पद्म पुराण में देवताओं द्वारा किया गया भगवान विष्णु का एक विशेष महत्वपूर्ण स्तोत्र है जिसे विष्णु विजय स्तोत्र (vishnu vijaya stotram) कहा गया है। इस स्तोत्र में देवताओं ने भगवान विष्णु के दशावतारों का वर्णन करते हुये स्तवन किया है, जिसके पश्चात् भगवान विष्णु ने प्रसन्न होकर देवताओं को वरदान दिया। व्यास जी फलश्रुति बताते हुये कहते हैं भक्ति व आदर पूर्वक इस स्तोत्र का जो पाठ करता है उसके लिये तीनों लोकों में कुछ भी दुर्लभ नहीं होता। इसके पाठ-श्रवण से शत गोदान जन्य पुण्य की प्राप्ति होती है। यहां विष्णु विजय स्तोत्र संस्कृत में दिया गया है।
पद्म पुराणोक्त विष्णु विजय स्तोत्र – vishnu vijaya stotram
देवा ऊचुः
नताः स्म विष्णुं जगदादिभूतं
सुरासुरेन्द्रं जगतां प्रपालकम् ।
यन्नाभिपद्मात्किल पद्मयोनि-
र्बभूव तं वै शरणं गताः स्मः ॥१॥
नमो नमो मत्स्यवपुर्धराय
नमोऽस्तु ते कच्छपरूपधारिणे ।
नमः प्रकुर्मश्च नृसिंहरूपिणे
तथा पुनर्वामनरूपिणे नमः ॥२॥
नमोऽस्तु ते क्षत्रविनाशनाय रामाय रामाय दशास्यनाशिने ।
प्रलम्बहन्त्रे शितिवाससे नमो नमोऽस्तु बुद्धाय च दैत्यमोहिने ॥३॥
म्लेच्छान्तकायापि च कल्किनान्ने नमः पुनः क्रोडवपुर्धराय ।
जगद्धितार्थं च युगे युगे भवान् विभर्ति रूपं त्वसुराभवाय ॥४॥
निषूदितोऽयं ह्यधुना किल त्वया दैत्यो हिरण्याक्ष इति प्रगल्भः ।
यश्चेन्द्रमुख्यान् किल लोकपालान्संहेलया चैव तिरश्चकार ॥५॥
स वै त्वया देवहितार्थमेव निपातितो देवधर प्रसीद ।
त्वमस्य विश्वस्य विसर्गकर्ता ब्राह्मेण रूपेण च देवदेव ॥६॥
पाता त्वमेवास्य युगे युगे च रूपाणि धत्से सुमनोहराणि ।
त्वमेव कालाग्निहरश्च भूत्वा विश्वं क्षयं नेष्यसि चान्तकाले ॥७॥
अतो भवानेव च विश्वकारणं न ते परं जीवमजीवमीश ।
यत्किञ्च भूतं च भविष्यरूपं प्रवर्तमानं च तथैव रूपम् ॥८॥
सर्वं त्वमेवासि चराचराख्यं न भाति विश्वं त्वदृते च किञ्चित् ।
अस्तीति नास्तीति च भेदनिष्ठं त्वय्येव भातं सदसत्स्वरूपम् ॥९॥
ततो भवन्तं कतमोऽपि देव न ज्ञातुमर्हत्यविपक्वबुद्धिः ।
ऋते भवत्पादपरायणं जनं तेनागताः स्मः शरणं शरण्यम् ॥१०॥
व्यास उवाच
ततो विष्णुः प्रसन्नात्मा उवाच त्रिदिवौकसः ।
तुष्टोऽस्मि देवा भद्रं वो युष्मत्स्तोत्रेण साम्प्रतम् ॥११॥
य इदं प्रपठेद्भक्त्या विजयस्तोत्रमादरात् ।
न तस्य दुर्लभं देवास्त्रिषु लोकेषु किञ्चन ॥१२॥
गवां शतसहस्रस्य सम्यग्दत्तस्य यत्फलम् ।
तत्फलं समवाप्नोति कीर्तनाच्छ्रवणान्नरः ॥१३॥
सर्वकामप्रदं नित्यं देवदेवस्य कीर्तनम् ।
अतः परं महाज्ञानं न भूतं न भविष्यति ॥१४॥
॥ इति पद्मपुराणोक्तं विष्णुविजयस्तोत्रं सम्पूर्णम् ॥
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