हम नित्य, नैमित्तिक और काम्य तीन कर्मों के बारे में जानते हैं और इसमें से नित्य कर्म ही दैनिक पूजा आदि का वास्तविक तात्पर्य होता है। संकल्प (Sankalp) की सभी कर्मों में आवश्यकता होती है चाहे नित्यकर्म हों, नैमित्तिक हों अथवा काम्य हों। इस आलेख में नित्य कर्म (दैनिक पूजा) आदि में संकल्प के महत्व पर प्रकाश डाला गया है। यह आपके दैनिक अनुष्ठानों के आचरण में दृढ़ता, तन्मयता, आस्था, कर्मसिद्धि आदि निर्धारित करने और अपने मन को एकाग्र करने के महत्व पर चर्चा करता है, और उन लोगों के लिए अंतर्दृष्टि प्रदान करता है जो अपनी आध्यात्मिक साधना को अधिक गहन करना चाहते हैं।
दैनिक पूजा संकल्प: क्या यह आवश्यक है? – Is Daily Sankalp Really Necessary?
“अपनी आध्यात्मिक साधना के पथ पर आगे बढ़ने के लिये, और अधिक सिद्धि व शीघ्र लाभान्वित होने के लिये संकल्प के बारे में अवश्य जानें। यह चर्चा पूजा-अनुष्ठान आदि में दैनिक संकल्प की शक्ति का अन्वेषण करता है, और बताता है कि कैसे सुदृढ़ निश्चय आपके अनुष्ठानों को व्यक्तिगत विकास और परिवर्तन के एक शक्तिशाली साधन में बदल सकते हैं।”
“क्या संकल्प और दैनिक संकल्प मात्र एक औपचारिकता है अथवा आपकी पूजा-उपासना-साधना के सफल होने का आधार ? यह आलेख इस अभ्यास के पीछे छिपे प्राचीन ज्ञान पर प्रकाश डालता है और आपकी आध्यात्मिक यात्रा के लिए इसके आश्चर्यजनक लाभों की पड़ताल करता है।”
मानव के पास मस्तिष्क है, बुद्धि है और वह निरंतर चिंतनशील रहता है। कर्म करते रहना मानव का स्वभाव है अर्थात कर्म किये बिना नहीं रह सकता ऐसा तो गीता में भी कहा गया है। चंचल मन निरंतर कुछ न कुछ सोचता ही रहता है, कुछ न कुछ प्राप्त करने का विचार करता रहता है। गीता में कहा गया है :
“न हि कश्चित्क्षणमपि जातु तिष्ठत्यकर्मकृत् | कार्यते ह्यवश: कर्म सर्व: प्रकृतिजैर्गुणै: ॥”
जब कभी कुछ करने के लिये मन सोचता है तो वह भी संकल्प की ही श्रेणी में आता है किन्तु वह संकल्प होता नहीं है क्योंकि मन के चिंतित सभी कर्मों में प्रवृत्त नहीं होते हैं, मन पुनः आगे नहीं करने का विचार भी कर सकता है। किन्तु जिस कर्म के लिये मन यह निश्चय कर लेता है कि “करूँगा” उस समय भी वह संकल्प नहीं कहला सकता क्योंकि अभी कर्म का स्वरूपादि स्पष्ट नहीं रहता, क्योंकि उक्त कर्म करूँगा यह विचार परिवर्तित भी हो सकता है।
जब कर्म का स्वरूप, काल, विधि और प्रक्रिया, फल, आदि विचार करके दृढ़ निश्चय कर लेता है कि “करूँगा” तब संकल्प संज्ञक होता है और मन में किया गया दृढ निश्चय मानसिक संकल्प होता है।
जब उक्त मानसिक संकल्प वचनों द्वारा व्यक्त किया जाता है तो उसे वाचा संकल्प कहते हैं। वचन द्वारा व्यावहारिक कर्मों के संकल्प को मात्र अन्य व्यक्ति आदि के प्रति व्यक्त करते हैं किन्तु पारमार्थिक कर्मों में वचन से व्यक्त करने की भी एक विशेष विधि होती है, जैसा की हम यज्ञादि में देखते हैं।
