क्या स्त्री हवन कर सकती है ? हवन करने की विधि

क्या स्त्री हवन कर सकती है ? हवन करने की विधि

इस अध्याय में स्त्रियों को हवन करना चाहिये या नहीं इस विषय पर चर्चा करेंगे। यह विषय राजनीतिक रूप से संवेदनशील भी है, किन्तु कर्मकांड का विषय होने के कारण कर्मकांड विधि को शास्त्रीय चर्चा करने का अधिकार है और शास्त्रीय चर्चा पर किसी राजनीतिबाज को राजनीतिक बहस करने का अधिकार नहीं है। शास्त्रीय विमर्श को शास्त्रीय प्रमाण से ही सिद्धि या खण्डन किया जाना चाहिये, राजनीतिक कुतर्कों से नहीं और न ही राजनीतिक आघात का प्रयास करना चाहिये। कुतर्क और राजनीतिक आघात का प्रयास भी सनातनविरोधी होना ही सिद्ध करता है । इस आलेख में यह विचार किया गया है कि क्या स्त्री हवन कर सकती है ?

क्या स्त्री हवन कर सकती है ? हवन करने की विधि

एक स्थापित नियम है : जो वस्तु, अधिकार आदि सरलता से उपलब्ध हो वह महत्वहीन लगने लगता है और दूसरा जो प्राप्त न हो अर्थात जिसमें अधिकार न हो महत्वपूर्ण लगता है और उसे पाना चाहते हैं। वेदमंत्र, हवन आदि में स्त्री-शूद्रों का अधिकार सिद्ध करने का प्रयास भी इन्हीं तथ्यों को सिद्ध करता है।

  • एक श्रमिक को गहरी नींद आती है लेकिन उसे महत्वपूर्ण नहीं लगता। वह धन-सम्पत्ति प्राप्त करना चाहता है, बंगला-गाड़ी चाहता है।
  • एक धनिक धन-संपत्ति का महत्व नहीं होता, पानी की तरह बहाता है। किन्तु नींद का महत्व समझता है और नींद के लिये गोलियां भी खाता है।
  • एक संयुक्त परिवार का सदस्य संयुक्त परिवार का महत्व नहीं समझता। एकल परिवार को सुखी मानता है।
  • जो जन्मजात एकल परिवार वाला होता है वह एकल परिवार का महत्व नहीं समझता संयुक्त परिवार की लालसा रखे ही दुनियां से विदा हो जाता है।

ब्राह्मण को जो पुण्य बहुत सारे नियमों का पालन करके वेद-पाठ, हवन आदि करने से प्राप्त होता है स्त्री-शूद्रों को वह पुण्य मात्र सेवा करने से ही प्राप्त हो जाता है। पति के किये गये कर्मफल में पत्नी का अधिकार आरक्षित रहता है। लेकिन सहज उपलब्ध होने से यह महत्वहीन प्रतीत होता है और जो शास्त्रों में निषेध किया गया है अर्थात अप्राप्त है उसे प्राप्त करने की इच्छा होती है।

आगे की चर्चा में पहले उन कुतर्कों और प्रमाणों का खण्डन करेंगे जो स्त्रियों को हवन का अधिकार सिद्ध करने के लिये दिया जाता है, फिर निषेध की चर्चा करेंगे और अंत में वास्तविक निष्पक्ष निर्णय समझने का प्रयास करेंगे।

चर्चा पर आगे बढ़ने से पूर्व यह आवश्यक है कि आप स्वयं के बारे में निर्णय कर लें कि इस प्रश्न का सही उत्तर प्राप्त करना चाहते हैं या पूर्वाग्रह ग्रस्त हैं कि स्त्रियों को हवन का अधिकार है। यदि पूर्वाग्रही हैं तो यह चर्चा आपके लिये अनुपयोगी भी हो सकती है, किन्तु यदि उत्तर जानना चाहते हैं तो बहुत उपयोगी है।

स्त्रियों को हवन करना चाहिए या नहीं ?

