इस आलेख में विवाह मुहूर्त निर्धारण से लेकर विवाह संबंधी सभी महत्वपूर्ण जानकारी प्रदान की गयी है जैसे वर ढूंढने के लिये यात्रा करना, बार-बार अड़चन होने की शांति विधि, हस्तग्रहण अर्थात वर वरण (सगुन-तिलक) मुहूर्त, मण्डपाच्छादन मुहूर्त, कुलदेवता आमंत्रण पत्र लेखन, तेल-हल्दी इत्यादि। कुल मिलाकर इस आलेख में विवाह से पहले किये जाने वाली सभी तथ्यों की जानकारी दी गयी है। यह आलेख विवाह सीखने वालों और विधिपूर्वक विवाह संस्कार करने वालों के लिये विशेष उपयोगी है।
कैसे बनता है विवाह मुहूर्त ? विवाह संबंधी सभी महत्वपूर्ण जानकारी
प्राचीन परम्परा में वर भी उचित कन्या के लिये याचना करता था किन्तु वर्त्तमान युग में कन्या हेतु कन्या पक्ष ही योग्य वर को ढूंढते हैं और बाकि विधियां करते हैं। वास्तव में वर याचक होता है, प्रतिग्रहकर्ता होता है और कन्या पक्ष दाता होता है। इस प्रकार याचक को दाता ढूंढना और दाता का याचक ढूंढना दोनों के अंतर को समझा जा सकता है।
मध्यमवर्ग के लिये वर्त्तमान युग में वर की योग्यता का तात्पर्य पुरुषार्थ सिद्ध करने में योग्य, आचार, शील, गुण आदि न होकर सरकारी नौकरी मात्र समझा जाता है। यहां हम विवाह संबंधी सभी विषयों की चर्चा करने जा रहे हैं और सबसे पहले विवाह के लिये वर चयन आवश्यक होता है जिसके लिये यात्रा करनी पड़ती है। अर्थात आलेख में सबसे पहले वर ढूंढने की यात्रा के मुहूर्त से विचार करेंगे।
नगर-महानगरों के लोगों को ये बातें समझना कुछ कठिन हो सकता है क्योंकि नगरवासियों की जीवनशैली ही इस प्रकार की हो गयी है जिससे कर्मकांड-संस्कार-हवन सब-कुछ एक आयोजन समझने की भूल हो जाती है। शनैः शनैः ये भूल नगर से गांवो की ओर भी प्रस्थान करने लगी है और फोटो-सेशन की तरह सम्पूर्ण विवाह निपटा दिया जाता है। अन्य बातों की तो चर्चा ही क्या की जा सकती है।
विवाह के बारे में जानने योग्य महत्वपूर्ण जानकारी इस आलेख में दी गयी है – विवाह के बारे में जानें
प्रथम यात्रा
वर ढूंढने के लिये जो यात्रा होती है उसे वरतुहारी कहा जाता है, मैथिलि में इसे बोलचाल के रूप में घटकैती भी कहा जाता है।यात्रा के लिये प्रथम बार शुभ मुहूर्त की आवश्यकता होती है जो दिशा के अनुसार निर्धारित किया जाता है। कार्य सिद्धि के लिये यात्रा में चन्द्रमा का सम्मुख होना प्रशस्त होता है। दिक्शूल, अर्द्धप्रहरा, भद्रा आदि अशुभ माने जाते हैं अतः प्रथम यात्रा में इनका विशेष विचार करना चाहिये। किन्तु यदि एक दिन में ही यात्रा पूर्ण हो तो दिक्शूल का दोष मान्य नहीं होता।
खरमास, अधिकमास, क्षयमास, अशुद्ध समय, भाद्रमास का भी वरतुहारी के लिये त्याग किये जाने का व्यवहार प्राप्त होता है।विजया दशमी के दिन यात्रा हेतु किसी भी नियम का विचार नहीं किया जाता – इषमासि सिता दशमी विजया शुभकर्मसु सिद्धिकरी कथिता । श्रवणर्क्षयुता सुतरां शुभदा नृपतेस्तु गमे जयसन्धिकरी ॥ – मुहूर्त चिन्तामणि
यात्रा के समय यदि किसी प्रकार का अपशकुन हो जाये तो बैठकर 11 बार प्राणायाम करे फिर यात्रा करे यदि दुबारा अपशकुन हो तो 16 प्राणायाम करे और यदि तीसरा अपशकुन हो तो यात्रा स्थगित कर दे – आद्येऽपशकुने स्थित्वा प्राणानेकादश व्रजेत्। द्वितीये पोडश प्राणांस्तृतीये न क्वचिद् व्रजेत् ॥ – मुहूर्त चिन्तामणि। एक कार्य के लिये तीन ब्राह्मण, दो भाई अथवा पिता-पुत्र की यात्रा का निषेध मिलता है – पितापुत्रौ न गच्छेतां न गच्छेत्सोदरद्वयं। एक कार्यं समुद्दिश्य न गच्छेद् ब्राह्मणत्रयं॥
