प्रत्येक मनुष्य पञ्चऋणी होता है जिसमें से मातृऋण से मुक्ति नहीं होता। लेकिन प्रयास सदैव करते रहना चाहिये और जिसके ऋणी रहें उसके प्रति विशेष उत्तरदायित्व भी होता है। मातृऋणी रहने के कारण माता के व्यक्ति का विशेष उत्तरदायित्व होता है। इसलिये तीर्थ यात्रा करने पर माता के लिये 16 पिण्ड दान करने की एक स्वतंत्र विधि मिलती है जो मात्र माता के निमित्त ही किया जाता है। तीर्थ यात्रा करने पर तीर्थ में श्राद्ध करने की विधि बताई गयी जिसमें से एक है मातृ षोडशी। यहां मातृ षोडशी के मंत्र दिये गये हैं जो तीर्थ यात्रा करने पर तीर्थ श्राद्ध के लिये विशेष उपयोगी है।
मातृ षोडशी विधि – matru shodashi
गया, गोदावरी और रेणुका तीर्थ में मातृ षोडशी का अत्यधिक महत्व होता है। अन्य तीर्थों में भी निषेध नहीं है अर्थात अन्य सभी तीर्थों में भी करना चाहिये लेकिन उपरोक्त तीन तीर्थों में विशेष रूप से करना चाहिये। मातृ षोडशी तीर्थ श्राद्ध की ही श्रेणी में आता है किन्तु यह पूर्व वर्णित तीर्थ श्राद्ध का न तो अंग है न ही उसके साथ किया जाता है।
मातृ षोडशी अलग से किया जाता है अतः अगले दिन करना चाहिये अर्थात तीर्थ श्राद्ध करने के बाद अगले दिन मातृ षोडशी करना समुचित प्रतीत होता है। समयाभाव होने पर एक दिन ही तीर्थ श्राद्ध और मातृ षोडशी दोनों किया जा सकता है क्योंकि तीर्थों में श्राद्ध हेतु श्राद्ध के सामान्य नियम प्रभावी नहीं होते अपितु तीर्थ श्राद्ध के लिये कुछ विशेष नियम होते हैं।
मातृ षोडशी श्राद्ध विधि के लिये कोई विशेष पद्धति अब तक नहीं देखी गयी है इसलिये यहां बताई गयी विधि विशेष रूप से लाभकारी सिद्ध हो सकती है। मातृ षोडशी के सम्बन्ध में आवाहन और पिण्ड दान के मंत्र श्लोक रूप में प्राप्त होते हैं। तदनुसार यहां मातृ षोडशी विधि बताई जा रही है।
मातृ षोडशी प्रयोग :
श्राद्ध भूमि पर जाकर सभी आवश्यक श्राद्ध सामग्री आस्तरित करके पवित्री धारण करते हुए श्राद्धारम्भ करे।
- पवित्रीधारण : ॐ पवित्रेस्थो वैष्णव्यो सवितुर्वः प्रसवऽउत्पुनाम्यच्छिद्रेण पवित्रेण सूर्यस्य रश्मिभिः । तस्य ते पवित्रपते पवित्रपूतस्य यत्कामः पुनेतच्छकेयम् ॥ इस मंत्र से पवित्रीधारण करे।
- आचमन : ॐ केशवाय नमः ॥ ॐ माधवाय नमः ॥ ॐ नारायणाय नमः ॥ मुख व हस्त मार्जन (२ बार) ॐ हृषिकेशाय नमः ॥
- पवित्रीकरण मंत्र : ॐ अपवित्र: पवित्रो वा सर्वावस्थाङ्गतोऽपि वा। य: स्मरेत् पुण्डरीकाक्षं स: बाह्याऽभंतर: शुचि:॥ ॐ पुण्डरीकाक्षः पुनातु ॥ हाथ में गंगाजल/जल लेकर इस मंत्र से शरीर और सभी वस्तुओं पर छिड़के ।
- आसन पवित्रीकरण मंत्र : ॐ पृथ्वि त्वया धृता लोका देवि त्वं विष्णुनाधृता। त्वं च धारय मां देवि पवित्रं कुरु चासनम्॥ इस मंत्र से आसन पर जल छिड़क कर आसनशुद्धि करें।
- शिखाबंधन : ॐ ब्रह्मवाक्य सहस्रेण शिववाक्य च । विष्णोर्नामसहस्रेण शिखाग्रन्थिं करोम्यहम् ॥ ॐ चिद्रूपिणि महामाये दिव्यतेजः समन्विते । तिष्ठ देवि शिखाबद्धे तेजोवृद्धिं कुरुष्व मे ॥
