पंचक शांति के दो तात्पर्य होते हैं – प्रथम मुख्य तात्पर्य पंचक में मृत्यु होने पर उसकी शांति और दूसरा तात्पर्य पंचक में दाह करने से होता है। पंचक मरण और पंचक दाह दोनों को अलग-अलग समझना आवश्यक होता है। ये आवश्यक नहीं कि प्रत्येक मरण में दोनों स्थिति हो। इस आलेख में शास्त्रोक्त प्रमाणों सहित पञ्चक में मृत्यु होने पर या पंचक दाह संबंधी चर्चा करते हुये संभावित अरिष्ट की शांति विधि बताई गयी है साथ ही पंचक दाह विधि भी दिया गया है। इस साथ-साथ यदि pdf डाउनलोड करना चाहें तो उसके लिये पंचक शांति पूजन विधि pdf भी दिया गया है।
पंचक शांति पूजन विधि pdf सहित
यदि पंचक में मृत्यु होती है और दाह पंचक समाप्त होने पर किया जाता है तो मात्र पंचक शांति कर्तव्य होगा, पंचक दाह विधि नहीं और यदि मृत्यु धनिष्ठा के आरम्भ में ही हो दाह पंचक में हो तो पंचक दाह विधि की आवश्यकता होगी, पंचक मरण शांति की नहीं। दोनों स्थिति तब होती है जब मृत्यु भी पंचक में ही हो और दाह संस्कार भी पंचक में ही हो।
दोनों के बारे में जानने से पहले पंचक की संक्षिप्त जानकारी भी आवश्यक है :
पंचक
सामान्यतः धनिष्ठा से रेवती तक पांचों नक्षत्र पञ्चक संज्ञक होता है। पञ्चक नक्षत्रों को स्थिति परिवर्तन का अर्थात सम्बंधित कार्य की अगली प्रक्रिया का बाधक माना जाता है। पञ्चक को भदवा को भी कहा जाता है। भदवा का लोग सीधा अर्थ लगाते हैं अटक जाना। किसी व्यक्ति आदि के द्वारा भी कोई कार्य अटकाया-लटकाया जाता है या संभावित होने पर उस व्यक्ति को भी भदवा की उपमा ही दी जाती है।
मंडप, गृह निर्माण, गृह निर्माण सामग्री संग्रह आदि में अगली क्रिया अर्थात निर्माण पूर्ण होना, वास करना आदि बाधित होता है इसलिये ये सभी कार्य निषिद्ध किये गए हैं। लेकिन विवाह में अगली क्रिया शेष नहीं रहती और दाम्पत्य बंधन में ही स्थायित्व की अपेक्षा होती है इसलिये पंचक में विवाह को शुभ ही माना गया है।
किन्तु पंचक में मृत्यु होने पर अगली क्रिया प्रेतयोनि से मुक्ति और सद्गति की प्राप्ति बाधित होती है, इसी प्रकार दाह के बाद भी अगली क्रिया अस्थिसंचय शेष होती है इसलिये पंचक में दाह भी वर्जित किया गया है। मरण में पंचक का दोष अर्द्धधनिष्ठा के उपरांत कहा गया है – आदौ कृत्वा धनिष्ठार्धमेतन्नक्षत्रपञ्चकम् । रेवत्यन्तं सदा दूष्यमशुभं दाहकर्मणि ॥ अर्थात धनिष्ठा के अर्द्धभाग तक मरण/दाह होने पर पंचक दोष अमान्य होता है।
पंचक में मृत्यु
