शारदीय नवरात्र दुर्गा महोत्सव निर्णय – durga mahotsav 2025

शारदीय नवरात्र दुर्गा - महोत्सव निर्णय

वर्ष में चार मुख्य नवरात्रायें होती हैं जिनमें से शारदीय नवरात्र अर्थात जो शरद् ऋतु में पड़े वो विशेष महत्वपूर्ण होती है। इसमें भगवती दुर्गा की महापूजा होती है। नवरात्र विधान की बात करें तो मंदिरों के लिये जो विधि है घर में उससे भिन्न हो जाती है। पुनः घर में भी जो विद्वान ब्राह्मण के आचार्यत्व में करें उनके लिये और जो स्वयं करे उसके लिये भी भिन्न विधियां हो जाती है। लेकिन सबसे पहला विषय होता है नवरात्र में विभिन्न कर्मों का काल निर्धारण। इस आलेख में नवरात्र में विभिन्न निर्णयों तक पहुंचने संबंधी प्रामाणिक चर्चा की गयी है।

नवरात्र में प्रतिपदा को कलशस्थापन से लेकर दशमी को अपराजिता पूजन तक सभी कर्मों के लिये प्रामाणिक रूप से तिथ्यादि का विचार करके निर्णय लिया जाता है। यद्यपि पंचांगों में सभी विषय पूर्व प्रकाशित रहते हैं तथापि विद्वानों के लिये सभी विषय सप्रमाण युक्तियुक्त है अथवा नहीं यह विचार करना आवश्यक ही रहता है। उसमें भी तब तो और अधिक अपेक्षित है जब पंचांग ही अदृश्य हों अर्थात वेधसिद्ध न हों।

सभी प्राचीन ज्योतिर्विदों ने दृश्य पंचांग को ही ग्रहण करने की आज्ञा प्रदान किया है और पंचांगकर्ताओं के लिये गणना से प्राप्त परिणाम की सत्यता सुनिश्चित करने के लिये वेध का विधान भी बताया। वर्त्तमान में स्थिति यह है कि चंद्रोदय तक में अदृश्यता स्थापित होने लगी है वेध की बात तो छोड़ ही देना चाहिये। जब चंद्रोदय से भी पंचांग की गणना गलत सिद्ध हो जाये तो सामान्य जनमानस भी विचार कर सकता है कि वह पंचांग कितना ग्राह्य माना जाना चाहिये।

कर्मकांड विधि पर उन अदृश्य पंचांगों से प्राप्त तिथि-नक्षत्र कालों के आधार पर विमर्श नहीं किया जाता है जो चंद्रोदय तक में अशुद्ध काल बताता हो। कर्मकांड विधि पर दृश्य पंचांगों द्वारा प्राप्त तिथि-नक्षत्र आदि मान के आधार पर विचार किया जाता है जो वर्त्तमान में सर्वसुलभ भी है। यहां नवरात्र संबंधी भी सभी विषय दृश्य पंचांग के आधार पर ही लिया गया है जो कि अदृश्य पंचांगों से भिन्न है।

कलश स्थापना कब है अर्थात प्रतिपदा निर्णय

नवरात्र का आरंभ प्रतिपदा से होता है और प्रथम दिन संकल्प, कलश स्थापन करके व्रत-पूजा आरंभ किया जाता है। नवरात्र के संबंध में यह जानना अत्यावश्यक है कि यह व्रत है, पूजादि कर्म व्रत के अंग हैं। जो लोग यह नहीं समझते वो नवरात्र व्रत नहीं कर पाते क्योंकि नियमों का ही पालन नहीं करते। जब तक व्रत है यह नहीं समझेंगे तब तक व्रत के नियमों का पालन कैसे करेंगे ? व्रत हेतु प्रथम नियम होता है कि व्रत आरंभ करने से पूर्व दिन स्नानादि करके व्रत का नियम धारण करे और एकभुक्त ही करे। तथापि यहां व्रत संबंधी नियम और विधियों की विशेष चर्चा नहीं की जा सकती, इस आलेख का विषय नवरात्र महोत्सव ही है।

नवरात्र व्रत

अब हम नवरात्र व्रत के विषय में भी जानेंगे। भविष्य पुराण में नवरात्र व्रत से संबंधित जानकारी इस प्रकार बताई गयी है :

नवरात्र व्रत नौ दिनों का होता है अतः इसमें निराहार करने का प्रश्न ही उत्पन्न नहीं होता है तथापि कुछ भक्त निराहार भी करते हैं और कुछ अधिकांश फलाहार पूर्वक करते हैं। फलाहार करने वाले विधान के अनुकूल व्रत नहीं करते हैं अनेकानेक बार स्वेच्छाचार से फलाहार करते रहते हैं। नवरात्र व्रत हेतु एकभक्त, नक्त अथवा अयाचित तीन प्रकार का वर्णन मिलता है। व्रत के यही चार विधान होते हैं : उपवास, एकभक्त, नक्त और अयाचित। एक दिन वाले व्रत में उपवास की भी विधि होती है किन्तु अनेकों दिन का व्रत हो तो उपवास के अतिरिक्त अन्य नियम ग्रहण करने की आज्ञा है।

शारदीय नवरात्र दुर्गा महोत्सव निर्णय

इन तीनों में से जो भी नियम धारण करना हो उसे धारण करते हुये स्थान-स्थान, नगर-नगर, घर-घर, गांव-गांव यहां तक कि वन-वन में भी रहने वाले जनों को शक्ति की अराधना करनी चाहिये। नवरात्र व्रत में चारों वर्णों सहित म्लेच्छादि तक का भी अधिकार बताया गया है, स्नान करके शक्ति के अनुसार सम्पादित पूजा सामग्रियों से भगवती की पूजा करे। जो विशेष उपचारों से पूजा करने में सक्षम न हो वह पंचोपचार पूजन ही करे। पंचोपचार पूजन में गंध, पुष्प, धूप, दीप और नैवेद्य अर्पित किया जाता है। यदि पंचोपचार पूजन करने में भी अभाव हो तो पुष्प और जल मात्र से भक्ति धारण करते हुये पूजा-अराधना करे। क्योंकि नवरात्र में चण्डी पूजा ही प्रधान है।

