उपनयन संस्कार और व्रात्य

व्रात्य - Vraty

पतितसावित्रीक हेतु एक विशेष व्रत का आचरण बताया गया है जिसे उद्दालक व्रत कहा जाता है : “पतितसावित्रीक उद्दालकव्रतञ्चरेत् द्वौ मासौ यावकेन वर्त्तयेत् मासं पयसा अर्द्धमास(पक्ष)मामिक्षयाष्टरात्रंघृतेन षड्रात्रमयाचितेन त्रिरात्रमब्भक्षोऽहोरात्रसुपवसेत् अश्वमेधावभृथङ्गच्छेत् व्रात्यस्तोमेन वा यजेद्वा यजोदिति” – वशिष्ठस्मृति वशिष्ठ जी की उपरोक्त आज्ञा व्रात्य हेतु विशेष कर्तव्य है। उन्होंने इसके उपरांत उपनयन करने की योग्यता नहीं कहा है। उपनयन की अयोग्यता पहले ही बता चुके हैं।

किन्तु व्रात्य के विषय में मनु का कथन है कि तीन कृच्छ्र करके यथाविधि (विधि के अनुसार) उपनयन करे : येषां द्विजानां सावित्रीनानूच्येत यथाविधि। तांश्चारयित्वा त्रीन् कृच्छ्रान् यथाविध्युपनाययेत् ॥ यह कथन भी यथाविधि उपनयन न होने के सन्दर्भ में ही है अर्थात यथाकाल-यथाविधि सावित्री उच्चारण न किया गया हो तो, अर्थात व्रात्य हो गया हो तो। इससे यह सिद्ध होता है कि प्रायश्चित्त पूर्वक व्रात्य का भी उपनयन किया जा सकता है और यह पक्ष खण्डित हो जाता है कि व्रात्य का उपनयन नहीं होता। पुनः अगले वचन से भी उपनयन करने का विधान सिद्ध होता है : “ततो यावकशुद्धस्य तस्योपनयनं स्मृतम्”

पुनः व्रात्यस्तोमेनेष्ट्वा व्रात्यभावादविर्मेयः। आगे विचारणीय यह है कि व्रात्यस्तोम कलिकाल में असंभव प्रतीत होता है। व्रात्यस्तोम से तात्पर्य व्रात्य सम्बन्धी स्तोम करना है।

व्रात्य हेतु स्तोम विषयक चर्चा विशेष करना संभव ही नहीं क्योंकि स्तोम संबंधी ज्ञान का अभाव होना भी एक मूल व्यवधान है तथा जो ज्ञात भी होता है उसके अनुसार दुष्कर।

पुनः इस वचन से भी शुद्धि की सिद्धि होती है : “गायत्त्रीपतिता व्रात्या व्रात्यस्तोमेन संस्कृतः” और उपनयन का निषेध पतित रहने तक ही है।

व्रात्य का अर्थ
व्रात्य का अर्थ

यदि अशक्त हो अर्थात व्रात्यस्तोम करने में असमर्थ हो तो उद्दालक व्रत करे – “अशक्ते चैव यज्ञस्य चरेदौद्दालिकं व्रतम्” । इतना ही नहीं यदि तीन पीढ़ी से भी व्रात्य उपस्थित हो तो भी प्रायश्चित्त बताया गया है यद्यपि वर्तमान युग में कठिन है : “यस्य पिता पितामहावनुपनीतौ स्यातान्तस्यसंवत्सरं त्रैविद्यकं ब्रह्मचर्य्यम्। यस्य प्रपितामहादेर्नानुस्मर्यते उपनयनन्तस्य द्वादश वर्षाणि त्रैविद्यकं ब्रह्मचर्य्यमिति”

उद्दालक व्रत

उद्दालक व्रत भी सरल नहीं है और वर्तमान में कर पाना असंभव ही है : द्वौ मासौ यावकाहारो मासमेकं पयः पिबेत् । दध्ना च पक्षमेकन्तु सप्तरात्रं घृतेन तु ॥ अयाचितेन षड्रात्रं त्रिरात्रं वर्त्तयेज्जलैः । अहोरात्रं न भुञ्जीत ततः संस्कारमर्हति ॥