पञ्चक में मरण होने पर दुर्गति निवृत्ति पूर्वक सद्गति प्राप्ति बाधित होती है इसलिये पञ्चक में मृत्यु होने पर उसकी शांति करनी चाहिये, शांति हेतु तिल, घृत आदि से हवन और तिल, घृत, स्वर्णादि दान भी करे – पञ्चकेषु मृतो यो वै न गतिं लभते नरः । तिलांश्चैव हिरण्यं च समुद्दिश्य घृतं दहेत् ॥
बालक हो अथवा वृद्ध, अथवा युवा पञ्चक मरण होने पर जो पञ्चकशांति विधान नहीं करता उसके (परिवारादि सहित) लिये भी विघ्न उत्पन्न होता है – बालवृद्धस्य यूनश्च पञ्चकेषु मृतस्य च । विधानं यो न कुर्वीत विघ्नस्तस्य प्रजायते ॥
पञ्चक दाह – पुत्तल विधी
अशुभं दाहकर्मणि से पञ्चक में दाह अशुभ सिद्ध होता है। तो क्या पञ्चक में दाह नहीं करे ? शव को 5-6 दिन तक रखे रहे। शास्त्रों में तो इसका भी निषेध किया गया है और मृत्यु सुनिश्चित होने पर यथाशीघ्र दाह-संस्कार करने की आज्ञा दी गयी है। फिर दोनों में से किसे माने ? इसका निराकरण भी शास्त्रों में बताया गया है, पञ्चक में दाह निषिद्ध नहीं है पञ्चक में दाह से दोष होता है अतः उस दोष की शांति करे।
पञ्चक में दाह करने के लिये दोष निवारण हेतु पुत्तल विधि बताई गयी है अर्थात पुत्तल दाह करे – शवस्य तु समीपे च क्षेप्तव्याः पुत्तलास्तदा । दर्भमयास्तु चत्वार ऋष्यमन्त्राभिमन्त्रिताः ॥
पहले पञ्चक मरण शांति विधि दी गयी है फिर पञ्चक दाह शांति अर्थात पुत्तल विधि।
पंचक शांति पूजन – Panchak shanti puja
ब्रह्मपुराण में पंचकमरण शांति विधि इस प्रकार मिलता है –
सूतकांते ततः कुर्याद्विधिनाशांतिकंतथा । अन्यथानगतिस्तस्य प्रेतपुत्रस्यशोभनं ॥
स्वगृह्योक्तविधानेनकृत्वाग्निस्थापनंततः । अभिध्यानंनिर्वपणं देवतानांतथाशृणु ॥
वसवोवरुणश्चैव अजैकपात्तृतीयकं ॥ अहिर्बुन्यश्चतुर्थं च पूषणं पंचमं तथा ॥
यमाय धर्मराजाय मृत्यवेचांतकाय च । वैवस्वतायकालाय सर्वभूतक्षयायच ॥
औदुंबरायदध्नाय नीलायपरमेष्ठिने ।वृकोदरायचित्राय चित्रगुप्तायवैनमः ॥
अघोरो रुद्रमंत्रंच निर्वापयेत्क्रमेणच । विधिनाश्रपणंकृत्वा एकैकामाहुतिंहुनेत् ॥
कुंडादीशानदिग्भागे स्थंडिलं हस्तमात्रकं । तत्रवस्त्रंसमास्तीर्य स्थाप्यवस्वादिपंचकं ॥
चतुर्दशयमांश्चैव अघोरंस्थापयेत्पुनः । अव्रणान्कलशांस्तत्र दिक्षुचत्वारिविन्यसेत् ॥
कलशः पंचमोमध्ये स्थापयेद्विधिपूर्वकं । उच्चार्यवारुणं मंत्रं पूरयेत्तीर्थवारिणा ॥
मध्येसर्वौषधीः क्षिप्त्वामृद्दूर्वापल्लवांस्तथा । हिरण्यफलसंयुक्तं वस्त्रेणावेष्टयेत्ततः ॥
अभिषेकोत्तरंतत्र कुर्यादाज्यावलोकनं । वस्त्रंचैवपरित्यज्य रुद्रभक्तिंविशेषतः ॥
ब्राह्मणान्भोजयेत्पश्चात्पायसंमधुसर्पिषा । एवंयः कुरुतेपुत्र शुभंतस्यप्रजायते ॥
विधानंयोनकुर्वीत विघ्नंतस्य भवेत्सदा । तस्मात्सर्वप्रयुत्नेन शांतिकुर्याद्यथाविधि ॥