कुतर्कियों द्वारा एक प्रमाण यह बताया जाता है कि विवाह के समय पत्नी पति से व्रत-यज्ञादि का अधिकार मांगती है :

तीर्थव्रताेद्यापन यज्ञदानं मया सहत्वं यदि कान्तकुर्याः|
वामांगमायामि तदा त्वदीयं नत्वन्यथा दक्षिणपार्श्वताेऽहम् ॥

विवाह के समय ही स्त्री को पति के साथ तीर्थ-व्रत-यज्ञ-दानादि सभी कर्मों में पति का सहभागी बनने का अधिकार प्राप्त हो जाता है, और पति को सभी प्रकार पुण्य कार्य पत्नी के साथ ही करना होता है। इसलिए स्त्री को अपने पति के साथ यज्ञ पूजा पाठ का अधिकार है। लेकिन यहां ये अर्थ नहीं होता कि दोनों अलग-अलग सभी क्रियायें करेंगे।

इसका दूसरा अर्थ जो कोई बताना ही नहीं चाहता वो इस प्रकार है : पत्नी पति से यह वचन मांगती है कि तीर्थ, व्रत, उद्यापन, यज्ञ, दान आदि करते समय आप मेरे साथ रहेंगे, अर्थात मेरे आत्मकल्याण का भी प्रयास करेंगे और दक्षिण भाग में स्थित होने का अधिकार देंगे तभी मैं आपकी वामांगी बनूँगी। यह प्रमाण किस ग्रंथ का है ज्ञात नहीं परन्तु स्त्रियों का हवन में अधिकार सिद्ध करने वाले प्रस्तुत करते हैं।

पत्नी पति का अधिकार
पत्नी पति का अधिकार

खण्डन : यहाँ क्या अधिकार माँगा गया है ?

  • क्या तीर्थ करने का अधिकार मांगा गया है ?
  • क्या व्रत करने का अधिकार मांगा गया है ?
  • क्या उद्यापन करने का अधिकार मांगा गया है ?
  • क्या यज्ञ करने का अधिकार मांगा गया है ?
  • क्या दान करने का अधिकार मांगा गया है ?

उपरोक्त श्लोक में ऐसा कुछ भी करने का अधिकार नहीं मांगा गया है, ये सभी अधिकार पत्नी का स्वतःसिद्ध अधिकार है; फिर क्यों अधिकार की मांग करेगी ? यहां इन सभी कार्यों को करते समय दक्षिणभाग में स्थित होने का अधिकार मांगा गया है। इससे क्या सिद्ध होता है ? इससे दो बातें सिद्ध होती है :

  1. यदि पति कोई धर्मकृत्य कर रहा है तो उस समय पत्नी को दक्षिण भाग में स्थित होने का अधिकार मिलता है और
  2. यदि पत्नी कोई धर्मकृत्य कर रही हो तो पति उस समय भी साथ रहेगा, क्योंकि पति अनुमति के बिना पत्नी व्रतादि नहीं कर सकती। हवन आदि कार्यों को पति के द्वारा ही संपन्न कर सकती है, इसलिये पति से साथ में रहने का वचन लेती है।
विवाह के वचन
विवाह के वचन

कुछ अन्य प्रमाण इस प्रकार देते हैं :
पारस्कर गृह्यसूत्र कंडिका नव हवन विधानं गदाधर भाष्य – हाेमे कर्तारः स्वयं स्वस्त्यसंभवे पत्न्यादयः।

प्रयाेग रत्ने स्मृताै –
पत्नी कुमारी पुत्राे वा शिष्याे वाऽपि यथा क्रमम्।
पूर्वपूर्वस्य चाभवे विदध्यादुत्तराेत्तरः॥

स्मृत्यर्थसारेऽपि –
यजमानः प्रधानं स्यात्पत्नीपुत्रश्च कन्यका।
ऋत्विक् शिष्याे गुरुर्भ्राता भगिनेयः सुतापतिः।
एतैरेव हुतं यच्च तद् – हुतं स्वयमेव तु ॥

