मुहूर्त गणपति के अनुसार पूर्वकाल में देवासुरसंग्राम हुआ था उस समय दैत्यों का संहार करने के लिये भगवान शंकर के शरीर से भद्रा उत्पन्न हुई; जो गर्दभ के समान मुख, लंबी पूंछ वाली, तीन पैरों वाली है। सिंह जैसी गर्दन, शव पर आरूढ़, सात हाथों तथा शुष्क उदर वाली, महाभयंकर, विकरालमुखी, पृथुदंष्ट्रा तथा समस्त कार्यों को नष्ट करने वाली अग्नि ज्वाला युक्त यह भद्रा देवताओं के लिये भगवान शिव द्वारा नियुक्त की गयी।
भद्रा के प्रकार
यह स्पष्ट हो चुका है कि भद्रा स्थिर करण विष्टि को ही कहते हैं जो महीने में 8 बार निश्चित तिथियों में भ्रमण करती है। अब हम भद्रा के प्रकारों को समझेंगे :
- तिथि में व्याप्ति के आधार पर भद्रा के दो प्रकार बताये गये हैं : दिवा भद्रा और रात्रि भद्रा।
- पुनः स्वरूप विचार से भी दो प्रकार बताया गया है : सर्पिणी और वृश्चिकी।
दिवा भद्रा : जो भद्रा तिथि के पूर्वार्द्ध भाग में अर्थात पहले आधे भाग में होती है उसे दिवा भद्रा कहते हैं। शुक्ल पक्ष की अष्टमी और पूर्णिमा तथा कृष्ण पक्ष की सप्तमी और चतुर्दशी के पूर्वार्द्ध में विष्टि करण (भद्रा) होता है।
रात्रि भद्रा : जो भद्रा तिथि के उत्तरार्द्ध भाग में अर्थात दूसरे आधे भाग में आती है उसे रात्रि भद्रा कहते हैं। शुक्ल पक्ष की चतुर्थी और एकादशी एवं कृष्ण पक्ष की तृतीया और दशमी के उत्तरार्द्ध में विष्टि करण (भद्रा) होता है।
‘‘सर्पिणी च सिते पक्षे वृश्चिकी च सितेतरे। सर्पिणी मुखतो त्याज्या लांगूले वृश्चिकी त्यज्येत ॥’’ पुनः सर्पिणी और वृश्चिकी केवल नामांतर मात्र है जिसके प्रभाव में भी अंतर होता है। दिवा भद्रा को ही सर्पिणी भी कहते हैं और रात्रि भद्रा को ही वृश्चिकी कहते हैं।
भद्रा परिहार
भद्रा मुख और पुच्छ निर्धारण :
‘‘मुखे पंच गलेत्वेका वक्षस्येकादश स्मृताः। नाभौ चतस्त्रः षट् श्रौणो तिस्त्रः पुच्छाख्य नाडिकाः॥ मुखे कार्य हानिर्गले प्राण नाशौ हृदि द्रव्य नाशःकालिनाभिदेशे। कटावर्थ विघ्न सनं पुच्छा भागे जयश्चेति भद्रा शरीरे फलं स्यात्॥’’ मुहूर्त प्रकाश
भद्रा की प्रारंभ 5 घटियां मुख, पुनः 1 घटी ग्रीवा या गला, 11 घटी वक्ष, 4 घटियां नाभि, 6 घटियां कटि (कमर) तथा अंतिम 3 घटियां पुच्छ की हैं।
मुख की 5 घटियों में समस्त शुभ कार्यों का क्रियान्वयन नष्ट होता है। गले की एक घटी मृत्युकारक है, और वक्ष की ग्यारह घटियां दरिद्रता कारक, कटि की छह घटियां मलिनताकारक तथा नाभि की 4 घटियां कार्य नाशक बताई गई हैं।
मात्र अंतिम तीन घटियां (पुच्छ) कार्य को सिद्ध करने वाली होती हैं। पुच्छ भाग की प्रशंसा का एक अन्य प्रमाण –
पृथिव्यां यानि कर्माणि शुभान्यप्यशुभानि वा । तानि सर्वाणि सिद्ध्यन्ति विष्टिपुच्छे न संशयः ॥ पृथिवीस्थित के जितने कार्य (शुभ या अशुभ) हैं, वे सब विष्टि (भद्रा) के पुच्छ समय में करने से सिद्ध होते हैं ।
मुख और पुच्छ भाग के संदर्भ में एक अन्य प्रकार भी है जो बृहज्योतिष सार, मुहूर्त चिंतामणि आदि पुस्तकों में वर्णित है एवं इसका निर्धारण करना जटिल है :-