यदि बार-बार यात्रा असफल हो जाती हो बात न बनती हो तो एक महत्वपूर्ण उपाय इस प्रकार किया जाता है – गुरु विवाह (पति) का कारक होता है इसलिये गुरुवार के दिन पीले कपड़े हल्दी की गांठ बांधकर कन्या के बांयी बांह पर बांधा दिया जाता है। यदि विघ्न अधिक हो अर्थात सुनिश्चित होकर भी टूट जाती हो तो विनायक शांति करे। “विनायक शांति विधि“ अलग आलेख में प्रकाशित है।
वाग्दान : वाग्दान को फलदान भी कहा जाता है। एक बार को हस्तग्रहण भी वाग्दान माना जा सकता है किन्तु प्रथम बार वर को सुनिश्चित करके विवाह का वचन प्रदान करना ही वाग्दान सिद्ध होता है। परिवर्तित व्यवहारवश इसे फलदान भी बोला जाता है। अपितु उसी दिन शुभलग्न निर्धारित करके वाग्दान कर दिया जाता है।
वाग्दान का तात्पर्य है विवाहेच्छुक वर (पिता) को यथाकाल वर के प्रति कन्यादान करने का वचन प्रदान करना। वाग्दान के समय विवाह का मुहूर्त सुनिश्चित नहीं रहता अपितु वाग्दान के उपरान्त सुनिश्चित होता है। क्योंकि वर-कन्या का निश्चय हुये बिना विवाह मुहूर्त की आवश्यकता नहीं हो सकती अर्थात विवाह मुहूर्त की आवश्यकता तब होती है जब विवाह के लिये वर-कन्या दोनों सुनिश्चित हो जायें। प्रथम निश्चय तो दोनों पक्षों के पिता आदि ही करते हैं।
वाग्दान वास्तव में तब की प्रक्रिया है जब वरपक्ष (पिता आदि) कन्या की याचना करे और कन्या पक्ष सहमत हो जाये। किन्तु व्यवहारतः वरपक्ष कन्यायाचना करने नहीं जाता अपितु कन्या पक्ष ही वरयाचना करने जाते हैं। इसलिये वाग्दान की यह विधि फलदान में परिवर्तित हो जाती है और वर को ही वचन दिया जाता है अथवा फलदान काल में वचन न दिया गया हो तो वरवरण (हस्तग्रहण) करके दिया जाता है।
जब वर कन्या के उपर्युक्त लगे और विवाह के लिये सहमत हो तो स्वस्तिवाचनादि पूर्वक पान, सुपारी, पुष्पाक्षत, दूर्वा, चन्दन, द्रव्य, फल आदि लग्नपत्रिका सहित प्रदान करना वाग्दान या फलदान कहलाता है। जैसा की फलदान में फल शब्द आता है अतः वाग्दान में फल भी अवश्य प्रदान करे।
वाग्दान मन्त्र – ॐ तस्मिन् कालेऽग्नि सान्निध्ये, स्नातः स्नातेह्यरोगिणि अव्यंगे अपतिते अक्लीवे (अमुक नाम्नीं) कन्यां पिता (पितामह/भ्राता आदि कन्यादानकर्ता के अनुसार प्रयुक्त करे) तुभ्यं प्रदास्यति ॥
वर-वरण
वाग्दान के उपरान्त अगला कर्म वर-वरण (हस्तग्रहण/सगुन) होता है। यदि वाग्दान पूर्व में न हुआ हो तो भी हस्तग्रहण में ही वाग्दान की विधि समाहित हो जाती है, किन्तु हस्तग्रहण हेतु निश्चित रूप से शुभमुहूर्त आवश्यक होता है। यह संभव है कि विवाह के लिये वर की सहमति पूर्व ही प्राप्त हो किन्तु हस्तग्रहण का शुभमुहूर्त कुछ महीने पश्चात् प्राप्त हो इस कारण वाग्दान पूर्व ही सिद्ध होता है व हस्तग्रहण वाग्दान से पृथक भी सिद्ध होता है।
वरवरण (हस्तग्रहण) कई स्थितियों में विवाह के दिन भी सिद्ध होता है यथा अचानक विवाह सुनिश्चित होना और शीघ्रता पूर्वक होना। तो उस स्थिति में संक्षिप्त विधि से विवाह पूर्व वाग्दान/हस्तग्रहण भी किया जाता है। किन्तु एक व्यवहार जो वर्त्तमान में प्रचलित हो रहा है कि उपनयन के उपरांत उसी दिन अथवा अगले उपलब्ध मुहूर्त में विवाह करना इसका निषेध प्राप्त होता है।
