पिछले ७ दशकों से भारत राजनीतिक उत्पात का शिकार बना हुआ है। दंगा मुख्य रूप से राजनीति प्रेरित ही होता है अथवा दंगे के पीछे कहीं न कहीं राजनीतिक दल और नेताओं का हाथ रहता है। कोई भी राष्ट्र किसी भी काल में राष्ट्रद्रोहियों से रिक्त नहीं होता, ऐसा हो ही नहीं सकता। लेकिन यदि ऐसा करना चाहें तो गलत होगा, अराजकता का खतड़ा हो जाएगा। जैसे शरीर में नाखून होता है उसी तरह राष्ट्रविरोधी तत्व को भी समझना होगा।
लेकिन नाखून जब भी बढ़े उसे काटना पड़ता है, यदि न काटें तो कई प्रकार से हानिकारक होता है। इसी तरह राष्ट्रविरोधी तत्व जब बढ जाते हैं; अराजक हो जाते हैं तो उन्हें कम करने की आवश्यकता होती है । यदि समय रहते कम न किया जाय तो निश्चित रूप से राष्ट्र को हानि पहुंचाते हैं।
राष्ट्रहित सर्वोपरि मानकर राष्ट्र की सुरक्षा के लिये सेना को विशेषाधिकार की आवश्यकता है
एक महत्वपूर्ण बात यह भी है कि इन तत्वों को शासन-प्रशासन नियंत्रित नहीं कर पाता क्योंकि सब राजनीति से प्रभावित होकर ही काम करता है। कई बार ऐसा देखा गया है कि सरकार ब्लैकमेल होती है, न्यायतंत्र मूकदर्शक बना रहता है।
साहिन बाग आंदोलन जो कि 15 दिसंबर 2019 से 24 मार्च 2020 तक चला था और जिसके कारण साहिनबाग दंगा हुआ। जगजाहिर है कि सत्ता और विपक्ष के बीच राजनीतिक लड़ाई थी जिसका दंगा में परिणति दिखना ये सिद्ध करता है कि विरोधी केवल सत्ता प्राप्ति नहीं सत्ता के लिये रक्तपात करने को भी तैयार है। ये भी सिद्ध होता है कि न्यायतंत्र मूकदर्शक बन जाता है, जबकि संविधान का संरक्षक होने की दुहाई देते हैं।
साहिनबाग कांड के कुछ ही महीनों बाद फिर से 9 अगस्त 2020 से 11 दिसंबर 2021 तक कथित किसान आंदोलन 1.0 चला। ये जगजाहिर है कि सत्ता के साथ विपक्ष की लड़ाई थी। इस आंदोलन से लाल किला में भी देश का अपमान हुआ, पुलिस पर आक्रमण हुआ। पुलिस पर आक्रमण का तात्पर्य भी सरकार नहीं संविधान और कानून पर ही आक्रमण होता है, 26 जनवरी को लाल किले में तिरंगे का अपमान तो प्रत्यक्ष रूप से उस झुण्ड का देशद्रोही होना सिद्ध कर गया था। इस समय भी न्यायतंत्र मूकदर्शक की भूमिका में ही रहा।
न्यायतंत्र से प्रश्न है कि :
- साहिनबाग आंदोलन और दंगे (2019 – 2020) में आपने किस संविधान का संरक्षण किया था ?
- कथित किसान आंदोलन 1.0 (2020 – 2021) में आपने किस संविधान का संरक्षण किया था ?
- आम जनता के किस अधिकार को सुरक्षित रखा था ?
पुनः 2024 में भी कथित किसान आंदोलन 2.0 में किस संविधान का संरक्षक बनेंगे ? आम जनता के किन अधिकारों की रक्षा कर रहे हैं ?
- जब सत्ता और विपक्ष की राजनीतिक लड़ाई हो तो उसमें आम नागरिक के अधिकारों का हनन नहीं हो ये कौन सुनिश्चित करेगा ? क्या ये काम न्यायपालिका का नहीं है ?
