भद्रा क्या है ? भद्रा कैसे देखते हैं – भद्रा वास विचार

भद्रा वास विचार भद्रा वास विचार

प्रत्येक माह के कृष्णपक्ष की सप्तमी, चतुर्दशी, शुक्लपक्ष की अष्टमी, पूर्णिमा के पूर्वार्द्ध में और कृष्णपक्ष की तृतीया, दशमी, शुक्लपक्ष की चतुर्थी, एकादशी को उत्तरार्द्ध में विष्टि करण रहती है। एक तिथि में दो करण होती है इस कारण विष्टि करण कभी पूर्वार्द्ध में तो कभी उत्तरार्द्ध में होती है। विष्टि करण को ही भद्रा भी कहा जाता है। सामान्य रूप से भद्रा को सभी शुभ कार्यों में त्याज्य कहा गया है तथापि इसके तीन परिहार भी कहे गये हैं। इस आलेख में भद्रा विचार, उसके परिहार की विस्तृत जानकारी दी गयी है।

  • भद्रा को केवल अशुभ फलदायिनी समझा जाता है जो की गलत है।
  • भद्रा अशुभ फल ही नहीं शुभ फल (कल्याण) देने वाली भी होती है।
  • छायासूर्यसुतेदेवि विष्टिरिष्टार्थदायिनी। पूजितासी यथा-शक्त्या भद्रेभद्रप्रदा भवः ॥” भगवान श्रीकृष्ण। अर्थात अरिष्ट करने वाली विष्टि छाया और सूर्य से उत्पन्न शनि बहन है जो यथाशक्ति पूजन-अर्चन से संसार के प्राणियों का अनिष्ट दूर कर उनका भला (कल्याण) करती है।
  • वैसे भद्र का अर्थ भी कल्याण, शुभ, स्वच्छ आदि होता है। भद्रा भद्र पद का ही स्त्रीलिंग है।

भद्रा क्या है ? (संक्षिप्त परिचय)

  • भद्रा एक करण है, जिसका विष्टि नाम है।
  • प्रत्येक तिथि में दो करण होते हैं, अर्थात तिथि का आधा भाग एक करण होता।
  • करण भी पञ्चाङ्ग का एक अंग है, अतः शुभ मुहूर्त निर्धारण में इसका भी विचार किया जाता है।
  • कुल 11 करण होते हैं जिसमें से 7 चर और 4 स्थिर करण होते हैं।
  • भद्रा (विष्टि) एक स्थिर करण है जो प्रत्येक महीने 8 बार आती है, 4 बार शुक्लपक्ष में और 4 बार कृष्णपक्ष में।
  • शुक्ल पक्ष की अष्टमी और पूर्णिमा के पूर्वार्द्ध तथा एकादशी और चतुर्थी के उत्तरार्द्ध में भद्रा होती है।
  • कृष्ण पक्ष की तृतीया और दशमी के उत्तरार्द्ध में तथा सप्तमी और चतुर्दशी के पूर्वार्द्ध में भद्रा होती है।
  • भद्रा को छाया व सूर्य की पुत्री एवं शनि की बहन भी कहा गया है।
भद्रा क्या है ?
भद्रा क्या है ?

भद्रा की उत्पत्ति :

‘‘पुरा देवासुरे युद्धे शंभु कायाद्विनिर्गता। दैत्यघ्नि रासभास्या च विष्टिर्लोगूलिनी क्रमात् ॥ सिंह ग्रीवा शवारूढ़ा सप्तहस्ता कृशोदरी। अमरैः श्रवण प्रांते सा नियुक्ता शिवाज्ञयाः ॥ महोग्रया विकरालस्या पृथुदंष्ट्र भयानका। कार्याग्नि भुवमायाति वह्नि ज्वाला समाकुला ॥’’

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