मुंडन विधि और मंत्र अर्थात चूडाकरण पद्धति
मुंडन की स्वतंत्र पद्धति नहीं है चूडाकरण ही मुंडन है अतः मुंडन की विधि का तात्पर्य चूडाकरण ही सिद्ध होता है। तथापि यदि किन्हीं विद्वान को मुंडन पद्धति प्राप्त हो तो अवश्य उपलब्ध करावें ताकि संशोधन किया जा सके।
वृद्धिश्राद्ध
प्रायः चूडाकरण के दिन ही वृद्धिश्राद्ध करने का व्यवहार पाया जाता है किन्तु इस विधि से व्यवधान और कालातिक्रम ही उत्पन्न होता है एवं अशौचादि होने से भी व्यवधान संभावित रहता है। साथ ही जिस कर्म का आरम्भ वृद्धिश्राद्ध होता है उस कर्म के आरम्भ में ही वृद्धिश्राद्ध करे। आरम्भ का तात्पर्य कर्म का आरम्भ मात्र नहीं कर्म के विभिन्न अंगों के आरम्भ में करे। मंडप-स्थापन, मटकोर आदि भी कर्म के ही अंग होते हैं अतः उससे भी पूर्व करे यह सिद्ध होता है।
त्रिषट् चौलोपनयने नान्दीश्राद्धं विधीयते – अर्थात चूडाकरण में 3 दिन पूर्व व उपनयन में 6 दिन पूर्व करे। कर्म के दिन पुनः मातृकापूजन-वासोर्द्धारा मात्र करे। तथापि यदि 3 दिन पूर्व वृद्धिश्राद्ध न किया गया हो तो भी चूडाकरण के एक दिन पूर्व तो अवश्य करे क्योंकि जूटिकाबंधन तो पूर्वरात्रि में ही किया जायेगा अतः उससे पूर्व तो करे। यदि पूर्व में वृद्धि श्राद्ध न किया जाय तो कर्मारम्भ मण्डपस्थापन आदि जो पहले किया जाय वह सिद्ध हो जायेगा अर्थात विपरीत क्रम होगा।
जूटिकाबंधन – शिखा आमंत्रण – केशाधिवासन
जूटिकाबंधन के बारे में सबसे पहले ये स्पष्ट करना आवश्यक है कि यह पद्धति (विधान) से प्राप्त विषय नहीं है यह व्यवहार से प्राप्त कर्म है। साथ ही यह उपनयन का भी अंग नहीं है यह चूडाकरण का अंग है।
पूर्वरात्रि में बरुआ को निकट बैठाकर कर आचार्य पवित्रीकरणादि कर ले। तदुपरांत 3 – 3 कुशपत्रों (प्रादेश प्रमाण) के 9 समूह बनाये पिञ्जलि बना ले, (इसका उपयोग चूडाकरण काल में शिखाग्रहण काल में होता है) और सबको बांध ले, पुनः 3 – 3 समूहों को एकत्रित करके बांध ले अर्थात 9 – 9 पत्रों का 3 समूह बना दे, धागे ग्रंथि दे दे। शिखा में बांधने हेतु आवश्यक पोटली बना ले। अन्य आवश्यक सामग्री भी एकत्रित कर ले, यथा : शाही कांटा (जो तीन स्थानों पर श्वेत हो), स्रुवा, स्रुची, प्रणीता, प्रोक्षणी, स्फय, लौहक्षुर (अस्तूरा), जल पात्र इत्यादि।
- फिर तीन बार पुरुषसूक्त का पाठ करे।
- एक त्रिश्वेत शल्लकीकण्टक (ऐसा शाही का कांटा जो तीन स्थानों पर श्वेत हो) से निर्धारित शिखा स्थान पर शिखा (4 अंगुल न्यूनतम) को दो बार विभाजित करे अर्थात 3 भाग करे।
- फिर तीनों भागों को अलग-अलग पोटली सहित बांध दे।
फिर शिखा को स्पर्श करके यह मंत्र पढ़े : ॐ आमन्त्रये त्वां जूटिके कुमारशिरसंस्थिते । प्रभातेच्छेदनार्थाय कुमारस्य शुभाय च ॥