कर्मणा संकल्प तो वास्तव में सम्पूर्ण कर्म ही होता है। कर्म संकल्प का ही मूर्त्तस्वरूप होता है।
- संकल्प कामना का प्रकटीकरण है, स्थिरीकरण है।
- संकल्प कर्म का आरम्भ है।
- संकल्प कर्म के प्रति प्रतिबद्धता है।
- संकल्प मनसा-वाचा-कर्मणा एकत्व का उद्घोष है।
- संकल्प कौशल का परिचायक है।
संकल्प के महत्व को समझना
संकल्प क्या है? पूजा-अनुष्ठानों में इसकी संक्षिप्त परिभाषा और उद्देश्य : यदि हम संकल्प के अर्थ, परिभाषा आदि को समझने का प्रयास करें तो इसे “दृढ इच्छा” कहकर भी समझाया जाता है। वास्तव में संकल्प सम्यक रूप से विचार पूर्वक उचित निर्णय लेते हुये फलसिद्धि का भाव रखते हुये विहित कर्म में प्रवृत्त होना है। कर्म को पूर्ण करने का अभिप्राय भी संकल्प में ही निहित रहता है अर्थात जिस कर्म का संकल्प किया गया है उस कर्म को पूर्ण करना भी आवश्यक होता है।
संक्षेप में कहें तो संकल्प संस्कृत का शब्द है और किसी भी धार्मिक पूजा-अनुष्ठान आदि के आरम्भ में विशेष विधि से देश-काल-आत्म-कामना आदि का संस्कृत में उच्चारण करके पूजा-अनुष्ठान किया जाता है और संकल्प का मूल तात्पर्य यही है। किन्तु किसी अन्य व्यावहारिक कर्म में भी सम्यक ज्ञान रखते हुये उपरोक्त विधि के बिना भी आवश्यकतानुसार प्रवृत्त होते हैं तो उसे भी संकल्प समझा जा सकता है, परन्तु संकल्प का यह मुख्य भाव नहीं है। यथा हम किसी भी कार्य के विषय में जब निश्चय करते हैं कि अमुक कार्य अमुक समय में, अमुकामुक विधि से करूँगा तो वह भी एक प्रकार से संकल्प ही होता है।
“संकल्प वह आधारशिला है जो कर्म के स्वरूप व विस्तार, कर्म की विधि, कर्म का काल, कर्म के देवता, कर्म का फल इत्यादि व्यक्त करते हुये कर्म को पूर्ण करने की प्रेरणा भी प्रदान करता है।”
संकल्प की शक्ति; संकल्प कैसे एक सार्थक पूजा की नींव रखता है : संकल्प की शक्ति को हम इतने से ही समझ सकते हैं कि संकल्प से ही कर्म का निर्धारण होता है और संकल्प के अनुसार संकल्पित कर्म करने से उसकी पूर्णता होती है एवं तदनुसार दैवयोग से फल की भी सिद्धि होती है। वास्तव में कर्म का आधार संकल्प ही होता है; क्योंकि प्रथम तो कामना अर्थात इच्छा उत्पन्न होती है, तत्पश्चात उसकी पूर्ति के कर्म (उपाय) का ज्ञान प्राप्त करते हैं और तदनंतर किसी विशेष देश-काल में उस कर्म को विहित विधि के अनुसार पूर्ण करते हैं।
संकल्प का मुख्य संबंध धर्माचरण, पूजा-अनुष्ठान आदि से ही है अतः सभी निश्चय करके कर्म में प्रवृत्त होते समय एक विशेष विधि के अनुसार सभी तथ्यों की घोषणा करते हैं कि अमुक देश में, अमुक काल में, अमुक प्रयोजन से, अमुक कार्य कर रहा हूँ।
