शारीरिक शुद्धि अर्थात शुचिता के बाद नित्यकर्म में संध्या, तर्पण, पंचदेवता व विष्णु पूजन का क्रम आता है। संध्या तो त्रैकालिक होती है अर्थात प्रातः, मध्यान और सायाह्न तीनों कालों में करणीय है, किन्तु तर्पण व पंचदेवता विष्णु पूजन प्रातः का ही नित्यकर्म है ये दोनों त्रैकालिक नहीं हैं। इस आलेख “संध्या तर्पण विधि” में संध्या विधि, संक्षिप्त तर्पण विधि पंचदेवता पूजा व विष्णु पूजा विधि और मंत्र दिये गये हैं एवं साथ ही साथ इनसे सम्बंधित अन्य महत्वपूर्ण जानकारियां भी दी गयी है।
संध्या तर्पण विधि
संध्या वंदन से पूर्व स्नान वस्त्र को साफ करके गाड़ लेना चाहिये – वृद्धमनु – निष्पीड्य स्नानवस्त्रं तु पश्चात्सन्ध्या समाचरेत् । अन्यथा कुरुते यस्तु स्नानं तस्याफलं भवेत् ॥
स्नान करने के बाद स्वच्छ वस्त्र धारण करना चाहिये। एक बार पहना हुआ वस्त्र भी प्रक्षालन करने के बाद ही शुद्ध होता है। कई लोग ऐसे भी होते हैं जो प्रतिदिन एक ही वस्त्र धारण तो करते हैं किन्तु प्रक्षालन नहीं करते। इसका कारण यह धारणा है कि वस्त्र पहनकर यदि भोजनादि करें या मल-मूत्र त्याग करें तभी अशुद्ध होता है अन्यथा शुद्ध ही रहता है।
यह धारणा अशास्त्रीय है और इसी कारण किसी पूजनादि में भी ऐसा देखा जाता है कि यदि मल-मूत्र त्याग की बात आती है तो वस्त्र खोलकर कर लेते हैं और पुनः धारण कर लेते हैं जो कि उचित नहीं है। एक बार धारण किया गया वस्त्र अशुद्ध हो जाता है और पुनः धारण करने से पूर्व उसका प्रक्षालन आवश्यक होता है।
रात में अथवा दिन में अज्ञानता के कारण हुये दोषों का निवारण त्रिकाल संध्या करने से हो जाता है। याज्ञवल्क्य – निशाया वा दिवा वापज्ञानकृतं भवेत् । निकालसन्ध्याकरणातत्सर्वं हि प्रणश्यति ॥
सन्ध्योपासन‘ कात्यायनपरिशिष्टसूत्र – उत्तीर्य धौते वाससी परिधाय मृदोरू करौ प्रक्षल्याचम्य । त्रिराचम्यामुन् पुष्पाण्यम्बुमिश्राण्यूर्ध्वं क्षिप्त्वोर्ध्वबाहुः सूर्यमुदीक्षन्नुद्वयमृदुत्यं चित्रं तचक्षुरिति गायत्र्या च यथाशक्ति ॥
संध्या की अनिवार्यता – मरीचि– सन्ध्या येन न विज्ञाता सन्ध्या येनानुपासिता । जीवमानो भवेच्छूद्रो मृतः श्वा चाऽभिजायते ॥ पुनः दक्षवचन – सन्ध्याहीनोऽशुचिर्नित्यमनर्हः सर्वकर्मसु । यदन्यक्कुरुते कर्म न तस्य फलभाग्भवेत् ॥
संध्याकाल – दिन व रात की संधि जब तक आकाश में न तो तारे हों और न ही सूर्य हो संध्या काल होता है। नागदेव – अहोरात्रस्य यः सन्धिः सूर्यनक्षत्रवर्जितः । सा तु सन्ध्या समाख्याता मुनिभिस्तत्त्वदर्शिभिः ॥ यदि संध्याकाल का अतिक्रमण हो तो एक अर्घ्य की वृद्धि करते हुये चार अर्घ्य देना चाहिये।
संध्या की अनिवार्यता – मरीचि– सन्ध्या येन न विज्ञाता सन्ध्या येनानुपासिता । जीवमानो भवेच्छूद्रो मृतः श्वा चाऽभिजायते ॥ पुनः दक्षवचन – सन्ध्याहीनोऽशुचिर्नित्यमनर्हः सर्वकर्मसु । यदन्यक्कुरुते कर्म न तस्य फलभाग्भवेत् ॥
संध्याकाल – दिन व रात की संधि जब तक आकाश में न तो तारे हों और न ही सूर्य हो संध्या काल होता है। नागदेव – अहोरात्रस्य यः सन्धिः सूर्यनक्षत्रवर्जितः । सा तु सन्ध्या समाख्याता मुनिभिस्तत्त्वदर्शिभिः ॥ यदि संध्याकाल का अतिक्रमण हो तो एक अर्घ्य की वृद्धि करते हुये चार अर्घ्य देना चाहिये।
शिवालय में संध्या – शिव मंदिर पर संध्या सर्वाधिक फलकारी है । लेकिन गर्भगृह के बाहर ही कर्त्तव्य।
भस्म-चंदन – धर्म चाहने वाला घर में निर्मित भस्म या हवन का भस्म ही धारण करे। चंदन का तात्पर्य श्रीखंड, मलयागिरि, रक्तचन्दन, गंगातट की मिट्टी आदि है। इसके अतिरिक्त केमिकल दूषित भस्म, चंदन आदि धारण व पूजन के लिये अनुपयोगी है। सभी वस्तुओं के लिये बाजार पर निर्भरता का तात्पर्य श्रम से देह चुराना भी होता है। धर्म चाहने वाले को श्रम से देह नहीं चुराना चाहिये। बाजार में उपलब्ध भस्म-चंदन आदि मेकअप (प्रसाधन) की श्रेणी के होते हैं। उसमें विहित-अविहित वस्तुओं का कोई विचार नहीं होता।
मध्यमा-अनामिका और अंगूठे का प्रयोग करते हुये भस्म धारण करना चाहिये। भस्म दोनों भौहों की सीमा तक ही धारण करणा चाहिये।
संध्या करने से लाभ
केवल लाभ सोचकर संध्या नहीं करना अनुचित होगा। संध्या नित्यकर्म है अर्थात् अनिवार्य है, करना ही चाहिये। तथापि कुछ विशेष लाभ संबंधी चर्चा विषयानुकूल है।
संध्या करने से तेज की वृद्धि होती है। संध्या करने से मानसिक विकास होता है। संध्या करने से अज्ञानवश हुये पापों का निवारण होता है। दैवीय कृपा प्राप्ति में बाधा उत्पन्न करने वाले दोषों का निवारण होता है। संध्या करने से आत्मबल बढता है। आत्मबल बढने से सफलता प्राप्ति की संभावना भी बढती है। संध्या से अन्य भौतिक लाभ भी अधिक होते हैं, जैसे : आर्थिक उन्नति, धन-सम्पति की वृद्धि, स्वास्थ्य लाभ, व्यापार में वृद्धि, नौकरी में उन्नति या प्रमोशन आदि-आदि।
संध्या वंदन कैसे करें
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