नित्य कर्म क्या है ?
- मनुष्य होने का तात्पर्य पशु की अपेक्षा कुछ विशेषताप्राप्ति है जिसे विवेक कहा गया है। विवेकशील होने का तात्पर्य है उत्तरदायित्व का निर्वहन करना। कैसा उत्तरदायित्व ? प्रकृति-पंचभूतों, परिवार, समाज, राष्ट्र आदि के प्रति उत्तरदायित्व। मनुष्य इन सभी से कुछ-न-कुछ लेता है और बदले में अगर कुछ नहीं दे तो ऋणी हो जायेगा।
- प्रकृति-पंचभूत, परिवार, समाज, राष्ट्र से यदि मनुष्य प्रतिदिन कुछ लेता है इसका तात्पर्य है की उनकी हानि करता है जिसकी भरपाई अपेक्षित होती है। जैसे यदि हम स्वास लेते हैं तो ऑक्सीजन लेकर कार्बनडाइ-ऑक्साइड उत्सर्जन करते हैं, प्रकृति की स्पष्ट हानि करते हैं। जल लेते हैं और मूत्रोत्सर्ग, पसीना आदि छोड़ते हैं, भोजन करते हैं और मलोत्सर्ग करते हैं। स्पष्टतः प्रकृति को नुकसान पहुंचाते हैं।
- साथ में यदि प्रत्यक्ष हिंसा न भी करें तो भी जीवन क्रम में अनायास परोक्ष रूप से भी हमारे सांस लेने तक से भी बहुत सारे सूक्ष्मजीवों की हत्या होती है। अन्य कार्यों में तो और अधिक होती है। हमें इन हत्यायों का भी दोष या पाप लगता है और इनका प्रतिदिन निवारण करना आवश्यक होता है।
- हम यदि इन दोषों सम्मार्जन न करें तो दोषी (पापी) होते हैं और मोक्ष-स्वर्ग की प्राप्ति के लिये अनधिकृत हो जाते हैं। यदि मनुष्य अपने विवेक का उपयोग ही न करे तो पशुवत ही होता है मनुष्यता सिद्ध नहीं होती। विवेक प्रयोग करना भी मनुष्य के लिये आवश्यक है।
- इन दोषों का मार्जन करने के लिये एवं उत्तरदायित्व का निर्वहन करने के लिये शास्त्रों में प्रतिदिन किये जाने वाले कार्यों के साथ कुछ अन्य आवश्यक कार्य एवं उसकी विशेष विधि बताई गयी है। इन्हें शास्त्रोक्त विधि के अनुसार करना आवश्यक होता है।
नित्यकर्म की परिभाषा : “शास्त्रोक्त विधि के अनुसार जीवनयापन क्रम में प्रतिदिन होने वाले दोषों का सम्मार्जन करते उत्तरदायित्व का निर्वहन करना नित्यकर्म कहलाता है।”
इसमें सामान्य नित्यकर्म भी समाहित होते हैं, किन्तु नित्यकर्म का तात्पर्य केवल सामान्य नित्यकर्म नहीं होता है। मनुष्य–पशु-पक्षी सभी सामान्य नित्यकर्म करने के लिये बाध्य होते हैं लेकिन नित्यकर्म करना पड़ता है।
नित्यकर्म से संबंधित महत्वपूर्ण बातें :

- नित्यकर्म का तात्पर्य है जो प्रतिदिन करना आवश्यक व अनिवार्य है।
- नित्यकर्म और सामान्य नित्यकर्म दोनों में अंतर होता है।
- नित्यकर्म शास्त्रोक्त विधि के अनुसार करना आवश्यक होता है।
- नित्यकर्म निर्धारित काल (समय) में सम्पादित करना चाहिये।
- यदि नित्यकर्म नहीं करते हैं तो दोषी (पापी) एवं ऋणी हो जाते हैं।
- नित्यकर्म किये बिना नैमित्तिक एवं काम्य कर्मों के लिये अधिकृत ही नहीं होते।
- दोषी (पापी) एवं ऋणी होने का तात्पर्य है स्वर्ग-मोक्ष का अधिकार खो देना।
- नित्यकर्म रहित मनुष्य और पशु में केवल शारीरिक आकार का अंतर होता है।
- शारीरिक अक्षमता (रोग, बुढ़ापा आदि के कारण) में भी नित्यकर्म अपेक्षित होता है परन्तु उसमें आवश्यक सरलता का भी शास्त्रों में निर्देश मिलता है।
- आपत्काल, प्रवास, यात्रा आदि में नित्यकर्म आंशिक परिवर्तित होता है, परंतु त्याग नहीं किया जा सकता।
नित्य कर्म क्या-क्या है ?
नित्यकर्म – ससमय उठना, भगवद्स्मरण, शारीरिक शुचित्व, संध्या, तर्पण, देवपूजन, पञ्चयज्ञ (बलिवैश्वदेव), भोजन, शयन आदि नित्यकर्म हैं जिनके लिये शास्त्रों में विशेष विधि बताई गयी है। वर्णाश्रम भेद से नित्यकर्म परिवर्तित भी होता है।
पराशर – सन्ध्या स्नानं जपो होमः स्वाध्यायो देवतार्चनम् । वैश्वदेवाऽतिथेयश्च षट् कर्माणि दिने दिने ॥
नित्यकर्म की पस्तकें –
नित्यकर्म हेतु अनेक विशिष्ट पुस्तकें हैं – ब्रह्म नित्यकर्म समुच्चय, आह्निक सूत्रावली, कर्मठगुरु, नित्यकर्म प्रयोगमाला एवं अनेकानेक नित्यकर्म पद्धति या विधि। एक सबसे सरल पुस्तक जो सामान्य जनों के लिए भी अतिउपयोगी सिद्ध होता है वह है नित्यकर्म पूजा प्रकाश।