जब किसी कारण यजमान हवन नहीं कर सकता तो उसको उत्तरोत्तर अधिकार दिया है तो उसकी पत्नी कर सकती है, कुमारी लड़की कर सकती है, पुत्र कर सकता है, शिष्य कर सकता है, यह प्रयोग रत्न में स्मृति का वचन लिखा हुआ है। इसके अलावा स्मृत्यर्थ सार में भी कहा गया है कि यजमान प्रधान है, उसके स्थान पर पत्नी, पुत्र, कन्या, ऋत्विक्, शिष्य, गुरुभाई, भांजा और दामाद ये भी उसकी जगह हवन कर सकते हैं।

यदि पत्नी को हवन का अधिकार नहीं होता तो यहां हवन करने की बात नहीं कही गई होती। ये प्रमाण अधिकार को सिद्ध करने वाले हैं और उनकी तरह निर्लज्जतापूर्वक हम लोग इसे प्रक्षिप्त नहीं कह सकते। ये हवन का अधिकार होने के शास्त्रीय प्रमाण हैं।

खंडन : उपरोक्त प्रमाणों को समझने के लिये हमें एक उदहारण की आवश्यकता है : उपराष्ट्रपति के पास राष्ट्रपति का अधिकार होता भी है और नहीं भी होता। जब तक राष्ट्रपति पद रिक्त हो तब तक राष्ट्रपति का अधिकार उपराष्ट्रपति के पास होता है, किन्तु राष्ट्रपति पद रिक्त न हो तो उपराष्ट्रपति के पास राष्ट्रपति का कोई अधिकार नहीं होता। अर्थात उपराष्ट्रपति के पास राष्ट्रपति का अधिकार नहीं होता, मात्र अपवाद स्वरूप कुछ काल के लिये स्थान्तरित हो सकता है।

  • जिस तरह उपराष्ट्रपति के पास राष्ट्रपति का अधिकार नहीं होता उसी तरह स्त्रियों को हवन करने का अधिकार नहीं होता है क्योंकि पति के द्वारा ही किया गया हवन ही पत्नी के द्वारा भी किया हुआ मान्य होता है और फल में पत्नी अधिकारिणी होती है।
  • लेकिन अपवादस्वरूप कुछ काल के लिये पत्नी, पुत्री आदि को भी हवन का अधिकार मिलता है, उपरोक्त शास्त्रीय प्रमाणों का यही आशय है। अब अगला प्रश्न जो है वो है वो विशेष काल और हवन कौन सा होता है ?
  • विशेष काल तो स्पष्ट ही है पति असमर्थ हो या अनुपस्थित हो तो पत्नी, पुत्री आदि भी कर सकती है। लेकिन वो विशेष हवन जो है वह नित्यहोम है। मात्र नित्यहोम में ही पत्नी, पुत्री आदि को भी पति या पिता के असमर्थ होने पर यह अधिकार मिलता है।
  • यह आपात्कालीन नियम है क्योंकि नित्यहोम प्रतिदिन होना आवश्यक है। यदि पति व्याधिग्रस्त हो अथवा किसी कारण से उपस्थित न हो तो पत्नी, पुत्री आदि हवन कर देना चाहिये ताकि कर्म का लोप न हो।

इस प्रकार यह स्पष्ट हो गया कि शास्त्रों में पत्नी, पुत्री आदि को हवन करने की जो आज्ञा दी गयी है वह किस स्थिति में और किस हवन में है। साथ भी यह भी स्पष्ट हो गया की जैसे उपराष्ट्रपति के पास राष्ट्रपति का अधिकार सर्वकालिक नहीं होता उसी तरह पत्नी-पुत्री आदि को हवन का सर्वकालिक अधिकार नहीं होता है।

क्या स्त्री हवन कर सकती है ? हवन करने की विधि

स्त्रियों को हवन का अधिकार नहीं है इस संबंध में शास्त्रों के कुछ प्रमाण :

