शनि शांति के उपाय | शनि शांति मंत्र : Shani shanti ke upay – 9th

शनि शांति के उपाय | शनि शांति मंत्र : Shani shanti ke upay शनि शांति के उपाय | शनि शांति मंत्र : Shani shanti ke upay

शनि शांति

आधार : शनि शांति के लिये भी कर्मठगुरु में वर्णित विधि का आधार ग्रहण किया गया है।

मुहूर्त : शनि शांति के लिये श्रावणादि मास के प्रथम शनिवार से नक्त व्रत का आरम्भ करना चाहिये और 7 शनिवार तक नक्त व्रत करना चाहिये। सातवें शनिवार के दिन विधिवत शनि शांति करनी चाहिये। श्रावणादि मास के प्रथम शनिवार शनि शांति के मुहूर्त का विशेष निर्धारक है। सातवें शनिवार को अन्य शांति मुहूर्त या अग्निवास आदि देखने की आवश्यकता नहीं होती।

नियम : प्रथम शनिवार से ही नक्तव्रत करे।

मंत्र जप : मंत्र जप का तात्पर्य निर्बलता और अशुभता दोनों का निवारण करना है। शनि के लिये मंत्र जप की संख्या 23000 बताई गयी है। यदि 23000 जप करना हो तो स्वयं 7 शनिवार को किया जा सकता है किन्तु यदि चतुर्गुणित अर्थात 92000 जप करना हो तो 21 ब्राह्मणों की आवश्यकता होगी जो 92000 जप करेंगे। आचार्य अलग से होंगे।

शांति कब करे : जैसा की बताया जा चुका है श्रावणादि मास के प्रथम शनिवार से नक्तव्रत का आरम्भ और शनि की अर्चना करे। इस प्रकार से प्रत्येक शनिवार को करते हुये सातवें शनिवार को शांति करे। अथवा यदि तत्काल आवश्यक हो तो उस समय किसी भी शनिवार को अथवा शनि नक्षत्र में किया जा सकता है। उस समय अग्निवास का विचार करना अपेक्षित होगा।

शनि शांति विधि

पूर्वोक्त विधि से 6 शनिवार व्रत करके सातवें शनिवार को शनि शांति करे। शांति हेतु पूजा स्थान पर मध्य में हवन वेदी बनाये व पूर्व में शनि पूजा निमित्त वेदी (अष्टदल) बनाये। ईशानकोण में नवग्रह वेदी बनाये। नवग्रह वेदी के ईशान कोण में कलश स्थापन हेतु अष्टदल बना ले। सातवें शनिवार को प्रातः काल पूर्ववत नित्यकर्म संपन्न करके भगवान सूर्य को ताम्र पात्र में रक्तपुष्पाक्षतयुक्त जल से अर्घ्य देकर पूजा स्थान पर सपत्नीक आकर आसन पर बैठे :

शनि शांति के उपाय | शनि शांति मंत्र : Shani shanti ke upay
शनि शांति के उपाय | शनि शांति मंत्र : Shani shanti ke upay

तत्पश्चात त्रिकुशा, तिल, जल, पुष्प, चन्दन, द्रव्यादि लेकर संकल्प करे। यहां ऐसा माना जा रहा है कि जप पूर्व ही कर लिया गया होगा। यदि जप भी शांति के दिन ही करना हो तो संकल्प में जप को भी जोड़ ले। यदि जप नहीं करना हो तो जप न जोड़े।