नवरात्रारंभ

नवरात्रि कब है – navratri kab hai

22 सितम्बर 2025, सोमवार को औदयिक आश्विन शुक्ल प्रतिपदा रात्रि 2:55 बजे तक है अतः कलश स्थापन और नवरात्रारंभ हेतु निर्णय में किसी प्रकार का कोई विवाद उत्पन्न ही नहीं होता है।

2025 में शारदीय नवरात्र का आरंभ 22 सितम्बर 2025, सोमवार से होगा और इसी दिन कलश स्थापन किया जायेगा।

आश्विन शुक्ल औदयिक प्रतिपदा के दिन प्रातः काल में ही कलशस्थापन-पूजन करके भगवती दुर्गा का भी आवाहन-पूजन किया जाता है। कई बार कलश स्थापन मुहूर्त देखा-सुना-बताया जाता है, जबकि इसके लिये प्रातः काल का स्पष्ट निर्देश है : प्रातरावाहयेद्देवी प्रातरेव प्रवेशयेत्। प्रातः प्रातश्च सम्पूज्य प्रातरेव विसर्जयेत्॥ – तिथितत्व/देवीपुराण । जब प्रातः काल का निश्चय शास्त्रों ने कर दिया है फिर नाना प्रकार के विचार करके मुहूर्त निर्धारण करना किसकी मूर्खता है ?

प्रातः काल : प्रातः काल का तात्पर्य कौन सा काल होता है ? प्रातः काल को इस प्रकार सरलता से समझा जा सकता है : दिन के पांच भाग करें; प्रथम भाग प्रातः काल कहलाता है। दिन का पांच भाग करने का तात्पर्य है कि यदि दिनमान 30 दंड (12 घंटा) हो तो उसका पंचमांश; सूर्योदय से 6 दंड (2 घंटा 24 मिनट) प्रातः काल होगा। इस काल में कलश स्थापन करने के लिये अन्य किसी प्रकार का विचार करना अवांछित है।

यह प्रातः काल निर्धारण करने का एक प्रकार है जो विशेष रूप से श्राद्ध हेतु विचारणीय है, स्थापन-आरोपण आदि कर्मों हेतु प्रातः काल निर्धारण का एक अन्य प्रमाण 10 दण्ड बताता है : भास्करोदयमारभ्य यावत्तु दशनाडिकाः । प्रातःकाल इति प्रोक्तः स्थापनारोपणादिषु ॥ – विष्णुधर्म, इस प्रकार सूर्योदय से 10 घड़ी अर्थात् 4 घंटे तक प्रातः काल में कलश स्थापन करे । इसके पश्चात् शास्त्रों में अपराह्नकाल की भी प्रशंसा की गई है ।

इसके साथ ही चित्रा नक्षत्र व वैधृति योग युक्त प्रतिपदा में कलश स्थापन का निषेध किया गया है। विशेष विचार इन्हीं विधानों से किया जाता है। यदि दिनभर चित्रा नक्षत्र या वैधृति योग मिले तो अभिजित् मुहूर्त में कलश स्थापन करे : वैधृत्यावापियुक्तास्यात् तदामध्यं दिने रवौ । अभिजित्तुमुहूर्तंयत् तत्रस्थापनमिष्यत ॥ इसके साथ ही और भी अनेकानेक वचन व तथ्य हैं जिनका सारांश यहां दिया गया है।

तथापि एक समस्या यह भी है कि वर्त्तमान जीवनशैली में प्रातः काल तो शयन में भी व्यतीत हो जाता है फिर कलश स्थापन कब हो ? अथवा जिन पुरोहितों के 25-50 यजमान कलश स्थापन करने वाले हों वो इतने काल में ही कैसे सबका करें ? अर्थात उपरोक्त तथ्य शास्त्र सम्मत किन्तु इसका पालन अत्यल्प जन ही कर सकते हैं। यदि अधिकांश जन करें भी तो पुरोहित सबके एक ही समय में उपस्थित नहीं हो सकते। उक्त स्थिति में ब्राह्मण का महत्व समझते हुये ब्राह्मण की उपस्थिति में ही कल्याण समझना चाहिये और जिस समय ब्राह्मण उपलब्ध हों उसी को सर्वोपयुक्त काल समझकर कलशस्थापन पूजन करे।

नवरात्रि पूजन विधि

जो पूजा जनसमूह द्वारा व्यापक स्तर पर की जाती हो और ब्राह्मण की उपलब्धता ही कठिन हो उस कर्म में ब्राह्मण जब मिलें वही सर्वोत्तम होता है, यदि सर्वोत्तम काल पर ब्राह्मण ही अनुपलब्ध हों तो उस काल का कोई महत्व नहीं होता है किन्तु ब्राह्मण जब भी उपलब्ध हों तो उनका महत्व होता ही है। अतः जिन पुरोहितों के पास अनेकानेक यजमानों का कलशस्थापन करना होता है उनके यजमानों को मीडिया द्वारा प्रचारित शुभ मुहूर्तों के भ्रमजाल से दूर रहना ही श्रेयस्कर प्रतीत होता है।

इसके साथ ही उन छलियों से भी बचने की आवश्यकता है जो सनातन के मूल पर ही प्रहार कर रहे हैं और ऑनलाइन, लाइव, विभिन्न चैनलों पर भी कराने लगे हैं। ब्राह्मण की उपस्थिति का महत्व होता है और एक ब्राह्मण एक काल में एक ही कर्म करा सकता है। ये जो ऑनलाइन/लाइव पूजा-पाठ कराने वाले उत्पन्न हो रहे हैं ये धर्मधूर्त हैं और सामान्य धूर्त्तों की तुलना में इनका पाप कई गुणा जघन्य है। ऐसे धर्मधूर्तों का दर्शन करने से भी बचना चाहिये क्योंकि ये सामान्य पातकी की श्रेणी में नहीं हैं, जघन्य पातकी होते हैं।

