माता का गर्भवती व रजस्वला होना
- पुत्र चूडाकृतौ माता यदि गर्भिणी भवेत् । शस्त्रेण मृत्युमाप्नोति तस्मात्क्षौरं विवर्जयेत् ॥ – गर्ग, जिसकी माता गर्भवती हो उसका मुंडन नहीं करना चाहिये। किन्तु इसमें कुछ विकल्प भी प्राप्त होता है।
- सूनोर्मातरिगर्भिण्यांचूडाकर्म न कारयेत् । पंचाब्दात्प्रागथोर्ध्वन्तु गर्भिण्यामपि कारयेत् ॥ – नारद, बालक की आयु यदि 5 वर्ष से अधिक हो तो माता के गर्भवती होने पर भी किया जा सकता है।
- पुत्रचूडाकृतौमाता गर्भिणी यदि वा भवेत् । विपद्यतेगुरुस्तत्र दंपती शिशुरब्दतः ॥ गर्भमातुः कुमारस्य न कुर्याच्चौल कर्मतु । पंचममासादधः कुर्यादत ऊर्ध्वं न कारयेत् ॥ – बृहस्पति,एक अन्य प्रमाण यह भी है कि यदि गर्भ 5 माह से कम का हो तो भी किया जा सकता है।
पुनः माता का रजस्वला दोष
- गर्ग – विवाहोत्सव यज्ञेषु माता यदि रजस्वला । तदासमृत्युमाप्नोति पंचमं दिवसं विना ॥ विवाहादि उत्सव में माता यदि रजस्वला हो तो पांच दिन का त्याग किये बिना विवाहादि कर्म मृत्युकारक होता है।
- पुनः वसिष्ठ – यस्यमांगलिकं कार्यतस्यमातारजस्वला । तदासमृत्युमाप्नोति पंचमं दिवसं विना ॥
- बृहस्पति – प्राप्तमभ्युदयश्राद्धं पुत्रसंस्कारकर्मणि । पत्नीरजस्वलाचेत्स्यान्न कुर्यात्तत्पिता तदा ॥ प्राप्त से यह बोध होता है कि वृद्धिश्राद्ध यदि कर ले तो भी; माता के रजस्वला होने पर पिता अपने पुत्र का संस्कार न करे।
परिहार : यदि आगे मुहूर्त उपलब्ध न हो या अन्य संकटों से संस्कार का त्याग न किया जा सके तो विधिवत श्रीशांति करे – अलाभेसु मुहूर्तस्य रजोदोषेह्युपस्थिते । श्रियंसंपूज्य विधिवत्ततो मंगलमाचरेत् ॥
- सूतिकोदक्ययोः शुद्ध्यै गां दद्याद्धोमपूर्वकम् ॥ प्राप्ते कर्मणि शुद्धा स्यादितरस्मिन्न शुद्ध्यति ॥ – कारिका अलाभे
- सुमुहूर्तस्य रजोदोषे ह्युपस्थिते । श्रियं संपूज्य तत् कुर्यात् वृत्रहत्याभयंकरीम् ॥ हैमीं माषमितां पद्मां श्रीसूक्त विधिनाऽर्चयेत् ॥ प्रत्यर्चं पायसं हुत्वाऽभिषिच्य शुभमाचरेत् ॥
शिखा
यजुर्वेद के अनुसार “केशान् शीर्षन् श्रियै शिखा” अर्थात् शीर्ष भाग में लंबे बालों की चोटी ही शिखा है । आपस्तम्ब : तूष्णीं केशान्विनीय यथर्षि शिखा निदधाति। ऋषि के अनुसार शिखा को छोड़कर मौन रहते हुये केशों का त्याग करे। विशिखो व्युपवितश्च यत्करोति न सत्कृतं॥ अर्थात शिखा वपन का निषेध। शिखां छिन्दन्ति ये मोहाद् द्वेषादज्ञानतोऽपि वा। तप्तकृच्छ्रेण शुध्यन्ति त्रयो वर्णा द्विजातयः ॥ – हारीत; मोह, द्वेष, ज्ञान, अज्ञान किसी भी कारण से शिखाच्छेन हो जाये तो तीनों वर्णों की शुद्धि तप्तकृच्छ्र करने से होती है।
शिखा प्रमाण
ब्राह्मण के शिखा का विस्तार (शिखा मूल का व्यास) 4 अंगुल और क्षत्रिय-वैश्य के लिए 5 अंगुल बताया गया है। – चतुरङ्गुलविस्तारं शिखामूलं द्विजन्मनः । राज्ञः पञ्चाङ्गुलं न्यासं वैश्यानां वै तथैव च॥ भारद्वाज स्मृति में कहा गया है – स्थापयेयुः शिरोमध्ये शिखां सर्वे द्विजातयः । स्वऋष्युक्तस्थले वाऽपि खल्वाटस्य न चोदितः ॥ – सभी द्विज (तीनों वर्ण) शिर के मध्य में शिखा स्थापन करे अथवा अपने ऋषि के अनुसार करे। “खल्वाटस्य न चोदितः” का अभिप्राय अभी स्पष्ट नहीं करेंगे।
शिखा विशेष विचार – प्रयोग रत्न में कहा गया है कि शिखा मध्य शिर पर होता है, वशिष्ठ गोत्र का दक्षिण पार्श्व में और अत्रि व कश्यप का दोनों पार्श्व में – मध्येशिरसिचूडास्याद्वाशिष्ठानांतु दक्षिणे । उभयोः पार्श्वयोरत्रिकश्यपानांशिखामता ॥ इस संबंध में और भी प्रमाण प्राप्त तो होते हैं किन्तु कुलपरम्परा से जो प्राप्त हो वही ग्रहण करे ऐसा उल्लेख भी किया गया है।
चूडाकरण का अर्थ
चूडा का अर्थ शिखा ग्रहण किया गया है और करण अर्थात करना। इस प्रकार चूडाकरण का अर्थ शिखा निर्माण करना या शिखा स्थापन करना है न कि शिखाच्छेदन करना। प्रथम बार शिखा स्थापन के लिये शिखा के अतिरिक्त अन्य केशों का हटाना भी अपेक्षित है, तभी तो शिखा निर्धारित या स्पष्ट या प्रकट या दृश्य जो कहा जाय होगा। हमें नहीं ज्ञात चूडाकरण से शिखाच्छेदन अर्थ कैसे प्रकट होता है।
सकेशानि प्रच्छिद्य : सकेशानि से कुछ और भी बोध होता है, किन्तु क्या ? और क्या छेदन करे – शिखा छेदन करे। किन्तु शिखा हो तब तो शिखा छेदन करे, शिशु तो शिखाहीन है। कदाचित शिखाहीन हो तो कुशा का शिखा धारण करे इस नियम से यह सिद्ध होता है कि शिखास्थान पर कुशा रखे और वह कुशा ही शिखा माने। इस प्रकार सकेशानि से केश सहित शिखा छेदन की सिद्धि होती है। अर्थात केश सहित कुशात्मक शिखा का छेदन करे, शेष केशसंज्ञक न होकर शिखासंज्ञक होता है।
चूडाकरण की परिभाषा
प्रथम कुशात्मक शिखा आरोपण करके, तत्पश्चात केश सहित (अतिरिक्त/ऊपरी) कुशात्मक शिखा का निस्तार/छेदन करके अतिरिक्त केशवपन करके चूडा (शिखा) स्थापन करना चूडाकरण है।