नास्ति स्त्रीणां पृथक् यज्ञाे न व्रतं नाप्युपाेषणम्।
पतिं सुश्रूषते येन तेन स्वर्गाे महीयते ॥ मनुस्मृति 5/155

स्त्रियों के लिए अलग से यज्ञ-व्रत-उपवास का विधान नहीं है, जो पति की सेवा करती हैं उसी से उनको उसका फल मिल जाता है। अर्थात् आरक्षण की लड़ाई लड़ने वालों को मनुस्मृति द्वारा फल में दिया गया आरक्षण रास नहीं आता।

न श्राेत्रियतते यज्ञे ग्रामयाजि कृते तथा।
स्त्रिया क्लीवेन च हुते न भुञ्जीत् ब्राह्मणः क्वचित् ॥ 4/205
अश्लीलमेतत्साधूनां यत्र जुह्वत्यमी हविः।
प्रतीपमेतद्देवानां तस्मात्तत्परिवर्जयेत् ॥ 4/206

मनुस्मृति : जिस यज्ञ में पुरोहित वेदपाठी न हो, यजमान व्यक्ति विशेष ना हो अर्थात पूरा गांव हो, स्त्री तथा नपुंसक आहूति देता हाे, उस यज्ञ में ब्राह्मण को भोजन नहीं करना चाहिए । स्त्री तथा नपुंसक का होता बनना धर्म मर्यादा के विरुद्ध होने से अश्लील माना गया है यह देवों को भी अप्रिय है अतः बुद्धिमान पुरुषों को स्त्री और नपुंसकों के द्वारा हवन नहीं कराना चाहिए ।

स्त्रियों के लिए वैदिक और तान्त्रिक विधि से हवन करने का निषेध वचन प्राप्त होता है और व्यवहार में भी है, यदि व्यवहार में न होता तो स्त्रियों का अधिकार सिद्ध करने का प्रयास ही नहीं किया जाता। स्कन्द पुराण में निषेध का प्रमाण इस प्रकार मिलता है :

भर्तृहीना तु या नारी संयता विजितेन्द्रिया ।
व्रतादीनां तु सङ्कल्पं दानं च स्वयमाहरेत् ॥
वैदिकं तान्त्रिकं कर्म आचार्यद्वारतश्चरेत् ॥

सरल-पूजा-विधि
क्या स्त्री हवन कर सकती है ? हवन करने की विधि

संयम-नियमसे रहनेवाली विधवा स्त्री व्रतादि का सङ्कल्प और दान स्वयं करे, किन्तु वैदिक और तान्त्रिक कर्म आचार्य के द्वारा ही करे। भर्तृहीना कहने का तात्पर्य यह है वह आचार्य द्वारा अर्थात् आचार्य वरण करके कराये, किन्तु सधवा हो तो आचार्य वरण भी न करे, मात्र पति के साथ विद्यमान रहे ।

पुनः स्कंद पुराण का ही प्रमाण है – नास्तिस्त्रीणांपृथग्यज्ञो न व्रतंनाप्युपोषणम् । भर्तृशुश्रूषयैवैता लोकानिष्टान्व्रजंति हि ॥ यद्देवेभ्यो यच्चपित्रादिकेभ्यः कुर्याद्भर्ताभ्यर्चनं सत्क्रियां च ॥ तस्यार्धवैसाफलं नान्य चित्तानारी भुंक्तेभर्तृशुश्रूषयैव ॥

अर्थात् स्त्री को पति से अलग किसी यज्ञ-व्रतादि करने का विधान ही नहीं है, क्योंकि स्त्री मात्र पतिसेवा के प्रभाव से ही उत्तम गति प्राप्त कर सकती है। पतिव्रता स्त्री को पति के सभी देव-पितृ कर्म के फल में आधा अधिकार होता है।

न वै कन्या न युवतिर्नाल्पविद्यो न बालिशः ।
होता स्यादग्निहोत्रस्य नार्तो नासंस्कृतस्तथा ॥