नवरात्रा 2025 में कलशस्थापन मुहूर्त हेतु विचारणीय मुख्य विषय

नवरात्रा 2025 में कलशस्थापन मुहूर्त हेतु जो मुख्य विचारणीय विषय है इसकी चर्चा सामान्यतः संज्ञान में आना संभव प्रतीत नहीं होता। इसके लिये हमें सर्वप्रथम प्रतिपदा का आरंभ ज्ञात करना है, तत्पश्चात विशेष नियम के प्रमाणानुसार विचार करना होगा। 21 सितम्बर, रविवार को रात्रि 1:23 बजे प्रतिपदा का आरंभ होता है। अब हमें उस प्रमाण को देखने की आवश्यकता है जो विशेष नियम के संदर्भ में है :

आद्याषोडश नाडीस्तु लब्ध्वा यः कुरुते नरः। कलशस्थापनं तत्र ह्यरिष्टं जायते ध्रुवं ॥ – देवीपुराण

देवीपुराण के इस वचन का तात्पर्य प्रतिपदा के प्रथम सोलह दण्ड (सामान्यतः 6 घंटा 24 मिनट) में कलशस्थापन निषिद्ध है। आदि के षोडश नाडी अर्थात प्रतिपदा आरंभ होने के पश्चात् 6 घंटे 24 मिनट से पूर्व कलश स्थापन करना निश्चित रूप से अरिष्टकारक होता है, यही विचारणीय विषय है। तिथि के ६० भाग करके उसका सोलह दण्ड जो ज्ञात होता है वो 6:48:32 है, रात्रि 1:23 बजे प्रतिपदा का आरंभ होता है और उसमें 6 घंटा 49 मिनट जोड़ने पर प्रातः 8 बजकर 32 मिनट आता है। अर्थात 22 सितम्बर, सोमवार को प्रातः काल कलशस्थापन करनी तो चाहिये किन्तु 8:32 am के पश्चात्।

2:55 – 1:23
= 25:32/60
= 0:25:32*16
= 6:48:32 + 1:23
= 8:11:32 या प्रातः 8:32

नवरात्र व्रत है किन्तु इसमें पूजा का ही विशेष महत्व है। इसे महापूजा भी कहा जाता है। सप्तशती में ही शरत्काले महापूजा का उल्लेख किया गया है अतः नवरात्र में भगवती दुर्गा की विशेष पूजा की जाती है।

दुर्गा पूजा विधि मंत्र सहित

सक्षम होने पर प्रतिमा स्थापित करके पूजा करने का विधान है, जो सक्षम नहीं होते वो सामूहिक रूप से प्रतिमा स्थापित करके एक प्रतिनिधि के माध्यम से महापूजा करते हैं जो विशेष रूप से देखी जाती है। मंदिरों में, बड़े-बड़े पंडाल आदि बनाकर जो किया जाता है वह सामूहिक पूजा ही होती है। किन्तु सामूहिक पूजा का यह विधान पूर्णतः विकृत होता दिख रहा है, मात्र मेला-आयोजन बनकर रह गया है ऐसा लगता है।

प्रायः ऐसा देखा जाता है कि व्रती भी पूजा-अराधना से अधिक चंदा करने और वैयक्तिक व्यापार को ही अधिक महत्व देता है। चंदा और मेला आयोजन हेतु जब मेला समिति बनती ही है तो व्रती को चंदा मांगने की क्या आवश्यकता यह समझना बहुत कठिन है। सामूहिक पूजा में तो समाज से लोगों को स्वयं ही यथासंभव सहयोग के साथ उपस्थित होना चाहिये, सबका प्रतिनिधित्व करने के कारण व्रती को तो पूर्णरूपेण भगवती की अराधना में ही लीन रहना चाहिये। दूसरे प्रकार के वो व्रती भी होते हैं जो वैयक्तिक व्यापार में लीन रहते हैं मात्र कुछ काल के लिये जब आवश्यक हो तभी मंदिर में उपस्थित होते हैं।

कई व्रती का तो स्तर इतना निम्न हो जाता है कि चर्चा करना भी उचित प्रतीत नहीं होता तथापि एक विषय की चर्चा अपेक्षित है। कुछ व्रती अनेक वर्षों तक पूजा करने के कारण स्वयं के आचार्य से भी अधिक ज्ञानी होने के भ्रम का शिकार हो जाते हैं और जो नये ब्राह्मण पूजा आदि कराने के लिये नियुक्त होते हैं उनकी आज्ञा का भी उल्लंघन करते रहते हैं। ऐसा संज्ञान मेरे गांव से ही प्राप्त हो रहा है। एक दुर्गा स्थान में व्रती का दुराग्रह ऐसा है कि भगवती का पट जो खोला जाता है वो अष्टमी समाप्ति के उपरांत नवमी में खोला जाता है।

जबकि पूजा-पद्धतियों में स्पष्ट है कि महासप्तमी को नवपत्रिका स्थापन के उपरांत जब प्राणप्रतिष्ठा की जाती है उससे पूर्व कज्जल निर्माण करके भगवती के तीनों नेत्रों में लगाया जाता है और कज्जल लगाते हुये इस मंत्र का पाठ किया जाता है : ॐ इदं नेत्रत्रयं दिव्यं चन्द्रसूर्यानलप्रभं। ताराकारमयं देवी पश्य त्वं भुवनत्रयं॥ उक्त काल में प्रथम दर्शन कूष्मांडबलि का कराने की विधि भी देखी जाती है। अर्थात जिस काल में “पश्य त्वं भुवनत्रयं” कहकर नेत्रों में कज्जल लगाया जाता है अर्थात नेत्रोन्मीलन किया जाता है उसी काल में पट खोलना भी सिद्ध होता है।

