब आती है ?
  • ॐ प्रतिष्ठासु प्रतिष्ठितमस्तु दम्पत्योरविच्छिन्ना प्रीतिरस्तु
  • ॐ रुक्मिणीकृष्णसौभाग्यमुमाशङ्करयोर्यथा । सावित्रीब्रह्मसौभाग्यं तदस्तु वर-कन्ययोः ॥

फिर मण्डप में पूर्ववत पूर्वाभिमुख वर बैठे और पश्चिमाभिमुख कन्या बैठे। युवती कन्या माता के गोद में भी अधिक काल तक नहीं बैठायी जा सकती और पिता के जंघा पर बैठने का तो प्रश्न ही नहीं उत्पन्न होता क्योंकि कन्यादान बैठे-बैठे नहीं किया जाता। अतः कन्या के निमित्त भी एक हरिद्रादिरञ्जित पीढ़ा ही आगे में रखे। प्रतीकात्मक रूप से माता की गोद में कन्या का किञ्चित वस्त्रमात्र रखे। दोनों जलस्पर्श कर ले। कन्यादाता वर के द्वितीयवस्त्र में जन्मग्रंथि (गांठ) दे दे।

कन्यादान

कन्यादान
प्रवराध्याय
  • ॐ अद्य (अस्या रात्रौ) अमुकमासीय अमुकपक्षीय अमुकतिथौ अमुकगोत्रस्य अमुकप्रवरस्य अमुकशर्मणः प्रपौत्राय,  अमुकगोत्रस्य अमुकप्रवरस्य अमुकशर्मणः पौत्राय, अमुकगोत्रस्य अमुकप्रवरस्य अमुकशर्मणः पुत्राय,
  • अमुकगोत्रस्य अमुकप्रवरस्य अमुकशर्मणः प्रपौत्रीम्, अमुकगोत्रस्य अमुकप्रवरस्य अमुकशर्मणः पौत्रीम्, अमुकगोत्रस्य अमुकप्रवरस्य अमुकशर्मणः पुत्रीम्,
  • अमुकगोत्राय अमुकप्रवराय अमुकशर्मणे (ब्राह्मणाय) श्रीधररूपिणे वराय तुभ्यम् – अमुकगोत्राम् अमुकप्रवराम् अमुकनाम्नीम् इमां श्रीरूपिणीं कन्यां सालङ्कारां प्रजापतिदैवतां स्वर्गकामः देवाग्निद्विजसाक्षित्वेन पत्नीत्वेनाऽहं सम्प्रददे ॥

शङ्खस्थ द्रव्य कन्या का दक्षिणहस्त ग्रहण किये हुये वर के दक्षिणहस्त में दे दे । वर “ॐ स्वस्ति” कहकर पढे – ॐ द्यौस्त्वा ददातु पृथवी त्वा प्रतिगृह्णातु ॥

दक्षिणा : फिर कन्यादाता त्रिकुशहस्त दक्षिणा, तिल, जलादि लेकर कन्यादान की दक्षिणा करे – ॐ अद्य (अस्यां रात्रौ) कृतैतत् कन्यादानप्रतिष्ठार्थम् – एतावद् द्रव्यमूल्यक हिरण्यमग्नि दैवतम्  दैवतम- अमुकगोत्राय-अमुकप्रवराय-अमुकशर्मणे (ब्राह्मणाय) वराय तुभ्यमहं सम्प्रददे ॥ वर दक्षिणा लेकर “ॐ स्वस्ति” कहे ।

पुनः अगला मंत्र पढे – ॐ कोऽदात् कस्मा अदात् कामोऽदात् कामायाऽदात् । कामो दाता कामः प्रतिग्रहीता कामेतत्ते ॥

फिर वर दोनों हाथों से कन्या के दोनों हाथों को पकड़कर पढे – ॐ यदैषि मनसा दूरं दिशोऽनुपवमाना वा । हिरण्यपर्णो वैकर्ण्यः स त्वा मन्मनसां करोतु (श्रो अमुकदेवि)

फिर आचार्य वर-कन्या का ग्रन्थिबंधन करें – ॐ गणाधिपं नमस्कृत्य उमां लक्ष्मी सरस्वतीम् । दम्पत्योः रक्षणार्थाय पटग्रन्थि करोम्यहम् ॥

फिर वर-वधू दोनों अग्नि के निकट बैठे, वधू वर के दाहिनी ओर बैठे । एक पुरुष (भ्रातादि) जल-पल्लव युक्त एक विभूषित कलश दाहिने कंधे पर लेकर वेदी के दक्षिण दिशा में खड़ा हो जाये। कन्यादाता कहे – ॐ परस्परं समीक्षेथाम् ॥

फिर वर-वधू एक-दूसरे को देखें, वर अगले चार ऋचाओं का पाठ करते हुये –

  • ॐ अघोरचक्षुर्पतिघ्न्येधि शिवा पशुभ्यः सुमनाः सुवर्चा । वीरसुर्देवकामा स्योना शन्नो भव द्विपदे शं चतुष्पदे ॥१॥
  • सोमः प्रथमो विविदे गन्धर्वो विविद उत्तरः । तृतीयोऽअग्निष्टे पतिस्तुरायस्ते मनुष्यजाः ॥२॥
  • सोमोऽदव गन्धर्वाय गन्धर्वोऽदददग्नये । रयिं च पुत्राँश्चादादग्निर्मह्यमथो इमाम् ॥३॥
  • सा नः पूषा शिवतमा मेरय सा नऽऊरू उशता विहर । यस्यामुशन्तः प्रहराम शेपं यस्यामुकामा बहवो निविष्टयै ॥४॥ फिर दोनों अग्नि की प्रदक्षिणा करे । यदि 7 प्रदक्षिणा करनी ही हो तो इसी समय करे, लाजाहोम काल में प्रदक्षिणा नहीं होती है।

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