उपनयन संयुक्त होने पर इसी समय चन्दन-हरिद्रा आदि से बांये कंधे से यज्ञोपवीताकृति 3 रेखा भी बनाया जाता है। यदि उपनयन भी करना हो तो निर्मित रेखा को स्पर्श करके पढे : ॐ स्वस्तये यज्ञोपवीते दास्यामि। ॐ स्वस्तये वपामि ॥
मण्डप
यदि चूडाकरण गंगातट, मंदिर, प्रसिद्ध तीर्थादि में करे तो मण्डप की आवश्यकता नहीं होती। घर में करे तो मण्डप की आवश्यकता होती है। मण्डप स्थापन विधि के अनुसार यथाकाल मण्डप स्थापन पूजन करें। मण्डप शुद्धि हेतु मण्डप में ब्राह्मण भोजन भी करावें । ब्राह्मणभोजन कराने से मण्डप जूठा नहीं होता कर्म करने के योग्य होता है। ब्राह्मण भोजन मनुष्य भाव से नहीं देवभाव से करायें । जूठन संबंधी संशय तभी उत्पन्न होगा जब मनुष्य भाव से भोजन कराया जाय। यह शास्त्र वचनों से कि ब्राह्मण भोजन से भगवान का भोजन करना सिद्ध होता है।
आचार्य वरण
यदि पिता आचार्य हो तो वरण की आवश्यकता नहीं होती। पिता न हो अथवा समर्थ न हो तो अन्य आचार्य का बरुआ वरण सामग्री लेकर इस प्रकार वरण करे – नमोऽद्य …….. मासीय ……… पक्षीय ……… तिथौ ………गोत्रस्य मम श्री ………. कुमारस्य चूडाकरण (यदि उपनयनादि भी हो तो उच्चारण करे) कर्तुं ……… गोत्रम् ………. शर्माणं ब्राह्मणं एभिः गंधपुष्पाक्षत-पूगीफल-यज्ञोपवीत-कटिसूत्राऽङ्गुरीयक-वासोयुगैः आचार्यत्वेन त्वामहंवृणे॥ वरण सामग्री ग्रहण कर आचार्य कहें “ॐ वृत्तोऽस्मि” पुनः बरुआ कहे “यथाविहितं कर्म कुरु” आचार्य कहें “ॐ करवाणि” ॥
चूडाकरण के दिन आचार्य नित्यकर्म करके स्वस्तिवाचन, मातृकापूजन करें, यदि पूर्व में नान्दी श्राद्ध न किया गया हो तो नान्दी श्राद्ध भी करें ।
मण्डप में कलश स्थापन – पूजन कर लें। चूडाकरण हेतु माता अथवा अन्य विधकरी अहत वस्त्र धारण करके बरुआ को गोद में लेकर आचार्य के दाहिने बैठे। “ब्राह्मणान्भोजयित्वा माता कुमारमादायाप्लाव्याहते वाससी परिधाप्याङ्क आधाय पश्चादग्नेरुपविशति“
हवन विधि
“अन्वारब्ध आज्याहुतीर्हुत्वा प्राशनान्ते शीतास्वप्सूष्णा आसिञ्चत्युष्णेन वाय उदकेनेह्यदिते केशान्वपेति”
अग्निस्थापन : हस्त मात्र भूमि का माप करके अग्निस्थापन करे :
- परिसमूह्य : ३ कुशाओं से स्थण्डिल या हस्तमात्र भूमि की सफाई करें। कुशाओं को ईशानकोण में (अरत्निप्रमाण) त्याग करे ।
- उल्लेपन : गोबर से ३ बार लीपे।
- उल्लिख्य – स्फय या स्रुवमूल से प्रादेशमात्र पूर्वाग्र दक्षिण से उत्तर क्रम में ३ रेखा उल्लिखित करे।
- उद्धृत्य – दक्षिणहस्त अनामिका व अंगुष्ठ से सभी रेखाओं से थोड़ा-थोड़ा मिट्टी लेकर ईशान में (अरत्निप्रमाण) त्याग करे।
- अग्नानयन व क्रव्यदांश त्याग – कांस्यपात्र या हस्तनिर्मित मृण्मयपात्र में अन्य पात्र से ढंकी हुई अग्नि मंगाकर अग्निकोण में रखवाए । ऊपर का पात्र हटाकर थोड़ी सी क्रव्यदांश अग्नि (ज्वलतृण) लेकर नैर्ऋत्यकोण में त्याग कर जल से बुझा दे ।