एक दिन में 3 मङ्गल कार्य ही निषेध किया गया है और एक मंगलकार्य के उपरांत द्वितीय मंगल कार्य के लिये मुख्य रूप से 3 ऋतुओं अर्थात 6 महीने का अंतर करना कहा गया है, यदि वर्ष (संवत्सर) परिवर्तन होता हो तो मध्य में भी किया जा सकता है। तथापि न्यूनतम चतुर्थी तक तो दूसरा मङ्गलकारी नहीं करना चाहिये। चतुर्थी तक का कथन वराहमिहिर का है। अर्थात उपनयन और विवाह एक दिन ही न करे। उपनयनोपरान्त चतुर्थीकर्म के बाद ही हस्तग्रहण आदि करे।
वरवरण हेतु कन्यापक्ष बंधु-बांधवों और मित्रादिकों सहित उत्सव पूर्वक वर के यहां जाते हैं। निर्धारित शुभ मुहूर्त/लग्न में स्वस्तिवाचन, कलशस्थापन पूजन पूर्वक बहुत प्रकार के फल, वस्त्राभूषण आदि मङ्गल द्रव्य सहित वर का निर्धारित तिथि पर कन्याप्रतिग्रह (दान ग्रहण) हेतु वरण करते हैं। चूंकि वाग्दान में विशेष विधि नहीं अपनायी जाती क्योंकि दोनों पक्ष की सहमति होने पर उसी दिन वाग्दान यथोपलब्ध द्रव्यादि से कर लिया जाता है। तथापि उसे ही वाग्दान स्वीकारना उचित है।
वाग्दान हो जाने के बाद वरवरण उसका विस्तृत रूप, सविधि विशेष द्रव्यादि से, दोनों पक्षों के बंधु-बांधवों सहित उजागर करना है। वाग्दान में विवाह तिथि सुनिश्चित नहीं रहती, किन्तु वरवरण से पूर्व विवाह की तिथि भी सुनिश्चित रहनी चाहिये।
व्यवहार में कुछ विशेष कारणों से विवाह की तिथि सुनिश्चित किये बिना भी वर-वरण होता है लेकिन ऐसा तब करना चाहिये जब पूर्व ही वाग्दान/फलदान न हुआ हो। यदि वाग्दान/फलदान पूर्व ही हो गया हो तो विवाह की तिथि भी सुनिश्चित करके वरवरण/हस्तग्रहण/सगुन करना उचित प्रतीत होता है।
Ring ceremony or engagement : रिंग सेरेमनी या एंगेजमेंट विवाह का अंग नहीं है, यह मैरिज अर्थात क्रिश्चियन का व्यवहार है। बहुत सारे हिन्दुओं में भ्रमित होकर पंथ परिवर्तन कर लिया और फिर इसे हिन्दू विवाह का अंग दिखाने लगे। न तो इसे सद्भाव कहा जा सकता है न ही संस्कार। इसका मतिभ्रम या पथभ्रष्ट होना सिद्ध होता है। हां भ्रमित लोगों ने इसे विवाह का अंग समझ लिया है और भ्रमित करने वाला है फिल्म जगत, धारावाहिक आदि।
बुद्धिमान व्यक्ति उचित-अनुचित का निर्णय विवेक से करें और अभिभावकों का निर्णय बच्चे स्वीकार करें इसलिये तदनुरूप विद्यालयों में ही उन्हें अध्ययन करायें। यह अध्ययन दोष के कारण होता है कि बच्चे अभिभावकों की अवज्ञा करते हुये उन्हीं को स्वेच्छाचार के लिये बाध्य कर देते हैं।
वरवरण मुहूर्त
- मास : खरमास, मलमास, श्रावण-भाद्रादि रहित। अशुद्ध काल का त्याग करके।
- तिथि : रिक्ता, दग्ध, मन्वादि तिथियों का त्याग करके।
- वार : रवि, सोम, बुध, गुरु और शुक्र।
- नक्षत्र : अश्विनी, कृत्तिका, पूर्वा तीनों, रोहिणी, मृगशिरा, मघा, उत्तरा तीनों, हस्त, चित्रा, स्वाति, अनुराधा, मूल, श्रवण, धनिष्ठा, रेवती।
नान्दीमुख/वृद्धि/आभ्युदयिक श्राद्ध
विष्णुपुराण – कन्यापुत्रविवाहेषु प्रवेशे नववेश्मनः । शुभकर्मणि बालानां चूडाकर्मादिके तथा ॥ सीमन्तोन्नयने चैव पुत्रादिमुखदर्शने । नान्दीमुखान्पितृनादौ तर्पयेत्मयतो गृही ॥
