दाह संस्कार के अतिरिक्त सभी संस्कारों में नान्दीमुख श्राद्ध किया जाता है। इसके साथ ही यज्ञ, प्राण-प्रतिष्ठा आदि कर्मों में नान्दीश्राद्ध आवश्यक होता है। लेकिन जिस प्रकार पवित्रीकरण, संकल्प, सम्पूर्ण कर्मकाण्ड का अनिवार्य प्रारंभिक अंग होता है उस प्रकार से सभी कर्मों में अनिवार्य नहीं होता। जिस प्रकार कलश स्थापन सभी पूजा पाठ में आवश्यक होता है उस प्रकार से नान्दी श्राद्ध सभी शुभ कर्मों में अनिवार्य नहीं है। जैसे सत्यनारायण पूजा करनी हो तो नान्दी श्राद्ध आवश्यक नहीं है। इस आलेख में नान्दीमुख श्राद्ध के विषय में सप्रमाण विस्तृत जानकारी दी गयी है।
नान्दी श्राद्ध – षोडश मातृका पूजन, सप्तघृत मातृका पूजन सहित
विष्णुपुराण – कन्यापुत्रविवाहेषु प्रवेशे नववेश्मनः । शुभकर्मणि बालानां चूडाकर्मादिके तथा ॥ सीमन्तोन्नयने चैव पुत्रादिमुखदर्शने । नान्दीमुखान्पितृनादौ तर्पयेत्मयतो गृही ॥ विवाह, गृहप्रवेश, चूडाकरण, उपनयनादि शुभकर्मादि में वृद्धि श्राद्ध करे ।
मातृका पूजन की आवश्यकता
वृद्धिश्राद्ध/नान्दीमुख श्राद्ध या आभ्युदयिक श्राद्ध के निमित्त मातृका पूजन किया जाता है। मातृका पूजन नान्दीश्राद्ध का अङ्ग होता है और नान्दीमुख श्राद्ध से पूर्व अवश्य कर्त्तव्य है।
- वाचस्पति – आदौप्रधान संकल्पः ततः पुण्याहवाचनम् । मातृपूजा ततः कार्या वृद्धिश्राद्धं ततः स्मृतम् ॥ प्रधानकर्म संकल्प करके पुण्याहवाचन करे, तत्पश्चात मातृकापूजा और फिर वृद्धिश्राद्द करे ।
- मातृकापूजनावश्यकता विष्णुपुराण – अकृत्वा मातृयागं तु वैदिकं यः समाचरेत् । तस्य क्रोधसमायुक्ता हिंसामिच्छन्ति मातरः ॥ वृद्धिश्राद्ध से पूर्व पञ्चोपचारपूर्वक ही सही किन्तु मातृकापूजा अवश्य करे अर्थात वृद्धिश्राद्ध के निमित्त मातृका पूजा कर्तव्य है।
- कात्यायन – यत्रयत्र भवेच्छ्राद्धं तत्रतत्र च मातरः ॥ चूंकि वृद्धि श्राद्ध के निमित्त ही मातृका पूजन का प्रावधान है अतः यत्र-कुत्र मातृका पूजन होता है वहां वृद्धिश्राद्ध भी कर्तव्य है। इस पर और विशेष चर्चा आगे करेंगे।
मातृ पूजा प्रकार : छन्दोगपरिशिष्ट – प्रतिमासु च शुभ्रासु लिखित्वा वा पटादिषु । अपिवाक्षतपुञ्जेषु नैवेद्यैश्च पृथग्विधैः ॥ मातृका पूजन प्रतिमा, वेदी अथवा अक्षतपुञ्जों पर भी किया जा सकता है।
मातृका पूजन विधि :
मातृका पूजन में मिथिला परम्परा से षोडश मातृका पूजनोपरांत श्री पूजन करके दीवार पर गोमय पुंज बनाकर वसोर्धारा होता है। मिथिला की पद्धतियों में सप्तघृत मातृका पूजन विधान नहीं है। यहां मिथिला परम्परानुसार संक्षिप्त षोडश मातृका पूजन, श्री पूजन और वसोर्धारा विधि दी जा रही है।
यदि वैदिक का भी उपयोग करना हो तो वेदी पूजन प्रकरण में अलग से दिया हुआ है यहां नाम मंत्र पूर्वक पूजन विधि दी जा रही है। पूजा पञ्चोपचार करनी हो या षोडशोपचार, एकतंत्र विधि से करनी हो या अलग अलग-अलग ये समय व व्यवस्थानुसार निर्णय लेना चाहिए तथापि वृद्धिश्राद्ध में कालातिक्रम न हो इसका मुख्य विचार करते हुए पञ्चोपचार विधि से अलग-अलग पूजा करनी चाहिए यदि फिर भी समयाभाव हो तो एकतंत्र से पञ्चोपचार पूजा कर लेनी चाहिए।
