सरल हवन विधि कहकर भ्रमित करने वालों की संख्या बहुत अधिक है, यहां हम हवन विधि को समझेंगे। हवन का तात्पर्य विधिपूर्वक स्थापित अग्नि में सावधानी से उत्तम द्रव्यों की आहुति देना होता है न कि अलाव लगाना। प्रायः देखा यही जाता है कि अलाव लगाकर उसमें शाकल्यादि नामक द्रव्य देना मात्र ही हवन समझा जाता है जो की सर्वथा भ्रम है। यदि ठंड में ऐसे अलाव लगायें तो एक लाभ आग सेंकना प्राप्त हो भी सकता है किन्तु गर्मी में तो वो भी दग्ध ही करने वाला होता है। इस आलेख में पहले हवन के विषय-क्रियाविधि को समझने का प्रयास करेंगे और तत्पश्चात संपूर्ण हवन विधि एवं मंत्रों का भी अवलोकन करेंगे।
हवन करने की विधि एवं मंत्र – संपूर्ण हवन विधि मंत्र – havan vidhi
शास्त्रों में देवताओं के दो मुख कहे गये हैं :- १. अग्नि और २. ब्राह्मण का मुख । पूजा के समय जो भोग (नैवेद्य) अर्पित किया जाता है उसमें भाव को प्रधान कहा गया है, भगवान उस भोग का नहीं अपितु भाव का भोग लगाते हैं और अर्पित किया गया भोग प्रसाद स्वरूप पुनः हम ही ग्रहण करते हैं।
हवन परिचय या होम के विषय में परिचर्चा
शतपथ ब्राह्मण – देवा अग्निमुखा अन्नमदन्ति, यस्यै कस्यै च देवतायै च जुह्वति, अग्नावेव जुह्वति, अग्निमुखा हि तद्देवा अन्नमकुर्वत।
होम : कात्यायन श्रौतसूत्र – उपविष्टहोमाः स्वाहाकारप्रदानाः जुहोतयः । बैठकर स्वाहाकार पूर्वक अग्नि में हविर्द्रव्य त्याग होम (हवन) कहलाता है। होम में जो आहुति प्रदान की जाती है अग्निमुख से देवता को प्राप्त होता है; और जो ब्राह्मण के मुख से ग्रहण किया जाता है वो भी देवता को प्राप्त होता है अथवा देवता ही ग्रहण करते हैं ।
- अतः ये सिद्ध होता है कि हवन में हम परोक्ष देवता को प्रत्यक्ष भोजन करा रहे होते हैं ।
- हवन में भाव व श्रद्धा तो आवश्यक होता ही है साथ-साथ मन्त्र, विधान, वस्तु, शुद्धता, संस्कार आदि भी अनिवार्य होता है।
- होमकर्म में असंस्कृत कुछ भी प्रयुक्त होने पर वह आसुरी-श्रेणी प्राप्त कर लेता है।
- पहले होत्री स्वयं संस्कारित होकर अग्निस्थापन से पूर्व भूमि, स्थण्डिल या कुण्ड का संस्कार करे, फिर अग्नि को भी संस्कारित करके स्थापित करे, फिर जो पात्र (स्रुव,स्रुक् आदि) प्रयुक्त होंगे उसे संस्कारित करे, फिर जो द्रव्य (आज्य, चरु आदि) प्रयुक्त होंगे उसे भी संस्कारित करके ही आहुति देना चाहिए।
हवन का महत्व
विष्णुधर्मोत्तरपुराण – होमेन पापं पुरुषो जहाति होमेन नाकं च तथा प्रयाति । होमस्तु लोके दुरितं समग्रं विनाशयत्येव न संशयोऽत्र ॥ : होम के द्वारा मनुष्य अपने पापों को दूर करता है और स्वर्ग को प्राप्त करता है । होम संसार के समस्त पापों को नष्ट करता है, इसमें कुछ भी सन्देह नहीं ।
महाभारत (शान्तिपर्व) – “हुतेन शम्यते पापं” : होम करने से पाप का शमन होता है।
अश्रद्धया च यद्दत्तं विप्रेऽग्नौ दैविके क्रतौ । न देवास्तृप्तिमायान्ति दातुर्भवति निष्फलम् ॥