कृत्वातुगोत्रजाः सर्वेसुखिनः स्युर्निरामयाः । भवंतिनात्रसंदेहो नात्रकार्याविचारणा ॥ – ब्रह्मपुराण
अर्थात् अशौचनिवृत्ति होने पर (अशौच निवृत्ति का तात्पर्य ग्यारहवां दिन होता है न कि बारहवां या तेरहवां) स्वशाखोक्त विधि से अग्निस्थापनादि करके चरु पकाए और एक-एक आहुति प्रदान करे; आहुति देवता का उल्लेख वसवो से अघोरो तक बताया गया है – पांच नक्षत्र देवता, चौदह यम और एक अघोर कुल 20 ।
कुण्ड या स्थण्डिल के ईशानभाग में हस्तमात्र स्थण्डिल (पूजा वेदी) बनाकर वस्त्र से आसादित करे ।
फिर वहां वस्वादि पंचक देवता, चतुर्दशयम और अघोर का स्थापन-पूजन करे। पांच अव्रण कलश स्थापना करे; चारों दिशाओं में चार और मध्य में एक। वारुणमंत्र से सभी कलशों में तीर्थजल भरे । मध्यकलश में सर्वौषधि, सप्तमृतिका, दूर्वा, पल्लव, हिरण्य, फल आदि देकर वस्त्रावेष्टित करे । तदूत्तर उत्तर भाग में यजमान का अभिषेक, छायावलोकन करके धारित वस्त्र का त्याग आदि करे ।
फिर ब्राह्मण भोजनादि कराये।
इस प्रकार ब्रह्मपुराण में वर्णित पञ्चक शांति विधि से कुछ महत्वपूर्ण तथ्य स्पष्ट होते हैं :
- पञ्चक शांति ग्यारहवें दिन ही करे, बारहवें या तेरहवें दिन नहीं। इसकी तार्किक चर्चा आगे भी की जाएगी।
- अशौच निवृत्ति होने पर यदि ग्यारहवें दिन न कर सके तो विकल्प से मरण नक्षत्र को ग्रहण किया जा सकता है।
- पञ्चक मरण शांति का मुख्य कर्म विधिपूर्वक हवन है।
- श्रपण करने का निर्देश दिया गया है अर्थात आहुति द्रव्य चरु सिद्ध होता है।
- आहुति संख्या 1-1 ही बताई गई है, अतः आहुति संख्या 108, 28 या 8 आहुति की संख्या बताना भ्रम सिद्ध करता है।
- पूजा से पहले ही देवताओं का चरु होम या आज्य/तिल/शाकल्य होम करने के लिये कहा गया है।
- कलशस्थापन अंत में करके अभिषेक करने के लिये कहा गया है।
- आज्यावलोकन और धारित वस्त्र त्याग करने के लिये विशेष रूप से कहा गया है।
यहाँ जो पञ्चक शांति विधि दी गयी है इसके लिये उपरोक्त प्रमाण को ही आधार माना गया है।
पंचक शान्ति कब करे
हमें प्रमाण से यही ज्ञात हुआ कि पञ्चक मरण शान्ति अशौच की समाप्ति होने पर करे अर्थात् एकादशाह को ही करे और श्राद्ध से पूर्व ही करे। एकादशाह के दिन ही श्राद्ध से पूर्व पञ्चक मरण शान्ति क्यों आवश्यक है? वह इसलिए कि श्राद्ध का उद्देश्य प्रेतत्व से मुक्ति है, यदि श्राद्ध से पूर्व ही शान्ति न की गई तो यह प्रेतत्व मुक्ति का बाधक होगा अर्थात श्राद्ध के उद्देश्य की प्राप्ति सुनिश्चित नहीं होती है।
अब पुनः प्रश्न उत्पन्न होता है कि एकादशाह को न करके द्वादशाह के दिन सपिण्डिकरण से पूर्व करने में क्या बाधा है अथवा क्यों नहीं कर सकते ?