यदि प्रधान संकल्प में षोडश मातृका पुजा समाहित किया गया हो तो पुनः न करे, तथापि षोडश मातृका पूजन, वृद्धिश्राद्ध, हवन आदि को प्रधान संकल्प में सम्मिलित न करके यथाकाल संकल्प करना अधिक उचित प्रतीत होता है।
गृहस्थों के लिए अनावश्यक अर्थात अकारण क्षौरकर्म निषिद्ध भी है और उचित अवसर करना भी आवश्यक है इसका ध्यान रखना चाहिए। वर्त्तमान में विभिन्न अनुष्ठानों के लिये भी गृहस्थ क्षौरकर्म करने लगे हैं जो अनावश्यक है। नित्य कर्म से निवृत्त होकर वृद्धिश्राद्ध से पहले मातृकापूजन करे :
नान्दीमुख श्राद्ध विधि
- पवित्रीकरण : ॐ अपवित्र: पवित्रो वा सर्वावस्थाङ्गतोऽपि वा। य: स्मरेत् पुण्डरीकाक्षं स: बाह्याऽभंतर: शुचि:॥ ॐ पुण्डरीकाक्षः पुनातु ॥ हाथ में गंगाजल/जल लेकर इस मंत्र से शरीर और सभी वस्तुओं पर छिड़के ।
- पवित्रीधारण : ॐ पवित्रेस्थो वैष्णव्यो सवितुर्वः प्रसवऽउत्पुनाम्यच्छिद्रेण पवित्रेण सूर्यस्य रश्मिभिः । तस्य ते पवित्रपते पवित्रपूतस्य यत्कामः पुनेतच्छकेयम् ॥ इस मंत्र से पवित्रीधारण करे।
- आचमन : ॐ केशवाय नमः। ॐ माधवाय नमः। ॐ नारायणाय नमः। मुख व हस्त मार्जन (२ बार) ॐ हृषिकेशाय नमः। ॐ गोविन्दाय नमः।
- आसनशुद्धि : ॐ पृथ्वि त्वया धृता लोका देवि त्वं विष्णुनाधृता। त्वं च धारय मां देवि पवित्रं कुरु चासनम् ॥
- शिखाबंधन : ॐ ब्रह्मवाक्य सहस्रेण शिववाक्य च । विष्णोर्नामसहस्रेण शिखाग्रन्थिं करोम्यहम् ॥ ॐ चिद्रूपिणि महामाये दिव्यतेजः समन्विते । तिष्ठ देवि शिखाबद्धे तेजोवृद्धिं कुरुष्व मे ॥ (यदि पहले से शिखा बंधी हो तो केवल स्पर्श करे)। यदि शिखा न हो तो कुश का ग्रंथियुक्त शिखा दाहिने कान पर धारण करे।
- प्राणायाम : इष्ट मंत्र जप पूर्वक अथवा प्रणव जप करते हुये तीन बार प्राणायाम करे।
पंचगव्य निर्माण :
- गोमूत्र – कांस्य या ताम्रपात्रे में गायत्री मंत्र से गोमूत्रम् दे ।
- गोमय – ॐ गन्धद्वारां दुराधर्षां नित्यपुष्टां करीषिणीम् । ईश्वरीं सर्वभूतानां तामिहोपह्वये श्रियम् ॥ इस मंत्र से गोमय (गोबर का रस) ॥
- दुग्ध – ॐ आप्यायस्व समेतु ते विश्वतः सोमवृष्यं भवा व्वाजस्य सङ्गथे ॥ इस मंत्र से दुग्ध ॥
- दधि – ॐ दधिक्राव्णो अकारिषं जिष्णोरश्वस्य वाजिनः । सुरभिनो मुखाकरत्प्रण आयूᳪषि तारिषत् ॥ इस मंत्र से दधि।
- घृत – ॐ तेजोसि शुक्रमस्यऽमृतमसि धामनामासि प्रियं देवानामनाधृष्टं देवयजनमसि ॥ इस मंत्र से घृत॥
- कुशोदक – ॐ देवस्य त्वा सवितुः प्रसवेश्विनौ बाहुभ्यां पूष्णोर्हस्ताभ्याम् ॥ इस मंत्र से कुशोदक ।
- ॐ आलोडयामि, प्रणव से यज्ञीयकाष्ठ के द्वारा प्रदक्षिणक्रम से मिलाये।
पंचगव्य प्राशन : इस मंत्र से पञ्चगव्य प्राशन करे – ॐ यत्त्वगस्थिगतं पापं देहे तिष्ठति मामके । प्राशनात्पञ्चगव्यस्य दहत्यग्निरिवेन्धनम् ॥
आचमन : दो बार आचमन करे और मुख, हाथ का मार्जन करे।