इष्ट देवताकी प्रीति के लिये अनुष्ठित यज्ञमें ब्राह्मण और अग्नि के लिये जो कुछ अश्रद्धा से समर्पित किया जाता है, उससे देवगणों की तृप्ति नहीं होती । दाता का वह दक्षिणा आदि द्रव्य निरर्थक ही जाता है। विधिरहित किया गया हवन सर्वथा निष्फल होता है यही शास्त्राज्ञा है।
इसलिए हवनकाल में जो मन्त्र, विधि व वस्तु शास्त्रों में वर्णित है उसका श्रद्धापूर्वक पालन करना अनिवार्य होता है और यदि उसका पालन नहीं किया जाय तो वह हवन आसुरी कहलाता है।
प्रायः ऐसा देखा जाता है कि पूजा/ अनुष्ठान आदि तो बहुत वृहद् करते हैं परंतु हवन बहुत संक्षित्प में करते हैं या मन्त्र, विधि व वस्तु आदि का शास्त्रीय अनुपालन नहीं करते वह हवन आसुरी हो जाता है ।
भौतिकवादियों का हवन से लाभ में एकांगी अर्थात हीनांग या पक्ष
वर्त्तमान युग में भौतिकवाद ने विकराल रूप धारण कर लिया है और अध्यात्म को भी मात्र भौतिक लाभ के लिये स्वीकार करते हैं या धर्म/कर्मकाण्ड के भौतिक लाभ तो चाहते हैं किन्तु आध्यात्मिक पक्ष को अभी भी नकारते हैं।
हवन से आत्मकल्याण किया जा सकता है ये आध्यात्मिक पक्ष है किन्तु हवन से पर्यावरण का संरक्षण भी होता है जो अतिरिक्त लाभ है, लेकिन मुख्य लाभ नहीं। इसे ठीक-ठीक समझने के लिये हमें फ्री में जो ऑफर मिलता है उससे समझा जा सकता है। कंपनियां किसी वस्तु के वास्तविक मूल्य के साथ ही ऑफर फ्री का ऑफर निकाला करती है जिसमें कुछ अन्य वस्तु भी दिया जाता है।
भौतिकवादी वो मुर्ख होते हैं जो मुख्य वस्तु की उपेक्षा करके गौण वस्तु (फ्री में मिलने वाले) को ही अधिक महत्वपूर्ण समझते हैं और कुछ लोग तो ऐसे महामूर्ख भी होते हैं जो मुख्य वस्तु की उपयोगिता है या नहीं मात्र फ्री की वस्तु के लिये मुख्य वस्तु को भी खरीदते हैं, भले ही मुख्य वस्तु को फेंक क्यों न दें। मात्र भौतिक लाभ हेतु हवन करने वाले उसी श्रेणी में आते हैं जो हवन तो करते हैं किन्तु आध्यत्मिक लाभ का त्याग कर फ्री में उपलब्ध मात्र भौतिक लाभ ही ग्रहण करते हैं।
पर्यावरण की शुद्धि भौतिक लाभ है और इसके लिये हवन करने की आवश्यकता नहीं होती, पर्यावरण संबंधी लाभ हेतु उन वस्तुओं को आग में मात्र जलाने की ही आवश्यकता होती है और किसी विधि-विधान की कोई आवश्यकता नहीं होती।
यदि आप हवन करते हैं तो आपको उन मुर्ख भौतिकवादियों के भ्रमजाल से बचने की भी आवश्यकता है जो आपको केवल भौतिक लाभ का पाठ पढ़ाते हैं। आध्यात्मिक उन्नति के लिये ही हवन करें भौतिक लाभ के लिये नहीं, भौतिक लाभ स्वतः ही प्राप्त होंगे।
श्रद्धा की आवश्यकता
शास्त्रों में कहा गया है या गुरु (विद्वान) जो कहें उसमें विश्वास करना ही श्रद्धा है । चूँकि हवन में हम परोक्ष अग्निमुखी देवता को प्रत्यक्ष भोजन प्रदान करते हैं इसलिए हवनकाल में पूर्ण सावधान रहकर हमें शास्त्रीय मन्त्र, विधान व वस्तु का पालन करना चाहिए ।
हवन का विधान कब बदलता है अर्थात् सरल हवन विधि से हवन कब करें?