ईश्वर से जुड़ना : संकल्प उच्च शक्ति से जुड़ने और उसकी ऊर्जा के साथ स्वयं को संरेखित करने का एक तरीका है। मानव मात्र का मुख्य लक्ष्य आत्मकल्याण है और इसके लिये अनेकों मार्ग हैं। सामान्य जीवन में हम कर्म किये बिना नहीं रह सकते इसलिये हम कर्म के माध्यम से भी आत्मकल्याण प्राप्त करना चाहते हैं और इसके लिये हमें ईश्वरीय कृपा की भी आवश्यकता होती है। हम ईश्वर के साथ जुड़ना चाहते हैं, साक्षात्कार चाहते हैं, ईश्वर की कृपा चाहते हैं और यदि लौकिक सुख की कामना हो तो भी ईश्वर की कृपा चाहते ही हैं।
संकल्प काल में हम स्वाभाविक रूप से भी ईश्वर से संबंध स्थापित करने का प्रयास करते हैं, स्मरण करते हैं। पुनः कर्म काल में भी हमें यह संकल्प से ही ज्ञात होता है कि अभी कर्म पूर्ण हुआ है अथवा नहीं और जब तक संकल्पित कार्य पूर्ण नहीं करते तब तक विकारों से मुक्त रहते हुये ईश्वर से जुड़े रहने का प्रयास करते हैं।
दैनिक संकल्प के लाभ
आध्यात्मिक साधना को सुदृढ़ बनाना : जब किसी आध्यात्मिक अनुष्ठान की इच्छा को कर्म रूप में व्यावहारिक आचरण देने के लिये तत्पर होते हैं तो उसके पूर्ण होने तक दृढ निश्चयी होना आवश्यक होता है और यह शक्ति हमें संकल्प से प्राप्त होती है। जब हम प्रतिदिन संकल्प करते हैं तो उसे पूर्ण भी करते हैं और इससे दिनानुदिन हमारी इच्छाशक्ति दृढ़ होती जाती है।
सचेतनता और एकाग्रता को बढ़ावा देना : आध्यात्मिक आचरण का मुख्य उद्देश्य आत्मकल्याण करना होता है किन्तु पूजा-अनुष्ठानों में लौकिक लाभ भी रहते हैं। नित्यकर्म का मुख्य उद्देश्य नित्य पापों का शमन पूर्वक तपना है, जिससे चैतन्यता की भी वृद्धि होती है। आत्मकल्याण के लिये हमें चैतन्यता व एकाग्रता के चरमोत्कर्ष की आवश्यकता होती है और इसके लिये संकल्प अनिवार्य होता है। संकल्प रहित कर्मों में हम एकाग्र नहीं रह सकते।
सकारात्मक परिवर्तन लाना : अपनी आकांक्षाओं को साकार करने और उद्देश्यपूर्ण जीवन बनाने के लिए संकल्प एक साधन है। हम अपने जीवन में सकारात्मक परिवर्तन चाहते हैं और किसी भी प्रकार के परिवर्तन हेतु उसकी इच्छा को मूर्त्तस्वरूप में परिवर्तित करना अनिर्वाय होता है और इच्छा-आकांछाओं को मूर्त्तस्वरूप प्रदान करने के लिये दृढ निश्चय पूर्वक विहित आचरण करना आवश्यक होता है जिससे सकारात्मक परिवर्तन होता है।
एक शक्तिशाली संकल्प का निर्माण
संकल्प के शब्दों का सावधानीपूर्वक चयन : शक्तिशाली संकल्प के लिये शास्त्रों में कुछ विशेष निर्देश प्राप्त होते हैं, जिसके अनुसार देश, काल, आत्म वर्णन करना आवश्यक होता है। देश और आत्मवर्णन तो सामान्य ही रहते हैं, यदि देशभेद हो तो ही देश में परिवर्तन होता है अन्यथा नहीं। किन्तु काल वर्णन में व्यापक सावधानी की आवश्यकता होती है इसके लिये पंचांग का ज्ञान होना भी आवश्यक होता है।
इसके साथ ही कर्मानुसार तिथ्यादि उल्लेख में भी तात्कालिक और औदयिक दोनों प्रकार के भेद प्रशस्त होते हैं एवं इसके लिये पर्याप्त सावधानी आवश्यक है। जहां तात्कालिक तिथ्यादि की आवश्यकता हो वहां तात्कालिक तिथ्यादि का ही उल्लेख करना चाहिये एवं जहां औदयिक तिथ्यादि (व्रतादि में) की आवश्यकता होती है वहां औदयिक का ही ग्रहण करना चाहिये।