नान्दीमुख श्राद्ध को ही वृद्धि अथवा आभ्युदयिक श्राद्ध भी कहा जाता है। विवाहादि मङ्गलकार्यों का आरंभ नान्दीमुख श्राद्ध से ही कहा गया है – जाबालि : व्रतयज्ञविवाहेषु श्राद्धेहोमार्चनेजपे। आरब्धे सूतकं न स्यादनारब्धे तु सूतकम् ॥ प्रारम्भोवरणं यज्ञे संजल्पोव्रतसत्रयोः। नान्दीश्राद्धंविवाहादौ श्राद्धेपाकपरिक्रिया ॥ अधिकतर लोग पितृदोष पीड़ित हो रहे हैं इसका एक कारण यह भी है कि अपेक्षित काल में पितरों को श्राद्ध द्वारा तृप्त न करना।
सभी मङ्गलकार्यों में नान्दीश्राद्ध अनिवार्य होता है और त्याग करने का अर्थ कर्महीन होना सिद्ध होता है, वृद्धिश्राद्ध रहित होने पर यज्ञ की आसुरी संज्ञा हो जाती है – शातातप : वृद्धौ न तर्पिता ये वै पितरोगृहमेधिभिः। तद्हीनमफलंज्ञेयं आसुरोविधिरेव स ॥ यद्यपि नान्दीमुख श्राद्ध अनिवार्य है तथापि व्यवहार में विलुप्त होते देखा जा रहा है और फलस्वरूप विभिन्न प्रकार की समस्यायें भी उत्पन्न होती है।
यदि कर्तव्य कर्म समझ में न आये तो भी स्वार्थ से ही करना अवश्य चाहिये। नान्दीश्राद्ध करने से दो स्वार्थों की भी सिद्धि होती है :
- अशौच निवारण : प्रथम तो यह कि जिस कर्म के निमित्त नान्दीश्राद्ध किया जाता है उस कर्म में अशौच की व्याप्ति नहीं होती। कई बार विवाह के 2 – 4 दिन पहले किसी का मरण होने पर अशौच होने से समस्या उत्पन्न हो जाती है और विवाह को आगे बढ़ाना परता है अथवा कई प्रकार के विकल्पों का आश्रय ढूंढा जाता है। किन्तु नान्दीश्राद्ध किये बिना किसी विकल्प का भी कोई औचित्य नहीं रहता अशौच की व्याप्ति होती है। अतः इस स्वार्थ के लिये कि अशौच होने पर भी कर्म हेतु अशौच प्रभावी नहीं होगा वर और कन्या दोनों के पिताओं को नान्दीश्राद्ध अवश्य करना चाहिये।
- पितृदोष में न्यूनता : द्वितीय स्वार्थ यह कि पितृदोष से समस्याग्रस्त रहते हैं तो नान्दीश्राद्ध द्वारा पितर प्रसन्न होंगे अर्थात आशीर्वाद प्रदान करेंगे अर्थात पितृदोष में कमी आएगी, ऐसा स्वार्थ रखकर ही सही किन्तु अवश्य करे।
नान्दीश्राद्ध कौन करे : पुत्र का विवाह हो अथवा पुत्री का नान्दीश्राद्ध पिता ही करे। कन्यादान करना भी प्रथम अधिकार पिता का ही है। कन्यादान में पिता के बाद पितामह का अधिकार होता है, यदि पितामह कन्यादान करे तो नान्दीश्राद्ध भी वही करे। किन्तु पिता के जीवित रहते हुये भी अर्थात जीवितपितृक को भी निमित्त के कारण नान्दीश्राद्ध का अधिकार होना सिद्ध होता है। विष्णुपुराण – यज्ञोद्वाहप्रतिष्ठासु मेखलाबन्धमोक्षयोः । पुत्रजन्मनृपोत्सर्गे वृद्धिश्राद्धं समाचरेत् ॥
नान्दीश्राद्ध कब करे : नान्दीश्राद्ध के लिये विवाहादि में 21 दिन पूर्व करने की आज्ञा प्राप्त होती है – एकविंशत्यहर्यज्ञे विवाहे दशवासराः । त्रिषट् चौलोपनयने नान्दीश्राद्धं विधीयते ॥ तत्पश्चात वृद्धिश्राद्ध के कर्मकाल का भी निर्धारण अपेक्षित होता है। पुत्रजन्म अर्थात जातकर्म में तत्काल कहा गया है और अन्य कर्मों में पूर्वाह्न काल में वृद्धि श्राद्ध करना चाहिये – पूर्वाह्न वै भवेद् वृद्धिर्विना जन्मनिमितकम् । पुत्रजन्मनि कुर्वीत श्राद्धे तात्कालिकं बुधः ॥ – अत्रि
तथापि यदि अचानक ही एक दिन में विवाह उपस्थित हो जाये तो यथाकाल ही करे किन्तु लोप न करे।