हवन में आहुति की संख्या कम हो अथवा अधिक विधान अपरिवर्तित रहता है, मन्त्र व वस्तु में भले ही परिवर्तन हो। हवन में ये सब परिवर्तन किये जाते हैं :
- आहूति की संख्या : जप, अनुष्ठान आदि के अनुसार आहूति की संख्या निर्धारित होती है। अलग-अलग पूजा/अनुष्ठानों की आहूति संख्या में परिवर्तन होता है।
- आहूति द्रव्य : मुख्य देवता के लिये आहूति द्रव्यों में भी परिवर्तन किया जा सकता है। आज्य, शाकल्य, हविष्य, समिधा आदि-आदि। कामना भेद से भी आहूति द्रव्य का परिवर्तन होता है।
- आहूति मंत्र : आहूति मंत्र में भी परिवर्तन होता है लेकिन मुख्य देवता के अनुसार। हवन जिस देवता के निमित्त किया जाता है उसी देवता के मंत्र से मुख्य आहूति दी जाती है। अतः मुख्य देवता भेद से मुख्य आहूति मंत्र में परिवर्तन होता है।
सरल हवन विधि
- सरल हवन विधि का तात्पर्य कुछ लोग संक्षिप्त हवन विधि समझते और समझाते हैं जो उचित नहीं है। आगे हवन क्रियाओं को हम विस्तार से समझेंगे और सभी क्रियायें (विधियां) छोटे-से-छोटे हवन (छोटे हवन का अर्थ कम आहुति वाला हवन समझना चाहिये) में भी हवन की जो विधियां हैं वो अनिवार्य हैं। अतः सरल हवन विधि का अर्थ किसी भी विधि या क्रिया का लोप करना नहीं हो सकता।
- फिर सरल हवन विधि का अर्थ क्या होता है ? सरल हवन विधि का सही अर्थ होता है हवन विधि की जटिलताओं को इस प्रकार समझाना या बताना कि सरलता से समझ में आ जाये। अर्थात सरल हवन विधि का भी वास्तविक तात्पर्य सम्पूर्ण हवन विधि ही है मात्र उसकी क्रियाओं को इस प्रकार से समझाना है कि सामान्य जन भी आसानी से समझ ले।
संपूर्ण हवन विधि का सूत्र
हवन विधान को आपस्तम्बगृह्यसूत्र में बहुत सुन्दर तरीके से सूत्र वर्णित किया गया है जो इस प्रकार है –
परिसमुह्योपलिप्योलिख्योद्धृत्याभ्युक्ष्याग्निमुपसमाधाय दक्षिणतो ब्रह्मासनमास्तीर्य प्रणीय परिस्तीर्यार्थ वदासाद्य पवित्रेकृत्वाप्रोक्षणीः संस्कृत्यार्थवत्प्रोक्ष्य निरूप्याज्यमधिश्रित्य पर्यग्नि कुर्यात् ॥२॥ स्रुवंप्रतप्य संमृज्याभ्युक्ष्य पुनः प्रतप्य निदध्यात् ॥३॥ आज्यमुद्वास्योत्पूयावेक्ष्य प्रोक्षणीश्च पूर्ववद् उपयमनाकुशानादाय समिधोऽभ्याधाय पर्युक्ष्य जुहुयात् ॥४॥ एष एव विधिर्यत्र क्वचिद्धोमः ॥५॥ – पारस्कर-कात्यायन। यह प्रथम भाग है जो कि आरंभ विधान है, और किसी भी हवन के आरम्भ में किया जाता है ।