वैसे यदि व्यावहारिक विचार करें तो यह सिद्ध होता है कि सामूहिक पूजा का व्रती वैयक्तिक पूजा नहीं करता है। जब तीन दिनों महासप्तमी, महाष्टमी और महानवमी में विशेष पूजा का विधान है और जो सम्पूर्ण नवरात्र न कर सकें उनकी लिये इन तीन दिनों की भी आज्ञा है। अतः सामूहिक पूजन में इन तीन दिनों की पूजा व्रती करे अवश्य किन्तु दर्शन सबको करना चाहिये। सबकी उपस्थिति में व्रती पूजा करे उस समय यह सिद्ध होता कि सामूहिक पूजा की जा रही है और सभी सम्मिलित भी हैं।

कुल मिलाकर व्रती (प्रतिनिधि) के चयन में विशेष सावधानी रखने की आवश्यकता होती है कि व्रती ऐसा हो जो आस्तिक हो, ब्राह्मणों का सम्मान करता हो, अराधना करने के लिये पर्याप्त समय दे, विधि का ज्ञाता तो हो किन्तु ब्राह्मण से वकवाद करने वाला न हो, किसी विषय को लेकर दुराग्रही न हो, स्वयं भी जप-पाठ करने वाला हो, व्रत (उपवास) करने में शारीरिक रूप स्वस्थ व सक्षम हो आदि। ये सामान्य विचार करने के तथ्य हैं, विशेष नियमों के अनुसार तो व्रती मिलना ही दुष्कर हो जायेगा।

इतने नियमों का पालन करने वाला व्रती भी मिल जाये तो भगवती की कृपा समझनी चाहिये। सम्पूर्ण नवरात्र पूजा विधि अलग-अलग आलेखों में कर्मकांड विधि पर प्रकाशित की गयी है जिससे पूजा करना सुगम हो जाता है।

यदि नौ दिनों कुमारी कन्या का पूजन कर सके तो नौ दिन करे, अथवा महासप्तमी, महाष्टमी और महानवमी इन तीन दिनों करे अथवा न्यूनतम एक दिन भी करे। बहुधा सार्वजनिक पूजा में विसर्जन के उपरांत अंत में अनेकों कुमारी कन्या का पूजन किया जाता है। किन्तु यह चिंताजनक है कि सामूहिक रूप से कुमारी कन्या पूजन करने और अर्थाभाव न होने पर भी मात्र खोंयछा, भोजन, दक्षिणा देकर संपन्न कर लिया जाता है, वस्त्र नहीं दिया जाता और यदि दिया भी जाय तो रुमाल आदि देकर पिंड ही छुड़ाया जाता है। हां संख्या के ऊपर बहुत ध्यान दिया जाता है, अधिकाधिक संख्या में कुमारी कन्या को उपलब्ध मात्र करने पर ही विशेष बल दिया जाता है।

कुमारी कन्या का पूजन

व्रती के लिये नवरात्र व्रत का नियम

शास्त्रों में व्रतादि से संबंधित बहुत सारे नियम बताये गये हैं जिनका पालन करना वर्त्तमान युग में असंभव ही प्रतीत होता है। यदि कोई व्यक्ति पर्वत-वन जाकर एकांतवासी होकर करे तभी संभव हो सकता है अथवा घर में भी करे तो पूर्ण रूप से पूरे नवरात्र भर घर से बाहर एक पग भी न रखे, मोबाईल-टीवी-पत्र-पत्रिका आदि का परित्याग करके, सावधानी पूर्वक सभी सामग्रियों का पूर्व संग्रह कर ले तभी संभव हो सकता है। यहां उन कुछ नियमों की चर्चा की जा गयी है जिसका पालन किया जा सकता है :

  • व्रती को एक दिन पूर्व ही केशकर्तन, पवित्र स्नान, पूजन आदि करके एकभुक्त पूर्वक व्रताचरण आरंभ कर देना चाहिये। केशकर्तन का तात्पर्य है कि गृहस्थों के अनावश्यक रूप से क्षौरकर्म निषिद्ध होता है। पवित्र स्नान का तात्पर्य है गंगा आदि स्नान करे और पूजा हेतु पार्यप्त जल संग्रह करे। मध्याह्न में (आधा दिन बीतने के बाद) जो भोजन किया जाता है उसे एकभुक्त कहा जाता है।
  • संपूर्ण नवरात्र में सत्य का व्रत अनिवार्य रूप से धारण करना चाहिये। नवरात्र कहने का तात्पर्य है कि अन्य दिनों में सामान्य जनों के द्वारा असत्य संभाषण प्रवृत्ति हो गयी है।
  • पापियों/नास्तिकों से दूर रहें : वर्त्तमान युग में यत्र-तत्र-सर्वत्र पापी और नास्तिक जन मिलते हैं। व्रतादि में पापियों से संभाषण, दर्शन का भी निषेध होता है अतः उनसे दूर रहे, सद्भाव बढ़ाने के नाम पर पापियों और नास्तिकों से संपर्क स्थापित न करे क्योंकि ऐसा देखा जा रहा है सद्भावना को लेकर पापियों/नास्तिकों को भी सहभागी तक बना लिया जाता है, फोटो सेशन करके सबसे आरती आदि कराई जाती है।
  • व्रती को नित्यकर्म धारण करना चाहिये यदि न आता हो तो सीखना चाहिये। प्रतिदिन न भी करता हो तो कम-से-कम नवरात्र आदि में तो करना ही चाहिये। नित्यकर्म किये बिना नैमित्तिक कर्मादि में अधिकार की प्राप्ति ही नहीं होती।
  • सामान्य जीवनचर्या का त्याग कर देना चाहिये, भूशायी हो जाना चाहिये। सामान्य जीवनचर्या में अनेकानेक पाप स्वाभाविक रूप से होते ही रहते हैं, और या तो व्रत/उपासना करे या सामान्य जीवनचर्या/व्यापार/वृत्ति आदि कोई एक ही संभव है।
  • जिसका कार्य बहुत ही महत्वपूर्ण हो और नवरात्र में कार्य से विरत होना संभव न हो, जैसे कि चिकित्सक वो पूजा/पाठ आदि अन्य व्यक्ति को प्रतिनिधि बनाकर करे, स्वयं उपवास आदि का ही पालन करे।
  • मोबाइल-टीवी-पत्र-पत्रिकादि की दूषित सामग्रियां व्रतभंग करने के लिये पर्याप्त होती है, अतः व्रती इन गतिविधियों का परित्याग करे।
व्रत के नियम और विधान