मृदाहरण (मटकोर) : नारद जी का वचन है कि मङ्गलसूचनार्थ सभी मांगलिक कर्मों में यवांकुरार्पण करना चाहिये। इसके लिये नौवें, सातवें, पांचवें अथवा तीसरे दिन बीज नक्षत्र प्राप्ति से शुभमुहूर्त में ध्वजा-तोरणादि से घर को अलंकृत करके वाद्य यंत्रादि का वादन-नृत्य करते हुये पूर्व अथवा उत्तर दिशा में जाकर शुद्ध रेतीली मिट्टी ग्रहण करे। घर आकर किसी मिट्टी अथवा बांस के पात्र में रखे उसमें बहुत से बीज (यवांकुर) और जल मिश्रित कर दे। आवश्यक होने पर तत्काल ही करे।
यह क्रिया वाग्दान (हस्तग्रहण) पूर्व ही करे ऐसा भी कहा गया है। किन्तु व्यवहारतः विवाहपूर्व ही औपचारिक प्रचलिन प्राप्त होता है। इसे मटकोर भी कहा जाता है।
कर्तव्यंमंगलेष्वादौ मंगलायांकुरार्पणम् ॥ नवमे सप्तमे वापि पंचमे दिवसेपिवा ॥ तृतीयंबीजनक्षत्रे शुभवारे शुभोदय ॥ सम्यग्गृहाण्यलंकृत्य वितानध्वजतोरणैः ॥ सहवादित्र नृत्याद्यैर्गत्वा प्रागुत्तरांदिशम् ॥ तत्रमृत्सिकतांश्लक्ष्णां गृहीत्वापुनरागतः ॥ मृन्मयेष्वथवा वैणवेषु पात्रेषु योजयेत् । अनेकबीजसंयुक्तां तोयपुष्पोप शोभिताम् ॥ अथवा वचन से विवाहपूर्व नौवें, सातवें, पांचवें या तीसरे दिन की भी सिद्धि हो जाती है। यह ज्योतिर्निबंध में नारद जी का वचन है।
देवकोत्थापन : विवाहादि मङ्गलकार्यों में कुलदेवता को भी निमंत्रित किया जाता है। देवकोत्थापन अर्थात देवता को उठाना या जगाना अर्थात मङ्गलकार्य की सूचना देना या आमंत्रित करना। देवता (कुलदेवता) को सम दिन में अथवा विषम में करना हो तो पांचवे या सातवें दिन (विवाहपूर्व) आमंत्रित करे। इसे जगरणा भी कहा जाता है। विषम दिन में 5-7 के अतिरिक्त निषिद्ध है और सम दिन में छठा दिन निषिद्ध है। अधिकतर दूसरे दिन अर्थात विवाह से एक दिन पूर्व किया जाता है।
किन्तु यह अनिवार्य नहीं है कि दूसरे दिन ही करे । इस संबंध में नारद का वचन इस प्रकार प्राप्त होता है – समे तु दिवसे कुर्याद् देवकोत्थापनं विधिः । षष्ठं च विषमं नेष्टं मुक्त्वा पञ्चमसप्तमौ ॥
जागरण या जगरणा अधिकांशतः तीसरे दिन करते हुये देखा जाता है जो विहित नहीं है। तृतीय दिन का निषेध प्राप्त होता है जो आगे और स्पष्ट किया गया है।
कांजिका कर्म : हल्दी-तेल-मेंहदी आदि का फोटो सेशन अब ग्रामीण क्षेत्रों में भी होने लगा है और इसको समझे बिना येन-केन-प्रकारेण स्वेच्छाचार से होने लगा है। मारवाड़ी आदि के लिये राशिवश दिन निर्धारित किया गया है। अन्य सभी पांच दिन, तीन दिन अथवा एक दिन में ही उबटन लगाने की क्रिया करते हैं। उबटन लगाने से पूर्व यथोपचार हरिद्रा पूजन करके उबटन निर्माण करना हल्दी है।
मूलेन्द्र रुद्रश्रवणार्क पौष्ण विश्वेशचित्रानलरेवती च । संस्थापनं कांजिककंटिकाया वारे रवेर्भूमिसुतस्य शस्तम ॥ कांञ्जिका के लिये प्रशस्त नक्षत्र इस प्रकार बताया गया है – मूल, ज्येष्ठा, आर्द्रा, श्रवण, हस्त, रेवती, उत्तराषाढ़, चित्रा, और स्वाती। रवि और मंगलवार दिन को प्रशस्त कहा गया है।
जन्मराशि वश तेल या उबटन लगाने का प्रारम्भ दिन मुहूर्त चिंतामणि में इस प्रकार बताया गया है – मेषादिराशिज वधूवरयोर्बटोश्च तैलादिलापनविधौ कथितात्र संख्या । शैला दिशः शरदिगक्षनगाद्रिबाण बाणाक्षबाणगिरयो विबुधैस्तु कैश्चित् ॥ मेषादि राशिक्रम से – 7, 10, 5, 10, 5, 7, 7, 5, 5, 5, 5, 7 .
