विवाह क्या है, अर्थ, परिभाषा, प्रकार, उद्देश्य, बाल विवाह आदि की विस्तृत जानकारी – Vivah

विवाह क्या है, अर्थ, परिभाषा, प्रकार, उद्देश्य, बाल विवाह आदि की विस्तृत जानकारी – Vivah

विवाह गार्हस्थ जीवन का द्वार है और सृष्टि को अनवरत रखने में अपनी भूमिका निर्वहन करने के लिये अनिवार्य होता है। विवाह किये बिना किसी व्यक्ति के गृहस्थ आश्रम का प्रारम्भ नहीं होता। इस आलेख में विवाह को विशेष रूप में समझने का प्रयास किया गया है जिससे जो विवाह करने वाले हैं वो विवाह को समझ सकें व सफल दाम्पत्य जीवन जी सकें। विवाह का महत्व समझते हुये आलेख की उपयोगिता में वृद्धि के लिये विवाह पद्धति pdf भी दिया गया है। अंत में विवाह से संबंधित अनेकों प्रश्न और उनके शास्त्रोचित उत्तर भी दिये गये हैं।

विवाह क्या है, अर्थ, परिभाषा, प्रकार, उद्देश्य, बाल विवाह आदि की विस्तृत जानकारी – Vivah

यहां विवाह को भाषांतर करने पर आंग्ल भाषा में भी Marriage न लिखकर Vivah ही क्यों लिखा गया है; यह आलेख में आगे स्पष्ट हो जाएगा। पहले हमें विवाह की परिभाषा, उद्देश्य, प्रकार आदि समझना आवश्यक है। विवाह करने से पूर्व सभी वर-कन्या को विवाह के बारे में अपने दायित्व के बारे में, उद्देश्य के बारे में ज्ञान होना चाहिये।

विवाह की परिभाषा

सृष्टि की अविरल धारा को अक्षुण्ण रखते हुये पुरुषार्थत्रय (धर्मार्थकाम) सिद्धि हेतु स्त्री-पुरुष के जोड़े को न मात्र देह का अपितु आत्मा सहित; धार्मिक विधि और सामाजिक परम्पराओं के द्वारा अपूर्णता का निवारण कर पूर्णता प्रदान करते हुये दाम्पत्य बंधन करना विवाह कहलाता है।

वेदव्यास का कथन है – “पतयोर्धेन चार्धेन पत्न्योभुवन्निति स्मृतिः। यावन्न विदन्ते जायां तावदर्धो भवेत् पुमान्॥” अर्थात् आधे से पति और आधे से पत्नी होती है। इसी कारण पत्नी अर्धांगिनी कहलाती है और जब तक पुरुष विवाह नहीं करता, तब तक वह अधूरा रहता है।

पुण्याहवाचन विधि
विवाह का अर्थ
  • आराधयेत्पतिं शौरिं या पश्येत्सा पतिव्रता। कार्ये दासी रतौ वेश्या भोजने जननीसमा ॥ – पद्मपुराण
  • कार्ये दासी रतौ वैश्या भोजने जननी समा। आपदां बुद्धिदात्री च सा भार्या भूदुर्लभा ॥ – अन्य वचन

उसे विवाह कैसे कहा जा सकता जिसमें कोई अपने दायित्व का ग्रहण ही नहीं करता हो। जब दायित्व का ग्रहण ही न करे तो निर्वहन का प्रश्न ही उत्पन्न नहीं हो सकता। एक पति जब आत्मनिर्भर पत्नी ढूंढता है तो वह पति रूप में परिभाषित ही नहीं हो पाता अर्थात पति सिद्ध नहीं हो सकता। एक पत्नी जिसे आत्मनिर्भरता के अतिरिक्त पति को पतन से बचाने का समय ही उपलब्ध न हो तो वह पत्नी कैसे सिद्ध हो सकती है।

विवाह के प्रकार

  1. ब्रह्म विवाह : अपने घर पर वर को बुलाकर यथाशक्ति अलंकृत कन्यादान करना “ब्रह्मविवाह” कहलाता है। ब्रह्म विवाह विधि से विवाहित पत्नी द्वारा उत्पन्न संतान दोनों कुलों का पवित्र करने वाली होती है।
  2. दैव विवाह : यज्ञ में दीक्षित ऋत्विक् ब्राह्मण को कन्यादान करना “दैव विवाह” कहलाता है।
  3. आर्ष विवाह : वर से एक जोड़ा गौ (एक गाय और एक वृष) शुल्क लेकर उसे कन्यादान करना “आर्ष विवाह” कहलाता है|
  4. प्राजापत्य विवाह : तुम इस कन्या के साथ धर्मपूर्वक आचरण करो यह कहकर जो कन्या का अभिलाषी वर हो उसे कन्यादान करना “प्राजापत्य विवाह” कहलाता है।
  5. गंधर्व विवाह : वर और कन्या परस्पर स्वयं की सहमति से, भले ही परिवार की सहमति हो या नहीं विवाह करना “गंधर्व विवाह” कहलाता है।
  6. असुर विवाह : का मूल्य धन द्वारा प्रदान करके क्रय की हुई कन्या से विवाह करना “असुर विवाह” कहलाता है।
  7. राक्षस विवाह : कन्या की सहमति के बिना उसका युद्ध आदि द्वारा अपहरण करके आदि करके बलात् विवाह कर लेना “राक्षस विवाह” कहलाता है।
  8. पैशाच विवाह : शयन आदि के समय कन्या का अपहरण करके पत्नी रूप में स्वीकार करना “पैशाच विवाह” कहलाता है।

विवाह के उद्देश्य

विवाह के निम्नलिखित उद्देश्य कहे जाते हैं :

  1. गृहस्थाश्रम का आरम्भ करना : विवाह का प्रथम उद्देश्य गृहस्थाश्रम में प्रवेश करना ही है, क्योंकि विवाह के बिना गृहस्थाश्रम का आरम्भ नहीं हो सकता और विवाह के साथ ही गृहस्थाश्रम का आरम्भ हो जाता है।
  2. संतानोत्पत्ति : विवाह का द्वितीय उद्देश्य संतानोत्पत्ति करना होता है। संतानोत्पत्ति से ही सृष्टि की धारा आगे बढती है और पितृऋण से मुक्ति भी प्राप्त होती है।
  3. पुरुषार्थत्रय की सिद्धि : जीवन के चार पुरुषार्थ कहे गये हैं – धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष। इनमें से मोक्ष के तीनों पुरुषार्थ की सिद्धि भी विवाह का उद्देश्य होता है। अर्थ और काम तो गृहस्थाश्रमी के लिये ही होता है।
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