मनुस्मृति के उपरोक्त श्लोक में भी निषेध किया गया है। लेकिन इन कुतर्कियों के पास कई प्रकार के कुतर्क होते हैं और उनका खंडन भी आवश्यक है : इनका एक कुतर्क यह होता है कि ये श्लोक प्रक्षिप्त है। क्योंकि इन्होंने जो पूर्वाग्रह बना लिया उसके समर्थन वाले प्रमाण, श्लोक तो ठीक होते हैं, किन्तु जो पूर्वाग्रह के विरुद्ध हो उसे प्रक्षिप्त श्लोक कह देते हैं। लेकिन जिस प्रमाण/श्लोक को मानते हैं वो प्रक्षिप्त नहीं है इसका क्या प्रमाण है ? हमें इनके ऐसे भ्रमजाल में नहीं फंसना चाहिये।

विशेष विचार

  • कुण्ड स्त्रीस्वरूपा (लक्ष्मी/प्रकृति) है जिसके विभिन्न अंग – सिर, कर, कंठ, नाभि, योनि आदि होते हैं।
  • स्रुवा ब्रह्म लिङ्ग स्वरूप होता है।
  • आज्य तेज स्वरूप होता है।
  • इस प्रकार स्रुवा रूपी ब्रह्मलिंग के द्वारा आज्य रूपी ब्रह्मतेज प्रकृति रूपी कुंड में योनिमार्ग से स्थापित किया जाता है।
  • यह कार्य पुरुष को करना चाहिये या स्त्री को स्वयं विचार करें।

अन्य तर्क

सनातन में पति और पत्नी के प्रति जो सिद्धांत है वह 1 + 1 = 2 नहीं है, पति और पत्नी दोनों मिलकर ½ + ½ = 1 होता है। पति के पुण्य में पत्नी को 50% आरक्षण लाभ भी मिलता है। आज जो महिला आरक्षण, नारी सशक्तिकरण की बात करते हैं क्या उन्हें धर्म-कर्म में 50% आरक्षण नहीं दिखता, इसी तरह पत्नी को पति की सम्पत्ति, घर आदि में भी अधिकार प्राप्त हो जाता है।

  • कर्म का उद्देश्य फल प्राप्ति होता है।
  • यदि बिना पकाये भोजन मिल जाये तो पकाने की कोई आवश्यकता नहीं होती।
  • हवन का फल पत्नी को अलग से हवन किये बिना प्राप्त होता है तो फिर हवन करने की आवश्यकता सिद्ध नहीं होती।
  • सनातन में पति और पत्नी को दो नहीं माना जाता है १ माना जाता है और इसलिये पत्नी के साथ ग्रंथिबंधन करके पति आधा नहीं रहता पूर्ण होकर हवन करता है,
  • अर्थात पति के द्वारा किया गया हवन पत्नी द्वारा भी किया हुआ मान्य होता है।

कई ऐसे भी अवसर होते हैं जहां पत्नी प्रधान होती है क्या पति ऐसे किसी कार्य में अधिकार के लिये झगड़ा करता है ? जैसे :

  • सप्तपदी काल में पत्नी आगे रहती है।
  • वधूप्रवेश के समय पत्नी आगे रहती है।
  • गृहप्रवेश के समय पत्नी आगे रहती है।
  • पत्नी घर की लक्ष्मी कहलाती है किन्तु पुरुष विष्णु नहीं कहलाता।
  • पत्नी के बिना घर को घर नहीं माना जाता।
  • पुरुष स्वयं से कई गुना अधिक धन पत्नी के लिये व्यय करता है।
  • पति को एक भी आभूषण न हो किन्तु पत्नी को आभूषण मिलता है। क्या कीमती आभूषणों के लिये पुरुष कभी स्त्री के समान अधिकार चाहता है ?

धरातल पर क्या देखने को मिलता है ?