मण्डप स्थापन
मण्डप स्थापन/पूजन करने की भी विशेष विधि और मुहूर्त बताई गयी है। मण्डप स्थापन-पूजन । मण्डप स्थापन के लिये ज्योतिष प्रकाश में चतुर्थ, सप्तम, पंचम, नवम और एकादश दिन को श्रेष्ठ कहा गया है, तृतीय और षष्ठ दिन को निषिद्ध किया गया है – चतुर्थो मंडपः श्रेष्ठः सप्तमः पंचमस्तथा। नवमैकादशौ श्रेष्ठौनेष्टौ षष्ठतृतीयकौ ॥ 8, 10, 12 और 16 हाथ का मण्डप उत्तरोत्तर प्रशस्त है । अर्थात 16 हाथ का उत्तम और 8 हाथ का अधम होता है। – अष्टहस्तं तु रचयेन्मण्डपं ना द्विषट्करम् । कार्यः षोडशहस्तो वा दशहस्तस्तथैव च ॥
वेदी निर्माण
वेदी निर्माण प्रसङ्ग से यह सिद्ध होता है कि वेदी निर्माण विवाह पूर्व ही किया जाना चाहिये। व्यवहार में इसलिये प्रचलन इसलिये प्राप्त नहीं होता कि हवन को मुख्यकर्म न मानने भ्रम हो गया है। किसी भी संस्कार में मुख्य कर्म हवन ही होता है इसलिये शास्त्रोक्त विधि के अनुसार वेदी निर्माण पूर्व ही करे ।
हवन वेदी के विषय में यह प्रमाण प्राप्त होता है – हस्तोच्छ्रितां चतुर्हस्तैश्चतुरस्त्रां समंततः । स्तम्भैश्चतुर्भिः सुश्लचणैर्वामभागे स्वसद्मनः ॥ एक हाथ ऊंचा और चतुरस्र चार हाथ वेदी निर्माण करे, उसके चारों ओर सुंदर स्तम्भादि लगाये। वेदी निर्माण मण्डप के वामभाग में करे । इसके अतिरिक्त वेदी में सीढ़ियां आदि भी बनाये ऐसा बताया गया है।
विवाह सम्बन्धी उपरोक्त मण्डपादि सभी कार्य विवाहोक्त नक्षत्र और शुभ दिन में किया जा सकता है – कन्यादानं गणेशार्चां कर्मारम्भं कुसुम्भकं। मण्डपं वर्णकाद्यं च सर्वं कुर्याद्विवाहभे ॥ विशेष ध्यातव्य यह है कि तीसरा दिन, छठा दिन और नौवां दिन विशेष रूप से निषिद्ध है। अर्थात विवाह सम्बन्धी सभी क्रियाएं विवाह से पूर्व उक्त निषिद्ध दिनों को छोड़कर विवाह नक्षत्र की उपलब्धता से यथाकाल करे।
सामान्य रूप से जो बोली-सुनी जाती है कि सम दिन में न करे और विषम दिन में करे वह प्रामाणिक नहीं है। प्रमाणानुसार सम-विषम दोनों ग्राह्य है किन्तु सम में छठा दिन त्याज्य है और विषम दिनों में मात्र पांचवां दिन और सातवां दिन ही ग्राह्य है, विषम दिनों में तीसरा और नौवां दिन विशेष रूप से निषिद्ध है।
प्रचलन में जो देखा जा सकता है वो है विवाह से दूसरे दिन पूर्व अधिकतर क्रियायें संपन्न करना। दूसरे दिन पूर्व का तात्पर्य है विवाह के पूर्व दिन आरम्भ करना। अथवा और विशेष परिस्थिति में विवाह दिन ही सभी कार्य कर लेना। विवाह दिन या दूसरे दिन कोई प्रतिषेध नहीं होता, हाँ यदि तीसरे दिन मण्डप स्थापन आदि किया जाय तो उसमें विचार करना चाहिये।
घृतढारी या घीढ़ारी या गिढारी
घृतढारी अर्थात मातृकापूजा अपने मूल स्वरूप से विकृत होकर करते हुये देखा जाता है। मातृकापूजा, वृद्धि श्राद्ध/आभ्युदयिक या नान्दीश्राद्ध का ही अंग है लेकिन बहुत जगह नान्दीश्राद्ध न करके विवाह से दूसरे दिन मात्र मातृका पूजा किया जाता है जो समुचित नहीं प्रतीत होता है। ये तो ठीक वैसे समझा जा सकता है जैसे भोजन की थाली में सबकुछ छोड़कर मात्र सब्जी को ग्रहण किया जाये।
चूँकि नान्दीश्राद्ध के उपरान्त भी मातृका विसर्जन नहीं होता उस स्थिति में यदि नान्दीमुखश्राद्ध किया गया हो तो अविसर्जित मातृका के लिये पुनः वसोर्धारा किया जा सकता है किन्तु यदि नान्दीमुख श्राद्ध ही न किया गया हो तो मातृका पूजन किस आधार से सिद्ध होता है या समझना कठिन है।
विवाह मुहूर्त
दोष निवारण विशेष विचार : मुहूर्त विचार करने में अनेकों प्रकार के दोष भी रहते हैं। लग्न शोधन से दोषों का निवारण भी होता है। दोष निवारक लग्न शोधन का एक विशेष महत्वपूर्ण प्रमाण आगे दिया जा रहा है जिसके अनुसार एक शुभ लग्न की प्राप्ति तो सर्वथा संभावित रहेगी।