पंचगव्य प्रोक्षण : पूजास्थान व श्राद्धभूमि पर कुश से पञ्चगव्य छिड़के – ॐ आपोहिष्ठामयो भुवस्तान ऊर्जे दधात न । महेरणाय चक्षसे यो वः शिवतमो रसस्तस्य भाजयते ह नः । उशतीरिव मातरः तस्माद् अरङ्ग मामवोयस्य क्षयाय जिन्वथ आपो जनयथा चनः॥
दिग-रक्षण या भूतोत्सारण :
दिग-रक्षण या भूतोत्सारण मंत्र : ॐ अपसर्पन्तु ते भूता ये भूता भूमि संस्थिताः । ये भूता विघ्नकर्तारस्ते नश्यन्तु शिवाज्ञया ॥ अपक्रामन्तु भूतानि पिशाचाः सर्वतो दिशम् । सर्वेषामविरोधेन पूजाकर्म समारभेत्॥ अपक्रामन्तु भूतानि पिशाचा: सर्वतोदिशम् । सर्वेषामविरोधेन पूजाकर्म समारभे ॥ यदत्र संस्थितं भूतं स्थान माश्रित्य सर्वतः । स्थानं त्यक्त्वा तु तत्सर्व यत्रस्थं तत्र गच्छतु ॥ भूत प्रेत पिशाचाधा अपक्रामन्तु राक्षसाः । स्थानादस्माद् व्रजन्त्वन्यत्स्वीकरोमि भुवंत्विमाम् ॥ भूतानि राक्षसा वापि येऽत्र तिष्ठन्ति केचन। ते सर्वेऽप्यप गच्छन्तु पूजा कर्म कोम्यहम् ॥
रक्षाबंधन या मौलिबंधन : ॐ येन बद्धो बली राजा दानवेन्द्रो महाबलः । तेन त्वामनुबध्नामि रक्षे मा चल मा चल ॥
फिर स्वस्तिवाचन करके मातृका पूजन का संकल्प करे :
षोडश मातृका पूजन
मातृका पूजन संकल्प :- पवित्रीकरणादि करके संकल्प करे; पान, सुपारी, तिल, जल, पुष्प, चंदन, द्रव्यादि लेकर त्रिकुशहस्त संकल्प करे : ॐ अद्य ………….. (गोत्रनामादि उच्चारण पूर्वक) कर्तव्य ………. कर्मनिमित्तक गणपतिदुर्गाश्री सहिताः षोडश मातृरहं पूजयिष्ये॥
षोडश मातृका वेदी अथवा १९ रक्षिका (दीवार पर गोमय पिण्डी) अथवा अक्षतपुञ्जादि (१ गणपति के निमित्त, १ दुर्गा के निमित्त और १६ षोडश मातृका के निमित्त और १ श्री के निमित्त) पर क्रमशः अक्षतपुष्प से सबका आवाहन-पूजन करें :-
यहां नाम मंत्रों द्वारा मातृका आवाहन विधि दिया जा रहा है। यदि वैदिक मंत्रों द्वारा षोडश मातृका आवाहन करना हो तो यहां क्लिक करें।
- गणपति – ॐ भूर्भुवः स्वः गणपते इहागच्छ इह तिष्ठ। पूजन नाम मंत्र ॐ भूर्भुवः स्वः गणपतये नमः।।
- दुर्गा – ॐ भूर्भुवः स्वः दुर्गे इहागच्छ इह तिष्ठ। पूजन नाम मंत्र ॐ भूर्भुवः स्वः दुर्गायै नमः।)
- गौरी – ॐ भूर्भुवः स्वः गौरि इहागच्छ इह तिष्ठ। पूजन नाम मंत्र ॐ भूर्भुवः स्वः गौर्यै नमः।
- पद्मा – ॐ भूर्भुवः स्वः पद्मे इहागच्छ इह तिष्ठ। पूजन नाम मंत्र ॐ भूर्भुवः स्वः पद्मायै नमः।
- शची – ॐ भूर्भुवः स्वः शचि इहागच्छ इह तिष्ठ। पूजन नाम मंत्र ॐ भूर्भुवः स्वः शच्यै नमः।
- मेधा – ॐ भूर्भुवः स्वः मेधे इहागच्छ इह तिष्ठ। पूजन नाम मंत्र ॐ भूर्भुवः स्वः मेधायै नमः।
- सावित्री – ॐ भूर्भुवः स्वः सावित्रि इहागच्छ इह तिष्ठ। पूजन नाम मंत्र ॐ भूर्भुवः स्वः सावित्र्यै नमः।
- विजया – ॐ भूर्भुवः स्वः विजये इहागच्छ इह तिष्ठ। पूजन नाम मंत्र ॐ भूर्भुवः स्वः विजयायै नमः।
- जया – ॐ भूर्भुवः स्वः जये इहागच्छ इह तिष्ठ। पूजन नाम मंत्र ॐ भूर्भुवः स्वः जयायै नमः।
- देवसेना – ॐ भूर्भुवः स्वः देवसेने इहागच्छ इह तिष्ठ। पूजन नाम मंत्र ॐ भूर्भुवः स्वः देवसेनायै नमः।