अग्न्याधेयदेवताभ्यः स्थालीपाकं श्रपयित्वाज्यभागाविष्ट्वाज्याहुतीर्जुहोति ॥१॥ त्वन्नोऽअग्ने – सत्वन्नोऽअग्न – इम्मेवरुण – तत्वायामि – ये ते शतमयाश्वान – उदुत्तमं भवतन्नइत्यष्टौपुरस्तात् ॥२॥ एवमुपरिष्टात्स्थालीपाक स्याग्न्याधेयदेवताभ्यो हुत्वा जुहोति ॥३॥ स्विष्टकृतेच ॥४॥ आयास्यग्नेर्वषट्कृतं यत्कर्मणात्यरीरिचं देवागातुविदइति ॥५॥ बर्हिर्हुत्वा प्राश्नाति ॥६॥ ततोब्राह्मणभोजनं ॥७॥ :- पारस्कर । यह द्वितीय विधान या अवसान है जो कि मुख्य होम के उपरांत करणीय है।
मुख्यहोम अर्थात मुख्य देवता की आहुति लक्ष हो सहस्र हो, शत हो या उससे भी न्यून ही क्यों न हो आदि व अवसान विधि समान ही रहता है । इस सूत्र की चर्चा करने से पूर्व पात्रों पर विमर्श आवश्यक है ।
आगे हवन विधि और मंत्र की चर्चा पर आने से पहले हम इस सूत्र में जो विधियां बताई गयी हैं उन विधियों को गंभीरता से समझेंगे।
हवन के लिए उपयोगी पात्र
काष्ठ पात्र : यज्ञादि में अग्नि उत्पन्न करने के लिए अरणी का प्रयोग किया जाता है, अन्यत्र अरणी अनिवार्य नहीं है। स्रुवा, स्रुचि, प्रणीता, प्रोक्षणी, स्फय ये पांच काष्ठ-पात्र हैं जो किसी भी होम में आवश्यक हैं । अतः मात्र ब्राह्मणों को ही नहीं अपितु सभी आस्थावानों को अवश्य ही रखना चाहिए।
धातुपात्र : गृह्यसंग्रह : शुभं पात्रं तु कांस्यं स्यात्तेनाऽग्निं प्रणयेद्बुधः । तस्याभावे शरावेण नवेनाभिमुखं च तम् ॥ आज्यस्थाली, चरूस्थाली व पाकपात्र (यदि चरुहोम करना हो), पूर्णपात्र ये सब धातुपात्र होते हैं ।
धातुपात्रों का आर्थिक अक्षमता होने पर विकल्प मृण्मय पात्र होता है परन्तु वह चक्र-निर्मित (चाक पर बना हुआ) नहीं हो । कात्यायन : आज्यस्थाली तु कर्तव्या तैजसद्रव्यसम्भवा। माहेयी वापि कर्तव्या नित्यं सर्वाऽग्निकर्मसु॥ यदि मृण्मय पात्र (विकल्प) का प्रयोग करना हो तो वह हस्तनिर्मित होना चाहिए, चाक से बनाया हुआ आसुरी होने के कारण धार्मिक कृत्यों में निषिद्ध किया गया है – कुलालचक्र निष्पन्नमासूरं मृण्मयं भवेत्। तदेव हस्तघटितं प्रशस्तं हव्य कव्ययोनः॥