तीन बार प्राणायाम कर ले। सर्वप्रथम तर्पण कर ले फिर प्रणाम करके भगवान विष्णु का ध्यान करे :
शान्ताकारं भुजंगशयनं पद्मनाभं सुरेशं
विश्वाधारं गगन सदृशं मेघवर्णं शुभांगम् ।
लक्ष्मीकान्तं कमलनयनं योगिभिर्ध्यानगम्यं
वन्दे विष्णुं भवभयहरं सर्वलोकैकनाथम् ॥
श्राद्धारम्भे गयां ध्यात्वा ध्यात्वा देवं गदाधरम् । स्वपितॄन् मनसा ध्यात्वा ततः श्राद्धं समाचरेत्॥ – ॐ तीर्थभूम्यै नमः ॥ ॐ तीर्थदेवताभ्यो नमः ॥ ओं भगवत्यै गयायै नमः ॥ ॐ भगवते गदाधराय नमः ॥
भूतोत्सारण : ॐ नमो नमस्ते गोविन्द पुराणपुरुषोत्तम । इदं श्राद्धं हृषिकेश रक्षत्वं सर्वतो दिशः ॥
मातृ षोडशी संकल्प : तदुत्तर त्रिकुशा, तिल, जल, द्रव्य आदि संकल्प द्रव्य लेकर संकल्प करे : ॐ अद्य …….. मासे …….. पक्षे …….. तिथौ …….. वासरे …….. गोत्रस्य …….. शर्माऽहं/(वर्माऽहं/गुप्तोऽहं) मातृऋणमुक्तये …….. तीर्थप्राप्तिनिमित्तकं पिण्डदानमात्र मातृ षोडशी श्राद्धमहं करिष्ये ॥
तीन बार गायत्री जप करके पढ़ें – ॐ देवताभ्यः पितृभ्यश्च महायोगिभ्य एव च । नमः स्वाहायै स्वधायै नित्यमेव नमो नमः ॥३॥
तत्पश्चात दक्षिणाभिमुख-अपसव्य-पातितवामजानु होकर बालुकामयी दक्षिणप्लव पिण्ड वेदी बनाये। पिण्डवेदी एक हाथ लम्बा-चौड़ा और 4 अंगुल ऊँचा बनाये। तीर्थ जल देते हुए समतल और सुंदर बना ले। फिर अगले मंत्र से पिण्डवेदी को पञ्चगव्य से सिक्त करे :
ॐ अयोध्या मथुरा माया काशी काञ्ची अवन्तिका । पुरी द्वारावती चैव सप्तैता मोक्षदायिकाः ॥
उल्लेखन :- दर्भपिञ्जलि से पिण्डस्थान में प्रादेशमात्र, दक्षिणाग्र रेखा करे – ॐ अपहता ऽअसुरा रक्षा ᳪ सि वेदिषदः ॥ जितने वर्ग हेतु पिण्डदान करना हो उतनी रेखा करे। दर्भपिञ्जलि ईशान में त्याग दे।
अंगारभ्रमण :- प्रादेशप्रमाण रेखाओं पर थोड़ा अंगार रख कर कुश के मूल से भ्रमणपूर्वक चलाते हुए दक्षिण में गिरा दे – ॐ ये रूपाणि प्रतिमुञ्चमाना असुराः सन्तः स्वधया चरन्ति। परापुरो निपुरो ये भरंत्यग्निष्टांलोकात् प्रणुदात्यस्मात् ॥
फिर रेखा पर छिन्नमूल कुशास्तरण कर जल से सिक्त कर दे। पूर्वा० सव्य होकर तीन बार “ॐ देवताभ्यः” मंत्र पढ़े – ॐ देवताभ्यः पितृभ्यश्च महायोगिभ्य एव च । नमः स्वाहायै स्वधायै नित्यमेव नमो नमः ॥३॥
अवनेजन :- अपसव्य-दक्षिणाभिमुख हो देय पिण्ड संख्या के अनुसार पुटकों (दोनी) में तिल-जल-पुष्प-चंदन देकर क्रमशः एक-एक बायें हाथ में ले, दाहिने हाथ में मोड़ा, तिल जल लेकर आगे दिये गये मंत्रों से उत्सर्ग करके आसादित कुशाओं पर क्रमशः मूल, मध्य और अग्र भागों में पितृतीर्थ से दे : ॐ अद्य ……….. गोत्रे मातः ……….. देवी गायत्रीरूपा मातृषोडशीश्राद्धे षोडशपिण्डस्थानेषु अत्रावनेनिग्धवं ते स्वधा ॥
मातृ आवाहन : करबद्ध होकर आवाहन करे – आगर्भज्ञानपर्यन्तं पालितो यत्त्वया ह्यहम् । आवाह्यामि त्वां मातर्दर्भपृष्ठे तिलोदकैः ॥