विवाह में विविध दोषों के शमन हेतु मुहूर्त चिंतामणि में एक विशेष महत्वपूर्ण वचन प्राप्त होता है – त्रिकोणे केंद्रे वा मदनरहिते दोषशतकं हरेत्सौम्याः शुक्रो द्विगुणमपि लक्षं सुरगुरुः। भवेदाये केंद्रेऽङ्गप उप लवेशो यदि तदा समूहं दोषाणां दहन इव तूलं शमयति॥
त्रिकोण (9 & 5) और सप्तम भाव के अतिरिक्त केंद्र (1, 4, & 10) अर्थात प्रथम, चतुर्थ, पञ्चम, नवम और दशम इन पांच भावों में यदि बुध हो तो 100 दोषों का शमन होता है, यदि शुक्र रहे तो उससे द्विगुणित, यदि गुरु रहे तो लक्ष दोषों का शमन करता है। इसी प्रकार लग्नेश व लग्ननवांशेश यदि आय (11) वा केंद्र में रहे तो दोष समूहों को नष्ट कर देता है जैसे आग कि छोटी सी चिंगारी भी रुई के पर्वत को जला सकती है।
वर्ष विचार
वर्षविचार में प्रमुख बिंदु यह है कि यथाकाल विवाह हो तो करे और गर्भगणना करते हुए वर्षविचार करे। किन्तु राजकीय विधि से यथाकाल विवाह बाधित हो जाता है और मुख्य काल व्यतीत हो जाने पर विशेष विचार अपेक्षित नहीं होता अतः निर्धारित निषिद्ध आयु व्यतीत हो जाने पर यथशीघ्र विवाह किया जा सकता है। कन्या के लिये 18 वर्ष और वर के लिये 21 वर्ष राजकीय विधि से निर्धारित किया गया है।
वर और कन्या दोनों के लिये वर्ष विचार एक ही प्रकार से करना चाहिये। शास्त्रों में विवाह वर्ष विचार इस प्रकार प्राप्त होता है जो मात्र वर के लिये विचारणीय है कन्या का विवाहकाल व्यतीत हो जाने से वयविचार की आवश्यकता नहीं है। अयुग्मेदुर्भगा नारीयुग्मेतुविधवाभवेत् । तस्माद्गर्भान्वितेयुग्मेविवाहेसापतिव्रता ॥ राजमार्तण्ड में कहा गया है कि विषम वर्ष में विवाह करने से दुर्भगा और सम वर्ष में करे तो विधवा होती है। अर्थात् जन्म से किसी प्रकार गणना न करे।
आयु गणना गर्भ से करे और युग्म अर्थात् सम वर्ष में विवाह करे । गर्भ से सम वर्ष निर्धारित करने की विधि – विषम वर्ष में जन्ममास में तीन महीने जोड़ दे तो गर्भ से युग्म वर्ष प्राप्त होता है जो युग्म वर्ष के प्रारंभिक तीन माह पर्यंत होता है। वर के लिये विषम वर्ष का ग्रहण करे । 20वें वर्ष को विषाक्त माना जाता है।
दशवर्षव्यतिक्रान्ता कन्या शुद्धिविवर्जिता।तस्यास्तारेन्दुलग्नानां शुद्धो पाणिग्रहो मतः॥ यह व्यास जी का वचन है कि 10 वर्ष से अधिक हो जाने पर कन्या के लिये विशेष मुहूर्त शोधन की आवश्यकता नहीं होती, (शुद्धिविवर्जना का कराण वयाधिक्यता है) उसके लिये तारा, चन्द्र, लग्न शुद्धि मात्र प्राप्त हो तो विवाह कर दे ।
मास विचार
मुहूर्त चिंतामणि में बताया गया है कि मिथुन, कुम्भ, मकर, वृश्चिक, वृष और मेष के सूर्य में विवाह करे। आषाढ शुक्ल दशमी तक मिथुन का सूर्य ग्राह्य, वृश्चिक का सूर्य होने पर देवोत्थान एकादशी के आगे का कार्तिक ग्राह्य, मकर के सूर्य में पौष व मेष के सूर्य में चैत्र मास भी ग्राह्य होता है – मिथुनकुम्भमृगालिवृषाजगे मिथुनगेऽपि रवौ त्रिलवे शुचे । अलिमृगाजगते करपीडनं भवति कार्तिकपौषमधुष्वपि ॥
त्रिज्येष्ठ विचार
तीन ज्येष्ठ का विवाह में निषेध किया गया है। यदि वर और कन्या दोनों ज्येष्ठ हो तो द्विजेष्ठ होता है एवं ज्येष्ठ मास भी हो तो त्रिज्येष्ठ हो जाता है। विशेष परिस्थिति में कृत्तिका का सूर्य त्याग कर किया जा सकता है। द्वौ ज्येष्ठौ मध्यमौ प्रोक्ताः एकं ज्येष्ठं शुभावहं। ज्येष्ठत्रयं न कुर्वीत विवाहे सर्व सम्मतं॥
तिथि विचार
तिथि विचार में मुख्य रूप से त्याज्य का त्याग करना देखा जाता है। रिक्ता व अमावास्या तिथि, मन्वादि, युगादि, दग्ध आदि तिथियां त्याज्य होती है। इनके अतिरिक्त तिथियां विवाह में ग्राह्य होती है।