- स्वधा – ॐ भूर्भुवः स्वः स्वधे इहागच्छ इह तिष्ठ। पूजन नाम मंत्र ॐ भूर्भुवः स्वः स्वधायै नमः।
- स्वाहा – ॐ भूर्भुवः स्वः स्वाहे इहागच्छ इह तिष्ठ। पूजन नाम मंत्र ॐ भूर्भुवः स्वः स्वाहायै नमः।
- मातृ – ॐ भूर्भुवः स्वः मातर इहागच्छ इह तिष्ठ। पूजन नाम मंत्र ॐ भूर्भुवः स्वः मातृभ्यो नमः।
- लोकमातृ – ॐ भूर्भुवः स्वः लोकमातर इहागच्छ इह तिष्ठ। पूजन नाम मंत्र ॐ भूर्भुवः स्वः लोकमातृभ्यो नमः।
- धृति – ॐ भूर्भुवः स्वः धृते इहागच्छ इह तिष्ठ। पूजन नाम मंत्र ॐ भूर्भुवः स्वः धृत्यै नमः।
- पुष्टि – ॐ भूर्भुवः स्वः पुष्टे इहागच्छ इह तिष्ठ। पूजन नाम मंत्र ॐ भूर्भुवः स्वः पुष्ट्यै नमः।
- तुष्टि – ॐ भूर्भुवः स्वः तुष्टे इहागच्छ इह तिष्ठ। पूजन नाम मंत्र ॐ भूर्भुवः स्वः तुष्ट्यै नमः।
- आत्म कुलदेवता – ॐ भूर्भुवः स्वः आत्मनः कुलदेवते इहागच्छ इह तिष्ठ। पूजन नाम मंत्र ॐ भूर्भुवः स्वः आत्मनः कुलदेवतायै नमः।
यदि एकतंत्र से पूजा करनी हो तो आवाहन मंत्र – ॐ मनो जूतिर्जुषतामाज्यस्य बृहस्पतिर्यज्ञमिमं तनोत्वरिष्टंयज्ञ ᳪ समिमं दधातु। विश्वे देवास इह मादयन्तामों ३ प्रतिष्ठ ॥ ( छन्दोग हेतु – ॐ वाङ्मनः प्राणोऽपानो व्यानश्चक्षुः श्रोत्रं शर्म वर्म भूतिः प्रतिष्ठा) ॐ भूर्भुवः स्वः गणपति दुर्गा सहिताः गौर्यादि षोडश मातरः इहागच्छन्तु इह सुप्रतिष्ठताः भवन्तु ॥
एततंत्र पूजा मंत्र – ॐ भूर्भुवः स्वः गणपति दुर्गा सहिताः गौर्यादि षोडश मातृभ्यो नमः॥ (यदि दुर्गा का भी आवाहन किया गया हो तो “ॐ गणपति दुर्गा सहिताः गौर्यादि षोडश मातृभ्यो नमः”)
फल लेकर प्रणाम करे – ॐ आयुरारोग्यमैश्वर्यं ददध्वं मातरो मम । निर्विघ्नं सर्वकार्येषु कुरुध्वं सगणाधिपाः ॥ फल अर्पण करे।
प्रणाम करे – “गेहे वृद्धिशतानि भवंतु, उत्तरे कर्मण्यविघ्नमस्तु ॥”
पुष्पाञ्जलि – ॐ गौरी पद्मा शची मेधा सावित्री विजया जया । देवसेना स्वधा स्वाहा मातरो लोकमातरः ॥ धृतिः पुष्टिस्तथा तुष्टिरात्मनः कुलदेवता । गणेशेनाधिका ह्येता वृद्धौ पूज्याश्च षोडश ॥
19. श्री पूजा – तत्पश्चात श्री की पूजा करे – ॐ भूर्भुवः स्वः श्रिये इहागच्छ इह तिष्ठ॥ पूजन नाम मंत्र ॐ भूर्भुवः स्वः श्रियै नमः। श्रीपूजन पुष्पाञ्जलि आदि करके वसोर्धारा करे ।
तत्पश्चात दीवार पर कुलपरम्परानुसार बने हुए ५-७ … गोमय पिण्डी (अक्षत-दूर्वा-सिंदूरादि भूषित) पर ३ बार, ५ बार या ७ बार वसोर्धारा (घृतधारा) दे –
- वसोर्धारा मंत्र (वाजसनेयी) – ॐ व्वसोः पवित्रमसि शतधारं व्वसोः पवित्रमसि सहस्रधारम् । देवस्त्वा सविता पुनातु व्वसोः पवित्रेण शतधारेण सुप्त्वा ॥ आज्यं यतोऽस्ति देवानामशनं मङ्गलात्मकम् । ततो मातृः समुद्दिश्य घृतधारा ददाम्यहम् ॥ (छन्दोगी वसोर्धारा मंत्र – ॐ एतमुत्यं मदच्युतं शतधारं वृषभं दिवो दुहं विश्वावसूनी बिभ्रतं। सहस्रधारं वृषभं पयोदुहं प्रियं देवाय जन्मने। ऋतेन य ऋत जातो विवावृधे राजा जातो देवऋतं बृहत्।)