अपने लक्ष्यों पर ध्यान केंद्रित करना : अपनी पूजा पद्धति के माध्यम से आप किन विशिष्ट आकांक्षाओं/फलों को प्राप्त करना चाहते हैं, संकल्प में इसको स्पष्ट रखना आवश्यक होता है। वास्तव में इसे काम कहा जाता है जिसे कामना भी कहते हैं। हम जो कर्म करने जा रहे हैं उसका फल क्या-क्या होता है और हमारी क्या कामना है, संकल्प में इसका भी स्पष्ट उल्लेख होना आवश्यक होता है। यथा यदि कामना पुत्र प्राप्ति है तो पुत्र प्राप्ति वाले कर्म में प्रवृत्त होते हुये संकल्प में इसका उल्लेख करना एवं ऐसी भावना रखना, ऐसा विश्वास रखना भी आवश्यक होता है। संकल्प में उल्लेख होने से ध्यान विशेष कामना/लक्ष्य पर केंद्रित होता है।
कृतज्ञता और भक्ति व्यक्त करना : पृथक-पृथक कर्मों के देवता भी पृथक-पृथक होते हैं, कर्म के फल में देवताओं की कृपा का भी विशेष महत्व होता है और इसीलिये गीता में कहा गया है “कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन”, अधिकार कर्ममात्र में ही होता है फल में नहीं, फल में देवता की कृपा का भी महत्व होता है। दैवीय कृपा प्राप्त हो तो अल्पप्रयास से भी अधिक फल की प्राप्ति हो सकती है और न होने पर दुष्कर कर्म करके भी अत्यल्प। इसलिये संकल्प में अधिष्ठात्री देवता के प्रति कृतज्ञता का भाव, भक्ति रखते हुये कृपा का भाव भी अवश्य ही रखना चाहिये।
संकल्प को दैनिक अभ्यास बनाएँ
संकल्प को अपनी दिनचर्या में सम्मिलित करें : संकल्प का महत्व समझने के पश्चात् यह भी आवश्यक है कि हम नित्यकर्मों में भी संकल्प का प्रयोग करते रहें। यहां दिनचर्या कथन का तात्पर्य वास्तव में नित्यकर्म ही है। संकल्प के महत्व को समझते हुये भी यदि हम इसे नित्यकर्म में स्वीकार नहीं करेंगे तो यह हानिकारक होगा क्योंकि यदि काम न हो अर्थात निष्काम हो चुके हों तो भी संकल्प करना आवश्यक ही होता है। सकाम कर्मों में तो संकल्प की अनिवार्यता होती ही है।
इसके अतिरिक्त अन्यान्य व्यावहारिक कर्मों में भी इसका अभ्यास होने से लाभान्वित होते हैं। क्योंकि संकल्प से ही हमारा निश्चय दृढ होता है। व्यावहारिक कर्मों में भले ही शास्त्रोक्त विधि से संकल्प की आवश्यकता नहीं होती है तथापि व्यावहारिक विधि से तो होती ही है। यथा सेवा-व्यवसाय आदि कुछ भी व्यावहारिक कर्म करते हैं तो उसके लिये भी दृढ निश्चय अनिवार्य ही होता है कि अमुक स्थान पर, अमुक काल में, अमुक मात्रा में कार्य करना है।
दैनिक संकल्प के लिए व्यावहारिक सुझाव
संकल्प पुस्तिका का उपयोग : संकल्प को अधिक गंभीरता से समझने के लिये यह आवश्यक है कि नित्य कर्मों में भी प्रयोग करें। इसके लिये प्रारम्भिक काल में दैनिक पुस्तिका का उपयोग करना आवश्यक होता है। यह विषय सामान्य जनों के लिये उपयोगी है, कर्मकांडी तो अभ्यस्त होते हैं। संकल्प के वाक्य में पञ्चाङ्गानुसार प्रतिदिन परिवर्तन करना होता है और इसके लिये यदि प्रारंभिक काल में दैनिक पुस्तिका का प्रयोग करें तो अधिक लाभकारी रहता है।