संकल्प : ॐ विष्णुर्विष्णुर्विष्णुः श्रीमद् भगवतो महापुरूषस्य, विष्णोराज्ञया प्रवर्तमानस्य अद्य ब्रह्मणोऽह्नि द्वितीये परार्धे श्रीश्वेत वाराहकल्पे वैवस्वत मन्वन्तरे अष्टाविंशतितमे कलियुगे कलि प्रथमचरणे भारतवर्षे भरतखण्डे जम्बूद्वीपे आर्यावर्तैक देशान्तर्गते ………… १ संवतसरे महांमागल्यप्रद मासोतमे मासे ………. २ मासे ………… ३ पक्षे ………… ४ तिथौ …………५ वासरे ………… ६ गोत्रोत्पन्नः ………… ७ शर्माऽहं (वर्माऽहं/गुप्तोऽहं) ममात्मनः श्रुति स्मृति पुराणतन्त्रोक्त फलप्राप्तयर्थं मम कलत्रादिभिः सह जन्मराशेः सकाशात् नामराशेः सकाशाद्वा जन्मलग्नात् वर्षलग्नात् गोचराद्वा चतुर्थाष्टमद्वादशाद्यनिष्ट स्थान स्थित शनिना सूचितं सूचीष्यमाणं च यत् सर्वारिष्टं तद्विनाशार्थं सर्वदा तृतीयैकादश शुभस्थानस्थितवदुत्तमफल प्राप्त्यर्थं तथा दशांतरदशोपदशा जनित पीडाल्पायुरधिदैवाधिभौतिक आध्यात्मिक जनित क्लेश निवृत्ति पूर्वक दीर्घायु शरीरारोग्य लाभार्थं परमैश्वर्यादि प्राप्त्यर्थं श्रीशनि प्रसन्नतार्थं च शनिशांति करिष्ये ॥

(१ संवत्सर का नाम, २ महीने का नाम, ३ पक्ष का नाम, ४ तिथि का नाम, ५ दिन का नाम, ६ अपने गोत्र का नाम, ७ ब्राह्मण शर्माऽहं, क्षत्रिय वर्माऽहं, वैश्य गुप्तोऽहं कहें)

  • तत्पश्चात पुण्याहवाचन करे।
  • फिर आचार्यादि वरण करके दिग्रक्षण करे।
  • फिर हवन विधि के अनुसार पञ्चभूसंस्कार पूर्वक अग्निस्थापन करे।

अग्नि स्थापन विधि

  1. परिसमूह्य : ३ कुशाओं से स्थण्डिल या हस्तमात्र भूमि की सफाई करें। कुशाओं को ईशानकोण में (अरत्निप्रमाण) त्याग करे । 
  2. उल्लेपन : गोबर से ३ बार लीपे।
  3. उल्लिख्य – स्फय या स्रुवमूल से प्रादेशमात्र पूर्वाग्र दक्षिण से उत्तर क्रम में ३ रेखा उल्लिखित करे।
  4. उद्धृत्य – दक्षिणहस्त अनामिका व अंगुष्ठ से सभी रेखाओं से थोड़ा-थोड़ा मिट्टी लेकर ईशान में (अरत्निप्रमाण) त्याग करे।
  5. अग्नानयन व क्रव्यदांश त्याग – कांस्यपात्र या हस्तनिर्मित मृण्मयपात्र में अन्य पात्र से ढंकी हुई अग्नि मंगाकर अग्निकोण में रखवाए । ऊपर का पात्र हटाकर थोड़ी सी क्रव्यदांश अग्नि (ज्वलतृण) लेकर नैर्ऋत्यकोण में त्याग कर जल से बुझा दे ।
  6. अग्निस्थापन – दोनों हाथों से आत्माभिमुख अग्नि को स्थापित करे :- ॐ अग्निं दूतं पुरोदधे हव्यवाहमुपब्रुवे । देवां२ आसादयादिह ॥ अग्नानयन पात्र में अक्षत-जल छिरके।
  7. अग्निपूजन-उपस्थान – अग्नि को प्रज्वलित कर पूजा करे, नैवेद्य वायव्यकोण में देकर स्तुति करे : ॐ अग्निं प्रज्वलितं वन्दे जातवेदं हुताशनं। हिरण्यवर्णममलं समृद्धं विश्वतोमुखं ॥