वो इसलिए कि पंचक शान्ति स्वतंत्र कर्म है, श्राद्ध का अंग नहीं। किसी भी कर्म के मध्य में वही कर्म किया जाता है जो कर्मांग हो। कर्मांग के अतिरिक्त कर्म या तो पहले करना चाहिये या बाद में। अर्थात् षोडश श्राद्ध संकल्प से पूर्व ही पंचक शान्ति अपेक्षित सिद्ध होता है। इसके अतिरिक्त षोडश श्राद्ध के मध्य या अंत मे असिद्ध होता है।
उद्देश्य : पञ्चक शान्ति विधि या पद्धति अनेकों और बहुत विस्तृत भी हैं किन्तु इस भ्रम के कारण विस्तृत हैं कि द्वादशाह/त्रयोदशाह के दिन या आगे मृत्युनक्षत्र के दिन भी किया जा सकता है। लेकिन हम यह मानकर कि एकादशाह के दिन आगे श्राद्धकर्म भी करना होता है सरल व संक्षिप्त विधि की आवश्यकता मानते हैं, ताकि श्राद्ध कर्म में भी समयाभाव न हो अथवा श्राद्ध काल व्यतीत न हो, श्राद्ध भी श्राद्ध काल में संपन्न हो सके। श्रद्धारम्भ पञ्चक शांति के उपरांत ही होगा।
किन्तु हवन विधि पञ्चभूसंस्कारादि किसी भी क्रिया को संक्षिप्त करने का समर्थन भी नहीं करते हैं, क्योंकि मुख्य शांतिकर्म हवन ही है।
पंचक शांति पूजन मंत्र
अशौच की निवृति होने पर ग्यारहवें दिन श्राद्धारम्भ से पूर्व पञ्चक मरण शान्ति करे, ताकि श्राद्ध के उद्देश्य प्राप्ति में उपस्थित बाधा से निवृत्ति हो सके । नित्य कर्म आदि से निवृत्त हो, कर्ता शान्ति-सामग्री को यथा स्थान रखकर स्वयं कुशासन पर पूर्वाभिमुख बैठकर बैठ कर धूप-दीप जला ले ।
पवित्रीकरण
पवित्रीकरण मंत्र : ॐ अपवित्र: पवित्रो वा सर्वावस्थाङ्गतोऽपि वा। य: स्मरेत् पुण्डरीकाक्षं स: बाह्याऽभंतर: शुचि:॥ ॐ पुण्डरीकाक्षः पुनातु ॥ हाथ में गंगाजल/जल लेकर इस मंत्र से सभी वस्तुओं और शरीर पर छिड़के ।
आचमन : ॐ केशवाय नमः ॥ ॐ माधवाय नमः ॥ ॐ नारायणाय नमः ॥ मुख व हस्त मार्जन (२ बार) ॐ हृषिकेशाय नमः ॥
आसन शुद्धि : ॐ पृथ्वि त्वया धृता लोका देवि त्वं विष्णुनाधृता। त्वं च धारय मां देवि पवित्रं कुरु चासनम्॥ इस मंत्र से आसन पर जल छिड़क कर आसनशुद्धि करें।
भूतोत्सारण : ॐ अपसर्पन्तु ते भूता ये भूता भूमिसंस्थिताः । ये भूता विघ्नकर्तारस्ते नश्यन्तु शिवाज्ञया ॥
मिथिला के अतिरिक्त अन्य क्षेत्रों में गणेशाम्बिकापूजन, स्वस्तिवाचन, कलश स्थापन, पुण्याहवाचन आदि अनिवार्य होता है अतः मैथिलेत्तर परम्परानुसार करें, मैथिल परम्परा में आवश्यक नहीं है अतः मैथिल संक्षिप्त स्वस्तिवाचन मात्र करे। अङ्गिरा स्मृति में कहा गया है – देशं कालं तथाऽऽत्मानं द्रव्यं द्रव्यप्रयोजनम् । उपपत्तिमवस्थां च ज्ञात्वा कर्म समाचरेत् ॥ अङ्गिरावचन का भाव समझकर समीचीन विधि यहां प्रस्तुत किया गया है।