पिण्डदान : अवनेजन देने के बाद तिल, घृत, मधु, शर्करा, दधि आदि मिश्रित करते हुये पिण्ड द्रव्य से 16 पिण्ड निर्माण कर ले। फिर मोटकहस्त होकर तिल-जल लेकर आगे दिये हुये प्रत्येक मंत्रों को पढ़ते हुये क्रमशः एक-एक करके पिण्ड उत्सर्ग करे और फिर दाहिने हाथ में लेकर पितृ तीर्थ से अवनेजन स्थान पर दे :
- गर्भे दुर्गमने दुःखं विषमे भूमिवर्त्मनि । तस्या निष्क्रमणार्थाय मातृपिण्डं ददाम्यहम् ॥१॥
- यावत्पुत्रो न भवति तावन्माताथ शोचते । तस्या निष्क्रमणार्थाय मातृपिण्डं ददाम्यहम् ॥२॥
- मासि मासि कृतं कष्टं वेदनाप्रसवेषु च । तस्या निष्क्रमणार्थाय मातृपिण्डं ददाम्यहम् ॥३ ॥
- यत्पूर्ण दशमे मासि चात्यन्तं मातृ-पीडनम् । तस्या निष्क्रमणार्थाय मातृपिण्डं ददाम्यहम् ॥४॥
- पद्भ्यां प्रजायते पुत्रो जनन्याः परिवेदनम् । तस्या निष्क्रमणार्थाय मातृपिण्डं ददाम्यहम् ॥५॥
- शैथिल्ये प्रसवे प्राप्ते माता विन्दति दुष्कृतम् । तस्या निष्क्रमणार्थाय मातृ-पिण्डं ददाम्यहम् ॥६॥
- पिबन्ती कटुद्रव्याणि क्वाथानि विविधानि च । तस्या निष्क्रमणार्थाय मातृपिण्डं ददाम्यहम् ॥७॥
- अग्निना शुष्कदेहा वै त्रिरात्रं पोषणेन च । तस्या निष्क्रमणार्थाय मातृपिण्डं ददाम्यहम् ॥८॥
- रात्रौ मूत्रपुरीषाभ्यां भिद्यन्ते मातृकर्मठाः । तस्या निष्क्रमणार्थाय मातृपिण्डं ददाम्यहम् ॥९॥
- दिवा रात्रौ च या माता ददाति निर्भरस्तनम् । तस्या निष्क्रमणार्थाय मातृपिण्डं ददाम्यहम् ॥१०॥
- माघे मासि निदाघे च शिशिरेऽत्यन्तदुःखिता । तस्या निष्क्रमणार्थाय मातृपिण्डं ददाम्यहम् ॥११॥
- क्षुधया विह्वले पुत्रे ह्यन्नं माता प्रयच्छति । तस्या निष्क्रमणार्थाय मातृपिण्डं ददाम्यहम् ॥१२॥
- पुत्रो व्याधिसमायुक्तो माता हा क्रन्दकारिणी । तस्या निष्क्रमणार्थाय मातृपिण्डं ददाम्यहम् ॥१३॥
- यमद्वारे महाघोरे पथि माता च शोर्चात । तस्या निष्क्रमणार्थाय मातृपिण्डं ददाम्यहम् ॥१४॥
- अल्पाहारस्य करिणी यावत्पुत्रश्च बालकः । तस्या निष्क्रमणार्थाय मातृपिण्डं ददाम्यहम् ॥१५॥
- गात्रभङ्गो भवेन्मातुः मृत्युरेव न संशयः । तस्या निष्क्रमणार्थाय मातृपिण्डं ददाम्यहम् ॥१६॥
पूर्वाभिमुख सव्य होकर आचमन करे। भगवान विष्णु का स्मरण करे ।
- फिर अपसव्य-दक्षिणाभिमुख होकर वामावर्त्त क्रम से मुख घुमाते हुये उत्तर तक श्वास (लम्बी सांस) ले – “ॐ अत्र मातर्मादयस्व यथाभाग मा वृषायस्व ॥”
- पुनः मुख वापस घुमाते हुये पश्चिम भाग तक ले जाये और श्वास त्याग दे – “ॐ अमीमदत माता यथाभाग मा वृषायिष्ट ॥”
प्रत्यवन :- तत्पश्चात क्रमशः अवनेजन के एक पुटक में प्रत्यवनेजन बनाकर मोटक-तिल-जल लेकर अग्रांकित मंत्र से उत्सर्ग करके पिण्ड पर पितृतीर्थ से दे : ॐ अद्य ……….. गोत्रे मातः ……….. देवी गायत्रीरूपा मातृषोडशीश्राद्धे षोडशपिण्डेषु अत्रप्रत्यवनेनिग्धवं ते स्वधा ॥
