रामचरित मानस एक महान कृति है जो लोगों को भक्ति, नीति और जीवन जीने का तरीका सिखाता है। यह ग्रंथ भारतीय संस्कृति और मूल्यों का प्रतिनिधित्व करता है। रामचरित मानस का भारतीय समाज पर गहरा प्रभाव पड़ा है। यह ग्रंथ लोगों के जीवन का एक अभिन्न अंग बन गया है। एक प्रसिद्ध चौपाई बहुत चर्चा में रहती है – “करम प्रधान विश्व करि राखा”
लेकिन इसके चर्चा में रहने का मुख्य कारण वास्तविक अर्थ नहीं होता, इसको कथावक्ताओं से अधिक वे लोग जपते हैं जिनकी भगवान राम में आस्था ही नहीं होती, जो सनातन के शत्रु हैं, और इसका वो अनर्थ करके जनमानस को भ्रमित करते हैं जो कि कुतर्क मात्र होता है और निर्लज्ज तो इतने होते हैं कि निष्कर्ष तक पहुंचना ही नहीं चाहते केवल हंगामा खड़ा करते हैं।
करम प्रधान विश्व करि राखा का मूल तात्पर्य क्या है ?
सत्ता लोलुपों और सनातन विरोधी मीडिया, फिल्मों ने देश में आज एक ऐसे वातावरण का निर्माण कर दिया है कि बड़े-बड़े कथा वक्ता भी जनमानस को भ्रमित होने से बचा नहीं पाते, बल्कि शास्त्र के वचनों का सही अर्थ बताने में भी संकोच करते हैं। हम वास्तविक अर्थ को समझने का प्रयास करेंगे और जब हम वास्तविक अर्थ को समझेंगे तो कुतर्कों का खंडन भी करेंगे।
राम चरित मानस के एक चौपाई का एक पाद है “करम प्रधान विश्व करि राखा” यह पूरी चौपाई नहीं है। और सनातन विरोधी पूरी चौपाई इसलिये नहीं लेते कि पूरी चौपाई से अनर्थ नहीं लगाया जा सकता, मात्र एक पाद को लेकर ही अनर्थ और कुतर्क किया जा सकता है। इस एक पाद को लेकर जो कुतर्क किया जाता है वो है “कर्म से वर्ण का निर्धारण और जन्मना वर्ण सिद्धांत का खंडन।”

कुतर्क करने वाले निष्कर्ष तक जाना नहीं चाहते इसलिये केवल हंगामा करते हैं, जबकि नियमानुसार यदि किसी प्रकार की शंका है तो उसका निवारण करने के लिये निष्कर्ष तक पहुंचना आवश्यक होता है। विद्वानों के द्वारा निष्कर्ष तक पहुंचा जा सकता है लेकिन यदि निष्कर्ष तक यदि पहुंच जायें तो फिर इन सनातन विरोधियों की राजनीति और षडयंत्र का क्या होगा ?
पूरी चौपाई (अर्धाली) :
कर्म प्रधान विश्व रचि राखा । जो जस करइ सो तस फलु चाखा ॥ पूरी चौपाई न सही, कम से कम अर्धाली ही पूरी ले लो । ये अयोध्या कांड का २१८/२ है।
वास्तविक अर्थ : सम्पूर्ण विश्व कर्मप्रधान है और जो जैसा कर्म करता है वैसा ही फल भी प्राप्त करता है।
इस पूरी चौपाई के वास्तविक अर्थ में वर्ण का कोई उल्लेख ही नहीं आता कि कर्म से वर्ण प्राप्ति होती है। यह चौपाई कर्म और फल का संबंध प्रकट करता है कर्म और वर्ण का नहीं। फिर जो व्यक्ति इस एक पाद का उल्लेख करके हंगामा करते हुये कर्म से वर्ण का अनर्थ करता है उसे :
- सत्ता लोलुप क्यों नहीं माना जाय ?
- उसे सनातन द्रोही क्यों नहीं माना जाय ?
- उसे षडयंत्रकारी क्यों नहीं माना जाय ?
और यदि अनर्थ करने वाले सत्ता लोलुप, सनातन द्रोही, षड्यंत्रकारी नहीं हैं तो उन्हें इसका निष्कर्ष निकालने के लिये इस पर विस्तृत शास्त्रार्थ कराना चाहिये। यदि उन तत्वों को अर्थ के सबंध में शंका है तो शंका निवारण के लिये विद्वानों से प्रश्न करना चाहिये, छोटे-बड़े सभी स्तरों पर विस्तृत विमर्श करना चाहिये। क्यों नहीं करते ?