लेकिन एक सत्य ये भी है कि धार्मिक कृत्यों में विकल्प ही प्रथमग्राह्य होता जा रहा है; जैसे आसन न होने पर दीप के नीचे अक्षत देना विकल्प है परन्तु यही प्रथमग्राह्य हो गया है, अगरबत्ती तो निषिद्ध ही है धूपबत्ती धूप का विकल्प है परन्तु धूप ही विकल्पवत् हो गया है और निषिद्ध अगरबत्ती या विकल्प धूपबत्ती ही प्रथम ग्राह्य हो गया है । आस्थावान् धर्मावलम्बियों को ये ध्यान रखना चाहिए कि विकल्प का प्रयोग तब किया जाना चाहिए जब मुख्य का पालन करना संभव न हो।
कर्म के ३ प्रकार होते हैं – सुकर्म या सत्कर्म, अकर्म और कुकर्म या दुष्कर्म ।
- सुकर्म या सत्कर्म – शुभभावना से विहित कर्मों को प्रयासपूर्वक करना;
- अकर्म – छन्दोगपरिशिष्ट – अक्रिया त्रिविधा प्रोक्ता विद्वद्भिः कर्मकारिणाम् । अक्रिया च परोक्ता च तृतीया चायथाक्रिया ॥ विहित कर्म को विधिरहित करना, इसी को शास्त्रों में आसुरी संज्ञा भी दी जाती है (विधिपूर्वक कामनारहित किया हुआ कर्म भी अकर्म होता है तथा निष्कामश्रेणी की विशिष्टतायुक्त);
- कुकर्म – अशुभभावग्रस्त , स्वार्थादि साधन हेतु निषिद्ध या विहित का विपरीत किया गया कर्म।
पूर्णपात्र ब्रह्मा की दक्षिणा होती है अतः वह ब्राह्मण को देना ही चाहिए, विशेष शान्तिहोम में आज्यस्थाली में यदि मुख देखा जाय तो वह छायापात्र हो जाता है और ब्राह्मण को दान हो जाता है लेकिन यदि शान्तिकर्म का हवन न हो और छायापात्र में यदि मुखावलोकन न किया जाय तो वह दान न करके पुनः प्रयोगार्थ रखी भी जा सकती है। तथापि
आश्वालयन – हुतशेषं हविश्चाऽज्यं होत्रे दद्याच्च दक्षिणाम् । सुवर्णे च यथाशक्ति होमसाद्गुण्यहेतवे ॥ होमान्ते ब्रह्मणे दद्या द्यज्ञपात्राणि चैव हि । होमे चैव तु सर्वत्र प्रवदन्ति मनीषिणः ॥ विधिपूर्वक होम करने के उपरांत दक्षिणादि तो देना ही चाहिये, हवन की शेष सामग्रियां ही नहीं अपितु प्रयुक्त पात्र भी ब्राह्मण को ही दे।
हवन कुण्ड निर्माण
कुण्ड कब बनायें – अर्थात हवन करने के लिये कुण्ड की आवश्यकता कब होती है ?