संकल्प
संकल्प : त्रिकुशा, तिल, जलादि संकल्प द्रव्य लेकर संकल्प करे : ॐ विष्णुर्विष्णुर्विष्णुः अद्यैतस्य ………. मासे ……… पक्षे ……… तिथौ ……… वासरे ……… गोत्रोत्पन्नः ……… शर्माऽहं(वर्माऽहं/गुप्तोऽहं) धनिष्ठादिपञ्चकनक्षत्रान्तर्गत ……….. नक्षत्राधिकरणक दुर्मरणजन्य दोष शान्त्यर्थं सर्वारिष्ट निरसन पूर्वक मम गृहे सर्वेषां बालादीनां दीर्घायुरारोग्यसुख प्राप्त्यर्थं पञ्चकमरणशान्तिमहं करिष्ये॥
वरण
आचार्य वरण : बायें हाथ में आचार्य वरण सामग्री (धोती-जोड़ा, गमछा, पान, सुपारी, पुष्प, चंदन, अक्षत, द्रव्य आदि) लेकर दाहिने हाथ में त्रिकुशा, तिल, जल लेकर अगला मंत्र पढ़ते हुये वरण सामग्री पर छिड़के – ॐ अद्य पञ्चकमरण दोष शान्ति कर्मणि आचार्य कर कर्तुं एभिः वरणीयद्रव्यैः …….. गोत्रं …….. शर्माणं ब्राह्मणं आचार्यत्वेन त्वामहं वृणे ॥
वरण सामग्री आचार्य को प्रदान करे, आचार्य “वृत्तोस्मि” कहते हुये वरणसामग्री ग्रहण करे। यजमान पुनः कहे “यथाविहितं कर्म कुरु” आचार्य कहे “कर्वाणि”
फिर आगे की शान्ति विधि आचार्य संपन्न करे।
सर्वप्रथम स्थण्डिल (हवन वेदी) निर्माण करके, शाखाविधि के अनुसार पञ्चभूसंस्कार करे, अग्निस्थापन, ब्रह्मा वरण करके चरु निर्माण करे। हवन विधि के लिये पूर्व में आलेख प्रकाशित किया गया है, सुविधा हेतु यहां वाजसनेयी और छन्दोगी दोनों लिंक दिया जा रहा है :
फिर हवन विधि के अनुसार आगे की क्रिया परिस्तरण, पर्युक्षण आदि करके आज्य से नवाहुति प्रदान करे। चूँकि वाजसनेयी और छन्दोगी दोनों के वाराहुति मंत्र भी अलग-अलग हैं अतः हवन विधि से अपनी शाखा के अनुसार करे।
तत्पश्चात पञ्चक मरण दोष शांति होम करे अर्थात चरु से अगली आहुतियां दे :
- ॐ वसुभ्यः स्वाहा ॥
- ॐ वरुणाय स्वाहा ॥
- ॐ अजैकपदे स्वाहा ॥
- ॐ अहिर्बुध्न्याय स्वाहा ॥
- ॐ पूष्णे स्वाहा ॥
- ॐ यमाय स्वाहा ॥
- ॐ धर्मराजाय स्वाहा ॥
- ॐ मृत्यवे स्वाहा ॥
- ॐ अन्तकाय स्वाहा ॥
- ॐ वैवस्वताय स्वाहा ॥
- ॐ कालाय स्वाहा ॥
- ॐ सर्वभूतक्षयाय स्वाहा ॥
- ॐ औदुम्बराय स्वाहा ॥
- ॐ दध्नाय स्वाहा ॥
- ॐ नीलाय स्वाहा ॥
- ॐ परमेष्ठिने स्वाहा ॥
- ॐ वृकोदराय स्वाहा ॥
- ॐ चित्राय स्वाहा ॥
- ॐ चित्रगुप्ताय स्वाहा ॥
- ॐ अघोराय स्वाहा ॥
तत्पश्चात उत्तराङ्ग हवन भी कर ले अर्थात नावहुति पर्यन्त संपन्न कर ले किन्तु स्विष्टकृद्धोम, पूर्णाहुति, वसोर्धारा आदि न करे। उससे पहले पूजा करे ।