“कर्म प्रधान विश्व करि राखा” गोस्वामी तुलसीदास जी की रचना “रामचरितमानस” की पंक्ति है। यह पंक्ति भारतीय संस्कृति और दर्शन का सार दर्शाती है, कर्म के महत्व पर प्रकाश डालती है और जीवन में कर्म की प्रधानता को दर्शाती है।
- कर्म का महत्व :
इस चौपाई में कर्म को जीवन का आधार बताया गया है। कर्म ही मनुष्य के जीवन को गति प्रदान करते हैं और उसे सफलता की ओर ले जाते हैं। कर्म ही मनुष्य के चरित्र का निर्माण करते हैं और उसे अच्छे या बुरे फल प्रदान करते हैं। क कर्म का जीवन में बहुत महत्व है। कर्म के बिना मनुष्य जीवन निरर्थक है। कर्म के द्वारा ही व्यक्ति अपने लक्ष्यों को प्राप्त कर सकता है।
- कर्मफल का सिद्धांत:
इस चौपाई में कर्म के अनुसार फल प्राप्ति की बात भी कही गई है। यदि मनुष्य अच्छे कर्म करता है तो उसे अच्छे फल प्राप्त होते हैं, और यदि वह बुरे कर्म करता है तो उसे बुरे फल प्राप्त होते हैं। कर्म और फल का संबंध अटूट है। जो व्यक्ति जैसा कर्म करता है, उसे वैसा ही फल प्राप्त होता है। यह सत्य सनातन काल से चला आ रहा है।
- कर्म और भाग्य:
इस चौपाई में भाग्य की भूमिका को नकारा नहीं गया है। कर्म और भाग्य का संबंध भी महत्वपूर्ण है। भाग्य मनुष्य के पूर्वजन्मों के कर्मों का परिणाम होता है। भाग्य मनुष्य के जीवन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। कुछ लोग कर्म को भाग्य से अधिक महत्वपूर्ण मानते हैं, जो कि गलत है जब पूर्वकृत कर्म ही भाग्य में परिवर्तित होता है, अर्थात कर्मरूपी बीज से उगने वाले वृक्ष का फल है तो भाग्य का महत्व कम कैसे हो सकता है क्योंकि भाग्य रूपी फल में पुनः कर्मरूपी बीज तो वास करता ही है। अतः कर्म और भाग्य दोनों एक दूसरे के पूरक हैं, अन्योन्याश्रित हैं और एक ही सिक्के के दो पहलू हैं, एक ही नदी के दो किनारे हैं।
भाग्य में जो लिखा होता है, वह निश्चित रूप से होता है। लेकिन कुछ लोग ऐसा भी कहते हैं कि कर्म के द्वारा मनुष्य अपने भाग्य को बदल सकता है, यह भी असत्य है। कर्म के द्वारा भाग्य (कर्मफल या प्रारब्ध) का निर्माण होता है पूर्व निर्मित भाग्य का परिवर्तन नहीं। भाग्य वह है जो हमारे नियंत्रण से बाहर होता है, जबकि कर्म वह है जो हमारे नियंत्रण में होता है।
- कर्म का प्रकार:
कर्म मुख्य रूप से तीन प्रकार के होते हैं :
- सात्विक कर्म : ये कर्म निःस्वार्थ भाव से किए जाते हैं और इनका फल सुखद होता है।
- राजसिक कर्म : ये कर्म फल की इच्छा से किए जाते हैं और इनका फल मिश्रित होता है।
- तामसिक कर्म : ये कर्म अज्ञानता और अहंकार से किए जाते हैं और इनका फल दुःखद होता है।
प्रकारांतर से कई भेद होते हैं जिसमें से एक प्रकार द्वारा कर्म के दो भेद इस प्रकार होते हैं : सकाम कर्म और निष्काम कर्म।
- कर्म का फल :