सहस्राहुति के न्यून होने पर कुण्ड की आवश्यता नहीं होती है, लेकिन यदि कुण्ड बनाया जाय तो वास्तुमण्डल बनाना आवश्यक होता है।
गौतम – यत्र कुण्डं तत्र वास्तुपीठं कुर्यात्प्रयत्नतः। स्थण्डिले चाल्पहोमे तु वास्तुपीठं कृताकृतं ॥
अर्थात् भूमि या स्थण्डिल (वेदी) पर होम करना हो या आहुति संख्या १००० से कम हो तो वास्तुमण्डल कृताकृत होता है। कृताकृत का तात्पर्य होता है की वह कर्म यदि किया जाय तो अधिक नहीं होगा, और यदि न किया जाय तो न्यून भी नहीं होगा। लेकिन यदि आहुति संख्या १००० से अधिक हो तो भी वास्तुमण्डल बनाना चाहिए और यदि आहुति संख्या १००० से कम हो लेकिन कुण्ड बनाया जाय तो भी वास्तुमण्डल आवश्यक होता है।
कपिलपञ्चरात्र – सहस्राधिकहोमेषु वास्तुपीठं त्ववश्यकम्॥ देव्यर्चने हस्तमात्रं पीठं योगिनी सम्भवम् ॥ यदि देवी के निमित्त होम हो तो योगिनीमण्डल भी बनाना चाहिए। नवग्रहमण्डल अत्यल्प आहुति होने पर भी बनांना चाहिए। स्थण्डिल पर होम करना हो तो भी बनाना चाहिए। नवग्रहमण्डल सदा स्थण्डिल या कुण्ड के ईशानकोण में बनाना चाहिए और नवग्रहमण्डल के ईशानकोण में रुद्रकलश स्थापित करना चाहिए।
जितने भी मण्डल और देवताओं की पूजा की गयी हो सबको आहुति देनी चाहिए और होम के अंत में सबको बलि भी प्रदान करना चाहिए। यदि कुण्ड बनाना हो तो स्वयं ही स्वछन्द कुण्ड न बनाये कुण्डनिर्माण सबंधी ज्ञानी आचार्य के निर्देशन में ही बनाना चाहिए।
लौहकुण्ड निषिद्ध है इसलिए तगार (लोहे का गमला आदि) में भी होम नहीं करना चाहिए। शहरों में या जहाँ कहीं भी यदि स्थण्डिल या वेदी न बनाया जा सके न ही होम हेतु भूमि हो तो ताम्रादि धातु के कुण्ड का प्रयोग करना चाहिए अथवा बड़े आकार के थार (परात) में भी बालू/मिट्टी भरकर किया जा सकता है तथापि उक्त परिस्थितियों में उत्तम विकल्प स्थण्डिल ही होता है।
खाताधिके भवेद् रोगो, हीने धेनुधनक्षयः । वक्रकुण्डे तु सन्तापो मरणं छिन्नमेखले ॥
मेखलारहिते शोको ह्यधिके वित्तसंक्षयः । भार्याविनाशनं प्रोक्तं कुण्डं योन्याविना कृतम् ॥
अपत्यध्वंसनं प्रोक्तं कुण्डं यत्कण्ठवर्जितम् ॥ – परशुराम
अनेकदोषदं कुण्डं यत्र न्यूनाधिकं यदि । तस्मात्सम्यक् परीक्ष्यैव कर्तव्यं शुभमिच्छता ॥ – वसिष्ठसंहिता
हवन में ध्यान रखने योग्य महत्वपूर्ण तथ्य
हवन सामग्रियों (सभी वस्तुओं) की शुद्धता के विशेष ध्यान रखना चाहिए। चूंकि हवन में हम अग्नि के माध्यम से देवताओं को भोजन प्रदान कर रहे होते हैं इसलिए जहां तक संभव हो स्वयं अथवा आस्तिक सहयोगियों के माध्यम से संग्रह करना चाहिए, जैसे घी घर में बनाना या किसी आस्तिक सहयोगी के द्वारा बनबाना, जो सामग्री बाजार से क्रय करना परे वो आस्तिक दुकानदारों से ही क्रय करना चाहिए और वस्तु की शुद्धता को जांचकर ही लेना चाहिए। अधर्मियों (विधर्मियों) एवं नास्तिकों से ग्रहण किया गया वस्तु उपयोग नहीं करना चाहिए।