उद्दालक व्रत के सम्बन्ध में कहा गया है कि सर्वप्रथम दो महीने यावकाहारी रहे, एक महीने दुग्धाहारी रहे, एक पक्ष दध्याहार करे, सात रात्रि पर्यन्त घृताहार करे, छह रात्रि पर्यन्त अयाचित रहकर जो प्राप्त हो उतना ही ग्रहण करे, तीन रात्रि पर्यन्त जलाहार मात्र करे और एक अहोरात्र भोजन न करे तत्पश्चात संस्कार की अर्हता सिद्ध होगी। इस प्रकार यह भी वर्त्तमान युग में असंभव ही प्रतीत होता है।

युगानुसार विकल्प : पुनः आगे अन्य विकल्प भी प्राप्त होता है – व्रतस्याचरणाशक्तौ कुर्य्याच्चान्द्रायणत्रयम् । सावित्रीपतिता येषां देशकालादिविप्लवात् ॥ चान्द्रायणं चरेद्यस्तु व्रतान्ते धेनुमुत्सृजेत् । क्षीरंवापि पिबेन्मासं दद्याद्गां वत्सशालिनीम् ॥ सर्वप्रथम “देशकालादिविप्लवात्” की वर्त्तमान युग में सिद्धि होती है, पूर्व काल में तो आक्रांताओं द्वारा विप्लव किया ही जाता रहा है वर्त्तमान में भी राजनीतिक व्यवस्था से सिद्धि होती है अतः इसका आश्रय लेना सिद्ध होगा। यहां पर तीन चांद्रायण करके अथवा एक मास तक दुग्धाहारी रहकर सवत्सा गोदान करना बताया गया है।

इसके साथ ही विभिन्न व्रात्यस्तोम के लिये अशक्तता और उद्दालक व्रत हेतु भी असमर्थता ही सिद्ध होता है। इस प्रकार दो विकल्प शेष बचते हैं : तीन कृच्छ्र अथवा तीन चांद्रायण।

आपात्काल की पुनः सिद्धि : जब तक शोभायात्राओं पर पत्थराव हो रहे हैं, हजारों मंदिरों को मुक्त नहीं कर लिया जाता, अन्य समुदाय का कोई आयोजन है इसलिये प्रतिमा विसर्जन के लिये प्रशासनिक रूप से निर्धारित समयसीमा में बाध्य किया जाता रहेगा, लव जिहाद, लैंड जिहाद, थूक जिहाद आदि चलता रहेगा तब तक के लिये आपात्काल मानना ही समीचीन होगा।

एक प्रधानमंत्री द्वारा ये कहा जाना कि “देश के संशाधनों पर पहला हक अल्पसंख्यकों का है” आपात्काल का ही परिचायक है। हनुमान चालीसा पढ़ने के कारण लहूलुहान कर देना आपत्काल का ही परिचायक है। कश्मीर की घटना भले ही पुरानी हो गयी हो किन्तु नूंह (हरियाणा) की घटना अभी पुरानी नहीं हुई है और आपत्काल की सिद्धि करती है। प्रत्येक दिन प्रातः से रात तक एक विशेष पंक्ति सभी सनातनियों को सुनाई जाती है जो पंक्ति सभी आतंकवादी घटनाओं में बोली जाती है। ये आपात्काल का ही सूचक है। अतः वर्तमानयुग में भी आपात्काल के अनुसार धर्मपालन करना सिद्ध होता है।

0 thoughts on “उपनयन संस्कार और व्रात्य

  1. महाराज जी की जय हो, बहुत ही गूढ जानकारी🙏🙏चरण स्पर्श

    1. जय श्री राधे कृष्ण 🚩
      यदि किसी प्रकार का कोई सुझाव-जानकारी प्रदान करना हो तो अवश्य प्रदान करें । कुछ षड्यंत्रकारी इस प्रकार हंगामा खड़ा कर रहे हैं जैसे सबके सब व्रात्य हो गये हों । हंगामा के पीछे विद्वत्तापूर्ण समाधान प्रस्तुत करें तो सराहनीय कार्य होता किन्तु प्रयोजन धनलोभ की पूर्ति ही प्रकट होता है।

  2. गुरु जी यज्ञ समाप्ति या पूजन समाप्ति के पश्चात उत्तर पूजा विधि के लिए भी मार्गदर्शन करने की कृपा करें।

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