- राष्ट्रीय संपत्ति का नुकसान न हो ये कौन सुनिश्चित करेगा ? क्या ये काम न्यायपालिका का नहीं है ?
- जब एक अलगाववादी समूह देश की राजधानी को घेरकर बंधक बना ले तो क्या न्यायपालिका किस संविधान का संरक्षण करती रहती है ?
- बंधक बनी आम जनता के किन मौलिक अधिकारों को सुरक्षित रखती है ?
जब कभी सरकार ब्लैकमेल होती दिखे इसका अर्थ होता है कि न्यायतंत्र भी मूकदर्शक से अधिक भूमिका नहीं निभा सकता (जो कि 2024 में तीसरी बार भी सिद्ध होगा) और राष्ट्रविरोधी तत्व इसी तरह अपना उल्लू सीधा करते रहते हैं, बेचारी निरीह जनता पीड़ित होती है, लेकिन ये वास्तविक स्थिति कभी चर्चा का विषय भी नहीं हो पाती।
हाँ ये अवश्य है कि न्यायपालिका के लिये इस प्रकार के प्रश्न उठाने पर येन-केन-प्रकारेण न्यायालय की अवमानना सिद्ध कर दिया जाय। लेकिन ये सत्य ही रहेगा कि अराजक-उपद्रवी तत्वों की भीड़ जब जमा जो जाये और देश की राजधानी को बंधक बना ले तो न्यायपालिका मूकदर्शक बनी रहती है। न्यायपालिका का मूकदर्शक बने रहना क्या उन उपद्रवी और अराजक तत्वों का मौन समर्थन स्पष्ट नहीं करता है ?
जब राजनीतिक लड़ाई चल रही हो और संविधान का संरक्षक मूकदर्शक बन जाये
एक गंभीर प्रश्न है कि जब सत्ता एवं विपक्ष की राजनीतिक लड़ाई चल रही हो और संविधान का संरक्षक मूकदर्शक बन जाये तो खतड़े में पड़ी राष्टीय सुरक्षा व आम नागरिकों के मौलिक अधिकार को कौन बचायेगा ?
संभवतः इस प्रश्न उत्तर ही नहीं है और लोकतंत्र के आड़े में जानबूझकर इस प्रश्न का विचार नहीं किया गया न ही कोई करना चाहता है। स्थिति तब गंभीर नहीं होती जब लड़ाई मात्र राजनीतिक हो, स्थिति गंभीर तब होती है जब राजनीतिक लड़ाई में एक पक्ष अलगाववादी और आतंकवादी या उसके समर्थक हों।
ऐसे अराजक और उपद्रवी तत्वों का प्रभाव अमेरिका के पिछले चुनाव में देखा गया था।
यहां पर उक्त मूल प्रश्न से पहले यह विचार करना भी आवश्यक है कि 2024 में सत्ता पक्ष, विपक्ष, देश-दुनियां सभी ये मान रहे हैं की अगली सरकार में सत्ता पक्ष और अधिक बहुमत प्राप्त करने वाली है, तो क्या इन उपद्रवी तत्वों ने कहीं लोकतंत्र का गला घोंटकर सत्ता हथियाने की योजना तो नहीं बना रखी है ? क्योंकि :
- इनकी मांगे जो हैं वो कभी पूरी नहीं की जा सकती ये बात इन्हें भी पता है और जानबूझकर ही ऐसा किया गया है।
- पिछले उपद्रव से सीख लेकर और अधिक तैयारी के साथ इस बार आये हैं, जो ट्रैक्टर, मास्क आदि के रूप में स्पष्ट दिखाई दे गया है।
- चुनाव के बाद सरकार और मजबूत होने वाली है, एवं इन आंदोलनों का कोई से भी कोई विशेष अंतर नहीं होने वाला है।
- खालिस्तान सम्बन्धी अलगाववाद भी मजबूत नहीं होने वाला।