पञ्चक शान्ति पूजन :
हवन वेदी के ईशान भाग में एक और हस्त मात्र वेदी बनाये। वेदी पर श्वेतवस्त्र बिछाये। फिर कलश स्थान छोड़कर तीन पंक्तियों में क्रमशः पांच नक्षत्रदेवताओं, चौदह यम, और अघोर या मृत्युञ्जय की पूजा करने के लिये पान-पूगीफलादि लगा ले। फिर क्रमशः सबका आवाहन करके पञ्चोपचार पूजन करे ।
प्रथम पंक्ति में पांच भाग लगाये और नक्षत्र देवताओं का आवाहन पूजन करे :
1 – धनिष्ठा : ॐ व्वसोः पवित्रमसि शतधारं व्वसोः पवित्रमसि सहस्रधारम् । देवस्त्वा सविता पुनातु व्वसोः पवित्रेण शतधारेण सुप्त्वा कामधुक्षः ॥ आवाहन : ॐ वसव इहागच्छत इहतिष्ठत ॥ पूजन मंत्र – ॐ वसुभ्यो नमः ॥
- पुष्पाञ्जलि : ॐ अधिष्ठातृधनिष्ठाया वसो तुभ्यं नमो नमः । मृतस्याऽस्य प्रसादात्ते सद्गतिः स्याच्छुभं च मे ॥
2 – शतभिषा : ॐ वरुणस्योत्तम्भनमसि वरुणस्य स्कम्भसर्जनी स्त्थो वरुण्स्य ऽऋतसदन्न्यसि वरुणस्य ऽऋतसदनमसि वरुणस्यऽऋत सदनमासीद् ॥ आवाहन : ॐ वरुण इहागच्छ इहतिष्ठ ॥ पूजन मंत्र – ॐ वरुणाय नमः ॥
- पुष्पाञ्जलि : ॐ अधिष्ठातः शतर्क्षस्य नमो वरुण चाऽस्तु ते । पूजां मया कृतां भक्त्या गृहीत्वा सफलं कुरु ॥
3 – पूर्वभाद्रपद – ॐ उत नोऽहिर्बुध्न्यः शृणोत्वज एकपात्पृथिवी समुद्रः। विश्वेदेवा ऋतावृधो हुवानाः स्तुता मन्त्राः कविशस्ता अवन्तु ॥ आवाहन : ॐ अजैकपद इहागच्छ इहतिष्ठ ॥ पूजन मंत्र – ॐ अजैकपदाय नमः ॥
- पुष्पाञ्जलि : ॐ पूर्वाभाद्रपदाधीश नमस्तेऽजैकपात् प्रभो । मृतस्य सद्गतिं कृत्वा मह्यं देहि शुभं फलम् ॥
4 – उत्तरभाद्रपद : ॐ शिवो नामाऽसि स्वधितिस्ते पिता नमस्तेऽअस्तु मा मा हि ᳪ सीः ॥ निवर्त्तयाम्यामुषेऽन्नाद्याय प्रजननाय रायस्पोषाय सुप्रजास्त्वाय सुवीर्याय ॥ आवाहन : ॐ अहिर्बुध्न्य इहागच्छ इह तिष्ठ ॥ पूजन मंत्र – ॐ अहिर्बुध्न्याय नमः ॥
- पुष्पाञ्जलि : ॐ उत्तरभाद्रपदाधीश अहिर्बुध्न्य नमोऽस्तु ते । पूजया वरदो भूत्वा मृतस्य कुरु सद्गतिम् ॥
5 – रेवती : ॐ पूषन् तव व्व्रते व्वयं न रिष्येम कदाचन। स्तोतारस्त ऽइह स्मसि ॥ आवाहन : ॐ पूषण इहागच्छ इह तिष्ठ ॥ पूजन मंत्र – ॐ पूष्णे नमः ॥
- पुष्पाञ्जलि : ॐ नमस्ते रेवतीशान पूषन् तव मया कृताम् । पूजां गृहीत्वा वरदो भव कुर्याच्च सद्गतिम् ॥
दूसरी पंक्ति में चतुर्दश यम की पूजा करे :
- ॐ यम इहागच्छ इहतिष्ठ ॥ ॐ यमाय नमः ॥
- ॐ धर्मराज इहागच्छ इहतिष्ठ ॥ ॐ धर्मराजाय नमः ॥
- ॐ मृत्यो इहागच्छ इहतिष्ठ ॥ ॐ मृत्यवे नमः ॥
- ॐ अन्तक इहागच्छ इहतिष्ठ ॥ ॐ अन्तकाय नमः ॥