कर्मकांड के मामले में धरातल पर दो तरह की स्त्रियां होती हैं :

  1. पहली पारिवारिक सुख, शांति, आत्मकल्याण आदि चाहने वाली जो धर्म, अध्यात्म, शास्त्रों में विश्वास रखती है। भारत में अभी भी ९०% इसी प्रकार की स्त्रियां हैं। इन स्त्रियों का कुछ स्वार्थी तत्व नाना प्रकार से शोषण नहीं कर पाते और पुराने विचारों वाली कहकर इनको ताने मारते फिरते हैं।
  2. दूसरी वो जो भीतर से नास्तिक होती है, धर्म और शास्त्रों पर विश्वास नहीं रखती, स्वयं को पढ़ी-लिखी और २१वीं सदी की मानती है, धर्म के नाम पर पाखंड करती है। इनमें से बहुतों का स्वार्थी तत्वों द्वारा नाना प्रकार से शोषण किया जाता है। वर्तमान भारत में भी इस प्रकार की स्त्रियां १०% से अधिक नहीं है। इनकी एक और विशेषता होती है की पहले प्रकार के स्त्रियों पर ताने यही मारती हैं। पाखंड और आडम्बर स्वयं करती है लेकिन जो धर्म और शास्त्रों के नियमों को मानने है उसे ही ये पाखंड और आडम्बर कहती है।

इन दोनों प्रकार की स्त्रियों में कुछ और भी अंतर मिलता है :

  • पहले प्रकार की स्त्री धर्म में विश्वास रखती है लेकिन दूसरे प्रकार की स्त्री सांसारिक सुख में।
  • पहले प्रकार की स्त्री पति की सेवा करती है लेकिन दूसरे प्रकार की स्त्री पति से सेवा कराती है।
  • पहले प्रकार की स्त्री पति से निश्छल प्रेम करती है, दूसरे प्रकार की स्त्री स्वार्थ के लिये दिखावटी लव करती है।

अधिकारों की राजनीतिक लड़ाई को राजनीति तक ही रहने देना चाहिये। सनातन की ये विशेषता है की किसी भी विषय पर कोई व्यक्ति स्वतंत्र विचार बनाकर धर्म का नियम नहीं घोषित कर सकता। धर्म के नियम शास्त्रों में लिखे हुये हैं और गांवों में लोग मूर्ख हो तो भी उनके व्यवहार में दिखता है।

  • सारांश : यदि इस पूर्वाग्रह को छोड़कर की स्त्रियों को हवन का अधिकार है प्रमाण और तर्कों से विचार करने पर यह सिद्ध होता है कि नित्यहोम के संबंध में स्त्रियों को पति की असमर्थता या अनुपस्थिति में अल्पकाल के लिये हवन करने का अधिकार इसलिये प्राप्त होता है ताकि पति का कर्म से पतन न हो, लेकिन उस विशेष स्थिति के आधार पर यह सिद्ध नहीं हो पाता है कि स्त्री को अलग से किसी हवन का अधिकार शास्त्रों द्वारा दिया गया है। शास्त्रों द्वारा स्त्री को पति के द्वारा किये गये हवन में ही फल का भागी बताया गया है तो अलग से हवन करने की आवश्यकता ही सिद्ध नहीं होती और पतिहीन (विधवा) के लिये आचार्य का वरण करके हवन का नियम ज्ञात होता है।

कर्मकांड विधि में शास्त्रोक्त प्रमाणों के साथ प्रामाणिक चर्चा की जाती है एवं कई महत्वपूर्ण विषयों की चर्चा पूर्व भी की जा चुकी है। तथापि सनातनद्रोही उचित तथ्य को जनसामान्य तक पहुंचने में अवरोध उत्पन्न करते हैं। एक बड़ा वैश्विक समूह है जो सनातन विरोध की बातों को प्रचारित करता है। गूगल भी उसी समूह का सहयोग करते पाया जा रहा है अतः जनसामान्य तक उचित बातों को जनसामान्य ही पहुंचा सकता है इसके लिये आपको भी अधिकतम लोगों से साझा करने की आवश्यकता है।

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