कैसे करते हैं वेदारम्भ संस्कार – vedarambh

कैसे करते हैं वेदारम्भ संस्कार – vedarambh

उपनयन होने के पश्चात् ब्रह्मचारी वेदाध्ययन करता है। चूंकि वर्त्तमान युग में एक साथ ही चार संस्कार किये जाते हैं इसलिये उपनयन संस्कार के उपरांत वेदारंभ संस्कार किया जाता है। इस आलेख में वेदारम्भ की विधि और मंत्र दी गयी है। वेदारम्भ का तात्पर्य वेद का अध्ययन आरम्भ करना है। आज भी बहुत सारे गुरुकुल हैं जहां वेदाध्ययन किया जा सकता है। किन्तु वर्त्तमान में मात्र कुछ ब्राह्मण परिवार ही अपने बालकों को वेदाध्ययन कराते हैं।

यद्यपि वेदाध्ययन वो भी है जो विभिन्न विश्वविद्यालयों द्वारा प्रदान किये जाते हैं। किन्तु वेदाध्ययन का मूल स्वरूप गुरुकुल में आचार्य से दीक्षित होकर ब्रह्मचर्यधारण पूर्वक सभी नियमों का पालन करते हुये वेदाध्ययन करना है। सामान्य जनों की वेदाध्ययन से निवृत्ति हो गयी है। इसका कारण राजनीति भी है, चलचित्रादिकों और दूरदर्शन चैनलों द्वारा भ्रमित करना भी है।

इसी कारण आज के कर्मकांडी भी अधिकतर विधिवत वेदाध्ययन रहित ही हैं। ज्योतिषियों की तो बात ही क्या करें मात्र कुछ पुस्तकें पढ़कर ज्योतिषी बन जाते हैं और फलादेश-उपचार सब कुछ करने लगते हैं। बड़े-बड़े कथावक्ता भी इसी श्रेणी में समाहित हो जाते हैं अर्थात वेदाध्ययन रहित हैं, जो वास्तव में नट-संज्ञक हैं और उनकी कथाओं में प्रतिबिम्बित भी होता है।

सहस्र वर्षों की परतंत्रता में म्लेच्छादिकों के अत्याचार से भी सनातन का उतना क्षरण नहीं हुआ जितना स्वतंत्र भारत स्थापित होने के बाद हुआ है। मुझे स्मरण है जब घर-घर में चिकित्सक हुआ करते थे और सरल उपचारों से व्रण, ज्वर आदि का निवारण हो जाता था। कुछ विशेष अवस्था में ही कुशल वैद्य की आवश्यकता होती थी। यजमानों के यहां निमंत्रित होने पर यदि पायस भोजन हो तो ब्राह्मण स्वयं पकाते थे, यथाज्ञान पूजादि करके फिर जमते थे।

कैसे करते हैं वेदारम्भ संस्कार - vedarambh
कैसे करते हैं वेदारम्भ संस्कार – vedarambh

गृहस्थों के गुरु सद्गृहस्थ ब्राह्मण ही होते थे, आज जिसे मन हो भगवा धारण कर गुरु बनते और बनाये जाते हैं। और जबसे सन्यासी-साधु गुरु बनाने की परंपरा का आरम्भ हुआ है तबसे धर्म का क्षरण अधिक हुआ है। जबकि एक गृहस्थ को किसी सद्गृहस्थ से ही दीक्षित होना चाहिये। आज भी भले ही दीक्षित किसी से भी हुआ हो ज्ञान ब्राह्मण से ही प्राप्त किया जा सकता है। ब्राह्मणेतर जितने भी व्यवसायी दीक्षा विधान कर रहे हैं न तो लोक में न ही परलोक में कल्याण भाजन बना सकते हैं।

ब्राह्मण के लिये ज्ञानदान करना व्यवसाय नहीं है ब्राह्मणोक्त कर्म है। ब्राह्मणेत्तरों के लिये व्ययसाय है, क्योंकि अनधिकृत रूप से धनप्राप्ति का साधन मात्र सिद्ध होता है। कलयुग में सन्यास ही निषिद्ध है फिर सन्यासी गुरु कैसे सिद्ध हो सकते हैं। एक पल के लिये उक्त निषेध का त्याग भी कर दिया जाय तो भी सन्यास की दीक्षा सन्यासी से लिया जाना ही सिद्ध है, शास्त्रों में गृहस्थाश्रमी के लिये सद्गृहस्थ ब्राह्मण से ही दीक्षा ग्रहण का विधान किया गया है। इस विषय की विस्तृत चर्चा अन्य आलेख में करेंगे।

वेदारम्भ संस्कार

वेदारम्भ हेतु आचार्य पञ्चभूसंस्कार करके अग्निस्थापन करें :

  1. परिसमूह्य : ३ कुशाओं से स्थण्डिल या हस्तमात्र भूमि की सफाई करें। कुशाओं को ईशानकोण में (अरत्निप्रमाण) त्याग करे । 
  2. उल्लेपन : गोबर से ३ बार लीपे।
  3. उल्लिख्य – स्फय या स्रुवमूल से प्रादेशमात्र पूर्वाग्र दक्षिण से उत्तर क्रम में ३ रेखा उल्लिखित करे।
  4. उद्धृत्य – दक्षिणहस्त अनामिका व अंगुष्ठ से सभी रेखाओं से थोड़ा-थोड़ा मिट्टी लेकर ईशान में (अरत्निप्रमाण) त्याग करे।
  5. अग्नानयन व क्रव्यदांश त्याग – कांस्यपात्र या हस्तनिर्मित मृण्मयपात्र में अन्य पात्र से ढंकी हुई अग्नि मंगाकर अग्निकोण में रखवाए । ऊपर का पात्र हटाकर थोड़ी सी क्रव्यदांश अग्नि (ज्वलतृण) लेकर नैर्ऋत्यकोण में त्याग कर जल से बुझा दे ।
  6. अग्निस्थापन – दोनों हाथों से आत्माभिमुख बिना स्थापन मंत्र के हीअग्नि को स्थापित करे, अग्नानयन पात्र में अक्षत-जल छिरके। अग्नि को प्रज्वलित कर पूजा करे व अग्नि रक्षार्थ पर्याप्त ईंधन दे दे।

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