वसोर्धारा करने के बाद दंठल युक्त केला के मूल में गुड़ लगाकर सभी धाराओं के मध्य में उत्तराग्र या पूर्वाग्र क्रम से रेखात्मक सम्मेलन कर दे – ॐ कामधुक्षः॥
प्रार्थना : ॐ गणपति दुर्गा श्री सहिताः गौर्यादि षोडश मातरः पूजिताःस्थ प्रसीद प्रसन्नाः भवत क्षमध्वं । ॐ गणपति दुर्गा सहिताः गौर्यादि षोडश मातरः स्व-स्व स्थानं गच्छत । ॐ श्रीर्मयि रमस्व ॥
वृद्धिश्राद्ध, नान्दीमुख श्राद्ध या आभ्युदयिक श्राद्ध विषयक परिचर्चा
नान्दीमुख-श्राद्ध कितने दिन पूर्व करें : एकविंशत्यहर्यज्ञे विवाहे दशवासराः । त्रिषट् चौलोपनयने नान्दीश्राद्धं विधीयते ॥ यज्ञ के २१ दिन पूर्व, विवाह के १० दिन पूर्व, चूड़ाकरण के ३ दिन पूर्व और उपनयन के ६ दिन पूर्व नान्दीश्राद्ध करने पर अशौच अमान्य होता है। विवाहादि उत्सव में सूतक होने पर : वैवाहोत्सवयज्ञकर्मसु तदा नान्दी च दीक्षाविधिर्नाशौचस्यभवेत्तदा नियमिते सीमा द्विजन्मात्मनाम्।
- उत्तरकालामृत – श्राद्धेपाकपरिक्रिया यदि भवेन्मन्त्रोक्षणं ब्राह्मणस्यासीद्दैक्षविधिः परं तु वरयेत्सर्वत्र मान्त्रो विधिः॥ और ;
- जाबालि : व्रतयज्ञविवाहेषु श्राद्धेहोमार्चनेजपे। आरब्धे सूतकं न स्यादनारब्धे तु सूतकम्। प्रारम्भोवरणं यज्ञे संजल्पोव्रतसत्रयोः॥ नान्दीश्राद्धंविवाहादौ श्राद्धेपाकपरिक्रिया॥ संकटे समनुप्राप्ते सूतके समुपागते। कूष्माण्डीभिर्घृतं हुत्वा गां च दद्यात् पयस्विनीम् ॥ यज्ञ का प्रारम्भ वरण से, व्रत-सत्र-अनुष्ठानादि का आरंभ संकल्प से और श्राद्ध का पाक से होता है। किसी भी शास्त्रीय प्रारम्भ होने के बाद अशौच मान्य नहीं होता ।
नांदीमुख श्राद्ध का लोप करना कदापि उचित नहीं है :
- श्राद्धकौमुद्यांनिर्णयामृतेचमात्स्ये अन्नप्राशेचसीमंते पुत्रोत्पत्ति निमित्तके । पुंसवे च निषेके च नववेश्म प्रवेशने ॥ देववृक्ष जलादीनां प्रतिष्ठायां विशेषतः । तीर्थयात्रावृषोत्सर्गेवृद्धिश्राद्धंप्रकीर्तितम् ॥ इदंचावश्यकम् ॥
- शातातप : वृद्धौ न तर्पिता ये वै पितरोगृहमेधिभिः। तद्हीनमफलंज्ञेयं आसुरोविधिरेव स ॥ पित्राद्याः पिण्डभाजः स्युस्त्रयो लेपभुजस्तथा । ततो नान्दीमुखाः प्रोक्तास्त्रयोऽप्यश्रुमुखास्त्रयः ॥ पिता-पितामह और प्रपितामह पिण्डभाजी पितर कहलाते हैं इनसे ऊपर के तीन पितर लेपभुज, इनसे ऊपर के तीन पितर नांदीमुख और इनसे ऊपर के तीन पितर अश्रुमुख कहलाते हैं । नांदीमुखश्राद्ध पूर्वाह्न में कर्तव्य है । माता-पितामही और प्रपितामही, पिता-पितामह और प्रपितामह, एवं मातामह-प्रमातामह-वृद्धप्रमातामह (सपत्नीक); इन नवों के निमित्त नांदीमुखश्राद्ध किया जाता है।
मातृपक्ष, पितृपक्ष और मातामह पक्ष तीन पक्षों का श्राद्ध होता है इसलिए तीनों पक्ष के निमित्त विश्वेदेव भी तीन होते हैं। आसनक्रम के संबंध में दो पक्ष हैं – १. पश्चिम से पूर्व या दक्षिण से उत्तर और २. प्रदक्षिणक्रम से।