वस्त्र
एक वस्त्र का निषेध : एकवस्त्रो न भुञ्जित श्रौते स्मार्त्ते च कर्मणि। न कुर्याद्देवकार्याणि दानं होमं जपं तथा ॥
हवन करते समय वस्त्र का विचार करना अत्यावश्यक है। उपरोक्त प्रमाण में तो एक वस्त्र का जप, होम, दान, देवकार्य, भोजनादि सर्वत्र निषेध किया गया है। किन्तु इसके अतिरिक्त कुछ अन्य महत्वपूर्ण बातें हैं जो बड़ी अटपटी होती जा रही है और एक कुशल कर्मकांडी ऐसे व्यवहार को देखकर व्यथित भी होता है।
दो वस्त्र धारण करने का तात्पर्य कुर्ता-पैजामा या सर्ट-पेंट नहीं होता है। दो वस्त्र का तात्पर्य धोती और अंगोछा होता है। अंगोछा (द्वितीय वस्त्र) के अभाव का विकल्प तो शास्त्रों में वर्णित है किन्तु धोती का विकल्प नहीं है। ये कितना चिंतनीय विषय है कि अधिकांश विवाह में वर पैंट-पैजामा आदि पहनकर हवन करता है और उससे अधिक चिंतनीय तो वो कर्मकांडी पंडित होते हैं जो ऐसे आसुरी होम को करवाते हैं। ये कर्मकांडी ब्राह्मण का ही दायित्व बनता है कि सविधि ही कराये, विधि का उल्लंघन होने पर न कराये।
इसी प्रकार एक अन्य व्यवहार भी अटपटा बढ़ता जा रहा है सिर पर वस्त्र रखना। ये धर्मशास्त्रों में निषिद्ध है किन्तु विधर्मियों का अनुसरण करते हुये बहुत लोग हवन में भी रूमाल आदि से सिर ढंक लेते हैं। यहां भी कर्मकांडी ब्राह्मण का ही दायित्व बनता है कि इस निषिद्ध आचरण को रोके।
- शारदातिलक : सधूमोग्निः शिरो ज्ञेयो निर्धूमश्चक्षुरेव च। ज्वलत्कृषो भवेत्कर्ण: काष्ठमग्नेर्मनस्तथा॥ अग्निर्ज्वालायते यत्र शुद्धस्फटिकसन्निभः। तन्मुखं तस्य विज्ञेयं चतुरंगुलमानतः । प्रज्वलोगग्निस्तथा जिह्वा एतदेवाग्निलक्षणम् । आस्यान्तर्जुहुयादग्नेर्विपश्चित्सर्व कर्मसु । कर्णहोमे भवेद् व्याधिर्नेत्रेन्धत्वमुदाहृतम्। नासिकायां मनः पीडा मस्तके च धनक्षय: ॥
- अग्निजिह्वानामानि; वाचस्पति : कराली धूमिनी श्वेता लोहिता नीललोहिता । सुवर्णा पद्मरागा च सप्तजिह्वा विभावसोः ॥
- मंत्रकौमुदी में राजसी, सात्विकी और तामसी ३ भेद बताया गया है – राजसी : पद्मरागा सुवर्णाण्या तृतीया भद्रलोहिता । लोहिता च ततः श्वेता धूमिनी च करालिका ॥ राजस्यो रसना वह्नेर्विहिता वश्यकर्मणि । (वश्य व काम्य कर्म में) – पद्मरागा, सुवर्णा, भद्रलोहिता, लोहिता, श्वेता, धूमिनी और करालिका । सात्त्विकी – हिरण्या गगना रक्ता कृष्णात्या सुप्रभा मता ॥ बहुरूपा चातिरक्ता सात्त्विक्यो रसनाः स्मृताः । हिरण्या, गगना, रक्ता, कृष्णा, सुप्रभा, बहुरूपा और अतिरक्ता । तामसी – विश्वमूर्तिस्फुलिङ्गिन्यो धूम्रवर्णा मनोजवा ॥ लोहिता च करालाख्या काली तामसजिह्विकाः । विश्वमूर्ति, स्फुलिङ्गिनी, धूम्रवर्णा, मनोजवा, लोहिता, करालाख्या ओर काली । प्रयोग – सात्विक्यो दिव्यपूजासु राजस्यः काम्यकर्मसु || तामस्यः क्रूरकार्येषु प्रयोक्तव्या विपश्चिता । दिव्य पूजा/कामना में सात्विकी, काम्य कर्म में राजसी और क्रूरकर्म (मारणादि) में तामसी ।
