वैदिक सूक्तों में सर्वाधिक उपयोग होने वाले सूक्त का नाम है पुरुष सूक्त। वेदों में वर्णित पुरुषसूक्त विशेष महत्वपूर्ण सूक्त है। पुरुषसूक्त के मंत्रों से सभी देवी-देवताओं की षोडशोपचार पूजा की जाती है। विष्णु यज्ञ, महा विष्णु यज्ञ, अतिविष्णु यज्ञों में पुरुष सूक्त के मंत्रों द्वारा ही आहुति दी जाती है। यहां यजुर्वेदोक्त पुरुष सूक्त दिया गया है।
पुरुष सूक्त क्या है
ऋग्वेद, यजुर्वेद और अथर्ववेदों में वर्णित १६ ऋचाएं जो भगवान विष्णु की स्तुति है पुरुष सूक्त है।
- पुरुष का तात्पर्य भगवान विष्णु हैं और सूक्त का तात्पर्य विशेष महत्वपूर्ण वचन या स्तुति है साथ ही वेदों की कई ऋचाओं का समूह भी सूक्त कहलाता है।
- इस प्रकार पुरुष सूक्त का तात्पर्य यही होता है कि भगवान विष्णु से संबंधित वेद की ऋचाओं का समूह।
- पुरुष सूक्त में भगवान के पुरुष स्वरूप और उनके अंगों का वर्णन किया गया है।
- पुरुष सूक्त में कुल १६ ऋचाएं हैं।
- पुरुष सूक्त का जापक सभी पापों से मुक्त हो जाता है।
पुरुषसूक्त का मतलब
पुरुष का तात्पर्य भगवान विष्णु है। साथ ही साथ पुरुष ब्रह्म के लिये भी प्रयुक्त होता है। पुरुष सूक्त में पुरुष का मतलब भगवान विष्णु और ब्रह्म दोनों ही है। इस प्रकार पुरुष सूक्त का मतलब होता है वेदों में वर्णित भगवान विष्णु या ब्रह्म की स्तुति वाली ऋचायें।
यजुर्वेद के ३१वें अध्याय में प्रथम ऋचा से १६ ऋचायें पुरुषसूक्त नाम से जानी जाती है।
पुरुष सूक्त के 16 मंत्र
ॐ सहस्रशीर्षा पुरुषः सहस्राक्षः सहस्रपात् ।
स भूमि ᳪ सर्वत स्पृत्वात्यतिष्ठद्दशाङ्गुलम् ॥१॥
पुरुष ऽएवेद ᳪ सर्वं यद्भूतं यच्च भाव्यम् ।
उतामृतत्वस्येशानो यदन्नेनातिरोहति ॥२॥
एतावानस्य महिमातो ज्यायाँश्च पूरुषः ।
पादोऽस्य विश्वा भूतानि त्रिपादस्यामृतं दिवि ॥३॥
त्रिपादूर्ध्व ऽउदैत्पुरुषः पादोऽस्येहाभवत् पुनः ।
ततो विष्वङ् व्यक्रामत्साशनानशने ऽअभि ॥४॥
ततो विराडजायत विराजो ऽअधि पूरुषः ।
स जातो ऽअत्यरिच्यत पश्चाद्भूमिमथो पुरः ॥५॥
तस्माद्यज्ञात् सर्वहुतः सम्भृतं पृषदाज्यम् ।
पशूँस्ताँश्चक्रे वायव्यानारण्या ग्राम्याश्च ये ॥६॥
तस्माद्यज्ञात् सर्वहुत ऽऋचः सामानि जज्ञिरे ।
छन्दा ᳪ सि जज्ञिरे तस्माद्यजुस्तस्मादजायत ॥७॥
तस्मादश्वा ऽअजायन्त ये के चोभयादतः ।
गावो ह जज्ञिरे तस्मात्तस्माज्जाता ऽअजावयः ॥८॥
तं यज्ञं बर्हिषि प्रौक्षन् पुरुषं जातमग्रतः ।
तेन देवा ऽअयजन्त साध्या ऽऋषयश्च ये ॥९॥
यत्पुरुषं व्यदधुः कतिधा व्यकल्पयन् ।
मुखं किमस्यासीत्किम्बाहू किमूरू पादा ऽउच्येते ॥१०॥
ब्राह्मणोऽस्य मुखमासीद्बाहू राजन्यः कृतः ।
ऊरू तदस्य यद्वैश्यः पद्भ्या ᳪ शूद्रो ऽअजायत ॥११॥
चन्द्रमा मनसो जातश्चक्षोः सूर्यो ऽअजायत ।
श्रोत्राद्वायुश्च प्राणश्च मुखादग्निरजायत ॥१२॥
नाभ्या ऽआसीदन्तरिक्ष ᳪ शीर्ष्णो द्यौः समवर्तत ।
पद्भ्यां भूमिर्दिशः श्रोत्रात्तथा लोकाँ२ऽकल्पयन् ॥१३॥
यत्पुरुषेण हविषा देवा यज्ञमतन्वत ।
वसन्तोऽस्यासीदाज्यं ग्रीष्म ऽइध्मः शरद्धविः ॥१४॥
सप्तास्यासन् परिधयस्त्रिः सप्त समिधः कृताः ।
देवा यद्यज्ञं तन्वाना ऽअबध्नन् पुरुषं पशुम् ॥१५॥
यज्ञेन यज्ञमयजन्त देवास्तानि धर्माणि प्रथमान्यासन् ।
ते ह नाकं महिमानः सचन्त यत्र पूर्वे साध्याः सन्ति देवाः ॥१६॥
॥ इति शुक्लयजुर्वेदीयपुरुषसूक्तं सम्पूर्णम्॥ शुक्लयजुर्वेद ३१/१-१६
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