तो फिर और क्या उद्देश्य है ? इनका उद्देश्य तो इन्होंने स्पष्ट कर रखा है सत्ता परिवर्तन और अपने व्यवहार से ये भी सिद्ध कर चुके हैं कि किसी लोकतांत्रिक विधि से सत्ता परिवर्तन की इच्छा नहीं है, क्योंकि सभी भलीभांति जान रहे हैं चुनाव का क्या परिणाम होने वाला है। फिर तो सत्ता परिवर्तन का एक ही विकल्प बचता है लोकतांत्रिक विधि से बनने वाली सरकार को रोककर सत्ता हथिया लेना अर्थात सत्तासुख के लिये लोकतंत्र की हत्या कर देना।
यदि विपक्ष इस तरह की कोई संभावना ढूंढ रहा है तो उस स्थिति में लोकतंत्र और संविधान की रक्षा कौन करेगा ? अच्छा यहां पर न्यायपालिका स्वयं को आगे कर सकती है कि संविधान के संरक्षक हम हैं लेकिन इसीलिये पूर्व के उदाहरण से हम समझ चुके हैं कि न्यायपालिका संविधान का संरक्षण नहीं करती, स्वांग मात्र रचती है।
राष्ट्रहित सर्वोपरि का अर्थ
आगे की चर्चा से पहले हम थोड़ा सा राष्ट्रहित सर्वोपरि को भी समझने का प्रयास करेंगे। राष्ट्रहित सर्वोपरि का तात्पर्य है स्वार्थसिद्धि के लिये कोई भी ऐसा कृत्य नहीं करना जिससे राष्ट्र को हानि हो और राष्ट्रहित के लिये उस कार्य से भी पीछे नहीं हटना जिसमें निजी हानि हो।
- सत्तापक्ष के लिये राष्ट्रहित सर्वोपरि का अर्थ यह है कि अपनी सत्ता बचाकर रखने से अधिक महत्व राष्ट्रीय सुरक्षा, विकास आदि को देना।
- विपक्ष के लिये राष्ट्रहित सर्वोपरि का अर्थ यह है कि सत्ता प्राप्ति के लिये किसी भी ऐसे कार्य को न करे जिससे राष्ट्र की सुरक्षा, विकास, राष्ट्रीय संपत्ति आदि को तनिक भी हानि हो।
- न्यायपालिका के लिये राष्ट्रहित सर्वोपरि का तात्पर्य यह है कि वह सत्ता और विपक्ष किसी से प्रभावित हुये बिना संविधान, संस्कृति, परम्परा, मर्यादाओं की रक्षा करे। आधुनिक सोच के नाम पर देश की मूल संस्कृति का गला न घोंटे।
- जनता के लिये राष्ट्रहित सर्वोपरि का अर्थ यह है कि चुनाव में निजी स्वार्थ के लिये मतदान न करके राष्ट्रहित को ध्यान में रखे।
- मीडिया के लिये राष्ट्रहित सर्वोपरि का अर्थ यह है कि मात्र अपने आर्थिक लाभ के लिये समाचार न बनाये। अपने समाचार में राष्ट्रहित को सर्वाधिक महत्व दे भले ही आमदनी कम क्यों न हो।
- देखने में तो ऐसा नहीं आता है, मात्र एक सत्तापक्ष राष्ट्रहित सर्वोपरि लेकर आगे बढ़ रही है और जनता चुनाव में उसे और अधिक समर्थन प्रदान करके सही सिद्ध कर रही है किन्तु बाकि पक्ष तो विपरीत कार्य कर रहे हैं।
- यहाँ पर सेना को भी एक दायित्व देने की आवश्यकता है कि जब कोई भी पक्ष राष्ट्रहित के लिये खतड़ा बन रहा हो उसे किसी के आज्ञा की आवश्यकता न हो, उसे राष्ट्रविरोधी तत्वों को निष्क्रिय करने का स्वतंत्र अधिकार दिया जाना चाहिये, भले ही उपद्रवी तत्व या उपद्रव समर्थक सत्तापक्ष या न्यायपालिका का भी सदस्य क्यों न हो।
यह अधिकार सेना को ही क्यों देना चाहिये ?