नक्षत्र विचार
मृगशिरा, हस्त, मूल, अनुराधा, मघा, रोहिणी, रेवती, तीनों उत्तरा, स्वाती नक्षत्र यदि वेध रहित हो तो विवाह में प्रशस्त कहे गये हैं – निर्वेधैः शशिकरमूलमैत्रपित्र्य – ब्राह्मान्त्योत्तरपवनैः शुभो विवाहः। पराशर मत से कुछ अन्य नक्षत्र भी इसमें युक्त किये जाते हैं – अश्विनी, चित्रा, श्रवण और धनिष्ठा।
वार विचार
वार विचार में भी शनिवार और मंगलवार त्याज्य होता है। शेष सभी वारों में विवाह प्रशस्त होता है।
लग्न विचार
वृष, मिथुन, कन्या, तुला, धनु और मीन लग्न। शुभग्रह केंद्र-त्रिकोण में हो और पापग्रह त्रिषडाय में रहे तो शुभ होता है।
मुहूर्त विचार
दिन के 15 मुहूर्ताधिपति इस प्रकार होते हैं – रुद्र, उरग, मित्र, पितर, वसु, अम्बु (जल), विश्वेदेव, विधि (अभिजित्), ब्रह्मा, इन्द्र, इन्द्राग्नी, दैत्य, वरुण, अर्यमा, भग – रुद्राख्योरगमित्रपित्र्यवसवो वार्याख्य विश्वेविधि र्ब्रह्मेन्द्रेन्द्र हुताशदैत्यवरुणा अप्यर्यमाख्यो भगः । एते पंचदशक्रमात्तु दिवसे ज्ञेया मुहूर्ता भगः, चेन्द्राग्नी अहिदैत्यरौद्रपितरस्त्याज्यास्तु शेषाः शुभाः ॥ त्याज्य – भग, इन्द्राग्नी, सर्प (उरग), दैत्य, रुद्र, पितर ये मुहूर्त त्याज्य हैं तथा शेष शुभ होते हैं ।
दिन की भांति रात्रि के 15 मुहूर्ताधिपति क्रमशः इस प्रकार होते हैं – ईश्वर (शिव), अजैकपाद, अहिर्बुध्न्य, पूषा, अश्विनी कुमार, यमराज, अग्नि, ब्रह्मा (धाता), चन्द्रमा, अदिति, बृहस्पति, विष्णु, सूर्य, त्वष्टा, समीरण (वायु) – रात्रौ पंचदशेश्वराज चरणाहिर्बुध्न्य पूषाभिधा, नासत्यान्तक वह्निधातृ शशिनश्चादित्य जीवाच्युताः । अर्कत्वष्ट्र समीरणांशुभविधौ चत्वार एव शुभाः, रौद्राजाङ्घि यमाग्नयो यदुडुपो यस्मिन्क्षणे यत्फलम् ॥ त्याज्य – रात्रि में इनके मुहूर्त त्याज्य कहे गये हैं – रौद्र, अजैकपाद, यम और अग्नि।
वार के आधार पर भी कुछ मुहूर्त त्याज्य कहे गये हैं :- रविवार को अर्यमा, सोमवार को ब्रह्मा व राक्षस, मंगलवार को पितर व अग्नि, बुधवार को अभिजित् (विधि); गुरुवार को राक्षस व जल; शुक्रवार को ब्रह्मा व पितर, शनिवार को रुद्र या ईश एवं सर्प ये मुहूर्त सभी शुभ कार्यों में मृत्युप्रद होते हैं। इनका नाम दुर्मुहूर्त है – अर्यमाराक्षसब्राह्मौ पित्र्याग्नेयौ तथाभिजित् । रक्षःसार्पौ ब्राह्मपित्र्यौ भौजंगेशौ इनादिषु ॥ – नारद
विवाह मुहूर्त देखें – 2024
सारांश : इस आलेख में विवाह से जुड़े सभी विधियों और उनके शुभ मुहूर्त का निर्धारण कैसे करें इसकी विस्तार से चर्चा की गयी है और इस आलेख के माध्यम से अन्य भी विशेष महत्वपूर्ण जानकारी प्राप्त होती है। इसके साथ ही दोष निवारण के लिये एक महत्वपूर्ण सूत्र का भी उल्लेख किया गया है जिसके कारण आलेख की उपयोगिता में और वृद्धि होती है। आलेख में मिलने वाली किसी भी त्रुटि या सुझाव देने के लिये व्हाटसप पर सन्देशों का स्वागत है – 7992328206.
कर्मकांड विधि में शास्त्रोक्त प्रमाणों के साथ प्रामाणिक चर्चा की जाती है एवं कई महत्वपूर्ण विषयों की चर्चा पूर्व भी की जा चुकी है। तथापि सनातनद्रोही उचित तथ्य को जनसामान्य तक पहुंचने में अवरोध उत्पन्न करते हैं। एक बड़ा वैश्विक समूह है जो सनातन विरोध की बातों को प्रचारित करता है। गूगल भी उसी समूह का सहयोग करते पाया जा रहा है अतः जनसामान्य तक उचित बातों को जनसामान्य ही पहुंचा सकता है इसके लिये आपको भी अधिकतम लोगों से साझा करने की आवश्यकता है।
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