- अग्निस्थापन – दोनों हाथों से आत्माभिमुख बिना स्थापन मंत्र के ही अग्नि को स्थापित करे, अग्नानयन पात्र में अक्षत-जल छिरके। अग्नि को प्रज्वलित कर पूजा करे व अग्नि रक्षार्थ पर्याप्त ईंधन दे दे।
चूडाकरण हेतु माता अथवा अन्य विधकरी अहत वस्त्र धारण करके बरुआ को गोद में लेकर अग्नि के पश्चिम और आचार्य के दाहिने बैठे। तदुत्तर ब्रह्मावरण करे :
- ब्रह्मावरण – उत्तर दिशा में स्थित प्रत्यक्ष ब्रह्मा (विद्वान ब्राह्मण) ब्रह्मा का वरण वस्त्र, पान, सुपारी, द्रव्य, तिल, जलादि लेकर करे : ॐ अद्य …….. कुमारस्य कर्तव्य चूडाकरण होम कर्मणि कृताकृतावेक्षणरूप ब्रह्मकर्मकर्तुं एभिः वरणीय वस्तुभिः ……….. गोत्रं ……….. शर्माणं ब्रह्मत्वेन त्वामहं वृणे॥ ब्रह्मा स्वीकार करके “ॐ वृत्तोस्मि” कहे पुनः यजमान “यथाविहितं कर्म कुरु” कहे और ब्रह्मा “ॐ करवाणि” कहे। अथवा ५० कुशात्मक ब्रह्मा पक्ष में : ॐ अद्य अस्मिन् होम कर्मणि कृताकृतावेक्षणरूप कर्मकर्तुं त्वं मे ब्रह्मा भव ॥ कुशात्मक ब्रह्मा में प्रतिवचन नहीं होता।
- बह्मा का आसन – दक्षिण दिशा (अग्निकोण) में, परिस्तरण भूमि को छोड़कर ब्रह्मा के लिये ३ कुश का आसान पूर्वाग्र बिछाये। प्रत्यक्ष ब्रह्मा का दक्षिणहस्त ग्रहण कर (कुशात्मक बह्मा को उठाकर) प्रदक्षिण क्रम से दक्षिण ब्रह्मासन तक ले जाकर स्वयं पूर्वाभिमुख होकर ब्रह्मा को उत्तराभिमुख बैठाये या कुशात्मक ब्रह्मा को रखे – ॐ अस्मिन होम कर्मणि त्वं मे ब्रह्मा भव॥ प्रतिवचन “ॐ भवानि” ब्रह्मा की पूजा अमंत्रक ही करे। पुनः अप्रदक्षिणक्रम से अग्नि के पश्चिम आकर आसन पर बैठे।
- प्रणीय – तदनन्तर प्रणीतापात्र को आगे में रखकर जल भरे, कुशाओं से आच्छादन करे । फिर ब्रह्मा का मुखावलोकन करते हुए अग्नि के उत्तर भाग में विहित कुशाओं के आसन पर रखे । (वाजसनेयी विशेष, छन्दोग में अभाव)
- परिस्तरण – तदनन्तर १६ कुशा लेकर परिस्तरण करे । ४ कुशा अग्निकोण से ईशानकोण तक उत्तराग्र, ४ कुशा दक्षिण में ब्रह्मा से अग्नि पर्यंत पूर्वाग्र, ४ कुशा नैर्ऋत्यकोण से वायव्यकोण तक उत्तराग्र और ४ कुशा उत्तर दिशा में अग्नि से प्रणीता तक पूर्वाग्र बिछाए । (परिस्तरण हेतु एक और प्राकान्तर प्राप्त होता है : पूर्व में पूर्वाग्र, दक्षिण में उत्तराग्र, पश्चिम में पूर्वाग्र और उत्तर में पुनः उत्तराग्र।)
- आसादन : अग्नि के उत्तरभाग में पश्चिमपूर्व क्रम से क्रमशः आसादित करे : पवित्रीच्छेदन 3 कुशा, पवित्रिनिर्माण 2 कुशा, आज्यस्थाली, सम्मार्जन कुशा, उपयमन कुशा, 3 समिधा, स्रुवा, घी, पूर्णपात्र।