अग्नि स्थापन करने के बाद अग्नि रक्षणार्थ पर्याप्त ईंधन देकर आगे का पूजन कर्म करे।

  • फिर नवग्रह मंडल स्थापन-पूजन करे।
  • फिर नवग्रह मंडल के ईशान में अष्टदल बनाकर कलश स्थापन पूजन करे।
  • हवन वेदी के पूर्व में अन्य वेदी पर अष्टदल बनाकर, चावल के पुञ्ज पर लौह  कलश स्थापन करे पूर्णपात्र हेतु लौह का प्रयोग करे।
  • फिर शनि की लौह प्रतिमा का अग्न्युत्तारण करके लौहपात्र में रखे ।
  • उन्हें युगल कृष्ण वस्त्र, काला उड़द, तिल, कम्बल, कृष्णपुष्प, कस्तूरी, कृष्णागरु, कृसरान्न, माषभक्त, पायस, पूरी आदि से युक्त करके फिर षोडशोपचार पूजन करे।
  • तत्पश्चात ब्रह्मावरण करके आगे का हवन कर्म करे। यदि जप किया गया हो तो जप का दशांश होम करे, अन्यथा अष्टोत्तरशत अथवा अष्टोत्तरसहस्र करे। हवन द्रव्य : दधि-मधु, घृताक्त शमी समिधा, शाकल्य सहित।
  • आरती आदि करके लौह कलश में उड़द, तिल, प्रियंगु, गंध, पुष्प दे।
  • फिर लौह कलश के जल से आचार्य यजमान का अभिषेक करें।
  • फिर ग्रहस्नान करके शनि प्रतिमा, इन्द्रनील, माष, तेल, कुलित्थ, महिषी, लौह, कृष्णधेनु आचार्य को प्रदान करे।
  • दान मंत्र : ॐ सूर्यपुत्रो दीर्घदेहो विशालाक्षः शिवप्रियः। मन्दचारः प्रसन्नात्मा पीडां हरतु ते शनिः ॥

शनि मंत्र जप विधि

विनियोग : शन्नोदेवीति मंत्रस्य सिन्धुद्वीप ऋषिः, गायत्री छन्दः आपो देवता शनि प्रीत्यर्थे जपे विनियोगः॥

न्यास विधि :

देहन्यास : शन्नो शिरसि ॥ देवीः ललाटे ॥ अभिष्टय मुखे ॥ आपो कण्ठे ॥ भवन्तु हृदये ॥ पीतये नाभौ ॥ शं कट्यां ॥ योः ऊर्वोः॥ अभि जान्वोः ॥ स्रवन्तु गुल्फयोः ॥ नः पादयोः॥

करन्यास : शन्नो देवीः अंगुष्ठाभ्यां नमः ॥ अभिष्टय तर्जनीभ्यां नमः ॥ आपो भवन्तु मध्यमाभ्यां नमः ॥ पीतये अनामिकाभ्यां नमः ॥ शं योरभि कनिष्ठिकाभ्यां नमः ॥ स्रवन्तु नः करतल-करपृष्ठाभ्यां नमः ॥

हृदयादिन्यास : शन्नो देवीः हृदयाय नमः ॥ अभिष्टय शिरसे स्वाहा ॥ आपो भवन्तु शिखायै वषट् ॥ पीतये कवचाय हुँ ॥ शं योरभि नेत्रत्रयाय वौषट् ॥ स्रवन्तु नः अस्त्राय फट् ॥

ध्यान :

नीलांबरः शूलधरः किरीटी गृध्रस्थितस्त्रासकरो धनुष्मान् I
चतुर्भुजः सूर्यसुतः प्रसन्नः सदाऽस्तु मह्यं वरदोऽल्पगामी II

मंत्र : ॐ शन्नो देवीरभिष्ट्य आपो भवन्तु पीतये । शं योरभि स्रवन्तु नः ॥

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