इस चौपाई में कर्म के फल का उल्लेख किया गया है। इस चौपाई का भावार्थ यही है कि अच्छे कर्मों का फल सुख और समृद्धि होता है, बुरे कर्मों का फल दुख और विनाश होता है। साथ ही कर्महीन मनुष्य सब-कुछ संसार में उपलब्ध होते हुये भी कुछ नहीं पा सकते। अर्थात पूर्व कर्म का फल जिसे भाग्य भी कहा जाता है उसमें भी नये कर्म का बीज होता है। उदाहरण में कई बड़ी हस्तियों का नाम लिया तो जा सकता है किन्तु दो उदाहरण देने की आवशयकता होगी जिसमें से एक भाग्यशाली तो होगा किन्तु कर्महीन होगा और इस कारण आलेख को निंदा का शिकार होना पड़ेगा। अतः उदाहरण नहीं दिया जा सकता।
- आधुनिक जीवन में प्रासंगिकता :
यह चौपाई आज भी उतनी ही प्रासंगिक है जितनी कि यह सदियों पहले थी। आधुनिक जीवन में भी सफलता और सुख प्राप्त करने के लिए अच्छे कर्मों का महत्व कम नहीं हुआ है। कर्म के माध्यम से ही मनुष्य अपने जीवन में सफलता प्राप्त कर सकता है। कर्म से ही मनुष्य अपने देश और समाज का विकास कर सकता है। आज के भौतिकवादी युग में, जब लोग केवल सुख और समृद्धि की प्राप्ति के लिए चिंतित हैं, यह विचार हमें याद दिलाता है कि हमें अच्छे कर्म करने चाहिए और बुरे कर्मों से बचना चाहिए।
- कर्म और धर्म :
कर्म और धर्म का संबंध भी महत्वपूर्ण है। धर्म के अनुसार कर्म करना चाहिए। किसी भी कर्म को करने से पहले यह विचार अवश्य करना चाहिये कि धर्मसंगत है या नहीं। धर्मसंगत कर्म शुभफल देने वाला होता है तो धर्म के विरुद्ध के कर्म अशुभ फल दायी होते हैं।
- कर्म करते समय हमें अपनी क्षमता का आकलन करना चाहिए।
- हमें सदैव अपनी क्षमता के अनुसार कर्म करना चाहिए।
- हमें कर्म करते समय धैर्य रखना चाहिए।
- हमें कर्म करते समय ईश्वर पर विश्वास रखना चाहिए।
- कर्म करते समय फल की चिंता नहीं करनी चाहिए।
- कर्म हमेशा निष्काम भाव से करना चाहिए।
- कर्म करते समय दूसरों को हानि नहीं पहुंचानी चाहिए।
- कर्म करते समय धर्म का पालन करना चाहिए।
निष्कर्ष:
“करम प्रधान विश्व करि राखा” एक महत्वपूर्ण चौपाई है जो कर्म के महत्व को दर्शाती है। यह चौपाई मनुष्य को अच्छे कर्मों पर ध्यान देने और सफलता और सुख प्राप्त करने के लिए प्रेरित करती है। यह पंक्ति जीवन का एक महत्वपूर्ण सत्य है। इस पंक्ति को सदैव याद रखना चाहिए और कर्म करते रहना चाहिए। यह चौपाई मनुष्य को कर्म के महत्व, कर्मफल की अवधारणा, कर्म और भाग्य के बीच संबंध, नैतिकता और कर्म, सामाजिक न्याय, आत्म-सुधार और आत्म-विश्वास के बारे में शिक्षा देती है। यह चौपाई मनुष्य को अच्छे कर्मों पर ध्यान देने और सफलता और सुख प्राप्त करने के लिए प्रेरित करती है।
अनर्थ का खंडन :
उन्हीं लोगों के द्वारा ऐसा भी बताया जाता है कि आज के समय में, वर्ण व्यवस्था का उतना महत्व नहीं है जितना पहले था।
- फिर वर्ण व्यवस्था को अनुचित सिद्ध करने का प्रयास भी किया जाता है।
- जब महत्व नहीं है तो फिर वर्ण-व्यवस्था पर आघात क्यों किया जाता है ?
- और फिर कर्म से वर्ण व्यवस्था का निर्धारण करते हुये इसका औचित्य भी सिद्ध करते हैं।
- जब वर्ण व्यवस्था ही अनुचित है तो कर्म से वर्णवाद करके किस वर्ण-व्यवस्था का नियम सिद्ध करना चाहते हैं?