नींवी विसर्जन करके, प्रक्षालित सूत्र पिण्डों पर दे : ॐ एतत्ते मातः वासः ॥
वारिधारा : फिर पिण्ड पर पान-सुपारी-पुष्प-चन्दन-अक्षत-द्रव्यादि अर्पित करे। पिण्डशेषान्न पिण्डों के चारों और बिखेड़ दे। फिर पिण्डों पर दक्षिणाग्र कुशा देकर दक्षिणाग्र वारिधारा दे : ॐ ऊर्जं वहन्तीरमृतं घृतं पयः कीलालं परिश्रुतम् । स्वधास्थ तर्पयत् मे पितॄन् ॥
पितृतर्पण करने के बाद पूर्वाभिमुख-सव्य होकर त्रिकुश-दक्षिणाद्रव्य-तिल-जल लेकर तीर्थश्राद्ध की दक्षिणा करे : ॐ अद्य ……… गोत्रायाः मातुः ……… देव्याः ……… तीर्थप्राप्तिनिमित्तक कृतैतत् षोडशमातृश्राद्ध प्रतिष्ठार्थं एतावत् द्रव्यमूल्यकं रजतं चन्द्रदैवतं यथानाम गोत्राय ब्राह्मणाय दक्षिणामहं ददे॥
तत्पश्चात पिण्डों को थाली में उठाकर सूंघे। फिर दक्षिणाभिमुख होकर तीर्थजल में विसर्जन कर दे अथवा गाय को दे। श्राद्ध भूमि का मार्जन कर दे। फिर ब्राह्मणभोजन और दक्षिणा का सकल्प करे : ॐ अद्य ……. गोत्रोत्पन्नः शर्माहं कृतैतत् …….. तीर्थनिमित्तक षोडशमातृ श्राद्ध कर्मणः न्यूनातिरिक्तदोष परिहारपूर्वक साङ्गतासिद्ध्यर्थं …….. संख्याकान् ब्राह्मणान् भोजयिष्ये, दक्षिणाञ्च दास्ये॥
फिर तीर्थब्राह्मणों से श्राद्ध परिपूर्णता की प्रार्थना करे – ॐ ……… तीर्थप्राप्ति निमित्तं पिण्डदानं परिपूर्णमस्तु ॥ तीर्थब्राह्मण कहें – ॐ अस्तु परिपूर्णं ॥
फिर कर्मार्पण करे : ॐ अनेन पिण्डदानाख्येन कर्मणा श्रीभगवान् जनार्दनः प्रीयताम्॥
तीन बार ॐ देवताभ्यः मंत्र पढ़े – ॐ देवताभ्यः पितृभ्यश्च महायोगिभ्य एव च । नमः स्वाहायै स्वधायै नित्यमेव नमो नमः ॥३॥
विष्णुस्मरण : ॐ यस्य स्मृत्या च नामोक्त्या तपोयज्ञक्रियादिषु। न्यूनं सम्पूर्णतां याति सद्यो वन्दे तमच्युतम् ॥ प्रमादात्कुर्वतां कर्म प्रच्यवेताध्वरेषु यत्। स्मरणादेव तद्विष्णोः सम्पूर्णं स्यादितिश्रुतिः ॥ ॐ विष्णुर्विष्णुर्हरिर्हरिः हाथ-पैर धो ले। ब्राह्मणों को भोजन कराये।
स्वर्ण रौप्यं तथा ताम्र कांस्यं गावो गजो हयाः । गृहं भूमिः वृषो वस्त्रं शय्या छत्रमुपानहौ ॥
दास्यन्नं पितृयज्ञेषु दानं षोडशकं स्मृतम् ॥
षोडश मातृ श्राद्ध के लिये 16 दान वस्तुयें : स्वर्ण, चांदी, ताम्र, कांस्य, गाय, हाथी, घोड़ा, गृह, भूमि, वृष, वस्त्र, शय्या, छत्र, उपानद्, दासी और अन्न। दान विधि देखने के लिये यहां क्लिक करें।
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कर्मकांड विधि में शास्त्रोक्त प्रमाणों के साथ प्रामाणिक चर्चा की जाती है एवं कई महत्वपूर्ण विषयों की चर्चा पूर्व भी की जा चुकी है। तथापि सनातनद्रोही उचित तथ्य को जनसामान्य तक पहुंचने में अवरोध उत्पन्न करते हैं। एक बड़ा वैश्विक समूह है जो सनातन विरोध की बातों को प्रचारित करता है। गूगल भी उसी समूह का सहयोग करते पाया जा रहा है अतः जनसामान्य तक उचित बातों को जनसामान्य ही पहुंचा सकता है इसके लिये आपको भी अधिकतम लोगों से साझा करने की आवश्यकता है।