वृद्धपराशर – नान्दीमुखेभ्यो देवेभ्यः प्रदक्षिणकुशासनम् । पितृभ्यस्तन्मुखेभ्यश्च प्रदक्षिणमिति स्थितिः ॥ वृद्धपाराशर ने आसनक्रम को विशेष स्पष्ट किया है – प्रथमतया तीनों पक्ष के विश्वेदेवों को प्रदक्षिणक्रम से आसन दे, फिर अपने-अपने विश्वेदेव के निकट प्रदक्षिण क्रम से पितरों को आसन दे।
नांदीमुखश्राद्ध प्रातः काल में कर्तव्य है । जात कर्म में प्रातःकाल के अतिरिक्त भी किया जा सकता है ।
- अत्रि : पूर्वाह्न वै भवेद् वृद्धिर्विना जन्मनिमितकम् । पुत्रजन्मनि कुर्वीत श्राद्धे तात्कालिकं बुधः ॥ अन्य संस्कारों एवं यज्ञादि में प्रातः ही करने चाहिए ।
- प्राचेतस् – पूर्वाह्ने दैविकं कार्यं अपराह्ने तु पैतृकम् । एकोद्दिष्टं तु मध्याह्ने प्रातर्वृद्धिनिमित्तकम् ॥
प्रातः काल निर्णय : दिन के ५ भाग करने पर प्रथम प्रातः, द्वितीय संगव, तृतीय मध्याह्न, चतुर्थ अपराह्न और पंचम सायाह्न काल होता है । अर्थात् सूर्योदय से ६ दण्ड प्रातः काल होता है, यहां दण्ड को दिनमान का ३०वां भाग समझना चाहिए; न कि २४ मिनट । दिनमान के ह्रास-वृद्धि होने पर प्रातःकाल का मान दण्डादि में तो अपरिवर्तित रहेंगे तथापि घंटादि में घटेंगे-बढेंगे अतः प्रातः काल निर्धारण करने हेतु दिनमान के ३०वें भाग को ही दण्ड मानना चाहिए । यह मुख्यकाल है, तथा पूर्वाह्न को गौणकाल माना गया है ।
प्रातः और पूर्वाह्न में अंतर होता है, दिनमान का पांच भाग करने पर प्रथम भाग प्रातः संज्ञक और तीन भाग करने पर प्रथम भाग पूर्वाह्न संज्ञक होता है।
- गर्ग : ललाटसम्मिते भानौ प्रथमः प्रहरः स्मृतः । स एव सार्द्ध संयुक्तः प्रातरित्यभिधीयते ॥ गर्ग के वचन से डेढ प्रहर प्रातः काल होता है । तथापि इसे गौणपक्ष माना जाएगा, यदि प्रथम काल निर्धारण से प्राप्त प्रातः काल में कार्य सम्पन्न न किया जा सके तो गर्ग वचन से गौणकाल भी मान्य। मुख्यकाल में जो कर्म सम्पन्न न हो सके उसे गौणकाल में भी कर लेना चाहिए ।
- कात्यायनः– प्रातरामन्त्रितान् विप्रान् युग्मानुभयतः स्थितान् । उपवेश्य कुशान् दद्यात् ऋजुनैव हि पाणिना ॥ वृद्धिश्राद्ध हेतु ब्राह्मणों को निमंत्रण भी प्रातःकाल ही देना चाहिए ।
वृद्धि श्राद्ध के संबंध में विशेष महत्वपूर्ण जानकारी
- नांदीमुखश्राद्ध ४ प्रकार का होता है : सपिण्ड, पिण्डरहित, आमान्न और हेमश्राद्ध।
- शातातप – नानिष्ट्वा पितृन् श्राद्धे कर्म कुर्याच्चवैदिकम् ।
- विष्णुपुराण – यज्ञोद्वाहप्रतिष्ठासु मेखलाबन्धमोक्षयोः । पुत्रजन्मनृपोत्सर्गे वृद्धिश्राद्धं समाचरेत्।
- वृद्धिश्राद्ध में निषिद्ध : न स्वधाशर्मवर्मेति पितृनाम न चोचरेत् । न कर्म पितृतीर्थेन न कुशा द्विगुणीकृताः ॥ न तिलैर्नापसव्येन पित्र्यमन्त्रविवर्जितम् । अस्मच्छब्दं न कुर्वीत श्राद्धे नान्दीमुखे कचित् ॥ –पुराणसमुच्चय ॥
- वृद्धिश्राद्ध में विहित – गोत्र संबन्ध नामानि पितृकर्मणि कीर्तयेत् ॥ – भृगु ॥ व्यास – गोत्रसम्बन्धनामानि पितॄणामनुकीर्तयन् । एकैकस्य तु विप्रस्य अर्घपात्रं विनिक्षिपेत् ॥
- माध्यन्दिन शाखा के लिये याज्ञवल्क्य वचन मान्य – गोत्रनाम स्वधाकारैस्तर्पयेदनुपूर्वशः ।