भविष्यपुराण में व्रत के दश नियम जो बताये गये हैं वो इस प्रकार हैं : क्षमासत्यं दयादानं शौचमिन्द्रियनिग्रहः। देवपूजाग्नि हवनं संतोषःस्तेयवर्जनं॥ 1. क्षमा, 2. सत्य, 3. दया, 4. दान, 5. शौच, 6. इन्द्रियनिग्रह, 7. देवता की पूजा, 8. अग्नि में हवन, 9. संतोष और 10. स्तेयवर्जन (चोरी का त्याग) ये 10 सामान्य धर्माचरण हैं जो सभी व्रतों के संदर्भ में कहे गये हैं। किन्तु उल्टी गंगा देखिये बहुत लोग व्रत के दिन दान की वर्जना करने लगे हैं। मोबाइल, टीवी, पत्र-पत्रिकादि साधन वर्तमान कालिक होने से वर्त्तमान में निषिद्ध होने वाले विषय हैं। इनपर उपलब्ध सामग्रियां मन को दूषित करती हैं।

प्रथम दिन की पूजा

प्रथम दिन की पूजा में मुख्य कर्म संकल्प, कलशस्थापन और देवताओं का आवाहन ये तीन हैं जो अन्य दिनों नहीं किये जाते हैं। इसके अतिरिक्त अन्य पूजा विधि जो है वो सभी दिनों के लिये है। नित्यकर्म संपन्न करके पूजा स्थान पर जाकर स्वस्तिवाचनपूर्वक संकल्प करे। यदि अन्य व्यक्ति के माध्यम से पूजन पाठ आदि करवाना हो तो उसका वरण करे। तत्पश्चात वेदी पर यववपन करके प्रधानकलश स्थापित करे। साथ ही प्रधान वेदी के चारों कोणों में धान्यपुंज पर चार अन्य कलश स्थापित करके देवताओं का आवाहन पूजन करे। दुर्गा पूजन करके, दशदिक्पाल, नवग्रह का पूजन करे।

पूजनोपरांत जप, पाठ, हवन आदि करे, ब्राह्मण भोजन कराये। जो नियम ग्रहण किया हो एकभुक्त, नक्त, अयाचित तदनुसार ग्रहण करे। पुनः सायंकाल पंचोपचार पूजन करके आरती, पुष्पांजलि, स्तुति आदि करे, नित्य इसी प्रकार करे।

द्वितीय दिन की (द्वितीया) पूजा

प्रथम दिन की भांति ही द्वितीयादि दिनों में पूजन करे। द्वितीया को राजा के लिये विशेष पूजन की विधि है अश्वसहित रेमन्त पूजा। रेमन्त पूजा द्वितीया को आरंभ करे और नवमी पर्यन्त प्रतिदिन करे।

द्वितीया से पंचमी पर्यन्त प्रतिपदा की भांति ही पूजन करना चाहिये किन्तु आवाहन के बिना। संधि पूजा आदि का भी विधान पाया जाता है अतः जिन्हें संधिपूजा, नवदुर्गा पूजा करनी हो वो तदनुसार करे।

षष्ठी पूजा

जिस प्रकार द्वितीया को रेमन्त पूजा का विधान है, उसी प्रकार षष्ठी को गजपुजा का विधान है किन्तु गजपूजा भी राजाओं से संबंधित है जिनके पास गज हो। षष्ठी से आरंभ करके नवमी पर्यन्त गजपूजा करे।

षष्ठी तिथि को एक अन्य विशेष विधान भी है बिल्वाभिमन्त्रण। षष्ठी को सायंकाल में युगलबिल्व को सप्तमी के दिन पूजन हेतु निमंत्रित किया जाता है जिसे बिल्वाभिमन्त्रण कहा जाता है। बिल्वाभिमन्त्रण की आवश्यकता विशेष पूजा में होती है जो मंदिरों में किया जाता है। यद्यपि घरों में पूजा करे तो इसका निषेध है ऐसी कोई बात नहीं है, तथापि घरों में सामान्य विधि से पूजा की जाती है और बिल्वाभिमन्त्रण नहीं किया जाता है।

महासप्तमी पूजा

सप्तमी के दिन दो प्रकार की विशेष पूजा की जाती है। सर्वप्रथम तो निमंत्रित युगल-बिल्ब को प्रातः काल लाया जाता है, इसके साथ ही नवपत्रिका स्थापन पूजन किया जाता है। यहां तक की विधि घरों में करे या न करे इसको लेकर दुविधा रहती है। किन्तु नवपत्रिका स्थापन तक की विधि घरों में न करने संबंधी प्रमाण अनुपलब्ध होने से निषेध नहीं कहा जा सकता, तथापि प्रतिमा होने पर युगल-बिल्व और नवपत्रिका संबंधी पूजा का विधान है अतः घरों में उपरोक्त पूजा की आवश्यकता सिद्ध नहीं होती।

महासप्तमी पूजा में दूसरी पूजा प्रतिमाओं की प्राण-प्रतिष्ठा आदि करके की जाती है, इसके साथ ही कुमारी पूजन, बलिदान आदि कृत्य भी करना चाहिये। कुमारी पूजा से संबंधित चर्चा पूर्व में ही की जा चुकी है।