- ॐ वैवस्वत इहागच्छ इहतिष्ठ ॥ ॐ वैवस्वताय नमः ॥
- ॐ काल इहागच्छ इहतिष्ठ ॥ ॐ कालाय नमः ॥
- ॐ सर्वभूतक्षय इहागच्छ इहतिष्ठ ॥ ॐ सर्वभूतक्षयाय नमः ॥
- ॐ औदुम्बर इहागच्छ इहतिष्ठ ॥ ॐ औदुम्बराय नमः ॥
- ॐ दध्ने इहागच्छ इहतिष्ठ ॥ ॐ दध्नाय नमः ॥
- ॐ नील इहागच्छ इहतिष्ठ ॥ ॐ नीलाय नमः ॥
- ॐ परमेष्ठि इहागच्छ इहतिष्ठ ॥ ॐ परमेष्ठिने नमः ॥
- ॐ वृकोदर इहागच्छ इहतिष्ठ ॥ ॐ वृकोदराय नमः ॥
- ॐ चित्र इहागच्छ इहतिष्ठ ॥ ॐ चित्राय नमः ॥
- ॐ चित्रगुप्त इहागच्छ इहतिष्ठ ॥ ॐ चित्रगुप्ताय नमः ॥
पुष्पाञ्जलि : यमाय धर्मराजाय मृत्यवेचांतकाय च । वैवस्वतायकालाय सर्वभूतक्षयायच ॥औदुंबरायदध्नाय नीलायपरमेष्ठिने ।वृकोदरायचित्राय चित्रगुप्तायवैनमः ॥
पुनः तीसरी पंक्ति में अघोर अथवा महामृत्युंजय पूजन करे :
अघोर आवाहन : ॐ या ते रुद्द्र शिवा तनूरघोराऽपापकाशिनी । तयानस्तन्न्वाशन्तमया गिरिशन्ताभिचाकशीहि ॥ ॐ अघोर इहागच्छ इहतिष्ठ ॥ पूजा मंत्र – ॐ अघोराय नमः ॥
तदुत्तर कलशस्थापन विधि के अनुसार वेदी के चारों दिशाओं में चार कलश और मध्य में एक कलश स्थापित करे। कलश में तीर्थजल दे। पूजन मंत्र – ॐ वरुणाद्यावाहित देवताभ्यो नमः॥ फिर पुष्पांजलि दे।
उपलब्ध विभिन्न पद्धतियों में कलशों को पञ्चसूक्तों द्वारा अभिमंत्रित करने के लिये भी बताया गया है ।
- फिर सभी पूजित देवताओं को दधि-ओदनादि की बलि प्रदान करे।
- तत्पश्चात हवन विधि के अनुसार हवन की उत्तर क्रिया अर्थात स्विष्टकृद्धोम, पूर्णाहुति, वसोर्द्धारा, दक्षिणा आदि करे।
- फिर यजमान का अभिषेक करे।
- फिर यजमान आज्यावलोकन करके छायापात्र दान करे। पञ्चक शान्ति दान वस्तुओं की जानकारी आगे दी गई है।
- फिर सचैलस्नान करके उस वस्त्र का त्याग कर दे। नापित आदि ग्रहण करे।
- वर्त्तमान में श्राद्धपूर्व भोजन समीचीन प्रतीत नहीं होता अतः एकादशाह श्राद्ध करने के बाद ही ब्राह्मण भोजन कराये। परन्तु यदि भोजन हेतु ब्राह्मण उपलब्ध हों तो करा दे।
तिलपात्रं हिरण्यं च रूप्यं रत्नं यथाक्रमम् । घृतपूर्णं कांस्यपात्रं दद्याद्दोषोपशान्तये ॥ गरुडपुराण में पञ्चक मरण शान्ति हेतु इन वस्तुओं का दान करना भी कहा गया है – तिलपात्र, सोना, चांदी, रत्न, घृतपूर्ण पात्र (छाया पात्र) । दान में सामर्थ्य का विचार अपेक्षित होता है। एक अन्य महत्वपूर्ण बात यह भी है कि पञ्चक शान्ति में प्रयुक्त वस्तु या दान आदि आचार्य को ही दे।
॥ इति पं० दिगम्बर झा सुसम्पादितं “करुणामयीटीकाऽलंकृतं” पञ्चकशांतिविधिः ॥