रक्षोघ्न सूक्त – ऋग्वेदोक्त, यजुर्वेदोक्त – रक्षोघ्न मंत्र

रक्षोघ्न सूक्त – ऋग्वेदोक्त, यजुर्वेदोक्त – रक्षोघ्न मंत्र

रक्षोघ्न सूक्त – ऋग्वेदोक्त

ऋग्वेदः – मण्डल ४ सूक्तं ४.४ ऋषि वामदेवो गौतमः छन्दः त्रिष्टुप् शुक्‍लयजुर्वेदः/अध्यायः १३ । ९-१३ तैत्तिरीयसंहिता(विस्वरः)/काण्डम् १/प्रपाठकः २ अनुवाक १४

मंगल श्लोक पाठ
ऋग्वेदोक्त – रक्षोघ्न सूक्त
  1. कृणुष्व पाजः प्रसितिं न पृथ्वीं याहि राजेवामवाँ इभेन । तृष्वीमनु प्रसितिं द्रूणानोऽस्तासि विध्य रक्षसस्तपिष्ठैः ॥१॥
  2. तव भ्रमास आशुया पतन्त्यनु स्पृश धृषता शोशुचानः । तपूंष्यग्ने जुह्वा पतंगानसंदितो वि सृज विष्वगुल्काः ॥२॥
  3. प्रति स्पशो वि सृज तूर्णितमो भवा पायुर्विशो अस्या अदब्धः । यो नो दूरे अघशंसो यो अन्त्यग्ने माकिष्टे व्यथिरा दधर्षीत् ॥३॥
  4. उदग्ने तिष्ठ प्रत्या तनुष्वन्यमित्राँ ओषतात्तिग्महेते । यो नो अरातिं समिधान चक्रे नीचा तं धक्ष्यतसं न शुष्कम् ॥४॥
  5. ऊर्ध्वो भव प्रति विध्याध्यस्मदाविष्कृणुष्व दैव्यान्यग्ने । अव स्थिरा तनुहि यातुजूनां जामिमजामिं प्र मृणीहि शत्रून् ॥५॥
  6. स ते जानाति सुमतिं यविष्ठ य ईवते ब्रह्मणे गातुमैरत् । विश्वान्यस्मै सुदिनानि रायो द्युम्नान्यर्यो वि दुरो अभि द्यौत् ॥६॥
  7. सेदग्ने अस्तु सुभगः सुदानुर्यस्त्वा नित्येन हविषा य उक्थैः । पिप्रीषति स्व आयुषि दुरोणे विश्वेदस्मै सुदिना सासदिष्टिः ॥७॥
  8. अर्चामि ते सुमतिं घोष्यर्वाक्सं ते वावाता जरतामियं गीः । स्वश्वास्त्वा सुरथा मर्जयेमास्मे क्षत्राणि धारयेरनु द्यून् ॥८॥
  9. इह त्वा भूर्या चरेदुप त्मन्दोषावस्तर्दीदिवांसमनु द्यून् । क्रीळन्तस्त्वा सुमनसः सपेमाभि द्युम्ना तस्थिवांसो जनानाम् ॥९॥
  10. यस्त्वा स्वश्वः सुहिरण्यो अग्न उपयाति वसुमता रथेन । तस्य त्राता भवसि तस्य सखा यस्त आतिथ्यमानुषग्जुजोषत् ॥१०॥
  11. महो रुजामि बन्धुता वचोभिस्तन्मा पितुर्गोतमादन्वियाय । त्वं नो अस्य वचसश्चिकिद्धि होतर्यविष्ठ सुक्रतो दमूनाः ॥११॥
  12. अस्वप्नजस्तरणयः सुशेवा अतन्द्रासोऽवृका अश्रमिष्ठाः । ते पायवः सध्र्यञ्चो निषद्याग्ने तव नः पान्त्वमूर ॥१२॥
  13. ये पायवो मामतेयं ते अग्ने पश्यन्तो अन्धं दुरितादरक्षन् । ररक्ष तान्सुकृतो विश्ववेदा दिप्सन्त इद्रिपवो नाह देभुः ॥१३॥
  14. त्वया वयं सधन्यस्त्वोतास्तव प्रणीत्यश्याम वाजान् । उभा शंसा सूदय सत्यतातेऽनुष्ठुया कृणुह्यह्रयाण ॥१४॥
  15. अया ते अग्ने समिधा विधेम प्रति स्तोमं शस्यमानं गृभाय । दहाशसो रक्षसः पाह्यस्मान्द्रुहो निदो मित्रमहो अवद्यात् ॥१५॥

सारांश : रक्षोघ्न सूक्त यजुर्वेद, ऋग्वेद, और अथर्ववेद में पाया जाता है और यज्ञ-पूजा में इसका प्रमुख उपयोग होता है। श्राद्ध में भी इसका पाठ किया जाता है, लेकिन यह पूजा-यज्ञ-अनुष्ठानों में भी होता है। इसे पितरों का मंत्र मानना एक भ्रम है। यजुर्वेद और ऋग्वेद में वर्णित दोनों रक्षोघ्न सूक्त ऊपर दिया गया है जो विशेष उपयोगी है।

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