दुर्गा पूजा : पत्रिकाप्रवेश विधि, महासप्तमी पूजा

महासप्तमी को प्रतिमा की प्राणप्रतिष्ठा की जाती और तीन दिन का विशेष उत्सव होता है। सप्तमी, अष्टमी और नवमी ये तीन तिथियां महासप्तमी, महाष्टमी, महानवमी कही जाती है अर्थात इन तीनों दिन भगवती की विशेष पूजा-अराधना होती है। एक विशेष बात यह भी है की उपरोक्त सभी कृत्य बिल्वानयन, पत्रिकाप्रवेश, नेत्रोन्मीलन, पट-अपसारण (पट खोलना), प्रतिमाओं की प्राणप्रतिष्ठा और पूजा, कुमारी कन्या पूजन, छाग बलि अथवा कुष्मांड बलि सभी प्रातः काल के ही हैं। महासप्तमी के रात्रीकृत्य में शिवाबलि की विधि का वर्णन मिलता है।

महाष्टमी पूजा – निशापूजा, जगरना, देवीजागरण

अष्टमी को महाष्टमी कहा जाता है, अष्टमी को भगवती की पुनः विशेष पूजा होती है। प्रातः कालिक पूजा के अतिरिक्त यह विशेष पूजा निशा (निशीथकाल) में की जाती है इसलिये इसे निशापूजा, महानिशपूजा, देवीजागरण, जगरना आदि नामों से भी जाना जाता है। निशापूजा के लिये एक विधान यह है कि निशीथकालीन अष्टमी में करे और अधिकांश वर्षों में क्योंकि निशीथव्यापिनी अष्टमी, सप्तमी के दिन ही उपलब्ध होती है इस कारण अधिकांशतः महासप्तमी के दिन ही निशापूजा भी की जाती है। किन्तु महाष्टमी व्रत अगले दिन होता है।

महाष्टमी पूजा, निशापूजा विधि, देवी जागरण

अष्टमी को महाष्टमी कहा जाता है, अष्टमी को भगवती की पुनः विशेष पूजा होती है। प्रातः कालिक पूजा के अतिरिक्त यह विशेष पूजा निशा (निशीथकाल) में की जाती है इसलिये इसे निशापूजा, महानिशपूजा, देवीजागरण, जगरना आदि नामों से भी जाना जाता है।

प्रायः महासप्तमी पूजा और महाष्टमी-निशा पूजा एक ही दिन होने से ऐसा भी देखा जाता दोनों पूजा रात्र में ही की जाती है और रात्रि में ही पट खोले जाते हैं। यद्यपि यह पूर्व ही स्पष्ट किया जा चुका है कि पट नेत्रोन्मीलन के साथ ही खुलना चाहिये तथापि व्यवहारतः बहुत जगह पूजा के उपरांत पट खोला जाता है, तो कुछ जगहों पर जो दुराग्रही होते हैं वो अगले दिन अष्टमी समाप्त होने के उपरांत भी खोलते हैं, तथापि ऐसे दुराग्रही अत्यल्प ही हैं।

निशापूजा में स्मरण, कीर्तन, दर्शन, वंदन करके पूजन किया जाता है। पूजन में विशेष सामग्रियों से विशेष उपचार किया जाता है। 56 भोग लगाये जाते हैं। आवरण, अंग आदि पूजा किया जाता है। इससे भी स्पष्ट हो जाता है कि अष्टमी में तो दर्शन सिद्ध होता ही है, अष्टमी में दर्शन का तात्पर्य है पूर्व ही पट खोला गया हो। दर्शन का तात्पर्य मात्र व्रती के द्वारा दर्शन नहीं है, सभी सहयोगियों का दर्शन करना भी हो जाता है।

इसलिये जिनको भी ये भ्रम है कि पट निशापूजा के उपरांत खुलना चाहिये वो इस भ्रम का निवारण कर लें, पट सप्तमी में ही खुलना सिद्ध होता है, यदि सप्तमी में न भी खुल पाये तो निशापूजा से पूर्व ही खुले। जो लोग अष्टमी समाप्ति के उपरांत नवमी में पट खोलते हैं वो तो पूजा में सहयोग करने वालों के प्रति ही अन्याय करते हैं क्योंकि अष्टमी दर्शन के पुण्य से उन्हें वंचित कर देते हैं।

जगरना या देवी जागरण के संबंध में भी अनेकानेक तथ्य हैं जो जानना-समझना अपेक्षित है :

  • जगरना या देवी जागरण का तात्पर्य बहुत लोग देवी को जगाना या विभिन्न वस्तुओं को जगाना (चौरठ छींटकर) समझते हैं जो कि उचित नहीं है।
  • जगरना या देवी जागरण का तात्पर्य रात में स्वयं जगकर निशापूजा करना है।
  • चौरठ चौक पूरने, अष्टदलादि निर्माणार्थ उपयोग होने की वस्तु है।

महानवमी पूजा

महानवमी अर्थात नवमी तिथि को त्रिशूलिनी पूजा का विधान है। इसके साथ ही हवन भी नवमी को ही किया जाता है। नवमी तिथि को बलिदान से भी संबोधित किया जाता है। नवमी में जहां बलि दी जाती है वहां विशेष बलि भी प्रदान किया जाता है। बलि प्रदान के संदर्भ में यह चिंताजनक है कि एक तो विधर्मी सनातन को नष्ट-भ्रष्ट करने को आतुर हैं और दूसरे वैष्णव संप्रदाय भी सीमा का अतिक्रमण करते हुये शाक्तों-शैवों का वैष्णवीकरण करने के लिये बलिदान के घनघोर विरोधी बने हुये हैं। अपने धर्म का पालन करें या न करें जिन-जिन मंदिरों में बलि दिया जाता है सर्वत्र विवाद उत्पन्न कर रहे हैं।

बलि प्रथा एक अभिशाप क्यों

महानवमी के दिन छाग बलि ही नहीं जिसके लिये संभव होता है वो महिष बलि भी अर्पित करते हैं। जहां कहीं भी बलि अर्पित किया जाता है वहां यदि ये रोकने वाले आयें तो इनसे ये कहना चाहिये कि ये बलि तो वर्ष में एक बार दी जा रही है, सड़कों के किनारे जो प्रतिदिन टांगा जाता है उसमें जीवहत्या नहीं होती है क्या ?