अपने संकल्प पर चिंतन करें : अपने संकल्पों की समीक्षा करने के लिए भी समय निकालें और देखें कि वे आपके जीवन में कैसे प्रकट हो रहे हैं। इच्छायें निरंतर प्रकट होते ही रहते हैं, हमारी इच्छायें/कामनायें सकारात्मक हो, सात्विक हो, कल्याणकारी हो यह आवश्यक है। और इसके लिये यह भी आवश्यक है कि उनका चिंतन भी करते रहें, समीक्षा भी करते रहें।
हम सभी यह तो बोलते हैं विश्व कल्याण, विश्व में शांति, राष्ट्र-समाज-परिवार आदि में शांति, सुखी जीवन किन्तु इसके लिये हमारी कामनाओं को सकारात्मक होना चाहिये इसका ध्यान नहीं रखते और फिर ऐसा कुछ घटित होता हुआ भी नहीं दिखता। ऐसा घटित भी हो इसके लिये यह आवश्यक है कि हम अपने संकल्पों, उसके फलों आदि का सम्यक चिंतन भी करते रहें।
सामान्य दैनिक संकल्प
आपके उपयोग के लिये हम यहां दैनिक संकल्प भी दे रहे हैं जो प्रतिदिन मध्यरात्रि में अद्यतित भी होता रहता है, अर्थात यदि आप पुस्तिका नहीं भी रखते हैं तो भी इसके आधार पर प्रतिदिन का दैनिक संकल्प कर सकते हैं। इसमें आत्मवर्णन और कर्मवर्णन स्वयं के अनुसार करेंगे, कामनाओं में यथाकामना परिवर्तन भी कर सकते हैं।
क्या संकल्प ही कर्म का आरंभ होता है
हमारे मन में यह प्रश्न आना स्वाभाविक है क्या संकल्प ही कर्म का आरंभ होता है, क्योंकि सभी कर्मों का आरम्भ तो संकल्प से ही करते हैं। यहां धर्माचरण (यज्ञादि) के संबंध में हमें शास्त्रों के प्रमाण से समझना आवश्यक है कि क्या सभी कर्मों का आरंभ संकल्प ही होता है :
आरम्भो वरणं यज्ञे सङ्कल्पो व्रतजापयोः । नान्दीश्राद्धं विवाहादौ श्राद्धे पाकपरिक्रिया ॥
यहां यह स्पष्टरूप से कहा गया है कि यज्ञ का वरण (ब्राह्मण वरण) से, व्रत-सत्रादि का संकल्प से, विवाहादि कर्मों का नान्दीश्राद्ध से और श्राद्ध का आरंभ पाक से होता है।
इस प्रकार यह स्पष्ट हो जाता है कि सभी कर्मों का आरंभ संकल्प से मान्य नहीं है और इसका प्रयोजन विघ्नादि (अशौचादि) के निमित्त है। अर्थात यदि कर्म का आरम्भ हो चुका है तो उसका सम्पूर्ण होना भी आवश्यक है एवं अशौचादि विघ्न के उपस्थित होने पर भी वाध नहीं होगा अर्थात कर्म को करते रहेंगे।
कर्मकांड विधि में शास्त्रोक्त प्रमाणों के साथ प्रामाणिक चर्चा की जाती है एवं कई महत्वपूर्ण विषयों की चर्चा पूर्व भी की जा चुकी है। तथापि सनातनद्रोही उचित तथ्य को जनसामान्य तक पहुंचने में अवरोध उत्पन्न करते हैं। एक बड़ा वैश्विक समूह है जो सनातन विरोध की बातों को प्रचारित करता है। गूगल भी उसी समूह का सहयोग करते पाया जा रहा है अतः जनसामान्य तक उचित बातों को जनसामान्य ही पहुंचा सकता है इसके लिये आपको भी अधिकतम लोगों से साझा करने की आवश्यकता है।