कई प्रकार के विरोधाभास उनके कुतर्कों और व्यवहारों में देखा जाता है। वो सत्तालोलुप समूह, षड्यंत्रकारी आदि अपने ही कुतर्कों के जाल में किस प्रकार फंसते हैं इसे इस प्रकार से समझा जा सकता है :
- आज के समय में वर्णव्यवस्था का महत्व नहीं है । इस कुतर्क का खंडन अगले कुतर्क से हो जाता है :
- वर्णव्यवस्था समानता के सिद्धांत के विरुद्ध है अतः समाप्त करना चाहिये। पुनः इस कुतर्क का खंडन अगले कुतर्क से हो जाता है :
- कर्म से वर्ण का निर्धारण होता है जो जैसा कर्म करेगा उसे उस वर्ण का माना जाय। पुनः ये कुतर्क पहले और दूसरे कुतर्क से खंडित होता है कि आज के समय में वर्ण व्यवस्था का कोई महत्व नहीं है, और वर्ण व्यवस्था समाप्त होनी चाहिये।
क्या ये सभी कुतर्क परस्पर विरोधी नहीं हैं ?
जो भी सनातन द्रोही और षड्यंत्रकारियों के कुतर्क हैं वो परस्पर ही एक-दूसरे का खंडन करते हैं। वर्ण व्यवस्था समाप्त भी होना चाहिये और वर्ण व्यवस्था जन्म से न होकर कर्म से होना चाहिये और वर्ण व्यवस्था का कोई महत्व भी नहीं है।
कर्म से वर्ण बदलने का कुतर्क :
आजकल, लोग अपनी योग्यता और क्षमता के अनुसार काम करते हैं। हालांकि, कर्म का महत्व आज भी उतना ही है जितना पहले था। अच्छे कर्मों द्वारा व्यक्ति सुख और समृद्धि प्राप्त कर सकता है। कर्म और वर्ण व्यवस्था एक दूसरे से जुड़े हुए हैं। वर्ण व्यवस्था का उद्देश्य यह सुनिश्चित करना है कि प्रत्येक व्यक्ति समाज में अपनी भूमिका निभाए।
किसी व्यक्ति के जन्म के समय उसका वर्ण निश्चित नहीं होता है। यदि कोई व्यक्ति अपने वर्ण के कर्म नहीं करता है, तो उसका वर्ण बदल सकता है। उदाहरण के लिए, यदि कोई ब्राह्मण वेदों का अध्ययन नहीं करता है और शिक्षा नहीं देता है, तो उसका वर्ण क्षत्रिय, वैश्य या शूद्र बन सकता है। यदि कोई ब्राह्मण कर्म नहीं करता है, तो वह क्षत्रिय, वैश्य या शूद्र बन सकता है। इसी प्रकार, यदि कोई क्षत्रिय, वैश्य या शूद्र कर्म करता है, तो वह ब्राह्मण बन सकता है।
कर्म से वर्ण बदलने का कुतर्कों का खंडन :
- किसी व्यक्ति के जन्म के समय उसका वर्ण निश्चित नहीं होता है – यदि जन्म से वर्ण सिद्ध नहीं होता तो फिर जातक संस्कार, नामकरण, मुंडन, उपनयन आदि किस वर्ण को मानकर किया जायेगा ?
- यदि कोई व्यक्ति अपने वर्ण के कर्म नहीं करता है, तो उसका वर्ण बदल सकता है – यह गलत है, यदि कोई व्यक्ति अपने वर्णोचित कर्म नहीं करता तो उसका वर्ण परिवर्तन नहीं होता, वह पतित हो जाता है और प्रायश्चित्त करके पुनः पवित्र हो सकता है।
- व्यक्ति जिस प्रकार का कर्म करता है उसके कर्म के अनुसार उसका वर्ण होता है – यह भी गलत है व्यक्ति कोई भी कर्म नहीं कर सकता, किसी भी व्यक्ति को अपने वर्णोचित कर्म ही करना चाहिये अर्थात जिसका जन्म जिस वर्ण में हुआ है उसे उसी वर्ण का कर्म करना चाहिये।
- जन्मना जायते शूद्रः : सभी जन्म से शूद्र ही होते हैं – नहीं, जन्म से सभी शूद्रवत होते हैं अर्थात वेद में जन्म से किसी का अधिकार नहीं होता है।
- संस्काराद्विज उच्यते – संस्कार करने से द्विजत्व आता है – लेकिन जिसका जिस वर्ण में जन्म होता है उसके लिये उसी वर्ण के अनुसार संस्कार भी शास्त्रों में निर्धारित हैं। अर्थात ब्राह्मण के घर में जन्म लेने वाले बच्चे का ब्राह्मणोचित संस्कार होता है, इसी तरह क्षत्रिय, वैश्य का भी वर्णोचित संस्कार ही होता है अतः संस्कार से वर्ण नहीं बदलता, वेद में अधिकार सिद्धि होती है।
- सबसे बड़ी बात तो यही है कि उन षड्यंत्रकारियों के एक कुतर्क उनके अपने ही दूसरे कुतर्क से खंडित होते रहते हैं।
यदि कर्म से वर्ण निर्धारित होगा तो क्या-क्या समस्यायें होंगी ?