- मार्कण्डेय पुराण – पिण्डनिर्वपणं कुर्यान्नवा कुर्याद्विचक्षणः । वृद्धिश्राद्धे कुलाचारदेशकालाद्यवेक्ष्य हि ॥
- सपिण्ड व अपिण्ड भेदवश वृद्धिश्राद्ध में कर्तव्याकर्तव्य – अग्नौकरणमर्घ्यं च आवाहनावनेजनम् । पिण्डश्राद्धे प्रकुर्वीत पिण्डहीने विवर्जयेत् ॥
- पुत्र के प्रथम विवाह में पिता वृद्धिश्राद्ध करे, द्वितीयादि विवाहों में पुत्र (विवाहकर्ता) स्वयं करे । प्रयोगरत्न – नान्दीश्राद्धं पिता कुर्यादाद्ये पाणिग्रहे पुनः । अत ऊर्ध्वं प्रकुर्वीत स्वयमेव तु नान्दिकम् ॥ पुत्र के सभी संस्कारों में पिता स्वयं वृद्धिश्राद्ध करे, यदि पिता न हो (मृत या अनुपस्थित) तो शास्त्रीय प्रमाण से पितृधर्म निर्वाहक अन्य-अन्य व्यक्ति।
- छन्दोग परिशिष्ट – स्वपितृभ्यः पिता दद्यात् सुतसंस्कारकर्मणि । पिण्डानोद्वहनात्तेषां तस्याभावे तु तत्क्रमात् ॥
- वृद्धिश्राद्ध में १ पितर के निमित्त २ ब्राह्मणों को निमंत्रण दे, मूलहीन दर्भ का उपयोग करे, प्रदक्षिणक्रम से श्राद्ध करे, तिल के स्थान पर जौ का प्रयोग करे, पूर्वाभिमुख होकर करे, सव्य होकर ही करे, (ब्राह्मण के दक्षिण भाग में आसन दे – सपात्रक पर में), (आसन-अर्घ्यादि) पूर्व से आरम्भ करे (और प्रदक्षिणक्रम से करे-पूर्व कथित), मातृपक्ष ओर पितृपक्ष का अलग-अलग करे ।
- आश्वालयन गृह्यसूत्र – अथाभ्युदयिके नान्दीमुखाः पितर एकैकस्य युग्मा ब्राह्मणा अमूलदर्भा प्रदक्षिणमुपचारो यवैस्तिलार्थ: प्राङ्मुखो यज्ञोपवीती कुर्यादृजून्दर्भानासनं दक्षिणतो दद्यादर्घ्यपात्राणि प्राक्संस्थानि स्युः । ‘ यवोसि सोमदेवत्यो गोसवे देवनिर्मितः । मत्नवद्भिः मत्तः पुष्ट्या नान्दीमुखान्पितृनिमाँल्लो- कान्प्रीणयाहि नः स्वाहेति यथावपनं नान्दीमुखाः पितरः प्रीयन्तामिति यथालिङ्गं सकृदय निवेद्य, नान्दीमुखाः पितर इदं वो अर्घ्यमिति प्रत्येकं विगृह्य दत्त्वानुमन्त्रणं द्विर्द्विर्गन्धादि दद्यात् ।पुंसवनादिष्वपत्यसंस्कारेषु अन्याधेयादिषु श्रौतेषु च पूर्तेषु च क्रियते महत्सु पूर्वेद्युस्तदहरल्पेषु तदिदमेके मातृणां पृथक् कुर्वन्यथ पितॄणां ततो मातामहानामिति त्रितयमिच्छन्ति तस्माज्जीवत्पिता सुतसंस्कारेषु मातृमातामहयोः कुर्यात्तस्यां जीवत्यां पितृमातामहयोः कुर्यात्पित्रोर्जीवतोर्मातामहस्यैव कुर्यात्रिषु जीवत्सु न कुर्यात्। संस्कारकर्ता (जिसका संस्कार किया जायेगा उसका पिता) का पिता यदि जीवित हो तो पितृपक्ष का नहीं करे, यदि माता भी जीवित हो तो मातृपक्ष का भी नहीं करे केवल मातामहादि का ही करे, यदि मातामह भी जीवित हो तो वृद्धिश्राद्ध नहीं करे ।
- शातातप : मातृश्राद्धं तु पूर्व स्यात् पितॄणां तदनन्तरम् । ततो मातामहादीनां वृद्धौ श्राद्धत्रयं स्मृतम् ॥ पहले मातृपक्षीयश्राद्ध करे, फिर पितृपक्षीय और अंत में मातामहपक्षीय ।
- आश्वालयन – माता पितामही चैव संपूज्या प्रपितामही । पित्रादयस्त्रयश्चैव मातुः पित्रादयस्त्रयः । एते नवार्चनीयाः स्युः पितरोऽभ्युदये द्विजैः ॥