कभी उसे रोकने का प्रयास किया है ? कितनी जगहों पर टांगने से रोका ?

यदि सीधे-सीधे न माने तो चुन-चुन कर ऐसे लोगों पर धार्मिक भावना आहत करने का वाद चलाया जाना चाहिये। धर्माचरण को बाधित करने का वाद लगाया जाना चाहिये। ये लोग ऐसे नहीं सुधरने वाले हैं। इन्हें वैष्णव कहने और मानने की भूल तो करनी ही नहीं चाहिये ये उन्हीं असुरों के अंश हैं जिनकी कथा पुराणों में सुनी जाती है कि यज्ञ में विघ्न करते थे।

हवन : बात जब नवरात्रा के हवन की आती है तो घरों में करने वाले लोगों का तो प्रश्न ही नहीं उत्पन्न होता लाखों रुपये मात्र पंडाल में खर्च करने वाली समितियां भी अपने मंदिरों में हवन नहीं कराते। येन-केन-प्रकारेण जो आग जलाकर हुआ-हुआ (स्वाहा-स्वाहा) करते हैं उसका नाम हवन नहीं है और इस प्रकार हवन के नाम पर कुछ जलाने से अच्छा तो यही होता कि ये न करें। ऐसे हवन की आहुति देवता ग्रहण ही नहीं करते हैं वो असुरादि ही ले जाते हैं।

हवन करने की विधि एवं मंत्र – संपूर्ण हवन विधि मंत्र – havan vidhi

हवन कर्मकांड का वो भाग है जिसे करने से पहले जानना और समझना आवश्यक होता है। हवन से सम्बंधित विस्तृत चर्चा हवन विधि में की गयी है।

विजयादशमी

विजयादशमी को यथोपचार पूजन करके विसर्जन, जयंतीधारण, अपराजिता पूजन आदि किया जाता है।

विसर्जन और शास्त्र का उल्लंघन : शास्त्र उल्लंघन की कितनी प्रवृत्ति है यह सामूहिक रूप से दुर्गा पूजा (नवरात्रि) में प्रकट हो जाता है। यह स्पष्ट आज्ञा है कि प्रतिपदा को कलश स्थापित करके व्रत आरंभ करे, षष्ठी को बिल्वाभिमन्त्रण करे, सप्तमी को युग्म बिल्व और पत्रिका प्रवेश व पूजन करके नेत्रोन्मीलन करे और (पट खोलकर) प्राणप्रतिष्ठा करके पूजा करे। अष्टमी को महानिशापूजा करे, नवमी को त्रिशूलिनी पूजा व हवन करे और दशमी को विसर्जन करे। किन्तु विसर्जन में पूर्णरूप से शास्त्राज्ञा का उल्लंघन दिखता है।

दशमी को विसर्जन करे तो इसमें कुछ भी अन्य विचार करने की आवश्यकता नहीं है। वैसे यदि प्रशस्त नक्षत्र भी प्राप्त हो तो उत्तम होता है नक्षत्र के विषय में कहा गया है : “मूलेनावाहयेद्देवीं श्रवणेन विसर्जयेत्” किन्तु नक्षत्र विचार प्रधान नहीं है, प्रधान तिथिविचार ही है। एक तथ्य यह भी है कि श्रवण के पश्चात् धनिष्ठा से पंचकारम्भ भी होता है।

अधिकांश जगहों पर ही नहीं लगभग सभी जगहों पर यही देखा जाता है कि विसर्जन एक-दो दिन पश्चात् किया जाता है। बहाना मेला का बनाया जाता है, भाई मेला लगाते हो या नवरात्र करते हो। रही बात मेले की तो पट समय से खोलो मेला भी दो दिन का हो ही जायेगा और कितना मेला चाहिये ? ऐसी स्थिति में प्रशासन यदि शीघ्र विसर्जन के दबाव बनाता है तो पूर्णरूपेण उचित है। प्रशासन को इस लिये कदापि दोषी नहीं मानना चाहिये कि वो शीघ्र विसर्जन का दबाव बनाता है अपितु दोषी सभी समितियों और करने वालों को समझा जाना चाहिये जो विसर्जन विहित काल में नहीं करते हैं।

दुर्गा आगमन विचार

  • दुर्गाऽऽगमनयानविचार : शशिसूर्ये गजारूढा शनिभौमे तुरङ्गमे। गुरौ शुक्रे च दोलायां बुधे नौका प्रकीर्त्तिता ॥
  • आगमन फल : गजे व जलदा देवी क्षत्रभङ्गस्तुरङ्गमे। नौकायां सर्वसिद्धिः स्याद्दोलायां मरणं ध्रुवम्॥

शारदीय नवरात्रि 2025 का आरम्भ सोमवार को होता है अर्थात सोमवार के दिन कलशस्थापन होने से उसी दिन के आधार पर आगमन विचार किया जायेगा। शशिसूर्ये गजारूढा अर्थात प्रतिपदा यदि रविवार या सोमवार को हो तो गज पर दुर्गा आगमन मानना चाहिये और इसका फल इस प्रकार कहा गया है गजे व जलदा देवी अर्थात गज पर आगमन होने से जलदा होती है।

देवी गमनयान विचार

शशिसूर्यदिने यदि सा विजया महिषागमने रुजशोककरा।
शनिभौमदिने यदि सा विजया चरणायुधयानकरी विकला ॥
बुधशुक्रदिने यदि सा विजया गजवाहनगा शुभवृष्टिकरा।
सुरराजगुरौ यदि सा विजया नरवाहनगा शुभसौख्यकरा ॥