- आज्य : स्मृत्यर्थसार – हव्यार्थं गोघृतं ग्राह्यं तदभावे तु माहिषम् ॥ आजं वा तदलाभे तु साक्षात्तैलं ग्रहीष्यते । तैलाभावे ग्रहीतव्यं तैलजं तिलसंभवम् ॥ तदभावेऽतसीस्नेहः कौसुम्भः सर्षपोद्भवः । वृक्षस्नेहोऽथवा ग्राह्यः पूर्वाभावे परः परः ॥ तदभावे यवव्रीहिश्यामाकान्यतरोद्भवः । पिष्टमालोड्य तोयेन घृतार्थे योजयेत्सुधीः ॥ वृक्षतैलेषु पुंनागनिम्बेरण्डोद्भवं त्यजेत् । यद्वा गव्यघृते छागमहिष्यादिघृतं क्रमात् ॥ तदलाभे गवादीनां क्रमात्क्षीरं विधीयते । तदलाभे दधि ग्राह्यमलाभे तैलमिष्यते ॥
- छन्दोग परिशिष्ट – आज्यन्द्रव्यमनादेशे जुहोतिषु विधीयते । मन्त्रस्य देवतायाञ्च प्रजापतिरिति स्थितिः ॥ जहां-कहीं होम द्रव्य का आदेश न हो आज्य प्रयुज्य । यदि मंत्र और देवता निर्दिष्ट न हो तो प्रजापति समझे ।
- अग्निहोत्र चंद्रिका : प्रजापतिं मनसा ध्यायात्तूष्णींहोमेषु सर्वत्र॥ प्रजापति का होम बिना मंत्रपाठ किये ही करना चाहिए।
अग्निवास विचार
सैकातिथिर्वारयुता कृताप्ता शेषे गुणेऽभ्रे भुवि वह्निवासः ।
सौख्याय होमे शशियुग्मशेषे प्राणार्थनाशौ दिवि भूतले च॥
हवन करने के लिये अग्निवास का विचार भी करना होता है एवं कुछ परिहार भी होता है। शुक्लपक्ष की १ से तिथिसंख्या गिनकर १ जोड़े , फिर उसमें वार संख्या जोड़कर ४ से भाग दे। शेष ०, ३ बचे तो पृथ्वी पर अग्निवास रहता है और उसमें होम करने से सुख होता है । १ व २ शेष बचे तो क्रम से आकाश और पाताल में अग्निवास रहता है , उसमें होम करने से प्राण और धन का नाश होता है । अग्निवास संबंधी अधिक जानकारी और परिहार के बारे में जानने के लिये यह आलेख पढ़ें : – अग्निवास विचार
अब हम पारस्कर गृह्यसूत्र व अन्य प्रमाणों के आधार पर हवन विधि को सरलता से समझने का प्रयास करेंगे अर्थात सरल हवन विधि की चर्चा करेंगे। सरल हवन विधि का तात्पर्य यह कदापि नहीं है कि हवन की शास्त्रीय क्रियाओं का लोप किया जाय, सरल हवन विधि का तात्पर्य है सम्पूर्ण हवन विधि को सरलता से समझना।
कर्मकांड विधि में शास्त्रोक्त प्रमाणों के साथ प्रामाणिक चर्चा की जाती है एवं कई महत्वपूर्ण विषयों की चर्चा पूर्व भी की जा चुकी है। तथापि सनातनद्रोही उचित तथ्य को जनसामान्य तक पहुंचने में अवरोध उत्पन्न करते हैं। एक बड़ा वैश्विक समूह है जो सनातन विरोध की बातों को प्रचारित करता है। गूगल भी उसी समूह का सहयोग करते पाया जा रहा है अतः जनसामान्य तक उचित बातों को जनसामान्य ही पहुंचा सकता है इसके लिये आपको भी अधिकतम लोगों से साझा करने की आवश्यकता है।
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