- बह्वृचकारिका – स्यादाभ्युदयिकं श्राद्धं वृद्धिपूर्तेषु कर्मसु । पुंसस्सवनसीमन्त चौलोपनयनेष्विह । विवाहे चानलाघेय प्रभृतिश्रौतकर्मणि । इदं श्राद्धं प्रकुर्वन्ति द्विजा वृद्धिनिमित्तकम् ॥
- शातातप – कर्तव्यं चाभ्युदयिकश्राद्धमभ्युदयार्थिना । सव्येन चोपवीतेन ऋजुदर्भैश्च धीमता ॥ पितॄणां रूपमाख्याय देवा अन्नं समश्नते । तस्मात्सव्येन दातव्यं वृद्धिकाले तु नित्यदा ॥ न तो वामजानुपात करे, न अपसव्य होकर करे, न ही पितृतीर्थ से करे, पूर्णतः देववत् करे – निपातानहि सव्यस्य जानुनोविद्यते क्वचित् । सदा परिचरेद्भक्त्या पित्तनप्यत्र देवत् ॥ नात्रापसव्यकरणं न पित्र्यन्तीर्थमिष्यते । पात्राणां पूरणादीनि दैवेनैव हि कारयेत् ॥ (वृद्धिश्राद्ध में भूस्वामि भी नहीं करे) ।
- वृद्धिश्राद्ध सव्य ही करे, मोटक प्रयोग न करे, त्रिकुशा ही प्रयोग करे, वृद्धिश्राद्ध में पितृरूप धारित देवता ही अन्नादि ग्रहण करते हैं ; मुरारी मिश्र – सव्येन सोपवीतेन ऋजुदर्भैश्च धीमता । पितॄणां रूपमास्थाय देवाह्यन्नं समश्नुते ॥ तस्मात्सव्येन दातव्यं वृद्धिश्राद्धेषु नित्यशः ।। मधुरभोजन (मिष्टान्-फल), अन्न, अम्ल प्रदान करे, लाल फूल, तिल और अपसव्यता का त्याग करे ।
- भविष्य पुराण – मधुरं भोजनं दद्यान्न चाम्लं परिवेषयेत् । रक्तपुष्पं तिलांश्चैव ह्यपसव्यं च वर्जयेत् ॥ वृद्धिश्राद्ध मंगल – अभिवृद्धि आदि में किया जाता है अतः स्वधा के स्थान पर स्वाहा कहे, कुशा के स्थान पर दूर्वा का प्रयोग करे ।
- ब्रह्माण्डपुराण : स्वाहाशब्दं प्रयुञ्जीत स्वधास्थाने तु बुद्धिमान् । कुशस्थान तु दूर्वाः स्युर्मङ्गलस्याभिवृद्धये ॥ उत्तराभिमुख या पूर्वाभिमुख वृद्धिश्राद्ध करे, इसके अतिरिक्त अन्य दिशाभिमुख न करे ।
- मार्कण्डेयपुराण : उदङ्मुखः प्राङ्मुखो वा यजमानः समाहितः । वृद्धिश्राद्धं प्रकुर्वीत नान्यवक्त्रः कदाचन ॥ (मिथिला में पश्चिमाभिमुख प्रशस्त)
विशेष विचार यदि पितामह जीवित हो तो – पुत्र के सभी संस्कार पिता को ही करने चाहिए (असामयिक मृत्यु होने पर दाह संस्कार को छोड़कर) उपनयनादि में पितामह का संस्कारकर्ता होना गौणपक्ष है और पिताहीन होने पर ही पितामह को करना चाहिए अन्यथा नहीं, मातामहादि अन्य गोत्रियों को तो संस्कारकर्ता बनाना ही नहीं चाहिए । और यदि पिता हो तो, पितामह भी न करे केवल और केवल पिता ही करे । ऐसी परिस्थिति में यदि पितामह जीवित हो तो संस्कारकर्ता पिता पितृपक्षीय श्राद्ध नहीं करे।
कर्मकांड विधि में शास्त्रोक्त प्रमाणों के साथ प्रामाणिक चर्चा की जाती है एवं कई महत्वपूर्ण विषयों की चर्चा पूर्व भी की जा चुकी है। तथापि सनातनद्रोही उचित तथ्य को जनसामान्य तक पहुंचने में अवरोध उत्पन्न करते हैं। एक बड़ा वैश्विक समूह है जो सनातन विरोध की बातों को प्रचारित करता है। गूगल भी उसी समूह का सहयोग करते पाया जा रहा है अतः जनसामान्य तक उचित बातों को जनसामान्य ही पहुंचा सकता है इसके लिये आपको भी अधिकतम लोगों से साझा करने की आवश्यकता है।