दुर्गा गमन विचार : शारदीय नवरात्रि 2025 में विजयादशमी गुरुवार को है। दुर्गा गमन विचार विजयादशमी को जो दिन हो उसके आधार पर किया जाता है। सुरराजगुरौ यदि सा विजया नरवाहनगा शुभसौख्यकरा – गुरुवार को विजयादशमी हो तो नरवाहन (दोली/पालकी) पर दुर्गा गमन होता है और इसका फल शुभसौख्य होता है। अतः शारदीय नवरात्रि 2025 में दुर्गा गमन भी शुभ ही है।

दुर्गा पाठ का महत्त्व

यथाश्वमेधः क्रतुराड् देवानां च यथा हरिः। स्तवानामपि सर्वेषां तथा सप्तशतीस्तवः ॥
चण्ड्याः शतावृत्तिपाठात् सर्वाः सिद्धयन्ति सिद्धयः ॥

जैसे यज्ञों में अश्वमेध यज्ञ, देवताओं में भगवान विष्णु प्रधान हैं उसी प्रकार सभी स्तोत्रों में सप्तशती प्रधान है। शतचंडी करने से सभी कामनायें सिद्ध होती है।

हिन्दी में दुर्गापाठ करना

संस्कृत देववाणी है और स्तोत्रादि पाठ का जो फल कहा गया है वह संस्कृत पाठ में ही है, हिन्दी या अन्य भाषानुवादों में पढ़ने से नहीं। एक विशेषता तो अवश्य है कि हिन्दी में पढ़ने से मन में तदनुसार भाव तो प्रकट होते ही हैं, व नामोच्चारण भी होता ही है। नामोच्चारण का फल तो होगा ही। किन्तु हिन्दी में पढ़ने से पाठ संबंधी फल की सिद्धि कदापि नहीं होती है।

नवरात्र में अशौच की प्राप्ति

यदि नवरात्र आरंभ होने से पूर्व ही अशौच हो जाये तो उपवासादि विधि का पालन करे किन्तु पूजा आदि कर्म न करे, यदि प्रबल इच्छा हो तो किसी अन्य के माध्यम से कराये। यदि आरंभ करने के उपरांत अशौच हो तो वह मान्य नहीं होता। किन्तु एक बात का स्मरण रखना चाहिये कि अन्य व्यक्तियों जिनको अशौच हो उनसे संसर्ग न करे। यद्यपि नवरात्र में सूतक हेतु एक विशेष वचन भी सर्वत्र पाया जाता है जो निषेध संबंधी नियमों को नवरात्र में पालनीय नहीं कहता तथापि उसे मान्यता नहीं दी गयी है। अशौचादि की स्थिति में सामान्य अशौच नियमों का ही पालन किया जाता है।

व्रतयज्ञविवाहेषु श्राद्धेहोमार्चनेजपे। आरब्धे सूतकं न स्यादनारब्धे तु सूतकम्।
प्रारम्भोवरणं यज्ञे संकल्पोव्रतसत्रयोः। नान्दीश्राद्धंविवाहादौ श्राद्धेपाकपरिक्रिया॥

संकल्प प्रयोग

स्वयं पाठ करने का संकल्प : ॐ अद्यैतस्य ……. मासानांमासोत्तमे आश्विनेमासे शुक्लेपक्षे प्रतिपदायांतिथौ ……. वासरे ……. गोत्रस्य …… मम श्री ……. शर्मणः (वर्मणः/गुप्तः) सपरिवारस्य सकलदुष्कृतिनिवृत्ति-दुष्कृतोत्थसमस्तापच्छून्यत्व दीर्घायु शरीरारोग्य कामनया धन-धान्य-बल-पुष्टि-कीर्ति-यश लाभार्थं सर्वाऽरिष्ट निवारणार्थं सकल मनोरथ सिद्ध्यर्थं सदायुद्धविजयकामः अद्यारभ्य नवमीपर्यन्तं मार्कण्डेय पुराणान्तर्गत “मार्कण्डेय उवाच सावर्णिः सूर्यतनय” इत्यारभ्य “सावर्णिर्भविता मनुः” पर्यन्तं देवी माहात्म्यं पाठमहं करिष्ये॥

अन्य पाठक के निमित्त संकल्प : ॐ अद्यैतस्य ……. शर्मणः (वर्मणः/गुप्तः) सपरिवारस्य सर्वबाधाप्रशमन सकलदुष्कृतिनिवृत्ति-दुष्कृतोत्थसमस्तापच्छून्यत्व दारिद्र्यानुत्पत्तीष्टवियोगराहित्य सार्वदिक शत्रु-दस्युराज-शस्त्राऽनलतोयौघहेतुक भयाभाव महामारी समुद्भवाऽशेषोपसर्ग त्रिविधोत्पातशमन सतत श्री दुर्गासांनिध्य धन-धान्य-सुतान्वितत्व युद्ध पराक्रम निर्भयत्व भवन सकल रिपुक्षय कल्याणोत्पत्ति स्वकुलानन्द दारुणग्रहपीडाशान्ति सर्वसङ्कटविमुक्ति स्वावधिकहिंसादि-दस्युवैरिदूरपलायन कामोऽद्यारभ्य नवमीपर्यन्तं मार्कण्डेय पुराणान्तर्गत “मार्कण्डेय उवाच सावर्णिः सूर्यतनय” इत्यारभ्य “सावर्णिर्भविता मनुः” पर्यन्तं देवी माहात्म्यं ब्राह्मणद्वारा अहंपाठयिष्ये॥

कर्मकांड विधि में शास्त्रोक्त प्रमाणों के साथ प्रामाणिक चर्चा की जाती है एवं कई महत्वपूर्ण विषयों की चर्चा पूर्व भी की जा चुकी है। तथापि सनातनद्रोही उचित तथ्य को जनसामान्य तक पहुंचने में अवरोध उत्पन्न करते हैं। एक बड़ा वैश्विक समूह है जो सनातन विरोध की बातों को प्रचारित करता है। गूगल भी उसी समूह का सहयोग करते पाया जा रहा है अतः जनसामान्य तक उचित बातों को जनसामान्य ही पहुंचा सकता है इसके लिये आपको भी अधिकतम लोगों से साझा करने की आवश्यकता है।

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