- क्योंकि पिछले ७ दशकों में देश देख चुका है कि सत्ता, विपक्ष, न्यायपालिका आदि इस दायित्व का सही से निर्वहन नहीं कर सके।
- यदि सही से निर्वहन किया जाता तो 26 जनवरी 2021 को लालकिला वाला कलंक देश के माथे पर नहीं लगता।
- यदि सही से निर्वहन कर रहे होते तो सरकार को कृषि सवर्द्धन वाले कानून वापस न लेना पड़ता।
- यदि सही से निर्वहन कर रहे होते तो राम मंदिर को तोड़ने की बात किसी की जिह्वा पर न आती।
- यदि साई से निर्वहन कर रहे होते तो साहिनबाग दंगा न होता।
- यदि सही से निर्वहन कर रहे होते तो हिन्दू देवी-देवताओं का मजाक न बनाया जाता, उनके लिये अपशब्द न बोले जाते।
- यदि सही से निर्वहन कर रहे होते तो कोई देश में किरोसिन छिड़कने की, कोई रक्तपात होने की, कोई खून की होली, कोई देश में आग लगने की धमकी न दिया करता।
- यदि सही से निर्वहन कर रहे होते तो को पंजाब को खालिस्तान बनाने की बात न कर पाता, कोई पूर्वी भारत को अलग करने की बात न कर पाता, कोई दक्षिण भारत को अलग करने का विषय न उठाता।
ऐसे बहुत से और भी प्रमाण हैं जो ये सिद्ध करते हैं कि तंत्र राष्ट्रीय सुरक्षा की दिशा में सही से काम नहीं कर पा रहा है।
जहां कहीं भी सरकार के विभिन्न अंग राष्ट्रीय सुरक्षा और संविधान की रक्षा में चूके वहां कोई न कोई अन्य पक्ष तो अवश्य होना चाहिये जो आगे आकर रक्षा करे। वह अन्य पक्ष सेना के अतिरिक्त और कौन हो सकता है ? यद्यपि एक अन्य विकल्प की भी चर्चा पिछले लेख में हमनें किया है और यदि वह पक्ष सेना न हो सके तो चतुर्थ स्तम्भ होना चाहिये।
चतुर्थ स्तम्भ विषयक लेख : देश का विकास और शांति के लिये चाहिये एक नया कानून – जैसे को तैसा …
किसी अनहोनी से निपटने की योजना बनाई क्या?
