रजस्वला स्त्री का अर्थ | काल, नियम इत्यादि सम्पूर्ण जानकारी

रजस्वला स्त्री का अर्थ | काल, नियम इत्यादि सम्पूर्ण जानकारी

एक विशेष आयुवर्ग में सभी स्त्रियाँ रजस्वला होती हैं। रजस्वला के सन्दर्भ में कई प्रश्न आते हैं। इस आलेख में पौराणिक आख्यानों, शास्त्रोक्त प्रमाणों का आधार ग्रहण करते हुये रजस्वला के सम्बन्ध में विस्तृत जानकारी देते हुये रजस्वला स्त्री होने का क्या अर्थ है, रजस्वला स्त्री के लिये शास्त्रों में क्या-क्या नियम बताये गये हैं, क्या-क्या दोष कहा गया है, कालमान क्या होता है इत्यादि कई महत्वपूर्ण प्रश्नों का उत्तर भी दिया गया है। कुल मिलाकर यहाँ जानकारी ज्ञानवर्द्धक है।

स्त्रियों के लिये रजस्वला होना एक प्राकृतिक क्रिया है जो मात्र मनुष्य तक सीमित नहीं है अपितु सम्पूर्ण स्त्री योनि से सम्बद्ध है, यहां तक कि नदियां भी स्त्री हैं अतः प्रतिवर्ष श्रावण-भाद्र में नदियां भी रजस्वला होती हैं। यह प्रतिमास चलने वाला चक्र है, सामान्यतः बारह वर्ष की अवस्था से प्रारम्भ होकर पचास वर्षपर्यन्त प्रतिमास (चन्द्रमास के अनुसार २७-२८ दिनपर) स्त्री के गर्भाशय से स्वभावतः इस चक्र में स्त्रियों के गर्भाशय से दूषित रक्त-उतक योनिमार्ग द्वारा बहिर्गत होता है जो क्रिया 3 – 7 दिन तक चल सकती है; जिसके दिनों में अंतर भी होता है ।

मासिक धर्म

रजस्वला स्त्री का अर्थ समझने से पूर्व मासिक धर्म को सङ्क्षेप में समझना आवश्यक है। प्रतिमास होने वाला यह चक्र मासिक धर्म भी कहलाता है। मासिक कहने से तात्पर्य है कि एक विशेष आयुवर्ग की स्त्रियों के लिये यह चक्र प्रतिमास पुनरावृत्ति करता है। एवं धर्म कहने का तात्पर्य है कि इस चक्र के अनुसार स्त्रियों को अपने विशेष धर्म (कर्तव्याकर्तव्य – विहित-निषिद्ध) का पालन करना चाहिये।

मासेनोपचितं काले धमनीभ्यां तदार्तवं। ईषत्कृष्ण विदग्धं च वायुर्योनिमुखं नयेत ॥ – सुश्रुत

अर्थात क्षेत्र दोष (एक विशेष आयुवर्ग की स्त्रियों के दूषित रज) की प्रति मास निवृत्ति होती है जिसमें योनिमार्ग से रज निःसृत होता है। क्षेत्रदोष का यह निवृत्तिकाल अथवा शुद्धि काल भी अशुद्ध होता है और इतने काल तक स्त्री रजस्वला कहलाती है।

रजस्वला स्त्री का अर्थ

रजः अर्थात् रज/रक्त किन्तु किस प्रकार का रक्त इसके बारे में; यद्यपि वला स्त्री का भी बोधक है तथापि वला से विशेष अर्थ भी स्पष्ट होता है।

वला अर्थात् वलय (रिंग) अर्थात् वृत्त अर्थात् वृत्र अर्थात वृत्रासुर । अर्थात् वह रक्त जिसका संबंध वृत्रासुर से है। अब यह प्रश्न उत्पन्न होता है कि किस रक्त का वृत्रासुर से संबंध है और क्या संबंध है? संभव है यह व्याख्या नई लगे अथवा इससे पहले कभी सुनने या पढने को न मिला हो। इसे समझने के लिये एक पौराणिक कथा की संक्षिप्त चर्चा अपेक्षित है।

वृत्रासुर प्रसङ्ग : विभिन्न पुराणों में वृत्रासुर की जो कथा बताई गयी है वह इस प्रकार है : जब त्रिशिरा का इंद्र ने वध किया तो ब्रह्महत्या के कारण इंद्र को अणुमात्र का रूप धारण का कमलनाल में छुपना पड़ा था। किन्तु त्रिशिरा के पिता त्वष्टा ने एक और पुत्र उत्पन्न किया जो वृत्रासुर नाम से जाना जाता है। वृत्रासुर ने जब जगत को व्याप्त कर लिया तो देवताओं ने इंद्र को उसका वध करने के लिये कहा।

वृत्रासुर प्रसङ्ग
वृत्रासुर प्रसङ्ग

इस पर ब्रह्महत्या को एक बार भोग चुके इंद्र ने ब्रह्महत्या ग्रहण करने से मना कर दिया तो उस ब्रह्महत्या को चार भागों में बांटकर एक-एक भाग पृथ्वी, जल, वृक्ष और स्त्री को दिया गया साथ ही इसके बदले में इन सबको वरदान भी प्राप्त हुआ।

  1. पृथ्वी में वह ब्रह्महत्या (चतुर्थांश) ऊसर भूमि के रूप में होती है तथा इसके बदले पृथ्वी के गड्ढे समय के साथ स्वतः भर जाने का वरदान प्राप्त हुआ।
  2. जल में ब्रह्महत्या (द्वितीय चतुर्थांश) फेन के रूप में प्रकट होती है और इसके जल को वरदान मिला कि वह पवित्र करने वाली होगी और खर्च करने पर भी वृद्धि को प्राप्त होगी।
  3. तृतीय भाग वृक्षों में गया जो वृक्ष से निकलने वाले रस (गोंद) के रूप में प्रकट होता है, वृक्ष को इसके बदले यह वरदान मिला कि कटे हुये भाग समय के साथ स्वतः भर जायेंगे या सम हो जायेगा।
  4. इसी प्रकार ब्रह्महत्या का एक चतुर्थांश स्त्रियों ने इस वरदान के साथ ग्रहण किया कि ऋतुकाल में पुरुष उसका त्याग नहीं कर सकता। स्त्रियों में ब्रह्महत्या का वही चतुर्थांश प्रतिमास रज रूप में दिखता है।

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