- पिता यदि दुकान चलाता है तो वह वैश्य होगा और पुत्र यदि कॉलेज में पढ़ता है तो वह ब्राह्मण होगा – भाई ये भी बताओ की फिर उस बच्चे का विवाह किस वर्ण की लड़की से किया जायेगा और किस वर्ण की विधि से किया जायेगा, पिता के वर्ण से या पुत्र के वर्ण से ? जब उसके माता पिता की मृत्यु होगी तो वह किस वर्ण की विधि से श्राद्ध करेगा ?
- लड़का यदि पुलिस या सेना में हो तो उसका वर्ण क्षत्रिय होगा और लड़की यदि चपरासी हो तो शूद्र वर्ण होगा – तो ये बताओ की विवाह किस वर्ण की विधि से होगा ? और अनुलोम-विलोम आदि दोषों का क्या होगा ?
- पति यदि ट्यूशन करता है तो उसका वर्ण ब्राह्मण होगा और पत्नी यदि पुलिस या सेना में है तो उसका वर्ण क्षत्रिय होगा – भई एक परिवार में एक वर्ण होगा या अनेकों वर्ण ?
- ऐसे पति-पत्नी के बच्चे का क्या वर्ण होगा – क्या वह वर्णशंकर नहीं होगा ? यदि वर्णशंकरों की वृद्धि होगी तो परिणाम नहीं जानते हो क्या जो गीता में भगवान श्रीकृष्ण ने बताया है ?
- फिर वह वर्णशंकर बच्चा आगे वर्णशंकर कैसे रहेगा ? क्योंकि कुछ न कुछ तो करेगा और उस कर्म के अनुसार अगला वर्ण हो जायेगा – फिर भगवान श्रीकृष्ण ने गीता में वर्णशंकर विषय में जो कुछ कहा है वो गलत है क्या ?
- चलो कोई व्यक्ति बीमार हो गया और कई महीनों तक उसने कुछ नहीं किया अस्पताल में भर्ती रहा; तो उसका क्या वर्ण होगा ?
- जो व्यक्ति बूढ़ा हो जाता है और कुछ भी नहीं करता खाट पर पड़ा रहता है उसका क्या वर्ण होगा ? जब उसकी मृत्यु होगी तो उसका श्राद्ध किस वर्ण के अनुसार होगा ?
- कुमारी कन्या भोजन में चारों वर्णों की कन्या के लिये अलग-अलग महत्व और फल बताया गया है। कुमारी कन्या का वर्ण निर्धारण कैसे किया जायेगा ?
यक्षप्रश्न इतने ही नहीं हैं, ढेरों हैं ? जिसका उत्तर तो तुम्हें देना ही चाहिये आखिर तुमको सिद्ध जो करना है कि कर्म से वर्ण होता है। जन्म से वर्ण और वर्ण से कर्म होना शास्त्रों में लिखा हुआ भी है और व्यवहार में प्रचलित भी है, भले ही शहरों में षड्यंत्रकारियों ने विकृत कर रखा हो किन्तु गांवों में है। इसे सिद्ध करने की आवश्यकता नहीं है।
- आप यदि जन्म से वर्ण और वर्ण से कर्म में विश्वास रखते हैं, वर्ण-व्यवस्था और शास्त्रों में विश्वास रखते हैं तो इन सभी कुतर्कियों से ये प्रश्न पूछिये और उत्तर मांगिये।
- यदि आपको उन कुतर्कियों और षड्यंत्रकारियों में भ्रमित कर रखा है तो भी अपनी संतुष्टि के लिये उनसे इन प्रश्नों का उत्तर मांगिये। और मौखिक उत्तर नहीं शास्त्रीय अर्थात प्रामाणिक उत्तर मांगिये।
- और यदि आप उन षड्यंत्रकारी कुतर्कियों में से हैं जिन्होंने जनमानस को भ्रमित कर रखा है, धर्म, धर्मशास्त्रों का मजाक बना रखे हैं तो प्रमाण के साथ उत्तर देकर कम-से-कम उन लोगों को अवश्य संतुष्ट कीजिये जिनको भ्रमित कर रखे हैं।
वर्ण व्यवस्था की उत्पत्ति के सिद्धांत – जन्म से या कर्म से