लेकिन चतुर्थ स्तम्भ भी तो सेना का ही सहारा लेकर विशेष परिस्थितियों से निपट सकती है। विशेष स्थिति का तात्पर्य उस गंभीर स्थिति से है जब चुनाव से नहीं उपद्रव से सत्ता पर अधिकार कर ले अथवा सत्ता को अपने अनुकूल नीति-नियम बनाने के लिये बाध्य करे।
इन उपद्रवी तत्वों के बारे में विचार करते समय इन्हें कमतर आंकने की गलति करने की कोई बाध्यता नहीं होनी चाहिये। जब पूरी दुनियां जान और मान रही है कि मोदी सरकार और अधिक बढत के साथ पुनरावृत्ति करेगी, और मोदी की छवि को नुकसान पहुंचाने के अनेकों प्रयास विफल हो चुके हैं और आगे भी विफल ही होंगे तो फिर उपद्रव को भी मात्र इतनी छोटी सी बात मानकर आंखें क्यों मूंदे ।
हो सकता है विपक्ष का उद्देश्य मात्र मोदी की छवि को नुकसान पहुंचाना हो, किन्तु उपद्रवी तत्वों का यह उद्देश्य नहीं हो सकता, क्योंकि वो भी इतना जानते हैं कि मोदी की छवि धूमिल करके भी मोदी सरकार की पुनरावृत्ति नहीं रुकने वाली, फिर भी बाहर आना निश्चित ही किसी और तरफ इशारा करता है।
यदि हम हप्तावसूली करने वाले गुंडे के समान माने तो भी कमतर आंकने वाली ही गलती करेंगे, मान लिया जाय उनकी कुछ मांगे हैं तो उन मांगों में से अधिकतर तो पूरे देश के किसानों से जुड़ा हुआ है, कुछ मांगे ही निजी हैं । और उन मांगों के कारण उपद्रव करना पड़े ये भी सही नहीं लगता; क्योंकि जब एक दशक तक वास्तव में स्थितियां प्रतिकूल थी तब तो इस तरह का उपद्रव नहीं देखा गया, आज किसानों की स्थिति में एक दशक की तुलना में आशातीत सुधार हुआ है।
क्या किसान इतना मुर्ख हो सकता है कि जिस सरकार ने वास्तव में किसानों के लिये काम किया हो उस सरकार को पलटने का विचार करे, और मान लिया जाय कि किसान यदि सरकार ही पलटना चाहती हो तो चुनाव सामने है किसान तो चुनाव में विरोध दर्ज करके सरकार पलट सकते हैं।
ये बात तो गले से नीचे नहीं उतर रही है कि किसान इतने मूर्ख हैं जो अपना विरोध चुनाव में दर्ज न कर सकें, उन्हें उपद्रव का सहारा लेना पड़े। और यदि उपद्रव करने वाले किसान नहीं हैं तो उन्हें उपद्रवी कहा क्यों नहीं जाता ? स्पष्ट तो यही होता है कि इन उपद्रवियों का समूह इतना शक्तिशाली है कि उन्हें न तो सरकार उपद्रवी कहती है न मीडिया, बल्कि मीडिया तो उल्टे जिस तरह उनका गुणगान करते रही है उसी उपद्रवी समूह के हिस्सा जैसा प्रतीत होती है।
अस्तु जो भी हो हमें इनके विषय में किसी दुराग्रह का शिकार होने की आवश्यकता नहीं अपितु यह विचार करना है कि यदि किसी प्रकार की अनहोनी जिसके वास्तव में घटित होने की संभावना तो नहीं लगती लेकिन एक बार को ये मानकर तो अवश्य विचार करना चाहिये की यदि अनहोनी घटित हुयी तो उस समय किस प्रकार से राष्ट्रीय सुरक्षा सुनिश्चित होगी ? हम यहां इसका समर्थन भी नहीं कर सकते की सेना को उतना शक्तिशाली बना दिया जाय की तख्तापलट करने लगे, किन्तु राष्ट्रविरोधी तत्वों का निपटारा करने के लिये तो कुछ विशेष अधिकार देना आवश्यक है।
अनहोनी की आशंका को मात्र अटकलबाजी समझना ऐतिहासिक भूल होती है
एक बार को ऐसा लग सकता है कि इस आलेख की विषय-वस्तु, चर्चा मात्र कोरी कल्पना है, अनहोनी की काल्पनिक आशंका है, लेकिन ऐसा मानकर चलना ऐतिहासिक भूल होगी। क्योंकि इतिहास में हर उस सत्ता का पतन या अपहरण इसी भूल के कारण हुई है। सत्ता में व्यक्ति प्रमुख नहीं होता, इसलिये बात मोदी की नहीं है बात संविधान की है, राष्ट्रीय सुरक्षा की है।
राष्ट्र विरोधियों ने हमेशा इन उपद्रवी तत्वों का गुणगान किया, राष्ट्रवादियों ने मोदी विरोध नाम देकर अनदेखी किया, और यही सच है ऐसा मानना सही नहीं लगता।
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