विशेष सामग्री : एक पात्र में ठंडा जल, दूसरे पात्र में गरम जल, दही/घी/मक्खन (अथात्र नवनीतपिण्डं घृतपिण्डं दध्नो वा प्रास्यति) का पिण्ड (गोली), शाही का कांटा जो तीन जगह से श्वेत हो, प्रादेश प्रमाण 27 कुश पत्र (अग्रभागयुक्त), अस्तूरा, अणिया बड़द का गोबर, पुरैन अथवा अन्य उपलब्ध पत्र आदि।
- पवित्री निर्माण – पवित्री निर्माण हेतु आसादित पवित्रिकरण २ कुशाओं को ग्रहण करे फिर मूल से प्रादेशप्रमाण भाग पर पवित्रच्छेदन ३ कुशाओं को रखकर दक्षिणावर्त २ बार परिभ्रमित करके नखों का प्रयोग किये बिना २ कुशों का मूल वाला प्रादेशप्रमाण भाग तोड़ ले शेष का उत्तर दिशा में त्याग करे। ग्रहण किये हुए प्रादेशप्रमाण २ कुशाओं में दक्षिणावर्त ग्रंथि दे । प्रोक्षणीपपात्र को प्रणिता के निकट रखे।
- पवित्रीहस्त प्रणीता से प्रोक्षणी में ३ बार जल देकर पवित्री को उत्तराग्र करके अंगूठा व अनामिका से ३ बार प्रणीता का जल ऊपर उछाले या मस्तक पर प्रक्षेप करे।
- प्रोक्षणीपात्र को बांये उठाकर दाहिने हाथ से अनामिका और अंगूठे द्वारा पवित्री ग्रहण किये हुए जल को ३ बार ऊपर उछाले। प्रणीतापात्र के जल से प्रोक्षणी को ३ बार सिक्त करके प्रोक्षणी के जल से होमार्थ आसादित-अनासादित सभी वस्तुओं को सिक्त करके अग्नि व प्रणिता के मध्य भाग में कुशा के आसन पर प्रोक्षणीपात्र को रख दे।
- घृतपात्र में घृत डालकर घृतपात्र को प्रदक्षिणक्रम से घुमाते हुए अग्नि पर चढ़ाये। २ प्रज्वलित तृण को प्रदक्षिणक्रम से घृत के ऊपर घुमाकर (घृत में सटाये बिना ऊपर घुमाकर) अग्नि में प्रक्षेप करे दे । चरु हो तो सामान विधान करे। दाहिने हाथ से स्रुव को ३ बार अग्नि पर तपाकर बांये हाथ में रखे, दाहिने हाथ से सम्मार्जन कुशा लेकर कुशाग्र से स्रुव के ऊपरी भाग का मूल से अग्रपर्यन्त सम्मार्जन करे और कुशमूल से स्रुव के पृष्ठभाग का अग्र से मूलपर्यन्त मार्जन करके प्रणीतोदक से ३ बार सिक्त करके स्रुव को दाहिने हाथ में लेकर पुनः ३ बार तपाकर दक्षिणभाग में कुशा के ऊपर रखे। स्रुचि के लिये भी स्रुववत् विधि।
- घृतपात्र को प्रदक्षिणक्रम में अग्नि से उतारकर आगे में रखे (चरु हो तो उसे भी)। पूर्व की भांति पवित्री से घृत को भी ३ बार ऊपर उछाले या मस्तक पर प्रक्षेप करे। तत्पश्चात घृत को भलीभांति देखे, कुछ अपद्रव्यादि हो तो निकाल दे। पुनः प्रोक्षणी के जल को ३ बार ऊपर की पूर्ववत उछाले।
- फिर बांये हाथ में उपयमन कुशा ग्रहण करके, उठकर ३ घृताक्त समिधा प्रजापति का ध्यानमात्र करते हुए अग्नि में प्रक्षेप करे।
- पर्युक्षण – फिर बैठकर पवित्रिहस्त प्रोक्षणी से जल लेकर सभी सामग्रियों सहित अग्नि का प्रदक्षिणक्रम से पर्युक्षण करे। ३ बार पर्युक्षण करके पवित्री को प्रणीतापात्र में रख दे।